(1). आ० मोहम्मद आरिफ जी
चिंता
.
." तुम्हारे गाँव की अनुमानित आबादी कितनी है ?"
" जी साब , यही कोई तीन-चार हजार के करीब ।"
" हूँ..हूँ....।"
" स्कूल है ?"
" जी साब , तीन प्रायवेट स्कूल और एक सरकारी हायर सेकण्डरी स्कूल है जिसका हर साल परिणाम बहुत अच्छा आता है । स्कूल पूरे समय लगता है ।"
" वाह ! क्या बात है । स्वास्थ्य केंद्र है ?"
" जी साब, टीकाकरण भी होता है और शहर से डाक्टर साब भी आते हैं ।"
" और क्या -क्या है तुम्हारे गाँव में ?"
" पक्की सड़क , आँगनवाड़ी , सार्वजनिक शौचालय , बीज केंद्र , सहकारी साख समिति सबकुछ है साब ।"
" मतलब विकसित गाँव है ।" उसने बड़े आश्चर्य से कहा ।
" हाँ साब , मगर गाँव में इन सबका बुरा असर पड़ा है ।
" वो क्या ?"
" गाँव तो विकसित हो गया लेकिन सभी अपने-अपने में सिमट गए । अकेलेपन और अहंकार की बीमारी घर-घर में फैल गई । बस यही चिंता हमें खाई जाती है । "
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(2).आ० बबीता गुप्ता जी
ढाक के तीन पात'
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महिला कल्याणकारी योजनाओं से हुये सामाजिक उत्थान व महिलाओं की स्थिति में आशाजनक सुधार होने पर लाभान्वित समूह की प्रधान और महिलाओं को सम्मानित किया जा रहा था।अंतिम मे अतिथि महोदया ने सम्बोधित किया- 'मेरी आदरणीया बहनों, आप ना केवल शिक्षित हुई, बल्कि आत्मनिर्भर होकर , एक नई सोच विकसित कर रही है।समजात को आगे बडा, अपने आप की स्वामिनी है।बदलाव की दृढ संकल्प शक्ति से ही आपको अब्बल दर्जा प्राप्त हुआ है।बोलिए, मेरे साथ- 'हम बहू नहीं, बहुमत हैं.'
सभी ने जोरशोर से अपनी वाहवाही मे नारे लगाए।कामयाबी के तारीफों के पुल बंधते सुन आपस मे चर्चा करने लगी।
'सरकार ने कितना ध्यान रखा महिलाओं का? नही तो, चूल्हा फूंकते- फूंकते पूरी जिंदगी गुजर जाती.'
'और नही तो का, हमे काहू से भीख ना मागंन पढे, सो धन्धा करने के लिए रूपया उधार देती हैं.'
'हाँ, सही बात है, वो रूपया हमार लाने बहुत काम का है. मिले रूपये से अपनी गाहन रखी खेती छुडवा ली, नही तो पेट कैसे पालते?'
'हाँ, हमनें भी, उन रूपयों से ननद रानी के पीले हाथ कर दिए. हाथ में ये रूपया नही होता तो इस साल भी घर बैठी रहती.'
'सौ टका की साची बात कहत हो बहिन!धन्धे का क्या? अगली दफा, फिर किसी धन्धे के नाम रूपया उठाई लेवे.'
'हाँ. .... हाँ. ...सही तो है! कौन पूछ- परख जांच पडताल करने घर घर आ रहो'?'
'लेकिन. ...तब भी.....कही पकडे ..,...'
'वासे अपनो का कौन सा लेना- देना......मेडम जाने, उनका काम जाने.'
'और नहीं तो क्या? अपने पैर पर खडे होने का ढप्पा तो लग ही गयो...सही कही ना.'और सब अपने अपने प्रमाण पत्रों को देख विजयी हसी हसने लगी।
चर्चा सुन , सोच में पड गई, थोथे महिला उत्थान व विकास के नाम पर मुख्य धारा से केवल कागजों में ही दर्ज हुई है. वास्तव में, अधिकांशतः यथास्थिति जस की तस, वही ढाक के तीन पात. .... बनी हुई हैं,घरवालों के लिए वही काम निकालने वाली मोहरा बनी हुुुई.....
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(3). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
ख़ुदा ख़ैर करे
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"दाढ़ी-मूंछों और कपड़ों से तो तुम काफ़ी पढ़े-लिखे मुसलमान ही लग रहे हो! आज किसको वोट दे आये? मस्जिद-तरफ़दारों को या तुम लोगों का तुष्टिकरण करने वालों को या लहर वालों को?" रेलगाड़ी में बैठे सहयात्री से एक सूट-बूट वाले यात्री ने पूछा।
"किसको वोट देता? 'विवादित और मज़हबी' बनाये गये 'ख़ूबसूरत पैग़ाम' देने वाले किसी ख़ूबसूरत फूल को या इंसान के बदनाम कर दिये गये एक अहम 'कर्मशील अंग' को? ग़रीब के किसी वाहन को या बदनाम किये गये किसी पशु को?... या हम पर थोपे गए किसी और लुभावने चुनाव-चिन्ह को?"
"सीधे-सीधे बता दो भाई! नेताओं की तरह पहेलीनुमा जवाब मत दो! पार्टी या प्रत्याशी का नाम बताओ, जिसे तुमने अपना क़ीमती वोट दिया?" उस दाढ़ी-मूंछों वाले के माथे की लकीरें देखते हुए वह बोला।
"पहेली तो मतदाता बन गये और उनकी ज़िन्दगी, जनाब! कौन किस तरफ़ कब बहक जाये, कौन कब बिक जाये, किसका कट्टर मज़हबी रुझान कब जाग जाये, कुछ पता नहीं चल पाता उनके उलझे, दोगले या नीरस रवैए से!"
"बातें मत फेंको भाई! सीधे-सीधे कहो न कि आख़री वाला बटन दबाकर आये, नोटा (N.O.T.A.) वाला!"
"तो क्या हम मुसलमानों को मूर्ख ही समझ रखा है आपने? अरे, उम्मीद, आस्था और विश्वास पर लोकतंत्र टिका हुआ है, तो मतदाता भी उम्मीद के साथ ही किसी न किसी उम्मीदवार को ही वोट देगा न... उम्मीद दिलाने वाली पार्टी को!" दाढ़ी-मूंछों वाले यात्री ने कुछ मूंगफलियां उसकी हथेली में डालते हुए कहा और कुछ मूंगफली-दानों में थोड़ा नमक मिलाकर चबाने लगा।
"हां, सही कहा तुमने! 'नोटा' चुनने से कोई मनचाहा चुनाव-नतीज़ा तो मिलने वाला नहीं! लेकिन एक बात तो है! तुम हिंदी बहुत अच्छी बोल लेते हो, मुस्लिम होते हुए भी! क्या अपनी भाषा 'उर्दू' नहीं सीखी?
"सच्चा हिन्दुस्तानी हूं! हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है! लेकिन उर्दू मुस्लिमों की नहीं, हम हिंदुस्तानियों की ही भाषा है; यहीं पलीऔर बढ़ी! लगता है आप पर भी यहां की नकारात्मक राजनीति का असर कुछ ज़्यादा ही है! इस जम्हूरियत में सब कुछ हम सबसे, हम सबका है! वोट भी मैंने उसी दल को दिया, जो जम्हूरियत का सशक्तिकरण कर सके, भाई!"
"नेक ख़्याल वाले तो लगते हो तुम, लेकिन अबकी बार माहौल, लहर और यंत्र-तंत्र क्या रंग दिखाते हैं, देखते हैं!" दाढ़ी-मूंछों वाले को ऊपर से नीचे तक आश्चर्य से देखते हुए उसने कहा।
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(4). आ० कनक हरलालका जी
नई राह
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'चटाक ...'
लात घूंसों की बौछार के बीच कमला ने कहा ," अरे , अब आज हम का किए हैं जो आते ही शुरू हो गए ..।"
" यही.... यही ..किए हो । जब से उस नए घर में ,उस पढ़ाई लिखाई वाली मेम साहब के घर में काम पकड़ी हो न , तब से देख रहे हैं बहुत नेतगिरी का भुतवा चढ़ गया है , उलटा जबाब देना सीख गई हो , ठहरो ,हम अभी तोहार भूत उतारत हंईं ।"
" अरे ,हम सारा दिन खट कर तुम लोगन के पेट भरत हैं ,घर चलावत हैं ,सराब जुगाड़त हैं ,अउर फिर भी तुम लोगन के हाथ हमार हाड़ तोड़त है । नाहीं जाई काल से काम पर ,देखें कैसे चलत है ।"
कुछ सहमे से रमुआ ने फिर हाथ उठाया था कि आस पड़ोस की सभी औरतों ने जिसके हाथ में जो लगा लेकर धनाधुन रमुआ को पीट रस्सी से बांध डाला । कहराते हुए जमीन से उठती हुई कमला विजय भरे उत्साह से शाम को बनायी योजना की सफलता पर सभी औरतों को कृतज्ञता भरी मुस्कुराती नजरों से देख रही थी।
तभी वहाँ जमा तमाशा देखती भीड़ भी, जिसमें पुरुष वर्ग प्रमुख था अपने अपने घर की तरफ आपस में बातें करती हुई लौट पड़ी , "चलो भई,सब अपने घर लौट चलें ,अब तो हमें भी अपने हड्डियों की खैर के रास्ते पर चलने की जुगत जो करनी पड़ेगी।"
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(5). डॉ टी आर सुकुल जी
मेड इन इन्डिया
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‘‘ चलो अच्छा हुआ, सरकार ने बच्चों के बस्ते का बोझ डेड़ से पाॅंच किलो तक निर्धारित कर दिया। ’’
‘‘ हाॅं, शायद हल्का बस्ता लेकर अब वे उड़ने लगेंगे।’’
‘‘ क्या मतलब?’’
‘‘ सरकार को आभास हो गया था कि हम भारी बस्ता उठाने वाली कौम ‘बौनों’ को जन्म दे रहे हैं।’’
‘‘ आखिर तुम क्या कहना चाहते हो?’’
‘‘ यही, कि सरकारें सत्तर साल से आज तक यह पता नहीं लगा पाई हैं कि बस्तों में रखी पुस्तकें ज्ञान भी दे पाती हैं या केवल जानकारियाॅं। परीक्षा में अधिकतम अंक लाने की स्पर्धा में सहपाठी की पीठ पर पैर रखकर कैसे बढ़ा जाय बस यही सिखाना रह गया है अब तो। कुकुरमुत्तों की तरह यत्र तत्र ऊगे ट्रेनिग कालेजों से जिस प्रकार के शिक्षक निकल रहे हैं यह भी सरकारों का नया कमाल है। ’’
‘‘ यार बात तो तुम्हारी बिलकुल सही है, बार बार पाठ्यक्रम बदला जा रहा है, हर शहर और कस्बे की दीवारों पर कोचिंग क्लासों के विज्ञापन लगे हैं। भारत के निर्माता, स्कूलों कालेजों में नियुक्त पूर्णकालिक शिक्षक, वहाॅं केवल समय निकालते हैं और अलग से कोचिंग क्लासों में यही दावपेंच सिखाते देखे जाते हैं।’’
‘‘ शायद यही कहलाता हो, मेक इन इन्डिया।’’
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(6). आ० राजेश कुमारी जी
‘संवेदना’
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“ठीक है ठीक है यार सलेक्शन हो तो जाय इस बार पार्टी जहाँ कहेगा दूँगा मेरे लिए दुआ कर| पर भगवान के लिये गाड़ी तेज चला “ कहकर हेमंत फिर अपने इंटरव्यू लेटर को देखने लगा। जिस पर बड़े बड़े बोल्ड अक्षरों मेंएशियन स्टार कम्पनी लिमिटेडलिखा था|
.हिच्च घिरर्र्र ...करके गाड़ी में अचानक ब्रेक लगने से हेमंत उछल पड़ा
“क्या हुआ यार?”
कहकर कर जैसे ही उसने बाहर देखा उनके थोड़े ही आगे एक बड़ी सी सफ़ेद कार डिवाईडर से टकरा कर रुक गई बगल से निकलते हुए उन्होंने देखा एक बुज़ुर्ग के सर से खून बह रहा था और वो छटपटा रहा था
“गाड़ी रोक मोहित”
“क्यों? तू क्या कह रहा है? लेट हो रहे हैं तेरा इंटरव्यू? “
“वो बाद में देखेंगे” बीच में ही मोहित की बात काटता हुआ हेमंत बोला |
“तू गाड़ी रोक”
“सोच ले हेमंत फिर क्या होगा हो सकता है पुलिस केस हो “
“मुझे परवाह नहीं तू गाड़ी रोक” कहते हुए धीमी हुई गाडी से ही तुरंत उतरकर हेमंत ने उस वृद्ध को अपनी गाड़ी में पिछली सीट पर लिटा दिया और जल्दी ही मैक्स हॉस्पिटल पँहुच गये | हॉस्पिटल में डॉक्टर को सब बातें बता कर अपना नाम नम्बर नोट करवाकर वो फिर इंटरव्यू के लिए चल पड़े | वहाँ पंहुचते ही उनके संशय के विपरीत अफरातफरी का माहौल मिला सब बाहर आ रहे थे
मोहित बोला,
“देख लिया अंजाम सब खत्म हो चुका”
तभी वहाँ के किसी कर्मचारी ने आकर बोला
“इंटरव्यू पोस्टपोन हो गया अब अगली डेट आप लोगों को इमेल से सूचित कर दी जायेगी “ सुनते ही हेमंत ने राहत की साँस ली| घर की ओर वापस जा ही रहे थे कि हॉस्पिटल से उसी डाक्टर का फोन आ गया और तुरंत होस्पिटल आने को कहा|
“लगता है ऊपर चला गया बुड्ढा, मैंने कितना समझाया था तुझे अब काट पुलिस के चक्कर “
दोनों जैसे ही वहाँ पँहुचे तो डॉक्टर ने अपने ऑफिस में बैठे एक जेंटलमैन मैन को इशारा किया और कहा,
“ये हेमंत है जो आपके फादर को यहाँ लाया था और हेमंत ये हैं स्टार कम्पनी के हेड जहाँ तुम्हारा इंटरव्यू था “
आगे बढ़कर हेड ने हेमंत को गले से लगा लिया और कहा “आज तुम्हारी वजह से मेरे पापा बच गये
तुमने अपने इंटरव्यू के बारे में एक बार भी नहीं सोचा? “, रीयली यू आर ग्रेट यंगब्वाय”
“सोचा था सर परिणाम और फ़र्ज़ के बीच जद्दोजहद भी हुई किंतु परिणाम की चिंता मेरे फ़र्ज़ और संवेदनाओं से हार गई “
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(7). आ० अनीता शर्मा जी
स्वाति जब दसवीं कक्षा में थी तभी उसकी माँ का देहांत हो गया था. पिता तो माँ थी तभी से शराब के आदी थे. स्वाति और उसके छोटे भाई-बहिन पर पिता ने कभी ना ध्यान ही दिया और ना ही कभी अपना स्नेह उंडेला. अधिकतर रिश्तेदार स्वाति की माँ का तीसरा करके जा चुके थे और जो बहुत करीबी माने जाते थे वे बारहवाँ होते ही रवाना हो गए थे. पड़ौसी सोचने लगे कि अब शायद पिता की आदतों में कोई अंतर आये, लेकिन नहीं...वो तो और ज्यादा पीने लगे थे.
अब स्वाति ही अपने पिता और छोटे भाई बहिन का ध्यान रखती, उनका खाना बनाती, स्कूल भेजती और खुद ने भी अपनी पढ़ाई जारी रखी. मकान का किराया आने से घर का खर्च अच्छे से चल रहा था. एक दिन ज्यादा शराब पीने से स्वाति के पिता की तबियत अचानक बहुत ख़राब हो गई. डाक्टर ने अस्पताल में भर्ती होने को कह दिया. अब समस्या यह थी कि पिता के पास अस्पताल में कौन रहे, छोटे भाई-बहिन को अकेले घर भी नहीं छोड़ सकती थी और अस्पताल में भी नहीं. सो तीनों भाई बहिन एक साथ रह कर पिता की सेवा में लग गए. सभी छोटे-छोटे बच्चों को अपने पिता की दिलो-जां से सेवा करते देखते तो स्वाति के पिता से कहते... आप बहुत भाग्यशाली हो जो आपके इतने अच्छे बच्चे हैं. इनकी सेवा का ही परिणाम है कि आप पुनः स्वस्थ हो सके हैं...... स्नेह के साथ बच्चों को निहारते पिता की आँखों में बच्चों के सुखद भविष्य के सपने मोती बनकर झिलमिला उठते.
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(8). आ० अजय गुप्ता जी
चलो कोई बात नहीं
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हॉस्पिटल का लेबर रूम। और उसके बाहर का बेंच और उस बेंच के ठीक ऊपर लगी एक तख़्ती। जिसपर लिखा है “लड़का-लड़की एक समान”। ये तख़्ती मैं हूँ।
और मैंने देखा है लेबर रूम के अंदर के परिणाम से बाहर की प्रतिक्रिया को प्रभावित होते। ख़बर आते ही कभी कोई बेंच से उछल पड़ता है और कभी कोई धम्म से उसपर गिर पड़ता है।
आज भी मैंने दो डिलीवरी देखी। दोनों संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की। दोनों की ही पहली संतान। दोनों के परिवारवाले जच्चा-बच्चा के स्वस्थ होने की कामना की ही बातें कर रहे थे। दोनों के परिजनों की बातों से पता चलता था कि लड़का-लड़की जो भी हो, दोनों समान हैं।
--पहली वाली के लड़का हुआ। बधाइयां दी जाने लगी। तुरत-फुरत में मिठाई का डिब्बा भी आ गया। फ़ोन किये जाने लगे। उल्लास फैल गया। दादी बोली “चलो, आगे की चिंता मिटी”।
--दूसरी वाली को लड़की होने की ख़बर आई। ग़म तो किसी को न था। पर उल्लास और मिठाई नहीं थी। दादी ने कहा “चलो कोई बात नहीं। आजकल क्या फ़र्क़ है लड़के-लड़की में”।
चलो कोई बात नहीं!! क्या वाक़ई?
और मेरा मन मुझे थामने वाली कीलों से निकल कर फर्श पर पसर जाने को कर रहा था।
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(9. आ० विनय कुमार जी
कैसी माफ़ी
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पूरे घर में तनाव का माहौल था, पिछले दस दिन से घर का कोई भी व्यक्ति अपने आप को उस घटना से उबार नहीं पाया था. ड्राइंग रूम में रौशनी के माता पिता और एक पुलिस अफसर गंभीरता से बैठे हुए सोच विचार कर रहे थे. घर के अंदर रौशनी एक कमरे में बदहवास हालत में पड़ी हुई थी और उसका भाई जिसे अंदर ही रहने की ताकीद की गयी थी, वह भी दूसरे कमरे में उदास बैठा था.
कुछ ही देर में वह लड़का ड्राइंग रूम में आया जिसका इंतज़ार सभी लोग कर रहे थे. उसके पीछे पीछे उसके पिता भी थे और दोनों के चेहरे उड़े हुए थे. कमरे में घुसते ही सबने उनपर निगाह डाली और दोनों पास के सोफे पर चुपचाप बैठ गए.
"तो क्या सोचा है तुम लोगों ने", पुलिस अफसर ने कड़कती आवाज़ में पूछा.
लड़के ने डरते हुए अपनी निगाह उठायी और बोला,
"सर मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ और रोशनी से शादी करने के लिए तैयार हूँ".
उसके पिता ने भी सहमति में अपना सर हिलाया. पुलिस अफसर ने रोशनी के पिता की तरफ देखा और उनको समझाने के लहजे में बोला "मुझे लगता है आपको इसकी बात मान लेनी चाहिए, आखिर आज दस दिन बाद यह वापस तो आ गया है, वर्ना इसे हम कहाँ कहाँ ढूंढते. और इसके शादी कर लेने से लड़की और आपके परिवार की प्रतिष्ठा भी बच जाएगी".
रोशनी के माता पिता को भी इससे बेहतर कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. पिछले दस दिनों में उन लोगों ने समाज का वह रूप भी देख लिया था जिसकी वह कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे.
'ठीक है, अगर यह अपनी गलती सुधारने के लिए तैयार है तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं है. बस एक बार रौशनी को भी पूछ लेते हैं, फिर आगे बात करते हैं", रौशनी के पिता ने मद्धम आवाज में कहा. रौशनी की माँ अंदर जाकर रौशनी को बुला लायी और सबके सामने उससे भी पूछा गया "बेटा रौशनी, इस लड़के ने अपनी गलती मान ली है और तुम लोग एक दूसरे को पहले से जानते भी हो. अब यह शादी के लिए कह रहा है तो तुम भी हाँ कर दो, सारी चीजों पर पर्दा पड़ जाएगा और समाज में भी कोई दिक्कत नहीं होगी".
रौशनी ने अपना सर उठाया और गुस्से से कांपते हुए लड़के के मुंह पर थूक दिया. फिर चीखते हुए बोली "इस हैवान को माफ़ करके इसके साथ शादी कर लूँ, इसपर भरोसा करके ही उस पार्टी में गयी थी और इसने मेरी इज़्ज़त को तार तार करने में एक बार भी नहीं सोचा. ऐसे गलीज़ और हैवान लोगों के लिए माफ़ी जैसा शब्द होना ही नहीं चाहिए. मेरे एफ आई आर के आधार पर इसे गिरफ्तार कीजिये, इसको इसकी नीचता का परिणाम भुगतना ही होगा".
ड्राइंग रूम में मौजूद हर व्यक्ति अवाक था, रौशनी उठकर वहां से जा चुकी थी.
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(10). आ० अर्चना त्रिपाठी जी .
कैरियर
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कभी स्कूल से कभी कोचिंग से फोन आता कि आज भी अक्षत नही आया।बारहवीं जैसी जीवन को दिशा देने वाली क्लास को भी वह गम्भीरता से नही ले रहा था।स्वाति बेटे की हरकत से परेशान थी।क्या करे ? कैसे समझाए बेटे को ? इन्ही प्रश्नों में उलझी बिफर पड़ी अक्षत पर :
" क्यों कर रहे हो ऐसा ? आखिर चाहते क्या हो तुम ? "
" नही मन करता पढ़ने का "
" क्या करोगे अपने जीवन के लिये ?"
" जो करना चाहता था , आपने करने नही दिया। आगे का मुझे पता नही। "
" मतलब क्या हैं तुम्हारा ? सबकुछ तो कर रही हूँ तुम्हारे मन के अनुरूप। तुम्हारी पढ़ाई और उज्जवल भविष्य के लिए ही हम यहाँ रह रहे हैं।"
" नही माँ आप अगर मेरे लिये करती तो मैं क्रिकेट के मैदान पर होता।"
बेटे के शब्द उसे तीर की तरह बेध गए वह अश्रुओं में तैरती अतीत में विचरण करने लगी।जब बेटे ने क्रिकेट प्लेयर बनने का प्रस्ताव उसके समक्ष रखा था। पति गम्भीर बिमारी से सांसो के लिए और वह भरे जहां में अपने अकेलेपन से लडती जीत गई थी। अगले ही पल अतीत के निर्णय से वर्तमान में आये विपरीत परिणाम को मात देने के लिए कमर कसते हुए कहा :
" बेटा , इच्छाएं अनंत हैं जिनकी पूर्ति सम्भव नही। फिर कोई जरूरी तो नही की शौक को ही कैरियर बनाया जाय। "
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(11). आ० मोहन बेगोवाल जी
बदलते परिणाम
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कुछ रोज़ से महेंद्र उदास-सा था न घर और न ही दफ्तर में उस का मन लग रहा था। उसे पता नहीं लग रहा था। आगे जब कभी साहिब मुझे उदास देखता तो कमरे में बुला कर कहता, " बता क्या बात है, पैसे चाहिए और साहिब का हाथ जेब की तरफ जाता और वह पैसे निकाल कर दे देते। "
पर इस बार उसे ये समझ नहीं आ रहा था कि साहिब इस बार मेरी तकलीफ को समझते हुए भी अनजान क्यूँ बन रहें हैं, उस को भी लगा कि इतनी बड़ी रकम का जोखिम और कोई नहीं उठाएगा।
महेंद्र को पता नहीं चल रहा था कि अब वह क्या करें, उस के लिए इतनी बड़ी रकम के लिए और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
पिछली बार पैसे देते हुए साहिब ने कहा था की, "मुझे पता नहीं चलता कि क्यूँ इतने पैसे फक्शन पर खर्च करते हो जितने पैसे तूने उस दिन खर्च किया वह तेरी तीन महीने की तनख़ाह के बराबर थी, बता ये हिसाब किताब आप कैसे पूरा करोगे और उम्र भर करजाई बने रहोगे। "
इस बार ये बात बताने पर भी की उसने माँ की वर्षीय मनानी है साहिब दिल नहीं पसीजा था।
शाम ढलने को थी, सभी कमरों को ताला लगा दिया गया, साहिब अपने कमरे में बैठा अभी काम कर रहा था।
महेंद्र ने धीरे से कमरे में झाँका।
"महेंद्र क्या बात है?"
सर जी, कुछ नहीं
"बात तो है, मगर इस बार तेरी बात मेरे दिल तक नहीं पहुंच रही, इस को मेरी सोच ने पकड़ लिया है। "
दिल से बात दिमाग तक आ गई है,। सोचता हूँ दिल के साथ दिमाग तक का सफर तू भी करे, इस लिए मैं इस बार तेरा मसला हल नहीं कर पाऊँगा।"
साहिब ने बैग पकड़ा और बाहर को चल पड़ा।
तब महेंद्र के मन में पहले तो गुस्सा आया मगर बाद में उस ने खुद को कहा, "क्यूं न वह साहिब व इन दकियानूसी रवायतों का साथ व सहारा भी छोड़ दूँ, और ताला लगाने लगा ।
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(12). आ० मनन कुमार सिंह जी
आटा
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जाँता( चक्की) चल रहा था।आटा नहीं निकल रहा था।या निकलता भी तो बहुत कम।बहू परेशान थी।चक्की चलाते-चलाते दम निकला जा रहा था।चँगेली का गेहूँ खत्म होने वाला था।सास बीच-बीच में आकर हुलक जाती।एक तिरछी-सी मुस्कान फेंक चली भी जाती,बिना कुछ कहे।बहू पहले सोचती थी कि उसे चक्की चलाते देख सासू माँ ठिठोली वाली हँसी हँस रही थीं।पर जब से बाकी बचे गेंहूँ पर उसका ध्यान गया था,वह खासा परेशान थी,उद्विग्नता की सीमा तक;कि गेंहूँ के दाने क्या हुए का,वह क्या जबाब देगी।आटा तो बस थोड़ा-सा ही हुआ है।और गेंहूँ के दाने जैसे हवा में फू हो गए हों।गिने-चुने बचे थे,जिन्हें चुन-चुन कर वह जाँता के हवाले कर रही थी।
-हो गया क्या बहूरानी?' सास की मीठी-चुपड़ी आवाज ने उसका ध्यान भंग किया।
-जी माँजी, बस होने ही वाला है।
-जल्दी कर।रोटियाँ भी तो बनेंगी।
-जी।' बहू इतना ही कह पायी।गेहूँ के एक-एक दाना चुनकर बहू ने अंतिम झींक(मुठ्ठी भर गेहूँ) जाँता में डाला।कुछ देर पाट को घुमाती रही।अब चँगेली(डलिया)खाली थी,और आटा नदारद।यानी डेढ़ किलो गेहूँ से महज पाव किलो के आसपास आटा हुआ था।वह भयातुर थी कि शायद पिसाई में कोई खोट आ गई जिसके चलते ऐसा हुआ है।
-क्या हुआ री?आटा लेकर आ ना।रोटी कब बनेगी?जब जेवने आने लगेंगे,मर्द लोग?'सास की झन्नाटेदार आवाज से वह सहम गई।सोच ही रही थी कि क्या करे,कि सासू माँ हाजिर हो गईं।
-ला दे आटा।मैं गूँथ लूँ।बहू मौन थी।वह कभी जाँता के आसपास पसरे आटे की रेखा को देखती,ओ कभी रिक्त हो चुकी चँगेली को।
-क्या हुआ?',सास ने टटोला।
-प्प्प प्प पता नहीं माँ ...जी',वह इतना ही कह पाई।
-आटा क्या हुआ?'
-नहीं पता।'बहू बोली।सास ने आँखें तरेड़ी।बहू ने जाँता का ऊपरवाला पाट उठाया।
-अरे यह क्या!सारे गेहूँ तो पाटों के मध्य ठुकी कील के इर्द-गिर्द के गड्ढे से अंदर जमीन में समाहित हो चुके थे।वही कुछ बचे-खुचे पिसकर आटा हुए थे।वह बोली-
-सारा कमाल इस गड्ढे का है।मुझे तो इसका पता ही न था।'
-पता करना था न तुम्हे।'सास ने चुटकी ली।
बेटा गई-आई सरकारों के वार्त्तालाप सुन रहा था,झेंपा हुआ।बहू ठगी-सी थी।सास चढ़ी जा रही थी।और वह(बेटा) बेचारी जनता की माफिक लुटे हुए खजाने पर गौर कर रहा था।उसके मुँह से स्वतः ही निकल गया---
-जय हो सरकार!'
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(13). आ० सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी
धोखा
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- "हमें दो ही तरह के लोग याद रहते हैं .......एक वे जिन्होंने किसी भी कारण से हमारे साथ कभी कोई धोखा नहीं किया और दूसरे वे जिन्होंने अकारण न जाने क्यों हमें धोखा दिया . "
" कैसी बातें कर रही हो ? लगता है किसी की किसी बात से परेशान हो ."
" नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है .बस एक ख्याल आया तो कहे बिना रह नहीं पायी . "
" वही तो पूछ रहा हुँ कि ख्याल धोखा देने वाले का आया या न देने वाले का आया ."
" इस वक्त यह सब रहने दो . बस इतना ही कहूँगी कि कष्ट कारी दोनों ही होते हैं ."
" वह कैसे . धोखा देने वाले की बात तो समझ में आती है पर न देने वाले कैसे कष्टकारी हो गए ?"
" उन पर तरस आता है कि इस फरेबी दुनिया में वे इतने भोले क्यों हैं . उनके विशवास को जब कोई ठगेगा तो उन्हें कितना बुरा लगेगा . वे उस तकलीफ से कैसे उबरेंगे ? "
उसकी इच्छा हुई कि उससे कुछ और पूछे पर उसकी हिम्मत नहीं हुई . उसे पता था कि कुछ और कहा तो वह रो देगी . वह असमंजस से बाहर आता कि उससे पहले ही वह अपनी जगह से उठी . उसके करीब आयी और उसमें लगभग सिमटते हुए बोली ,
-" देखो मेरे साथ कुछ भी करना पर कभी मुझे धोखा मत देना . मैं सहन नहीं कर पाऊंगीं ."
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(14). आ० वीरेन्द्र वीर मेहता जी
"अस्वीकृति का दंश"
.
"क्या आपको नहीं लगता कि भूकंप के एक हल्के से झटके में पूरी इमारत के धवस्त हो जाने के पीछे इसके निर्माण में अभियंता और ठेकेदार की मिलिभक्त भी हादसे की एक वजह हो सकती हैं।" घाघ पत्रकार ने बड़ी चालाकी से अपना प्रश्न किया।
हाल ही में बनी उस शानदार इमारत का सौंदर्य देखते ही बनता था। जिसने भी देखा था, उसके निर्माता और शिल्पकार की सराहना किए बिना नहीं रहा था। लेकिन प्रकृति के एक हल्के से झटके ने ही उसे मिट्टी में मिला दिया था। उसी के संदर्भ में पत्रकार, भवन निर्माता से बात हो रही थी।
"हां संभावना व्यक्त की जा सकती है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ है?" भवन निर्माता ने प्रश्न को सहज ही टालना चाहा।
"लेकिन इस प्रोजेक्ट के शुरू में ही कंस्ट्रक्शन-विवाद पर छोड़कर जाने वाले अभियंता मिस्टर कुमार का तो यह कहना है कि वे जानते थे कि देर-सवेर ऐसा होने वाला है।"
"जी ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होनें ऐसा कहा। लेकिन मेरे विचार से ये सिर्फ एक हादसा है जिसके लिये हम केवल प्रकृति को ही दोषी ठहरा सकते हैं।" उन्होंने बात को फिर संभालना चाहा।
"लेकिन सुनने में तो यह भी आया हैं कि घटिया निर्माण सामग्री के कारण.....।"
"नो कमेंट्स, एंड नो मोर क्वेश्चनस प्लीज!" पत्रकार की बात बीच में ही काटकर, जवाब देते हुए वह उठ खड़े हुए। जिस ग़लती को वह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, उसी घटना का दंश एक बार फिर जीवंत वाकया बनकर उन्हें डसने लगा था। . . . .
"सर, नींव की गहराई और उसमें लगे सरिया-पत्थर की क्वालिटी इमारत की प्रस्तावित ऊंचाई और नक्शे के लिहाज से हल्की है। मुझें लगता है आपको इसके तय बजट को बढाना चाहिए।"
"लिसन मिस्टर कुमार, डोंट सजेस्ट मी। तुम्हारा काम सिर्फ 'कंस्ट्रक्शन' करना है। और फिर कौन देखता हैं, नींव के पत्थरों को? बिल्डिंग की पहचान उसके डिजाईन और 'स्ट्रक्चर' से होती हैं। जैसे हम कहते हैं, वैसा करों। वरना इस प्रोजेक्ट के लिए और लोग भी तैयार हैं।"
"सॉरी सर, शायद वास्तव में मुझे इस प्रोजेक्ट को नहीं करना चाहिए, लेकिन जाते-जाते मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि नींव के पत्थर नजर भले ही नहीं आते। लेकिन जब समय आता है तो ये अपनी पहचान और परिणाम दोनों पीछे छोड़ जातें हैं।
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(15). आ० प्रतिभा पाण्डे जी
गणित
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मंदिर के बाहर प्रसादी पाने की छीना झपट में लगी भीड़ को सत्तू चुपचाप देख रहा था। और दिन होता तो इसी भीड़ का हिस्सा बने अपने साथी भिखारियों से वो अब तक कितनी बार झगड़ चुका होता, दूसरे निकास से निकलते वीआईपी भक्तों को देखकर भगवान् के न्याय पर दांत पीस रहा होता। पर आज वो चुप था। कानों में थोड़ी देर पहले सुने पंडित जी के शब्द गूँज रहे थे। सत्तू को चपचाप सीढ़ियों पर बैठा देख उसका भिखारी यार बिरजू पास आ गया।
"क्यों रे मंदिर के अंदर क्या करने गया था ? सारा परसाद बँट चुका। अब रहियो सारे दिन भूखा। ''
" बस ऐसे ही मन किया कि सुनूँ पंडित जी क्या बोल रहे हैं लोगों से। "
" कुछ भी बोलें तुझे मुझे क्या ? सेठ लोगों की बाते हैं। चल अब। " बिरजू चिढ कर बोला।
" अरे सुन तो। पंडित जी कह रहे थे हमारे दुःख गरीबी सब हमारे पिछले जन्म के कर्मों के फल हैं और ...''
" और क्या ?'' बिरजू ने उसे बीच में काट दिया।
" नहीं कुछ नहीं " सत्तू धीरे से बोला । उसका मन हुआ बिरजू को बिठाकर समझाये कि हमने ही पिछले जनम में पाप किये होंगे जिसका फल इस जनम भोग रहे हैं। भगवान् का क्या दोस। गाडी बंगले वाले सेठों ने अच्छे कर्म किये होंगे पिछले जनम। पर उसे पता था जो गणित उसे समझ आ गया है वो बिरजू नहीं समझ पाएगा।
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(16). आ० बरखा शुक्ला जी
सही फ़ैसला
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“क्यों तुम ने रश्मि को समझाया कि नहीं ,उस लड़के से उसकी शादी नहीं हो सकती । “मनोहर ने पत्नी मधु से पूछा ।
“हाँ मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की ,पर उसने कहा ,यदि वहाँ शादी नहीं की तो वो कही भी शादी नहीं करेगी ।”मधु ने बताया ।
“अरे ठीक से समझाओ सब मान जाएगी ,मैंने बहुत पैसे वालों के घर उसकी बात चलायी है ,वहाँ राज करेगी ।”मनोहर ने कहा ।
“देखिए जिस लड़के को वो पसंद करती है ,वो भी बहुत अच्छा है ,वहाँ भी वो ख़ुश रहेगी ।”मधु ने कहा ।
“अरे वो लोग हमारे स्तर के नहीं है ।” मनोहर बोला ।
“सोच लीजिए बेटे को आपने उसकी पसंद की लड़की से शादी नहीं करनी दी ,उसे आज भी उस बात का मलाल है ।” मधु बोली ।
“बेटे के लिए कितनी सुंदर बहू लाए है ,क्या वो ख़ुश नहीं है ?”मनोहर ने अचरज से पूछा ।
“आपको क्या मालूम घर में क्या चल रहा है ,बहू को शिकायत रहती है ,बेटा उसे समय नहीं देता ,बेटा कहता है , मै आज भी उस लड़की को भूल नहीं पाया ,मैंने उस से शादी का वादा कर के उसे धोखा दिया है ,बेटी की शादी का परिणाम भी कही ऐसा ही न निकले ।”मधु बोली ।
“ओह अपनी ज़िद के चलते मैं बेटे के साथ अन्याय कर बैठा , अब बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूँगा । “मनोहर ने कहा ।
“कई बार हम अपनी ज़िद के चलते ऐसे फ़ैसले ले लेते है ,कि वो हमें ज़िंदगी भर का दुःख दे जाते है ।”मधु ठंडी साँस लेकर बोली.
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(17). डॉ कुमार संभव जोशी जी
आत्महत्या
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"मैं जीना नहीं चाहता यार!"
"लेकिन आत्महत्या पाप है."
"पाप-वाप रहने दो, कोई तरीका बताओ."
"तरीके तो कई हैं. पानी में जहर घोलकर पी जाओ."
"हमारी फैक्टरियों का सारा कचरा नदी में जाता है. सारा पानी जहरीला है, पूरा शहर वही जहर पीता है."
"भई! साँस रोक लो, दम घुट जाएगा."
"हमारी फैक्टरी, गाड़ियाँ इतना धुआँ फैंक रही है कि दम घुटने की आदत पड़ चुकी है."
"पैट्रोल छिड़ककर आग लगा लो."
"पैट्रोल बड़ा मँहगा है और पेड़ हमने सारे काट डाले कि लकड़ी भी नहीं मिलती."
"तो किसी गुण्डे से झगड़ा कर लो, वो टपका डालेगा."
"नहीं यार! पिछले साल विधायक जी से पंगा हो गया था. ये लोग हमसे ज्यादा परिवार को तंग करते हैं."
"अबे तो खुद ही छुरा घोप लो."
"यह भी हमारा पूरा समाज ही कर रहा है. जाति-धर्म, नस्ल-निष्ठा के आधार पर एक-दूसरे की पीठ में छुरा ही तो घोप रहे हैं."
"अरे यार रस्सी का फंदा बनाकर फाँसी लगा लो या गला घोंट लो."
"क्या तुम भी..! यह तो हम औरतों और गर्भस्थ या नवजात कन्याओं के लिए आजमाते हैं."
"फिर कहीं अज्ञात स्थान पर चले जाओ. कोई बोलने-पूछने वाला ही न होगा तो एक दिन घुट कर मर ही जाओगे."
"टीवी-मोबाईल ने हमें अज्ञातवास पर ही रखा हुआ है, पास बैठे हुए भी परिवार से बात ही नहीं हो पाती."
"आखिर ये जंगलों का विनाश, जाति-धर्म, भ्रूणहत्या आदि करके फैक्टरी, गाड़ियाँ, टीवी-मोबाइल आदि साधन जुटा क्यों रहे हो?"
"जीवन स्तर बढ़ाने और सुखी रहने के लिए."
"तो मरना क्यों चाहते हो?"
"मैं जीवन से बहुत दुखी हूँ यार."
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