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ग़ज़ल नूर की - उन  के बंटे जो  खेत तो  कुनबे बिखर गए

उन  के बंटे जो  खेत तो  कुनबे बिखर गए,
पंछी जो उड़ चले तो घरौंदे बिख़र गए.
.
सरहद पे गोलियों ने किया रक्स रात भर,
कितने घरों के नींद में सपने बिखर गए.
.
यादों की आँधियों ने रँगोली बिगाड़ दी
बरसों जमे हुए थे वो चेहरे बिखर गए.
.
समझा था जिस को चोर गदागर था वो कोई
ली जब तलाशी रोटी के टुकड़े बिखर गए.
.
तुम जो सँवार लेते तो मुमकिन था ये बहुत
उतना नहीं बिखरते कि जितने बिखर गए .
.
मुझ में कहीं छुपे थे अँधेरों के क़ाफ़िले
रौशन हुआ जो ‘नूर’ तो सारे बिखर गए.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 
(वैसे प्रकाशमान को  अप्रकाशित लिखना भारी पड़ता है :))

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Comment by Samar kabeer on November 20, 2019 at 6:36pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

Comment by TEJ VEER SINGH on November 20, 2019 at 1:13pm

हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी।बेहतरीन गज़ल।

यादों की आँधियों ने रँगोली बिगाड़ दी
बरसों जमे हुए थे वो चेहरे बिखर गए.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 20, 2019 at 4:21am

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। गजल उम्दा हुई है । हार्दिक बधाई।

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