सूर्यदेव का अंश कहलाया
माता सती कुमारी
जननी का क्षीर चखा न जिसने, था कवच-कुंडलधारी॥
अधिरथ-राधा ने था गोद लिया
राधा माँ सुत वासुसेन को देख निहारी
पालना बनी थी आब की धारा, बिछौना बनी पिटारी॥
निज समाधि में निरत हमेशा
किया स्वयं विकास भी भारी
शोण का था भाई प्यारा, जिसे भ्रातप्रेम से दुनियाँ जानी||
गुरु द्रोण से शिक्षा पाता
शिष्य अद्भुत व्यवहारी
ब्रहमसिर अस्त्र की मंशा रखता, जिसे गुरु ने नहीं स्वीकारी||
प्रतापी-तपस्वी, ज्ञानी-ध्यानी
जिसका पौरुष था अभिमानी
कोलाहल से दूर नगर के, जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी॥
नतमस्तक करता प्रतिबल को
विजय की आदत डाली
प्रचंड धूमकेतु-सा उसको दिखता, बाधा जिसने व्रज में डाली॥
दूर कुंज-कानन में पला-बढ़ा जो
न उस जैसा शक्तिशाली
लक्ष्य साधता दान भी देता, जिसने देने की नियत थी डाली॥
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण
उस-सा नहीं कोई दानी
अस्त्र-शस्त्र विद्या में जो पारंगत, जिज्ञासु-आकुल थे नर-नारी॥
सर्वश्रेष्ठ योद्धा पार्थ जग का
बात विष्कंभ मन में डाली
कूद गया वह भरी सभा में, अपनी सिद्ध करने दावेदारी॥
अवहेलना कर भरे समाज की
देने की धनंजय को चुनौती ठानी
एक सूरमा चुप क्यूँ रहता, जब गुरु द्रोण ने सीमा लांघी॥
अर्जुन को मैं प्रतिद्विंदी मानता
राधेय पहचान हमारी
निर्णय किया क्यूँ बिन परीक्षा के, ये गुरु की बात निराली॥
भावुक-दानी, समरशूर वो
शील-पौरुष संग वो साहसी
मनमोहक था उसका सौंदर्य, उच्च जिसकी कदकाठी॥
प्रतिभट अर्जुन का वीर बड़ा था
कोलाहल हुआ भारी
आश्चर्य चकित हो सब देखते, सबकी झकजोर आत्मा डाली॥
केवल राज-बगीचे में नहीं है खिलते
अद्भुत वीर-ब्रह्मचारी
चुन-चुनकर रखती वीर अनोखे, ये प्रकृति सुंदर-प्यारी॥
स्तब्ध खड़े सब देखते उसको
आई आफ़त कहाँ से भारी
जाति-गोत्र थे उसकी पूछते, चुनौती अर्जुन ने स्वीकारी॥
राजवंश उसका कुल पूछते
क्रूर नियति ने दृष्टि डाली
रंगत चहेरे की सबकी उड़ गई, तब भीष्म ने परिस्थिति संभाली॥
बचपन से जिसे छलती आई
न साथ यहाँ भी छोड़ी
भाग्यहीनता ने फिर वार किया था, न समाज ने आँखें खोली॥
सुन विदर्ण हो गया उसका हृदय
अंतस छलनी कर डाली
गुण-ज्ञान का क्या-कोई मोल न, इससे त्रस्त क्यूँ दुनियाँ सारी॥
क्षोभ में भरकर राधेय बोला
वीरों को भुजदंड से दुनियाँ जानी
जाति-गोत्र हो क्यूँ पूछते, होती समाजहित की हानि॥
सामर्थ्य हो तो सामना करो अर्जुन
रण में जाति है क्यूँ लानी
क्षत्रिय होता वही श्रेष्ठ है, जिसने प्रचारणा सभी स्वीकारी॥
गुरु कृपाचार्य फिर आगे आए
माया क्रोध ने तुम पर डाली
राजपुत्र से राजपुत्र युद्ध हैं करते, क्यूँ न समझ में आएँ तुम्हारी॥
द्वंद जो चाहते भारत से तो
बताओ सत्ता कहाँ तुम्हारी
किस राजवंश के वारिस तुम, किस सम्राट के उत्तराधिकारी॥
तेजवान वह देदीप्यवान
उसका जनसभा मुखमंडल तेज निहारी
अजय-निडर वह निर्भक यौद्धा, उसकी कह सूतपुत्र चुनौती टाली॥
सुयोधन आता शाबाशी देता
निडरता से जिसकी यारी
अधर्म से जिसका नाता, उसने शुद्ध-बुद्धि की बात कर डाली॥
वीरों का न कोई जाति-गोत्र हो
प्रतियोगिता में ऐसी शर्त क्यूँ-कहाँ से आनी
युवराज के हक़ मैं राजा बनाता, सुन जनता को हैरानी॥
अभिलाषा द्रोण की मरती दिखती
चमत्कृत जिसकी शैली
हरण तेज का कैसे करूंगा, चिंता गुरु द्रोण के मन में डाली॥
युक्ति लगाते, चिंतन करते
मन में संशय की नींव थी डाली
एकलव्य नहीं जो दक्षिणा माँग लूँ, कर्ण बड़ा है ज्ञानी-ध्यानी॥
शिष्य न बनाऊँ तो राह मिले कुछ
हताहत द्रोण बने अहंकारी
सर्वश्रेष्ठ अर्जुन कैसे रहेगा, गुण-विद्या कर्ण में श्रेष्ठता सारी॥
मुकुट उतारकर रखता सर पर
मंशा कर्ण की मित्रता पानी
होता वीरों का सम्मान हमेशा, बात जहन में सबके लानी॥
रंक से राजा उसे बनाकर
घनिष्ठ दोस्ती की नींव थी डाली
अपमानित हो रहा एक वीर अनोखा, थी उसकी लाज बचानी॥
मुझ अभागी पर सुयोधन की
हुई क्यूँ कृपा भारी
इस भरी सभा में क्या-कोई हो भी सकता, ऐसा भी परोपकारी॥
बैचेन-चकित हो रहा देखता
छटा संशय की मन में डाली
हैरान-परेशान क्यूँ हो बंधु, गले लगा सुयोधन बना हितकारी॥
क्षुद्रोपहार कुछ ऐसा नहीं है
जो समझो मुझे उपकारी
मित्रता के लिए तुम्हें आमंत्रण देता, मित्रता स्वीकार करो हमारी॥
बस एक महावीर का प्रशस्तिकरण ये
जिसके तुम अधिकारी
कौन-सा बड़ा मैने त्याग किया है, क्यूँ अंतस अचरज में डाली॥
स्वीकार करों जो मित्र मुझे तुम
दो देह एकल प्राण हमारी
परवाह नहीं मुझे लोग क्या कहेंगे, कर्ण तेरी मित्रता सबसे प्यारी॥
झर-झर आँसू बहते नयन से
आई उत्थान की मेरे बारी
उऋण कैसे हो पाऊँगा, तुम पर न्यौछावर आज से ज़िन्दगी सारी॥
उपकृत रहूँगा तेरा हमेशा
दुनियाँ कृतघ्न न अर्कज को जानी
प्राणों से मित्र की रक्षा करूँगा, यही प्रतिज्ञा रही हमारी||
घेर खड़े सब अंग के वासी
सब बली पूजन के अभिलाषी
चुन पुष्प-कमल सब कुंकुम लाए, स्नान मधु, दूध-नीर से कराते अपनी बारी॥
हवनकुंड यज्ञ सजने लगे
उमंग-तरंग संग हर्ष-उल्लास भी दिखता भारी
पहचान ही लेते अपना आराध्य, सच इस बात को दुनियाँ मानी॥
जय महाराज, जय-जय अंगेश
विकल जनता पुकार उठी थी सारी
द्वेष-ईर्ष्या मिथ्या-अभिमान कहो पर, जनता हमेशा उज्ज्वल चरित्र की होती पुजारी॥
जय अंगेश का जयकारा सुनकर
भीम क्रोध में आए भारी
हय-गज की जो दुम पूछते, कैसे राजपाठ के बने अधिकारी॥
सुन विषले भीम के शब्द सब
प्रीत सुयोधन की जागी
उच्च कुल से कुछ नहीं होता, बड़ा वही जो उज्ज्वल चरित्र का होता स्वामी॥
धर्मज्ञ क्यूँ कहलाते हो तुम
बुद्धि जब ईर्ष्या-द्वेष के विष ने मारी
खोटे हैं तुम्हारे कर्मकांड भी, जिसने प्रीत की रीत न जानी॥
जन्म का तुम्हारे क्या रहस्य
क्यूँ ये बात न अभी तक जानी
अपनी खीज क्यूँ यहाँ निकालते, अप्रकट जन्म की जिसकी कहानी॥
अवगुण देखते ओरों के क्यूँ
क्यूँ करते अपने गुणों से ही बेईमानी
दूसरों को हमेशा हीन हो कहते, तुम्हारी बुद्धि क्यूँ बौरानी॥
बढ़ती जाती बातें पल-पल
बात मान-मर्यादा की आनी
बीच-बचाव में आए गुरुदेव, चलो अब घोषणा प्रतियोगिता-समाप्ति की बारी आनी॥
शाम भी देखो ढल चुकी है
एक नई सीख नज़र में आनी
घर जाओ आराम करो सब, आज अच्छी नींद सभी को आनी॥
मोद मानते ख़ुशी मनाते
किसी को हार-जीत नहीं थी पानी
कर्ण को गलबाँही दे चले सुयोधन, नई मित्रता की नींव थी जिसने डाली॥
स्वरचित व मौलिक रचना
फूल सिंह, दिल्ली
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