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सत्ता धरीओ को दिशा दिखाती सुंदर कथा बधाई आदरणीय
मूर्त भी अमूर्त हो उठा आपकी रचना में जोशी जी।
किले ने जाने कितने रंग देखे और बदले मगर अभी भी लाल-किला ही कहलाता है। पिछले साल दिल्ली भ्रमण से पहले आपकी रचना पढ़ी होती तो इस किले को अलग नज़र से देखता। लाखों सैलानी आते हैं , मगर इसका असली रंग तो कोई जोशी जी जैसा लेखक ही देख पाता है।
मुद्रण की कुछ अशुद्धियाँ सुधर जाएं तो ... ।
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय जोशी जी!इतिहास के बदलते रंगों की बारीकी को बयान करती शानदार लघुकथा!
वाह वाह, बहुत अच्छी लघुकथा हुई है, एकदम नए ढंग कीI लाल किले की वेदना को बहुत बढ़िया तरीके से शब्द दिए हैंI मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई विजय जोशी जीI
वाह!लाल किले के लाल रंग होने का कारण आपने क्या खूब बताया आदरणीय विजय जोशी सर जी।एक बेहतरीन लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई।
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