आदरणीय साथियो,
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अंतिम दीया
रात गए अँधेरे ने टिमटिमाते दीये से कहा,'अब तो मान जा।आ मेरे आगोश में।'
'नहीं।कभी नहीं।' बाती तपाक से बोली।
'कब तलक जलेगी? तेल तो खत्म हो चला।' अँधेरे ने चुटकी ली।
'प्राची के आने तक। स्नेहसनी हूँ।'
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
आदाब। बेहतरीन सकारात्मक संदेश वाहक लघु लघुकथा से आयोजन का शुभारंभ करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। दीपोत्सव महापर्व पर तहेदिल बहुत-बहुत मुबारकबाद और शुभकामनाएं आप सभी परिवारजन और मित्रगण को हम सब की तरफ़ से ।
रोशनी की दस्तक - लघुकथा -
"अम्मा, देखो दरवाजे पर कोई नेताजी आपको आवाज लगा रहे हैं।"
अम्मा की बेटी ने गुहार लगाई ।
अम्मा ने बाहर आकर देखा। शहर के विधायक जी अपनी बड़ी सी गाड़ी में से निकाल कर मिठाई और दिवाली के पॉकेट बाँट रहे थे। लोगों की कतार लगी हुई थी। अम्मा भी कतार में खड़ी हो गई।
शोर सुन कर अम्मा का बेटा भी बाहर आ गया।
“अम्मा, धूप में क्यों खड़ी हो? ये किस बात की कतार लगी है?”
"बेटा, ये नेताजी दीवाली की मिठाई देने आये हैं।”
"मिठाई के साथ और क्या है?”
"शायद कुछ मोमबत्ती और फुलझड़ी हैं।”
“क्या ये सामान हमारे लिये अनिवार्य है?”
"कुछ दिन ये मोमबत्तियाँ झोंपड़ी में रोशनी करेंगी। हमारी लालटेन का तेल बचेगा।”
"मगर हमने ये सामान माँगा था क्या?" हमारी आज की सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है?”
"बेटा, इस समय सबसे बड़ी जरूरत तो तुम्हारी नौकरी की है।तेरे बापू के मरने के बाद घर चलाना मुश्किल हो गया है।”
"और उसका वादा एक साल पहले इन्हीं नेता जी ने किया था।अब क्या बोल रहे हैं?”
"कह रहे हैं कि कोशिश की जा रही है।”
“और ये कोशिश अगले चुनाव तक चलती रहेगी।”
"और हम लोग कर भी क्या सकते हैं।”
“हम इस कतार से अलग तो हो सकते हैं।इन उपहारों का बहिष्कार तो कर सकते हैं । इनसे ये तो पूछ सकते हैं कि इनका बारहवीं पास बेटा सरकारी कारखाने का डाइरेक्टर कैसे बन गया।"
अम्मा यह सुन कर कतार से बाहर निकल आई।
अम्मा की देखा देखी एक एक कर मुहल्ले के सभी लोग कतार छोड़ अपनी झोपड़ियों में जाने लगे।जिन लोगों ने पॉकेट ले लिये थे, वे लोग भी पॉकेट वापस नेता जी की गाड़ी में डाल दिये ।
नेता जी इस अप्रत्याशित परिवर्तन को देख अचंभित हो गये ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
सादर नमस्कार। विषयांतर्गत बहुत बढ़िया सकारात्मक विचारोत्तेजक और प्रेरक रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। मुझे ऐसा लगा कि कुछ संवाद सहज बोलचाल वाले शब्दों में या फिर स्थानीय/क्षेत्रीय बोली में लिखे जायें, तो रचना और अधिक आकर्षक और प्रभावशाली हो सकती है। जैसे //हमारी आज की सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है?”// को किसी दूसरी शैली में लिखा कर।
चल मुसाफ़िर तोहफ़ों की ओर (लघुकथा) :
इंसानों की आधुनिक दुनिया से डरी हुई प्रकृति की दुनिया के शासक ईश्वर और वनस्पति , कीड़े -मकोड़ों, जीव-जंतुओं आदि की प्रजा में से कुछ 'चिकित्सक' और 'शोधकर्ता' इंसानों के एक महापर्व पर आपस में विमर्श कर रहे थे। डॉक्टर पीपल और वैद्य नीम जी आपस में बतियाने लगे।
"तरह -तरह के आयोजनों और धार्मिक तीज-त्योहारों पर इंसान इतना स्वार्थी हो जाता है कि हमारे जगत की उसे चिंता ही नहीं रहती। पटाखों और आतिशबाजी और ध्वनि प्रदूषण से हमें दो-चार होना पड़ता है!" वृक्ष डॉक्टर पीपल जी ने कहा।
"मिट्टी की दीयों की परम्परा जैसे रीति -रिवाज़ों की बात ही कुछ और थी भाई!" वृक्ष वैद्य नीम जी बोले।
"हॉं, वे भी चिकित्सकीय, औषधीय काम किया करते हैं। इंसानों और हमारे लिए तो वे डॉक्टर दीपक हैं! पर कोई समझे, तब न, वैद्य जी!"
शोधकर्ता सूर्य महाराज ने उन दोनों की बातें सुनकर उनसे कहा, "इंसान भटक गया है भाइयों, लेकिन सही राह पकड़ने की कोशिश में भी है। वो सोलर एनर्जी तक के लाभ जानते हुए भी इसका सही और भरपूर उपयोग करना मुश्किल से सीख ही रहा है अभी। प्रकृति की दुनिया ही उसकी जीवन नैया को चलने देगी। माटी से माटी तक के सफ़र में इंसान मिट्टी की दीयों की अहमियत और कुदरती तोहफ़ों के रख-रखाव और इस्तेमाल को समझना फिर से सीख रहा है। वक़्त पलटी खायेगा... और इंसान सही दिशा की ओर चल पड़ेगा। भई, मेरा शोध तो यही कहता है!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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