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ध्वनि
लोग उसे पूजते।चढ़ावे लाते।वह बस आशीष देता।चढ़ावे स्पर्श कर इशारे करता।जींस,असबाब दीन -दुखियों में बांट देने की उसकी मंशा उसके आसपास खड़े शागिर्द लोग इंगित करते।कारवां यूं ही बढ़ता जाता। 'जय बाबा वैरागी,जय हो,जय हो' के उदघोष से वातावरण आंदोलित होता रहता।
उस रात भी बाबा की कुटिया के सम्मुख भक्त जनों का जमघट था।आशीष देते -देते हठात ' बाबा नमन ' की ध्वनि सुन बाबा भाव विह्वल हो गया।उसकी आँखें भर आईं।बस बरसने की देर थी।समक्ष खड़ी रमणी झिझकती हुई पूछ बैठी,"क्यूं बाबा,क्या हुआ?आपके नेत्र सजल क्यूं हो गए?" पूरा जन -पारावार उत्कण्ठित हो जिज्ञासु नजरों से वह मार्मिक दृश्य देखने लगा था।बाबा मौन था।
"कुछ बोलिए प्रभु!आप चुप क्यूं हैं?"
"तुम कौन हो देवी?"बाबा ने पूछा।
"पहचानिए।"
"नहीं पहचान सकता।"
"क्यूं? देखिए तो।" ललना की भींगी हुई मधुर स्वर लहरी उभरी।
"यह कैसा सवाल है? बाबा किसी को नहीं देखते।" भक्त जन आक्रोशित हो चिल्लाए।
"नहीं देख सकता,देवी।बस सुन सकता हूं।"
"ओह!यह कैसे हुआ,देव?" बाबा के उभय नेत्र - कोटर की तरफ देखकर वह स्त्री चकराई।
"उसी रात जब वे गुंडे तुम्हें ले जाने लगे।मैने भरसक विरोध किया।वे भारी पड़े।मेरी रात काली कर चले गए।"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आपका हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी।
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