आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आदरणीया नीता कसर जी, आपको कथा का इंगित प्रभावी लगा यह जानना मेरे लिए भी आश्वस्तिकारी है.
सादर धन्यवाद
आदरणीय समर साहब, आपकी संवेदनशीलता का मैं सदा से कायल रहा हूँ. आपने जिस आत्मीयता से मेरे प्रयास को मान दिया है वह आपके प्रति बनी मेरी समझ को और पुख़्ता कर रही है.
सादर आभार आदरणीय.
गूढ़ लेखन कैसा होना चाहिए हम सब आपकी इस रचना से सीख सकते है . प्रजा और प्रजा का प्रतिनिधि करने वाला तन्त्र , दोनों का खेल निराला ,तमाशा तो अब जगत-प्रसिद्ध हमारे राष्ट्रपिता के सिधान्तों का बन रहा है खुलेआम और प्रजातंत्र के आधार हम देश के नागरिकों की भूमिका तमाशबीनों का ही है .स्वयं को इस भूमिका में देख तिलमिला गए , स्व-चिंतन के लिए भी आंदोलित हुए है एकदम से . सादर अभिनन्दन आपको !
आदरणीया कान्ताजी, आपका मेरी रचना पर सटीक टिप्पणी करना मुग्ध कर गया है. सादर आभार आदरणीया
उसके कमरे की दीवार पर लटके कैलेण्डर में राष्ट्रपिता की मुस्कुराती हुई जगत-प्रसिद्ध तस्वीर थी. छत से लगे पंखे की हवा से कैलेण्डर के साथ वह तस्वीर भी बार-बार हिल रही थी.
वाह। क्या बात कह दी सर अपने इस कथा में । बधाई सर ।
तमाशबीनों को सत्य से कोई मतलब नहीं ,बे भीड़ का हिस्सा है ,वहीं जायेंगे जहां डोर खींचेगी ।राष्ट्रपिता की तस्वीर -डोल रहा है सत्य
कशमकश में ।बधाई आदरणीय इस प्रतीकात्म कथा हेतु ।सादर ।
सादर धन्यवाद आदरणीय पवन जैन साहब
आदरणीया कल्पनाजी, कथा के इंगित पर सकारात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.
सादर
आदणीया जानकी वाही जी, आपकी पाठकीय टिप्पणी की संवेदनशीलता से मेरे लेखक को परम संतोष हो रहा है. सादर धन्यवाद
मूक होते हुए भी कितने मुखर तमाशबीन .. ह्रदय से बधाई सर...
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