आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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शुक्रिया आदरणीय खान साहेब l
काल खंड दोष दूर हो जाए तो कहानी अच्छे रूप में उभर कर आएगी |बहरहाल हार्दिक बधाई रेनू जी
शुक्रिया आदरणीया राजेश जी
so. renu ji, vishay achcha hei aur aap subah se suru kar shyam tak khatam kar sakti hei
katha me aur jivantata aa jayegi ye meri soch hei, aur yaha bahut prabudh jan hei unse rai le
अच्छी कथा लिखी है अपने आदरणीया रेनू जी |
विरोध--
"जरा बढ़िया वाला आम देना, उस दिन वाले अच्छे नहीं थे ", बोलते हुए उसकी निगाह उस बूढ़े दुकानदार पर टिक गयी| दरअसल वो ऐसे ही बोल गया, पिछली बार वाले आम भी बढ़िया ही थे|
" बाबूजी, एकदम बढ़िया हैं ये, आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा ", हँसते हुए उसने अपनी तरफ से एकदम बढ़िया वाले आम निकाले और तौलने लगा| वो भी जेब से पैसे निकाल रहा था कि अचानक उस आवाज़ से चौंक गया|
" ओ बुढ़ऊ, कितनी बार बोला है कि यहाँ ठेला मत लगाया करो, लेकिन तुम मानते ही नहीं हो| लगता है तुम्हारा कुछ करना पड़ेगा", हवलदार ने एक डंडा उसके ठेले पर मारा और एक सेब उठाकर खाने लगा|
"साहब, यहीं पर तो हमेशा से लगाता हूँ ठेला, आप काहें खफा होते हैं", और धीरे से वो अपने गल्ले से कुछ नोट निकालने लगा|
कई बार देखा था उसने हवलदार को दुकानों से पैसा वसूलते लेकिन कभी वो कुछ बोल नहीं पाया था| लेकिन आज पता नहीं क्यों उसे खटक गया और वो बोल पड़ा:
"क्या गलत कर दिया है इसने हवलदारजी, सब तो यहीं लगाते हैं ठेला"| बोलने के बाद खुद उसे अपनी आवाज़ से हैरानी हो रही थी कि ये कैसे कह दिया उसने|
"ज्यादा नेतागिरी मत झाड़ो, वर्ना दिमाग ठिकाने लगा दूँगा", हवलदार ने कड़कते हुए उससे कहा और बूढ़े की तरफ रुपया लेने के लिए हाथ बढ़ाया|
"दादा, पैसे मत देना इसको, इसी से इनकी हिम्मत बढ़ती है", और वो हवलदार के सामने खड़ा हो गया|
हवलदार ने गुस्से में उसका कालर पकड़ लिया और एक थप्पड़ उसको लगाने जा रहा था तब तक लोगों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी| उसने अपना कालर उससे छुड़ाया, बूढ़े को पैसे देकर फल लिया और चलने लगा| पीछे से हवलदार और भीड़ की मिली जुली आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन उसे आज अपने तमाशबीन नहीं होने पर अंदर से काफी संतुष्टि थी|
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मौलिक एवम अप्रकाशित
जनाब विनय कुमार साहिब , ,प्रदत्त विषय को सार्थक करती और पुलिस वालों की असलियत बताती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब तस्दीक अहमद खान साहिब
आपने तो एक उपाय बता दिया आदरणीय विनयजी. सच महज एक तमाशबीन बन रहने से बेहतर है विरोध किया जाए. अपने लिए नहीं तो दूसरों के लिए. सक्षम के लिए नहीं तो कम से कम बेबस की खातिर. प्रद्दत विषय पर बेहद सापेक्ष प्रस्तुति.
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