आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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हार्दिक धन्यवाद आद ० पंकज जी।
मोहतरम जनाब टी आर शुक्ल साहिब , प्रदत्त विषय को दर्शाती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
हार्दिक धन्यवाद आद ० खान साहब.
सुंदर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई सर। आंचलिक भाषा का बेहतरीन प्रयोग हुआ है। आपकी यह रचना एक घटना को तो बखूबी दर्शाती हुई बनी है।जो थोड़ी गुदगुदाती सी भी प्रतीत हुई।भूमिका सी तो अच्छी बंधी पर अंत तो हल्की सी गुदगदी कर गया।क्षमा करें आचार्यवर मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह लघुकथा जैसी प्रतीत नहीं हुई। सादर नमन।
आदरणीय सर, बहुत ही अच्छे विषय का चयन किया है, मुझे लगता है यह रचना दोपहर जब राजा आया उस समय से प्रारंभ करें और बाकी बात शोर्ट में कह दें तो रचना के उन क्षणों को उभार कर लघुकथा बनाई जा सकेगी| मेरे अनुसार एक उदाहरण यह हो सकता है कि //आख़िरकार बुन्देलखंड के अक्खड़ राजा सवेरे से जनता को सवेरे से इंतज़ार करवाने के बाद चमकती तलवार लहराते किले के बाहर बनाये मंच पर आ ही गए| मैदान, छतों और पेड़ों की शाख पर बैठे लोगों के दिलों में जिज्ञासा थी कि राजा क्या बताने जा रहे हैं| राजा, गांधी जी के आमन्त्रण पर दिल्ली जा रहे थे और जनता को सावधान करना चाहते थे...// इसके अतिरिक्त पंचलाइन को भी थोड़ा ठीक कर दें तो बेहतरीन रचना है|
आपकी इस बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ भाई चंद्रेश कुमार छ्तलानी जी, बहुत ही उत्तम सुझाव है I
आपके आशीर्वाद के लिये सादर नमन आदरणीय सर|
सुन्दर सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय चंद्रेश जी। अवसर मिला तो संकलन में संशोधन करना चाहूंगा।
तमाशबीन
*गूंगे*
हवा में ताज़े खून की गन्ध बिखरी हुई है।लग रहा है आसमान चीलों से भर गया है।
धप... धप ... रैपिड फ़ोर्स की कदमताल डर कम करने की बजाय बढ़ा रही है।
इस विद्या के मन्दिर में अभी भी सब कुछ है।ऊँचा बुर्ज,लम्बे गलियारे,जग प्रसिद्ध पुस्तकालय और चौड़े आच्छादित रास्ते। नहीं हैं तो यहाँ चहकने वाले परिन्दे, लम्बी-लम्बी बहसें,गम्भीर मुद्दे और बेबाक ठहाके।
"छुप कर पथराई आँखों से क्या देख रहे हो ? सोचने और खामोश रहने से कुछ नहीं होने वाला ?"
चिहुँक कर ज्ञान ने अँधेरे को घूरा।
"कौन हो तुम ?" भय से उसे अपनी आवाज़ ही अज़नबी सी लगी।
"न मैं महामहिम हूँ न शासन प्रतिनिधि। इस देश का अदना सा चरित्र हूँ।"
ज्ञान ने भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों को हाथ से दबाया।कर्फ्यू के बाद से एक दाना भी नसीब न हुआ था।
"तुम्हारी बात कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।सामने आओ ?"
"दोस्त !मेरी छोड़ो, तुम नायक तो कभी बन नहीं पाये।इस जीवन मंच पर झूठा अभिनय ही कर लेते? जीवन सार्थक हो जाता।" ज्ञान को आवाज़ अपने भीतर से आती सी लगी।
"ताना दे रहे हो ?"ज्ञान ने उकता कर कहा।
"हा हा हा...ताना... तुम लोगों को इतनी समझ कहाँ ? हर समय तुम्हे रोटी के अलावा कुछ नहीं सूझता।कभी अपनी अंतरात्मा की भी सुनो।देश की छोड़ो,कल यहाँ दो घरों के चिराग़ बुझ गए, तुमने क्या किया?मूक दर्शक बने हुए हो?"
"उपदेश मत बघारो खुद कुछ क्यों नहीं कर लेते?"ज्ञान ने गहरी साँस ली।
"ओह! मैं भला क्या कर सकता हूँ? मैं भी कायर हूँ।एक अरब की भीड़ का चरित्र, सबका साया।जो देखता सुनता सब है पर गूँगा है।"
ज्ञान ने बन्द होती आँखों से अँधेरे को देखने की कोशिश की।देश के भविष्य की तरह उसे वहां घना अँधेरा नज़र आया।
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मौलिक एवम् अप्रकाशित
//मैं भी कायर हूँ।एक अरब की भीड़ का चरित्र, सबका साया।जो देखता सुनता सब है पर गूँगा है।"//
बहुत गहरी बात कह दी जानकी आ० वाही जी, सच भी यही है कि सब कुछ देखते, सुनते और जानते हुए भी लोग मूक दर्शक ही बने रहते हैं I इस प्रभावोत्पादक लघुकथा हेतु कोटिश: बधाई स्वीकार करें I
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