आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आ.समर कबीर जी आज सुकून से आपकी रचना पढी.माफ़ी चाहती हूँ प्रथम दिन केवल नजरों के नीचे से जाने से उसका मर्म समझ नही पाई थी. आपने तो दंगे के चित्र को थोडे शब्दो मे हुबहू उतार दिया. बहूत बहूत बधाई आपको.सादर
मौजूदा समय में आय दिन जगह-जगह घटित होती स्थितियों का यथातथ्य चित्र.गुजरे वक्त के कई चित्र पुन: आँखों में नाच उठे.कथ्य-तथ्य-सत्य हेतु हार्दिक बधाई.
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