आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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शुक्रिया सर .आपका ह्रदय से आभार.
मोहतरमा सीमा साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती हुई सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
बहुत बहुत शुक्रिया आ० खान साहब.
आदरणीय प्रधान सम्पादक की विस्त़ृत टिप्पणी के बाद कुछ कहने को शेष नहीं बचता। मैं उनकी टिप्पणी का अनुमोदन करता हूं। पर लघुकथा की एक पंक्ित कुछ भ्रमित कर रही है - / “ये मेरे पिता हैं। अभी कुछ दिन पहले ही मानसिक अस्पताल से वापस लाया हूँ इनको।” देर से चुपचाप खड़ा युवक बोल उठा।/ यदि वो युवक देर से मौन खड़ा था तो /युवक फिर आगे बढ़ा और बोला, “बात तो सुनिए मेरी!"/ ये पंक्ित किसकी हैं? इस सधी व सुगठित लघुकथा का शीर्षक अभी और परिश्रम की मांग कर रहा है । 'भूल-सुधार' शीर्षक कोई बहुत ज़्यादा स्टीक नहीं लग रहा। बहरहाल विषय को परितुुष्ट करती रचना प्रेषण हेतु असीम शुभकामनाएं ।
आभार सर, आपकी टिप्पणी की हमेशा प्रतीक्षा रहती है कथा को...शीर्षक मेरी कमजोरी है और मैं चाह कर भी उस पर अपनी पकड़ बना नही पा रही हूँ फिर भी प्रयास करुँगी..आपकी शुभकामनाओं की सतत आवश्यकता हैं.
आपकी इस उत्साहवर्धक टिप्पणी पर दिल से शुक्रिया, आप जैसे गुणी जन इतनी स्नेहिल बात कहते हैं तो मन असीम उल्लास से भर जाता है.ह्रदय से आभार आपका.
क्या खूब रचना हुई है, वाह. अंतिम पंक्ति की आवश्यकता नहीं लग रही है, लेकिन रचना इतनी सशक्त है कि दुष्प्रभाव भी नहीं डाल रही...
धन्यवाद आपका कथा पर आने का.
आदरणीय सीमा जी , कथानक बहुत सुन्दर है लेकिन पश्चाताप में पागलपन की हद तक जाना स्वाभाविक नहीं लगता है | आपका भाव सम्प्रेसन बहुत सुन्दर है | बधाई स्वीकार करें |
आपका शुक्रिया आदरणीय.
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