आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अहम् (प्रायश्चित)
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गुरु जी को नमन करके मोहन जाकर पीछे की पंक्ति में बैठ गया उसने चारों और नजर दौड़ाई दूर दराज से भी जाने माने लोग आये हुए थे | सभागार खचाखच भरा हुआ था | निमंत्रण पत्र पर फिर उसकी नजर टिक गई नाट्यशाला का लोकार्पण| देखते ही देखते वो अतीत में डूब गया|
बिलकुल ऐसा ही उसकी जन्दगी का वो ख़ास दिन दर्शकों से भरा हॉल खुशी से पेट में गुदगुदाती वो तितलियाँ मानो बरसों की तपस्या का परिणाम मिलने वाला हो | हर बार की तरह आयोजन में वो अपने गुरु बृज महाराज को न्यौता देना नहीं भूला सबसे अगली पंक्ति में गुरु के लिए सीट हमेशा सुनिश्चित रहती थी| हमेशा की तरह मंच पर चढने से पहले गुरु को प्रणाम करके उसने अपना जादुई नृत्य पेश किया लोग कहते थे उसके पैरों में बिजली है अपलक देखते देखते लोगों को तब होश आया जब नृत्य खत्म हो गया और उसने सबको अभिवादन किया| हॉल तालियों से गूँज उठा| उसने ने गुरु बृज महाराज की तरफ एक शाबाशी के लिए ललचाये बच्चे की तरह देखा किन्तु गुरु की हमेशा की भांति एक हलकी सी मूक मुस्कान देख कर अन्दर तक टूट गया आयोजन के अंत में सम्मानित होने के लिए ये कहकर मना कर दिया कि जब तक वो अपने गुरु की नजरों में कुंदन नहीं बन जाएगा तब तक कोई सम्मान या ईनाम ग्रहण नहीं करेगा | उसके बाद वो बुझा बुझा-रहने लगा आयोजनों में भी जाना कम कर दिया |
होनी को भी कुछ और मंजूर था एक दुर्घटना में उसकी की एक टांग जाती रही जिससे उसका भगवान के ऊपर से भी विश्वास उठ गया |
गुरु जी उसका हाल चाल बराबर पूछते रहते किन्तु उसके नृत्य के विषय में कोई बात नहीं करते | बहुत देर तक चुपचाप बैठकर वापिस चले जाते | उसको अब कृत्रिम टांग का सहारा भी मिल गया था फिर पत्नी के हिम्मत बढ़ाने पर फिर से नृत्य की साधना में लीन हो गया |
फिर आई वो सुबह जब उसके गुरु बृज महाराज उसे एक निमंत्रण पत्र थमा गए |
“अब आपके सामने मोहन नटराज वन्दना नृत्य पेश करेंगे” मंच से ये शब्द कानों में पड़ते ही तथा पीछे से काँधे पर स्पर्श महसूस होते ही मोहन को जोर से झटका लगा मानों वो नींद से जाग गया हो| गुरु जी की आँखों के इशारे की सम्मति लेकर मंच को नमन कर मोहन ने कृत्रिम टांग से जो नृत्य पेश किया सब ने दांतों तले ऊँगली दबा ली| नृत्य के बाद जब मोहन मंच से नीचे जाने लागा तो गुरु जी ने उसे रोक लिया उसको बांहों में भर लिया फिर दर्शकों से मुखातिब होकर बोले-
“मोहन कुंदन तो बहुत पहले बन चुका था वो मेरा अहम् ही था जो कुछ भी कहने से रोकता रहा किन्तु आज मैं सच कहूँगा की मोहन जैसा नर्तक और शिष्य मेरी जिन्दगी में न आया है न कोई आएगा ये मुझसे बेहतर नृत्य करता है इंसान भी मुझसे बेहतर है मेरा आशीर्वाद भी इसके लिए छोटा होगा”|
सुनते सुनते मोहन की आँखों से अविरल आँसू बह निकले |
फिर उदघाटन हेतु शिलापट का अनावरण होने का वक़्त आया |
मुख्यमंत्री ने जैसे ही रीबन काटकर पर्दा हटाया उस पर लिखा था ---'मोहन नाट्यशाला'
जहाँ एक और नाट्य शाला शिला पट का अनावरण हो रहा था वहीँ गुरु बृज महाराज के प्रायश्चित का भी अनावरण हो रहा था |
तभी मोहन ने कंही से पेन लेकर नाम के आगे बृज लिख दिया और बोला “अब नाम पूरा हुआ बृज मोहन नाट्यशाला” |
मौलिक एवं अप्रकाशित
इतना आसान कहाँ होता है अहम् को छोड़ पाना और खुले दिल से अपने ही शिष्य को अपने से बेहतर मानना| बहुत बढ़िया, भावपूर्ण रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई
आपको लघु कथा पसंद आई विनय कुमार भैया दिल से बहुत- बहुत आभार आपका |
आपको लघु कथा पसंद आई सुनील भैया मेरा लिखना सफल हो गया हाँ टंकण त्रुटी संकलन के वक़्त सुधार लूँगी |दिल आपका बहुत-बहुत आभार |
// “मोहन कुंदन तो बहुत पहले बन चुका था वो मेरा अहम् ही था जो कुछ भी कहने से रोकता रहा // अपनी गलती का भान हो जाना और उसे सबके सामने स्वीकार कर लेना भी गुरु का बड़प्पन है ..गुरु शिष्य के इस प्रसंग को प्रदत्त विषय से जोड़ते हुए बहुत प्रभावशाली रचना बनी है आपकी ...हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया राजेश जी
प्रिय प्रतिभा जी ,आपको ये लघु था पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हो गया दिल से आभारी हूँ |
आद० उस्मानी जी ,मेरी ये लघु कथा आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
आ० राजेश कुमारी जी, बहुत उत्तम लघुकथा कही है। बात को फ्लैशबैक तकनीक से कहने का अंदाज़ पसंद आया। रचना प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय कर रही है, जिस हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें।
सिर्फ एक सवाल, जब गुरु ने प्रायश्चित स्वरूप मोहन को गले लगा लिया और नाट्यशाला उसके नाम से शुरू करके प्रायश्चित कर लिया था तो उसके बाद कुछ और कहने की आवश्यकता थी क्या?
आद० योगराज जी ,आपको लघु कथा उत्तम लगी मेरी मेहनत सफल हुई मानो नव ऊर्जा संचारित हो उठी हो लेखनी में आपका तहे दिल से आभार |आद० जिस भाव के मद्देनजर मैंने अंतिम पंक्ति लिखी कहीं न कहीं यह सोच मेरी थी कि शिष्य गुरु को इतना भी झुकना बर्दाश्त नहीं करेगा गुरु गुरु ही होता है|
एक शिष्य की यही तो अभिलाषा हुआ करती है कि वह अपने गुरु को संतुष्ट कर पाए. ऐसा न हो पाने पर निराश होना स्वाभाविक है .. कोई शिष्य कदापि नहीं चाहता कि उसका गुरु किसी भी परिस्थिति-वश उसके सामने झुके या शर्मिंदगी महसूस करे .. यही कारण रहा होगा मोहन ने पेन लेकर अपने नाम से आगे गुरु का नाम जोड़ दिया . भला कौन शिष्य ऐसा होता देख सकेगा .. शिष्य की सम्पूर्ण मनोदशा को एक पंक्ति मात्र में उतार दिया आपने ... साधुवाद प्रेषित कर रहा हूँ .सादर
आपने सही कहा जिस भाव के मद्देनजर मैंने अंतिम पंक्ति लिखी कहीं न कहीं यही सोच मेरी थी कि शिष्य गुरु को इतना भी झुकना बर्दाश्त नहीं करेगा गुरु गुरु ही होता है | आपको लघु कथा पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया सादर आभार आद० सुधीर द्विवेदी जी |
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