गजल-एक
दर्द मेरा हम क़दम औ हमसफ़र हो जाये तो,
क्या करूं मॉं की दुआ भी बे असर हो जाये तो? II1II
क्या गिले-शिक़वे करूं तुझसे मेरे मालिक़ बता
बस ज़रा मुझ पर भी तेरी इक नज़र हो जाये तो?II2II
बोझ अरमानों का लादे फिर रही है ज़िन्दगी,
बीच में ही ख़त्म लेकिन ये सफ़र हो जाये तो? II3II
घूमता फिरता हॅूं मैं बेफ़िक्र जिससे बेख़बर,
सोचता हूँ वो भी मुझसे बेख़बर हो जाये तो? II4II
मुफलिसी, नफ़रत, अदावत और क़त्ले-आम से,
सोचकर देखो कि तन्हा ये शहर हो जाये तो? II5II
आदमी जीकर भी आखि़र क्या करेगा सौ बरस,
ज़िन्दगी अमृत सही लेकिन ज़हर हो जाये तो? II6II
इश्क़ की परछॉंई से भी भागता हॅूं दूर मैं,
इश्क़ इसके बाद भी मुझको अगर हो जाये तो? II7II
ज़िन्दगी का क़ाफ़िया और ठीक है बिल्कुल रदीफ़
बाद इसके भी ग़ज़ल ये बेबहर हो जाये तो? II8II
डर रहा हॅूं पास जाकर होश खो बैठॅूंगा मैं,
पर नशा बस दूर से ही देखकर हो जाये तो? II9II
मुल्क़ की अस्मत से जो खिलवाड़ आहत कर रहे,
उनकी बातों का अगर सब पे असर हो जाये तो? II10II
गजल- दो
वह ठीक से बातें मेरी सुनता भी नहीं है
औ बात कभी अपनी वो कहता भी नहीं है II1II
मुद्दत से मेरी दीद का वो मुंतज़िर है पर
मेरे लिए एक पल कभी रुकता भी नहीं है II2II
ज़ाहिर है नुमायां है मुसलसल वो मगर हाँ
जब देखना चाहो तो वो दिखता भी नहीं है II3II
कहना तो मुझसे चाहता हर बात वो अपनी
पर पूछना चाहो तो वो खुलता भी नहीं है II4II
इक पल के लिए छोड़ना चाहे न वो मुझको
साए की तरह साथ वो चलता भी नहीं है II5II
है उसकी रज़ा वार दे अपनी हर इक हँसी
पर सामने खुलकर कभी हँसता भी नहीं है II6II
इक पल की भी दूरी उसे मंजूर नहीं पर
मिलना कभी चाहूँ तो वो मिलता भी नहीं है II7II
इक पल के लिए भी न हुआ आंख से ओझल
हरदम वो मेरे सामने रहता भी नहीं है II8II
ऐसी है रवानी कि वो रोके नहीं रुकता
ठहराव है इतना कि वो हिलता भी नहीं है II9II
इतना है लचीला कि जो चाहे वो झुका दे
है सख्त वो इतना कभी झुकता भी नहीं है II10II
हल्का है किसी फूल सा कोई भी उठा ले
पर जोर लगाए कभी उठता भी नहीं है II11II
ओपन बुक्स ऑनलाइन, लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या जो 22 मार्च 2020 को ऑनलाइन संपन्न हुई के प्रथम चरण में लोकप्रिय ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ की उपर्युक्त ग़ज़लों पर चर्चा हुयी जिसमें लगभग सभी प्रतिभागियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बड़ी साफगोई से अपने विचार पेश किये I वे विचार यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं -
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने टिप्पणी करते हुए कहा कि पहली ग़ज़ल मे अपनी स्वतंत्रता निभाते हुए 'आहत' अपने फन को मालिक की नज़र करते हैं। अपने अल्हड़ सवालों के साथ दर्द की हर संभव दास्तान को जोड़ते हुए वे अपनी रूमानी काव्यधारा की आशा-निराशा से सजग वास्ता रखते हैं । सवालों के विन्यास और अनुप्रास के नज़रिये से ग़ज़लकार देश की अनिश्चितता के प्रति भी अपनी आशंका दर्ज कराते हैं ।
दूसरी ग़ज़ल के बारे में उनका मानना है कि ग़ज़लकार के लफ़्ज़ों की लड़ियाँ ख़ुदा की पहचान कराती हैं । आहत ने तराशे हुये लहज़े में मालिक का साथ, उसका अस्तित्व, उसकी गति, उसका ठहराव, उसकी लचक का वर्णन सधे हुए शब्दों में किया है। अंतिम दो शेरों में ख़ुदा की ख़ुदाई का दृष्टान्त है । संदेश यह है कि इंसान की ज़िद मालिक का दिशा-निर्देश नही कर सकती ।
कवयित्री कौशाम्बरी सिंह के अनुसार समाज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखी पहली ग़ज़ल आहत की आत्मा की आवाज़ है I आशंकाओं से भयभीत हृदय व्याकुल हो चिंताओं से व्यथित है I उसे आशंका है कि यह व्यथा- विष सर्वव्यापी न हो जाए I
दूसरी ग़ज़ल में रचनाकार अंतरात्मा में बसे ईश्वर का आह्वान कर रहा है I उसके सान्निध्य की याचना कर रहा है I मानो अपनी जड़ता पर असहाय हो गया है I
कवयित्री नमिता सुन्दर का कहना था कि आलोक जी की पहली ग़ज़ल मौजूदा परिस्थितियों में हम सबके मन को प्रतिबिंबित करती है, जिसे न जाने कितने अबूझ सवाल मथते रहते हैं I “उनकी बातों का अगर सब पर असर हो जाय तो“- इस आखिरी पंक्ति में सवाल हवा में खुला छोड़ दिया गया है - जैसे सिर पर लटकती तलवार I पर मन को उससे भी अधिक भयभीत करता है "घूमता फिरता हूं ...." I इसकी दूसरी पंक्ति में वो को हमने ऊपर वाला समझा I हम अक्सर ही अपने दुनियावी जालों में फंसकर बेखबर हो जाते हैं, पर सोचिए अगर उसने नज़र फेरी तो... तो.. ऐसा ही कुछ होगा, जो हो रहा है या इससे भी भयावह I वैसे वह इश्क वाली लाइन का इशारा अधरों पर मुस्कुराहट ले आया I महबूब कोई भी हो - इन्सानी या दैवीय I न चाहते हुए या बचते बचाते, या अनजाने किसी गिरफ्त में आ जायें तो सोचिये कितने गहरे डूबना होगा और फिर कितने ऊपर उठना होगा I
दूसरी वाली ग़ज़ल में लुका छिपी का खेल है I दूर या पास होने का अहसास, कभी धैर्य, कभी असहाय बोध या अकेला छोड़ देना.... यह सब हमारे और ऊपर वाले के रिश्ते का लेखा-जोखा है I बहुत ही खूबसूरती से आलोक जी ने मन की सारी पर्तें उघेड़ी हैं और ऊपर वाले के साथ हमारी यह रस्साकसी ताउम्र चलती रहती है क्योंकि हम पूरी तरह उसमें कहां डूब पाते हैं?
कवि मृगांक श्रीवास्तव ने बहुत कम शब्दों में अपनी बात की I उन्होंने कहा कि ‘आहत लखनवी’ जी की दोनों ग़ज़लें लाजवाब हैं और उनके आहत होने की झलक उनमें मिलती हैं। मन में उठने वाली तमाम कल्पनाओं को अपने अशआर में बहुत खूबसूरती से उकेरा है। गज़लें दर्शाती हैं कि वो बहुत उम्दा शायर हैं।
डॉ. अशोक शर्मा ने कहा कि आलोकजी की पहली ग़ज़ल में पीड़ा लगती है I पर अगर इश्क़ हो जाये तो हो जाने दें i यह भी खुदा की नेमत है I दूसरी ग़ज़ल ईश्वर के प्रति है I आलोक जी अच्छा तो लिखते ही हैं I
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि आलोक रावत "आहत लखनवी’’ जी जाने-माने शायर हैं I उनके तख़ल्लुस के अनुरूप उनकी तख़लीक़ और उनकी पेशकश दोनों ही राहत-बख़्श हैं I इसीलिये जब भी उनकी तथा उनकी शायरी का ज़िक़्र होता है तो उनका मेयार ख़ुद सामने आ जाता है I इनकी पहली ग़ज़ल बह्रे-रमल मुसम्मन महज़ूफ़ में कही गयी है I इस ग़ज़ल के भाव, इसकी भाषा या इसका शिल्प [एक ऐबे-तनाफ़ुर छोड़ कर] हमेशा की तरह श्रेष्ठ हैं I प्रश्नवाचक अशआर में सभी प्रश्न साफ और दुरुस्त हैं I
बह्रे-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़ में कहे गए मतले वाली दूसरी ग़ज़ल में भी आलोक जी की लेखन परिपक्वता स्पष्ट है I यह गजल एक अच्छी तख़लीक़ है I पर मुझे लगता है कि ये आलोक जी की सर्वश्रेष्ठ रचनाये नहीं हैं और उनकी क्षमता का उचित प्रतिनिधित्व नहीं करतीं I उनके अन्य उत्कृष्ट ग़ज़लों पर भी चर्चा होनी चाहिए I
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव की नज़र में पहली ग़ज़ल बहुत ही उहापोह से भरी है I रचनाकार का मन अंतर्द्वंद्व से आक्रांत है I बहुतेरे प्रश्न उसके मस्तिष्क में उपजते है I ऐसा हो जाय तो या फिर वैसा हो जाये तो के बीच झूलते रहते है I इन आशंकाओं में भय है, डर है, खौफ़ है, नाउम्मीदी है और निराशा है I केवल एक शे’र में आशा की झलक मिलती है -
“क्या गिले-शिक़वे करूं तुझसे मेरे मालिक़ बता
बस ज़रा मुझ पर भी तेरी इक नज़र हो जाये तो?
बह्रे-रमल मुसम्मन महज़ूफ़ (फ़ाइलातु फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन) के पैमाने पर यह ग़ज़ल बहुत ही नायाब तरीक़े से उतरती है I आहत की एक ग़ज़ल का शेर मुझे याद आता है – “रहने भी दो अपने अश्के मुरव्वत, मेरी मौत पर रोने वाले बहुत है I” ऐसी बेजोड़ लताड़ लगाने वाल शायर का अवसाद में जाना, उसका निराशवाद नही है I यह उसकी परिपक्वता है I जो चमकता है वह सब कांचन ही नही होता, यह ग़ज़लकार को पता है I इन सारी घोर निराशाओं के बीच उम्मीद की किरण है I ‘मालिक की नज़र’ तो कभी भी हो सकती है I ‘ज़िन्दगी का काफिया’ ‘डर रहा हूँ‘ ‘मुल्क की अस्मत‘ में भूपेन्द्र जी ने ऐब-ए-तनाफुर की ओर इशारा किया है I ऐसे ऐब बड़े शायरों में भी मिलते रहे हैं I पर एक से अधिक हो तो बायसे फ़िक्र जरूर है I
‘आहत लखनवी’ की दूसरी ग़ज़ल यकीनन लौकिक प्रेम का उनका अपना अनुभव है जिसे ग़ज़लकार ने कहीं-कहीं रहस्यवाद का बाना भी पहनाया है i जैसे -
“ज़ाहिर है नुमायां है मुसलसल वो मगर हाँ
जब देखना चाहो तो वो दिखता भी नहीं है I”
निश्चय ही यह आध्यात्मिक रहस्यवाद है जिसकी एक विस्तृत परम्परा सूफियों के प्रेमाख्यानों में मिलती है I इस ग़ज़ल का भाव-पक्ष बहुत ही सबल है I इसकी बहर हजज़ मुसम्मन अखरब मकफूफ महजूफ अर्थात 221 1221 1221 122 है I इसका निर्वाह आहत ने बड़ी कुशलता से किया है I आहत का तगज्जुल हमेशा चौंकाता रहता है I सबसे बड़ी बात यह है कि वे संकेतों में बड़ी बात कह जाते है और उनके शेर को महज पढ़ जाने से समझना कभी कभी मुश्किल हो जाता है I इन्हें BETWEEN THE LINES पढना ज़रूरी है I यदि हम इस तरह नही पढ़ेंगे तो कैसे समझ पायेंगे कि ’भोर में ही जिन्दगी की दोपहर हो जाये तो’ में बाल श्रम की दर्दनाक स्थिति को रूपायित किया गया है I सच्चाई यह है कि महज दो ग़ज़लों से आहत की सही शिनाख्त एक शायर के रूप में कर पाना संभव नही है I हम उन्हें बराबर सुनते और गुनते आये है I अभी उनका सही मेयार सामने नही आ पाया है I इस बार संयोजक ने अपनी तरफ से ग़ज़लों का चुनाव किया था I बेहतर होता कि आलोक जी से उनकी ग़ज़लें माँगी जातीं और उन पर विचार किया जाता I
आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने अपनी पहली ग़ज़ल के बारे में बताया कि इस ग़ज़ल के ज़्यादातर अशआर अध्यात्म से संबंधित हैं। ग़ज़ल में अपने मालिक और उसकी जो भी निज़ामत है उसके बारे में ही बात की गयी है । वो परमपिता परमेश्वर अगोचर, अगम्य और अदृश्य है, लेकिन उसे सच्चे मन से देखना चाहो, पाना चाहो या उससे अपनी बात कहना चाहो तो वह उसे अवश्य सुनता है। यदि हम अपनी पवित्र भावना से उसे याद करते हैं तो वह हमें हमेशा अपने पास प्रतीत होता है। यद्यपि हम उसे अपनी भौतिक ऑंखों से नहीं देख सकते तथापि मन की ऑंखों से उसे देखने पर हमें उसका अनुभव या आभास अवश्य होता है। सबसे भारी, सबसे हल्का, सबसे जीत जाने वाला, सबसे हार जाने वाला परमात्मा ही तो है । वही सब कुछ करने या न करने वाला है। यह ग़ज़ल और इसके अधिकांश शेर उसी परमपिता को समर्पित हैं I
आहत के अनुसार उनकी दूसरी ग़ज़ल के अशआर अलग-अलग रंग के हैं । कहीं ज़िन्दगी की बात है, कहीं प्यार की बात है, कहीं देश की बात है, कहीं ख़ुद की बात है और कहीं समाज की बात है। सच तो यह है कि हर कवि और शायर के मन में समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के प्रति एक असंतष और क्षोभ का भाव मन में रहता है जो उसकी रचनाओं में नुमायाँ होता रहता है । जब वह ये कहते हैं कि ’भोर में ही जिंदगी की दोपहर हो जाये तो’ तब इसमें बालश्रम जो कि एक अपराध है उसके प्रति एक चिंता का भाव स्पष्ट होता है। एक शे’र में सानी मिसरा है कि ’बीच में ही ख़त्म लेकिन ये सफ़र हो जाये तो’ तब वहॉं पर फिल्म ’प्यासा’ में साहिर लुधियानवी साहब का लिखा गीत ’ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है’ की याद आती है और इस नश्वर शरीर की हक़ीक़त का पता चलता है। इस ग़ज़ल के इस शे’र पर तवज्जो चाहूंगा-
’भागता हॅूं इश्क़ की परछाईं से भी दूर मैं,
इश्क़ इसके बाद भी मुझको अगर हो जाये तो’
ग़ालिब साहब लिख ही गये हैं कि – ये आग लगाये न लगे और बुझाये न बुझे I सूफियत में इसे ही इश्के-हकीकी की सीढ़ी माना गया है I ग़ज़ल का मतला ’’दर्द मेरा हमक़दम औ हमसफ़र हो जाये तो, क्या करूं मॉं की दुआ भी बेअसर हो जाये तो।’ निश्चय ही आदमी के दर्द को समझने के लिये पर्याप्त है। मॉं को इस धरती पर ईश्वर से भी बड़ा माना गया है I उसकी दवा तो हर मर्ज के लिए PANACEA है और वह बेअसर हो जाये तो स्थिति कितनी कल्पनातीत होगी, यह विचारणीय है I इन दोनों ग़ज़लों में मेरी एक छोटी सी कोशिश रही है शायद किसी को ठीक भी लगे I
(मौलिक?अप्रकाशित )
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