रविवार, दिनांक 24 फरवरी 2019 को मनोज शुक्ल ‘मनुज के सौजन्य से इंजीनियरिंग कालेज. लखनऊ के समीप स्थित स्टेट बैंक की बिल्डिंग में आगमन संस्था और ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की एक संयुक्त काव्य गोष्ठी हुयी I इस गोष्ठी की अध्यक्षता दिल्ली से आयी सुविख्यात कवयित्री सीमा अग्रवाल ने की I सञ्चालन का दायित्व आकास्वनी , लखनऊ की उद्घोषिका सुश्री शालिनी सिंह ने उठाया I
कार्यक्रम का समारंभ हास्य के उर्वर प्रस्तोता मृगांक श्रीवास्तव के काव्य पाठ से हुआ I हास्य की सफलता तब है जब श्रोता सब कुछ भूलकर उन्मुक्त होकर ठहाके लगायें I यह कला श्री श्रीवास्तव को सिद्ध है I उन्होंने एक कविता में मोदी जी के एक घोटाले का चित्र खींचा I मोदी जी ने शौचालय के निर्माण में अरबों रूपये ईंटों की खरीद में खर्च किये I यह धन का दुरूपयोग था क्योंकि कांग्रेस के जमाने में तो केवल दो ईंटों से ही काम चल जाता था I मृगांक केवल हास्य के ही कवि नही है, उनके पास अपना एक चिंतन भी है जो उनके गाम्भीर्य को भी दर्शाता है I इस सत्य का निदर्शन निम्नांकित पक्तियों में अवलोकनीय है -
कोई जब कहता उसे मृत्यु का भय नहीं है,
यकीन नहीं होता उसका ये कहना सही है,
उसके पहचान की जब परतें खोलीं,
था देश का सिपाही उसकी वीरता यही
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने पहले गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता “बैर्थो” का अपने द्वारा किया गया भावानुवाद प्रस्तुत किया I यह अनुवाद गुरुदेव के दार्शनिक चिंतन को रूपायित करने में सफल रहा है जैसे-
क्यों आकाश ऐसे
देखता है, मेरे मुख की ओर
और, पल-पल क्यों
मेरा हृदय पागल सम –
उस सागर में खेता है नाव
जिसका ओर न छोर,
यदि प्रेम नहीं दिया मन में---!
उक्त भावानुवाद के बाद उन्होंने एक स्वरचित काव्य-रचना भी पढ़ी i इस कविता में अद्वैतवाद के स्वर स्पष्ट है I जब मानव जन्म लेता है, तब शैशव में वह अबोध और निर्विकार होता है पर ज्यो-ज्यो वह बड़ा होता जाता है उसमे विकार स्वत: आते जाते हैं , तब वह भूल जाता है कि ईश्वर और उसमे विभेद है और सच्चाई यह है कि दोनो एक दूसरे में समाविष्ट हैं I काव्य का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है -
तुमने मुझको दी ज़िंदगी
मैंने प्रश्न-चिह्न उगाये
जीवन तट के घाट-घाट पर
सपनों के झूले टकराये.
कहीं मिला सुख चैन, कहीं तो
दुख के साज़ लगे बजने
कहीं कलुष था, अंधकार था
कहीं लगे तारे सजने.
क्या पाया, क्या खोया की
आपाधापी में भूल गया
तुम मुझमें हो, मैं तुममें हूँ
मानव की जीवन यात्रा में अक्सर ऐसे क्षण आते हैं, जब उसे भरोसे की या सहारे की आवश्यकता होती है I अपना दर्द और आँसू छिपाने के लिए उसे एक सच्चे हमदर्द की तलाश होती है I हर आदमी को जीवन के किसी न किसी मोड़ पर कथाकार डॉ. अशोक कुमार शर्मा की भाँति यह कहना ही पड़ता है कि –
तुम !
अपना कांधा दे देना
मैं सिर रखकर
कुछ रो लूंगा I
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने उन स्थितियों और परिस्थितियों की पड़ताल अपनी कविता में की जहाँ अनुराग सदैव शोभित होता है I ‘वंशस्थ विलं’ छंद में कविता की बानगी इस प्रकार है -
वियोग में भी हिय की समीपता
नितांत तोषी मनसा समर्पिता
जहाँ शुभांगी पुरुषार्थ रक्षिता
वहां सदा है अनुराग राजता
इसके बाद उन्होंने कुछ सवैये भी सुनाये I उनके द्वारा रचित अरसात सवैया जिसमे उन्होंने गर्मी की ऋतु का एक गुदगुदाता चित्र खींचा है, इस प्रकार है -
तात न वात न गात सुखात न चैन इहाँ कछु भी तुम पाइयो
भोजन पाय सनेह सु नाथ कछू गुन ईश्वर के तब गाइयो
बिस्तर आज लगा घर बाहर शंक नहीं मन में तुम लाइयो
ग्रीष्म प्रचंड दहावत है तुम और दहावन रात न आइयो
‘प्रेम’ जिससे इस सृष्टि में संभवतः जीवन आया है और जिसे अनादिकाल से मनुष्य अपने अनुभव के अनुसार परिभाषित करता रहा है, किन्तु जिसका वास्तव में कोई पारावार नही है, उस प्रेम को कवयित्री आभा खरे ने अपने शब्द चित्र में इस प्रकार रूपायित किया –
प्रेम !
एहसासों की मद्धिम आँच में
क़तरा-क़तरा
पिघले लम्हों की
अनगिनत कड़ियाँ है..!!
मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ युवा कवि है और निस्संदेह ओज के कवि है I उनकी कविता आक्रोश और आवेश राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की याद दिलाती है I उनकी शब्द-योजना में जितना आवेग है उतना ही आवेग उनकी वाणी में भी है I मरने से पहली उनकी क्य-क्या शर्तें हैं, इसका बड़ा ही ओजस्वी उद्घाटन प्रस्तुत गीत में हुआ है –
सच कहता तब मर जाऊँगा................
इन ओछे अज्ञानी लोगों को पहले कुछ पाठ पढ़ा लूँ,
झूठे आडंबरधारी लोगों से अपना बैर बढ़ा लूँ।
पत्थर पर चलने वाले घोड़ों के खुर में नाल ठोंक दूँ,
अपनी सारी त्याग तपस्या को समिधा कर उसे झोंक दूँ।
कुछ अद्भुत मैँ कर जाऊँगा,
सच कहता तब मर जाऊँगा
कवयित्री संध्या सिंह बिंब और प्रतीकों से ही अपनी बात कविताओं में कहती हैं और बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से कहती हैं I ज़रा उनका असमंजस तो देखिये -
ऊबे दिन बासी रातों से
कैसे नई कहानी लिख दें
पांव तले पिघला लावा है
तुम कहते हो पानी लिख दें
इसके बाद अध्यक्ष के पाठ से पूर्व कवयित्री नमिता सुन्दर, सचिन मेहरोत्रा , शालिनी सिंह, सौरभ अवस्थी , वर्षा श्रीवास्तव ने भी अपनी रचनाएं पढी I अंत में कार्यक्रम की अध्यक्ष सीमा अग्रवाल ने नदी के माध्यम से एक लडकी की मायके से ससुराल तक की यात्रा का बड़ा ही सुन्दर रूपक बाँधा I इस कविता की आरम्भिक पक्तियाँ इस प्रकार है –
सखी नदी तुम कलकल करके बहती रहना
दूर तुम्हारे तट से मेरे गाव का पीपल
दोस्त मेरी बचपन की संचित खुशियों का दल
धाराओं पर संदेशे रख भिजवाता है
पत्तों पर लिख-लिख मुझ तक पहुंचाता है
मगर मेरे अपनों की यूँ ही कहती रहना II सखी नदी -------
तदुपरांत आयोजक मनोज शुक्ल ‘मनुज ने उपस्थित कवियों को धन्यवाद देते हुए, कार्यक्रम के समापन की औपचारिक घोषणा की I मनुज का आतिथ्य सराहनीय था I कोकिलकंठी सुश्री सीमा अग्रवाल के स्वर का मार्दव वातावरण को देर तक मथता रहा और मैं सोचा -
सागर है विश्राम, नदी है जीवन-धारा I
इसमें तो पीयूष, किंतु सागर है खारा I
सागर ने भवपार किया बोलो कब किसका ?
मिल नदियों ने किंतु अहो लाखों को तारा II [रोला विन्यास पर मुक्तक ,सद्यरचित]
[मौलिक/अप्रकाशित ]
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आ० दादा शरदिंदु जी का कथन स्वीकार्य है i इस गडबडी का मुख्य कारण है कार्यक्रम की आडियो रिकार्डिंग का किन्ही कारणों से डिलीट हो जाना सदस्यों ने भी अपनी पढ़ी रचनाओं को दोबारा देने में आलस्य किया और कुछ के फोन न० भी उपलब्ध नही थे I निवेदक इस त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी है I
रिपोर्ट को एडिट कर संशोधित कर दिया गया है I अब इसमें कोइ त्रुटी नही रह गयी है i
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