आदरणीय साथिओ,
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आदरनीया कल्पना दीदी , बहुत ही सुंदर व् अर्थ भरपूर लघुकथा के लिए बधाई कुबूल करें
विषयांतर्गत बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने आ कल्पना भट्ट जी, बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया कल्पना जी, आपने बहुत सधी हुई शैली में शानदार लघुकथा लिखी है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
लाजवाब लघु कथा , बधाई
परिवर्तन--
"कब से चल रहा है ये सब इस घर में", कर्नल साहब गुस्से से आग बबूला हुए जा रहे थे|
सामने बैठे बेटे के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगीं, वह कुछ कहने का साहस जुटा पाने में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहा था|
"बोलते क्यों नहीं, अब सांप सूंघ गया तुमको| कभी सोचा नहीं कि ऐसा करके अपने खानदान की प्रतिष्ठा को गर्त में ढकेल दोगे ", कर्नल साहब की ऑंखें अलमारी की तरफ बढ़ गयीं जहाँ पर रखे हुए तमाम मैडल उनके गौरवशाली अतीत को दर्शा रहे थे|
"पापा, जाने दीजिये, आखिर उसने गलत क्या किया है", बेटी ने हिम्मत दिखाई और पापा के सामने आ खड़ी हुई|
"तुम चुप रहो, तुमने तो अपने पिता की इज़्ज़त रखी है, किसी की भी परवाह न करके तुमने एयर फ़ोर्स में जाने का फैसला लिया| और एक ये हैं कि ?, कर्नल साहब फिर से गुस्से में उफन पड़े|
"वही तो मैं भी कह रही हूँ पिताजी, आखिर जब मैंने सबकी सोच के खिलाफ अपना करियर चुना तो आपको फ़क़्र हुआ था, तो आज इसको क्यों नहीं चुनने देते", बेटी ने उनको पीछे से पकड़ लिया|
कर्नल साहब कुछ नम्र हुए, बेटी का हाथ सहलाते हुए बोले "लेकिन बेटे, लोग क्या कहेंगे कि कर्नल का बेटा और ये कर रहा है"|
"पापा, लोगों की सोच पर अपने फैसले मत कीजिये, जैसे आपने मुझे अपना फील्ड चुनने दिया, उसी तरह इसको भी अपना करियर बनाने दीजिये", कह कर उसने पापा को एक बार फिर से प्यार से देखा|
"भाई कल से तुम अपने कत्थक गुरु को घर पर ही बुला लो और खूब जम कर प्रैक्टिस करो, पापा का नाम तुमको भी तो ऊँचा करना है", कहते हुए बेटी ने भाई को अपनी तरफ बुलाया|
कर्नल साहब के खुले बाँहों में दोनों बच्चे समां गए, किनारे खड़ी उनकी पत्नी की आँखों से ख़ुशी के कुछ बूंद टपक गए|
मौलिक एवम अप्रकाशित
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