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ओबीओ लाईव लघुकथा गोष्ठी अंक-26 में स्वीकृत लघुकथाएँ

(1).  सुश्री नयना(आरती)कानिटकर जी 
 "घर का वैरागी"
.

"बेटा अब मैं अपने घर  लौटना चाहती हूँ. वहाँ भी सब देखना-भालना होगा न!"

"माँ लेकिन वहाँ तुम अकेले कैसे... और फिर मुन्ना के बीना तुम्हारा जी...?"

"जी लग जाएगा बेटा ! जल्दी ही लौटूँगी तुम्हारे यहाँ जरुरत थी, आ गई  उस घर को भी मेरा इंतजार होगा"

"ठीक है अम्मा मैं छुट्टी की अर्जी डाल देता हूँ तुम्हें खुद छोड आउँगा"

....

उसका मानस अपने घर, बगीचे आदी की देखभाल मे उलझ गया था। अब  मुन्ना दादी को ही ’माँ ' कहने लगा था। उँगली पकड़ कर चलने लगा था।  स्नेहलता  को अब अपने  घर की याद सताने लगी थी पोते की देखरेख में उन्होने कोई कोताही नहीं बरती थी

उनके जीवन में सवाल केवल समय की प्राथमिकता का था जिंदगी के बीतें दिनों के जोड-घटाव, गुणनफल निकलता उनका मानस पति की निर्लिप्तता में आकर उलझ जाता था। हमेशा कहा करते "जीवन की चारों अवस्थाओ को शास्त्रों में निर्धारित चारों आश्रमो के अनुसार ही काटना है अब वान्प्रस्थ की ओर बढना है. तुम भी छोडो ये सब झमेले। "
" ठीक है देखिए न, वंशवृक्ष पर लगा नया फल है.इसे सींचने मे लगी हूँ।  मुन्ना के बडे होते ही चल दूगी आप जहाँ कहेंगे वहाँ

फिर अचानक  बीना किसी को कुछ बताएँ निकल गये थे। उसने फिर समय को अपने साथ बाँध लिया था। दिन बितते गए थे
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तभी "मुन्ना मेरी दादी अम्मा" कहते धूल सने पाँवों से उनकी गोद में बैठ गया वो उसे खिलौने मे उलझा कर बाथरुम चली गई अचानक जोर-जोर से रोने की आवाज से बाहर  आई लेकिन मुन्ना  वहाँ था ही नही!! दौडकर मुख्य द्वार पर आई तो कोई अनजान आदमी मुन्ना को चुप कराने की कोशिश कर रहा था वो  झपट पडी--"कौन, कौन हो तुम? चोर-उचक्का...बच्चा चुराता..."

 एकाएक वह थम गई ,भाव थम गए,आँखे वही थी- चिरपरिचित बस भाव बदल गए थे वो  उनसे नजर ना मिला पाए पर उनकी आँखो की कोरों में छलक आए जल की गहराई मापने में उसे एक क्षण का भी समय नहीं लगा

" स्नेह क्या बताऊँ तुम्हें मंदिर-मंदिर, आश्रम-आश्रम जहाँ गया वहाँ नया अनुभव । मेरी किसी को चिंता नहीं थी  मठाधीश  ने कहा- नए आए हो भोजन कक्ष मे रहो।  सबको भोजन कराके फिर स्वयं करना  उनके पैर दबाना , सुबह जल्दी उठकर....  दर-दर भटकता रहा"

उसे  इस बार भी समय को बाँधने की व्यग्रता थी।  उसके  प्रकृति प्रदत्त स्त्री सुलभ  प्रयासों को सार्थक बनाता समय।  न शिकवा, न शिकायत।  बिना किसी आग्रह के आगे बढी स्नेहलता

मुन्ना को थामे हुए सुदीप अनुगामी बन गये

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(2). श्री सुनील वर्मा जी 
तराजू

आँगन में बँधे तार पर शुरू से अंत तक सूख रहे मर्दाना कपड़ों से ही चम्पा ने अंदाजा लगा लिया था कि इस घर में कोई जनानी नही होगी| जनानी नही है तो संभव है कि बच्चे भी नही होगें|
फिर भी एक बार किस्मत आजमाने की गरज़ से उसने घर के जालीदार दरवाजे़ पर अतिरिक्त जोर लगाकर आवाज दी "खिलौने वालेss..."
घर के भीतर से कोई हलचल होती न देख वह वापस मुड़ी| सहसा ही एक आवाज़ बाहर आयी "रूक.."
दरवाज़े पर खड़े एक बूढ़े आदमी को देखकर उसने पूछा "जी, बाबूजी|"
बूढ़े ने उसके टोकरे पर एक नज़र घुमाई, फिर एक गुड़िया पसंद करते हुए कहा "यह वाली दे दे|"
आँगन से होते हुए घर के अधखुले कमरों में नज़र घुमाने के बाद चम्पा ने हिम्मत करके आगे कहा "आप अम्मा जी और बच्चों को भी बाहर बुला लो, वो अपनी पसंद का कुछ और भी देख लेगें|"
"क्यूँ? मैं नही देख सकता क्या?" बूढ़े के शब्दों में आये कड़कपन से चम्पा को अंदाजा हो गया कि उसका खरीददारी के लिए एक महिला को वरीयता देना सामने खड़े पुरूष को आहत कर गया |
"नही नही, मेरा वह मतलब नही था" कहते हुए चम्पा ने अपनी ओर बढ़ाये हुए पैसे लेकर अपनी टोकरी समेटनी शुरू कर दी|
बूढ़े के शुष्क व्यवहार पर अचरज करते वह उस बंद गली में आगे बढ़ी| उसकी आवाज़ सुनकर मौहल्ले के दूसरे घरों से कुछ औरतें और बच्चे बाहर आ गये| पेट में दबी बात ने दर्द किया तो चम्पा ने बातों बातों में बूढ़े के घर का जिक्र किया|
अब तक आ रही तेज आवाजें खुसफुसाहट में बदल गयी|
"क्या बात कर रही है? उसने तुझसे गुड़िया खरीदी है !"
"हाँ बीबी जी, क्यूँ क्या हुआ? वह बूढ़ा पागल था क्या?"
"पागल ही समझ ले| कहने को पाँच आदमी है उस घर में, मगर पूरे दिन शमशान घाट जैसा सन्नाटा रहता है|"
"क्यूँ?" चम्पा की आँखें अचरज से चौड़ी हो गयी|
"अररे, सब करमों का लेखा जोखा है| अपनी पत्नी के सात बार के प्रसव में इसे चार बेटे पैदा हुए मगर जब भी बेटी ने आना चाहा तो इसने उन्हें पैदा ही नही होने दिया, और अब...!"
"और अब क्या?"
"समय के साथ बुढ़िया तो गुज़र गयी| अब बिन औरत के इस घर में कोई और माँ बाप अपनी बेटी देना नही चाहते |"
"अव्वा.." करते हुए उसने अपने मुँह पर हाथ की तीन अंगुलियों को रखा और फिर चल रही चर्चा में अपना सुना हुआ जीवन दर्शन घोलते हुए आगे कहा "सही बात है बीबी जी, किस्मत सबको अपनी गल्तियों पर सबक जरूर सिखाती है |"
उसे घेर कर बैठी महिलाओं के बीच से गरदन ऊँची करके उसने दोबारा उस घर के बंद दरवाजे की तरफ देखा| अपनी दी हुई प्लास्टिक की गुड़िया पर उसे अनायास ही बेहद प्यार उमड़ आया था|
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(3). श्री रवि प्रभाकर जी 
सहारा

‘रामचरन ! ये चांदनी और कनेर कैसे एक तरफ झुके पड़े हैं?’ सुबह की गुनगुनी धूप में लॉन् की आराम कुर्सी पर पसरे पत्‍नी से चाय का कप पकड़ते हुए साहब का ध्‍यान अनायास पौधों पर पड़ा ।
‘उ रात मा आंधी के मारे साब! दुई-एक दिन मा खुदैही ठीक हुई जहिएँ!’ क्‍यारी की गुड़ाई करते रामचरन ने जवाब दिया।
‘गैराज से बांस ले आओ और दोनों पौधों को सहारा लगा दो।’
‘हओ साहेब!’ खुरपा छोड़ रामचरन गैराज की तरफ बढ़ा
‘राम-राम कक्‍का!’  गैराज में ड्राइवर रघु कार की डिग्‍गी खोलते हुए बोला
‘जै राम जी की रग्घू! आज तो बड़ी जल्दी आय गए? बहुरिया ठीक तो है?’
‘हमें अभी अस्पताल जाई नाही मिला है काका! कल साम कौनो मसीन बिगड़ गई फैक्ट्री मा, ऊका सामान लाने मालिक भेजे थे हमका। ई सुसरी गाड़ी हु ऐसे बखत पर धोका कर दीस। बड़ी मुस्किल से मिस्त्री मिला रात में । इस कारन वापिसी मे देर होए गई, अब आय मिला है। बस सामान धरके जाहिए रहे हैं।  तुम सुनाओ काकी का बुखार उतर गया?’ उनींदे से लाल हुई आंखे मलता रघु बोला ।
“अरे बिटवा!  हम गरीबन के बुखार तौ साहूकार के करज जैसन है जो चढ़त ही जात है । बड़े डागडर को ही दिखान होइ।  दूई एक दिन मा पगार मिल जाई तब ले जैहै।” ठंडी आह भरते रामचरन ने कहा
‘साहब से कह का देखो तनिक। बहुत नरम दिल हैं सायद कौनों जुगाड़ लग जाए।’  सामान उठा कर लॉन् की तरफ जाते हुए रघु हौले से बोला
‘बहुत टाइम लगा दिया पहुंचने में रघु । अब जल्दी से रेलवे स्टेशन जा कर वेटिंग रूम से इंजीनियर साहब को साथ लेकर फैक्ट्री पहुंचो । कल से काम बंद पड़ा है ।’
‘नमस्‍ते सर! नमस्‍ते बीबी जी! सर मुझे तो अस्‍पताल जाना है। मेरी घरवाली...।’
‘ओह हां ! अभी अस्‍पताल में ही है वो ? अब तबीयत कैसी है उसकी? मैं फैक्‍ट्री मुनीम जी को फोन कर देता हूं तुम्‍हे कुछ रूपए दे देंगे । अच्‍छे से ध्‍यान रखना उसका और कोई जरूरत हो तो बेहिचक बता देना। अब जल्‍दी स्‍टेशन पहुंचो।’ अखबार का पन्‍ना पलटते हुए साहब ने कहा
‘मेहरबानी सर ।’ चेहरे पर कृतज्ञता के भाव लिए रघु उल्‍टे पांव लौट पड़ा।
पीछे क्‍यारी में बांस गाड़ने बैठै रामचरन की आंखों में चमक और हाथों में तेज़ी आ गई ।
‘आपने बहुत सिर पर चढ़ा रखा है नौकरों को । इनका तो ये आए दिन का रोना है। अभी पिछले हफ्ते ही तो आपने इसे रूपए दिए थे और अब फिर से । वैसे भी दो दिन बाद तो सैलरी देनी ही है।’ पास बैठी पत्‍नी थोड़ी तल्‍खी से बोली ।
‘समझा करो भाग्‍यवान! इनकी ज़़रूरतों की भट्ठी में पैसों का इंधन डालते रहना चाहिए। तभी ये लोग एहसानमंद और आश्रित बने रहते हैं । बिजनेस करने के लिए ये सब करना ही पड़ता है।’ खीसें निपोरते साहब की आवाज में शातिरता थी।
रामचरन के हाथ सहसा रूक गए एक दो पल कुछ सोचने के बाद उसने पौधों को सहारा देने के लिए गाड़े बांस निकाल फैंके और गहरी सांस भरकर फिर से गुड़ाई में जुट गया ।
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(4) सुश्री जानकी वाही जी 
हम तो जस के तस

"अरे ! जल्दी -जल्दी हाथ चलाओ , अभी बहुत काम पड़ा है!"
काला चश्मा पहने आदमी की आवाज़ में हड़बड़ी थी।
कलुवा ने देखा उसका मिट्टी से बना घर जो कल रात सुंदर सुंदर चीजों से जगमगा रहा था अब फिर से खण्डहर में बदलने लगा है।
" साहब ! सारा सामान जमा कर लिया है, गाड़ी में रख दें ?"
" ये लो सामान की सूची ,अच्छे से जाँच कर लो कहीं कुछ छूट न जाय यहाँ ।"
" ए. सी., कार्पेट, डाइनिंग टेबल , क्रॉकरी ,पर्दे, टिफ़िन और फूलदान ,पायदान। साहब ! मैंने अच्छे से जाँच कर ली और सारा सामान उठा लिया है ।"
" ठीक है अब जल्दी चलो यहाँ से, हमें मीडिया वालों से पहले पहुंचकर दूसरे गाँव में भी सबसे गरीब के घर को इस सामान से सजाना है लोगों को टीवी पर देखकर तो लगे कि गाँव के लोगों का स्तर भी बहुत उठ गया है। भोजन भी वहीं होगा।आज का प्रोगाम भी बहुत ही टाइट है नेता जी का।"
देखते-ही देखते गाड़ियाँ धूल उड़ाती कलुवा की आँखों से ओझल हो गईं।
" हैलो शर्मा जी , हम दूसरे गाँव में पहुंचने ही वाले हैं सामान के साथ, आपने सबसे गरीब आदमी का घर ढूंढ लिया है ना ।"
" ढूंढ तो लिया था कुमार साहब , पर इस गाँव का सबसे गरीब आदमी मना कर रहा है।"
"क्यों ?"
" कहता है हमें नहीं करवानी नौंटकी।"
" कैसी नौंटकी । "
" बोलता है नेता जी को गरीब की झोपड़ी में ही भोजन करना है तो हमारे साथ जमीन पर बैठकर हमारे जैसा खाना खाएं । हम नहीं चाहते कि एक दिन के लिए हमारी झोपड़ी राजा के महल सी चमके।हम जैसे हैं वैसे ही ठीक हैं।"
" समझाओ उसे इतने बड़े नेता के पाँव उसकी झोपड़ी में पड़ने से उसका जनम सुधर जायेगा ,टीवी पर अख़बार पर उसका फोटो आएगा।"
" सब बोले थे उसे, डराया भी पर जिद पर अड़ा है कहता है ख़ूब सबक मिल गया जनता को ये झूठ -मूठ का नाटक के बारे में। अब ना फंसने वाले हम। और जाने कौन सी भाषा में क्या बोल रहा है हमें तो समझ ही नहीं आ रहा ।"
" क्या बोल रहा है ।"
" वो बोल रहा है -
"कोऊ नृप होउ हम का हानि ।हम तो जस के तस।"
" ये तो हमें भी समझ नहीं आया ये नृप क्या होता है ?"
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(5). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
सबक 
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"यह तेरी आँखों को क्या हुआ?" डॉक्टरनी जी नें उसकी सूजी हुई लाल-सुर्ख आँखों का कारण पूछा तो उसने हमेशा की तरह आज फ़िर बात टाल दी। और क्लीनिक की साफ-सफाई में जुट गई ।
क्या बताती वह उन्हें? यह तो अक्सर ही होता है। सफाई करने के लिए सामान इधर से उधर करने के साथ-साथ वह अपने ख्यालों की उठापटक में आ उलझी। भावावेश में आकर उस दिन जबसे उसने मियाँ-बीबी के अपने आपसी झगड़े को पड़ोसन से ज़ाहिर किया है तब से अक्सर किसी न किसी पड़ोसी के मुँह से उसे अपने और अपने पति के विषय मे कुछ न कुछ ऊलजलूल सुनाई दे ही जाता है।
मारे डर के वह पति से उस विषय मे कुछ नही बताती पर 'दूसरों की परेशानियों का मखौल उड़ाकर , लोगों को न जानें क्या मज़ा आता है?' यही सोच-सोच कर उसका सारा दिन सिसकते हुए ही बीतता है।
आज का दिन भी कुछ यूँ ही बीतता अगर एक नन्हे मरीज़ की महीन आवाज़ उसके कानों में न पड़ती।
"डॉक्टर आँटी ,डॉक्टर आँटी ये जो मक्खियॉं हैं न ! मेरे घावों को कुरेद देती हैं। मैंने तो इनसे कभी लड़ाई नही की, फिर भी..? आप इन्हें समझा दोगी कि ये मेरे घाव न कुरेदें।" नन्हा बच्चा हुसकते हुए डॉक्टरनी जी से कह रहा था।डॉक्टरनी हँस दीं।
फ़िर बच्चे के सिर में हाथ फेरते हुए वे बोलीं "बेटा घावों को ढक कर रखना चाहिए। मक्खियों की फ़ितरत में ही होता है घाव कुरेदना।"
डॉक्टरनी जी की बात सुन उसे लगा जैसे उसके मन मे लगातार कसती हुई गिरहों की जकड़ एकाएक कमज़ोर पड़ गई हो।
"डॉक्टरनी जी बिल्कुल ठीक कह रही हैं।" बुदबुदाते हुए उसने बेड पर पड़े कम्बल को तह करके परे रखा और चादर पर पड़ी सलवटों को हाथ से सीधा कर दिया।
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(6). श्री मोहम्मद आरिफ जी 
अनाथ
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"माँ ,आशीर्वाद दीजिए ।" राहुल ने अपनी माँ शारदा देवी के
चरणों को स्पर्श करते हुए कहा ।
"आज सुबह-सुबह चरण स्पर्श और आशीर्वाद कैसा ? कोई खास.......।" माँ ने अख़बार से नज़रें हटाकर कहा ।
"आज मदर्स डे है , मातृ दिवस ।"
"अच्छा तो ये बात है , माँ के लिए साल में एक दिन खास । जुग-जुग जियो मेरे लाल ।" माँ ने आशीर्वाद देते हुए कहा ।
" अपने इकलौते बेटे को आज के दिन कुछ सलाह या सीख नहीं दोगी माँ जिसे मैं जीवन भर याद रख सकूँ ।"
"कुछ खास नहीं बेटा । बस! तेरे जीते जी मैं अनाथ न हो जाऊँ।"
"कैसी बात कर रही हो माँ ।"
"आजकल तेरी बीवी अनीता का बर्ताव ......।"
कहते-कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए ।
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(7). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
'अग्निपथ पर'
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वह हांफती हुई अपने चुने हुए रास्ते पर दौड़ती जा रही थी। लेकिन यह रास्ता भी उसे दुविधायुक्त लगने लगा था। अचानक ही उसे अहसास होने लगा कि कोई उसका पीछा कर रहा है। लेकिन उसने पीछे मुड़कर देखना उचित नहीं समझा। तभी उसने पीछे से कोई आवाज़ सुनी।
"रुको! ये रास्ता भी पथरीला, ज़हरीला और तरह-तरह की आग की लपटों से घिरा हुआ है, तुम्हें रुकना ही होगा! अपनी हालत तो देखो!"
उसने पीछे मुड़कर देखा ही था कि उसके मुंह से चीख निकल पड़ी और हक़लाते हुए उसने पूछा- "तुम! क्यों मेरा पीछा कर रही हो?"
"तुम्हें रोकने, तुम्हें साथ लेने! पर तुम हो बहुत ज़िद्दी...हर हाल में यूं दौड़ती ही जा रही हो, मेरे साथ हो लो, सब ठीक हो जाएगा!"
"पहले अपने गिरेबां में तो झांको! कितनी भयावह हो तुम... बदनाम हो चुकी हो तुम। बहुरूपिया कहते थे तुम्हें, लेकिन इस ज़माने में तो तुम बेहद कुरूपा हो गई हो!"
"भाषण बंद करो! तुमने भी तो क़ुदरत और धर्म की अवहेलना कर अपने रूप बदले विरूपिका! अंजाम भोग रही हो न!"
"मैंने कुछ ग़लत नहीं किया, ग़लत तो मुझसे करवाया गया!"
"तो क्या मैंने कुछ ग़लत किया? मुझसे भी ग़लत करवाया गया, मुझे भी वीभत्स रूप धारण करने के लिए उकसाया गया या विवश किया गया सबके विरुद्ध!"
"सबके विरुद्ध?"
"हां, केवल इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों और पर्यावरण के विरुद्ध भी!" यह कहते हुए 'मौत' अब 'ज़िंदगी' के बिल्कुल नज़दीक पहुंच चुकी थी।
"मुझे छोड़ दो मेरे हाल, तुम ख़ुद अपनी मौत मर रही हो, उलझ चुकी हो मौतों की विधियों में ...और मुझे भिन्न तरीक़ों से ख़ुदक़ुशी के लिए उकसाती हो! मर-मर के जी रही हूं!" ज़िन्दगी ने कहा।
"यही तो तुम्हें समझाना था; केवल खुशियों के लिए यूं दौड़-दौड़ कर तुम दुखों से दूर भाग नहीं सकतीं! कष्ट और दुख मौत से बदतर नहीं हो सकते!" यह कहकर 'मौत' ने 'ज़िन्दगी' का हाथ थामते हुए कहा - "मुझे अपने ही साथ रखो, दुखों के रूप में; मुझे 'मौत' कहलाना पसंद नहीं!"
"सच कह रही हो। मैं तुम से कुछ सीखूं और कुछ तुम मुझसे!" हारती हुई 'मौत' से 'ज़िन्दगी' ने कहा।
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(8). सुश्री रश्मि तरीका जी 
मुक्ति
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"कितनी बार कहा है नीरा तुम्हें ..कि अपने इस अधूरेपन का यूँ घर भर में प्रदर्शन मत किया करो। इतने सालों में इतना भी नहीं समझी !"एक हिकारत भरी नज़र डालते हुए सुकेश ने कहा।
"इतने सालों में तुम भी तो नहीं समझे मुझे ! न ही मेरे दर्द को न किसी एहसास को !"
"अधूरापन स्वीकार तुमने किया था ,मैंने न तब किया न अब होगा मुझसे।"
"यानि अगर मैं खुद के लिए यह फैसला न लेती और तुम्हारी ज़िन्दगी में न रहती तो तुम्हें मंज़ूर था ?"पूछते हुए होंठ कांप उठे।
"मैंने ऐसा कब कहा ?"
"जिस इंसान पर ,मैंने हमेशा आँखें मूँद कर विश्वास किया उसी की आँखें अब दिन भर मेरा मुआयना करती रहती हैं। खैर अब तो मैं भी दिल को तसल्ली दे लेती हूँ कि अधूरे तो तुम भी हो !"
"अधूरा और मैं ? पागल हो क्या ?"तिलमिला कर सुकेश ने हाथ मे लिया अख़बार फैंकते हुए कहा।
"हाँ अधूरे ! मैं शरीर से और तुम दिल और दिमाग से ! लेकिन सुनो सुकेश , अब मुझसे न तो तुम्हारी ये बींधती नज़रे, न ही यह दिखावटी बोझ सहन होता जिसका भार लेकर घूमती रहती हूँ। बस अब और नहीं ..!" कहकर तन और मन से एक अनचाहा बोझ उतार कर नीरा ने सुकून की साँस ली।
सही मायनों में तो आज ही उसे ब्रैस्ट कैंसर से मुक्ति मिली थी !
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(9). श्री तस्दीक़ अहमद खान जी 
इंसानियत (सबक़ )
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मौलवी रहीम सुबह की नमाज़ पढ़ा कर मस्जिद से बाहर निकलते हैं और ठीक सामने पुजारी राम मंदिर से पूजा और आरती करके बाहर आते हैं | अचानक पुजारी के सामने एक कबूतर उड़ता हुआ आया और मंदिर की छत पर बैठ गया | पुजारी ने तुरंत दो लड़कों को इशारा करके कहा
 " इसे पत्थर मार कर भगा दो ,यह किसी मुसलमान का पाला हुआ कबूतर है "
जैसे ही लड़कों ने पत्थर मारा कबूतर सामने मस्जिद की छत पर जा कर बैठ गया | यह देख कर मौलवी ने भी दो लड़कों को आवाज़ देकर कहा
" यह मंदिर से आया है इसे पत्थर मार कर भगा दो "
दोनो तरफ से सितम का सिलसिला चलता रहा ,बे ज़ुबान कबूतर पत्थर पर पत्थर खा कर ,घायल और लहू लुहान हो कर आख़िरकार ज़मीन पर गिर पड़ा | धीरे धीरे वहाँ देखने वालों की भीड़ जमा हो गई |
अचानक भीड़ को चीरता हुआ एक आदमी कबूतर को हाथ में उठा कर मौलवी और पुजारी को मुखातिब करता हुआ कहने लगा "मेरा नाम माइकल है ,यह मेरा कबूतर है आप लोगों ने मेरे कबूतर को हिंदू और मुसलमान में बाँट दिया है ,इस से पहले भी आप दोनो लोगों को धरम के नाम पर आपस में लड़वा चुके हैं " वो थोड़ा रुक कर फिरकहने लगा "लेकिन आज तो आप दोनो ने हद कर दी,एक बे ज़ुबान कबूतर को मोहरा बना दिया ,क्या बता सकते हो इसके खून को देख कर कि यह हिंदू के खून जैसा है या मुसलमान के लहू जैसा "
यह सुनते ही भीड़ में खामोशी छा गई ,मौलवी और पुजारी चुप चाप सर झुकाए वहाँ से चले गये
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(10). सुश्री सीमा सिंह जी 
दूध का जला

गुस्से से भुनभुनाते हुए अमरनाथ ने जैसे ही आँगन में कदम रखा, सामने ही फर्श पर पड़े गिलास पर खीज उतारते हुए, उसे ज़ोर से ठोकर मारी। गिलास नाचता हुआ, घर की नीरवता को झंकृत करता, दूसरे कोने में जा दीवार से टकराकर शांत हो गया।
“दिखा ले जितना गुस्सा दिखाना है! मैं भी बाप हूँ तेरा! मन्नो की शादी वहीं होगी जहाँ मैं हामी भरूंगा।” पिता अपने कमरे में से ही क्रोधित स्वर में डकराये।
घर की स्त्रियाँ समझ चुकीं थी, कि हर बार की तरह इस बार भी अमरनाथ का पसन्द किया रिश्ता पिता को समझ में नहीं आया, और रिश्ता तय होने से पहले ही टूट गया है। क्योंकि यह पहली बार नहीं था जब रिश्ता देखने गए पिता-पुत्र आपस मे उलझते हुए लौटे हों।
“पिता जी के कहे में रहे न, तब तो हो ली लड़की की शादी!” अमरनाथ क्रोध से भन्ना रहा था।
बीच-बचाव करने की गरज से माँ ने अमरनाथ के पास जाकर पूछा, “अरे, अब क्या हुआ, बेटा?”
बहू के हाथ से पानी का गिलास ले, बेटे को पकड़ा कर, उसके ही कंधे का सहारा ले बगल में बैठ गई।
माँ को समर्थन में पाकर अमरनाथ फट पड़ा, “अच्छे खाते-पीते लोग हैं। लड़का डॉक्टर है। अब कुछ तो उम्मीद उन्होंने भी लगा रखी होगी ही न! वो लोग गाड़ी चाहते हैं… हमारा बजट पूछा। पिताजी को इतने भर से लालच दिख गया उनका!”
“अच्छा! तू चिंता न कर अभी बात करती हूँ इनसे।” कहती हुई माँ ने पिताजी के कमरे का रुख किया, तो भीतर से आती बहू की आवाज़ सुन ठिठकी।
“आप परेशान मत होइए, बाबूजी! वो आपसे ऊपर थोड़े ही हैं।”
“पर, बहू, कोई इनसे भी तो पूछो! आज के ज़माने में बिना लेन-देन के शादी मुमकिन है? फिर हम समरथ हैं, तो क्यों न दें अपनी बिटिया को।” माँ ने उनकी बातचीत में शामिल होते हुए कहा।
“ये तुम कहती हो, अमर की माँ? हमने अमिता की शादी में इन छोटी-छोटी बातों पर ही तो ध्यान नहीं दिया था।”
“पर एक बार गलत लोग मिल गए, तो ज़रूरी तो नहीं सब वैसे ही हों।” अपनी बेटी का ज़िक्र आते ही माँ का स्वर नम हो गया था।
“सुनो, अमर की माँ! हम अपनी बेटी को गवाँ चुके हैं… इसी लिए, पोती के मामले में हर कदम फूंक-फूंक कर रखना है!”
अपना निर्णय सुनाकर बाहर निकल कर, सामने ही खड़ी मन्नो के सिर पर हाथ फिराते हुए बोले, “अपने बाबा पर भरोसा रखना, तू उसी घर जाएगी जहाँ तेरी ज़रूरत हो। तेरे पिता के ऊंचे ओहदे, और दादा की दौलत की नहीं।”
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(11). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
गवाह  

रानू ने घर में घुसते ही तिरछी निगाहों से घुरते हुए पिता से कहा,'' ऐसे क्या देख रहे हो ? ''
पिता कुछ नही बोले. चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे. उन की निगाहों में एक सवाल था. जिसे रानू ताड़ गई थी. बोली,'' आज भी यही जानना चाहते हो ना कि मैं कहां गई थी ?''
'' हूंह !'' पिता ने गहरी श्वास बाहर छोड़ी. उन का यह उपेक्षित भाव रानू को असहनीय लगा,'' आप लोगों की बातें क्यों सुनते हो ? सीधेसीधे मुझे से पूछ लिया करो. कोई कुछ भी कहता हैं आप मान लेते हो. आज फिर किसी ने मुझे किसी के साथ देखा था ?''
'' हां,'' पिता ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,'' आज कहां गई थी ?''
'' ओह ! तो 'उस' ने चुगली कर दी.'' रानू बोली,'' मैं जिस के साथ गई थी वह मेरा जूनियर क्लासमेट भैया है. उस के साथ में मेरी सहेली जिया भी थी. चाहे तो आप फोन लगा कर उस से पूछ सकते हो ?''
'' मगर, उस के साथ मोटरसाइकल पर बैठ कर कहां जा रही थी ? जब कि तूझे मना किया है कि....''
'' ओह पापा ! अब तो आप को शक करने की बीमारी लग गई है. जब मैं पहले अकेली जाती थी तब आप शक नहीं करते थे और अब जब सहेली के साथ जाती हूं तो शक करते हो.  आप कहे तो शहर के कॉलेज जा कर पढ़ाई करना छोड़ दूं ?''
इस पर पिता को गत वर्ष एक रेड में पकड़ाई 'उस' गवाह जिया की याद ताजा हो गई. इसलिए उन्हों ने तुनक कर कहा, '' पहले तू अकेली जाती थी इसलिए शक नहीं होता था, जब से 'उस' गवाह के साथ जाने लगी है शक होने लगा है.''
यह सुन कर रानू चुप हो गई
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(12). डॉ टी आर सुकुल जी 
बहुत कठिन है डगर .. ..

दादी माॅं को मृत्युशैया पर देख परिवार के सभी सदस्य उनके चारों ओर एकत्रित हो गए। और वे, उन सबसे यह पूछने में व्यस्त थी कि ‘‘आज क्या पकाया गया है, घर के सभी कमरों को ठीक ढंग से धोया गया है कि नहीं, सभी ने स्नान कर लिया या नहीं ‘‘ ।
सदस्यों ने निवेदन किया कि, ‘‘ माॅं काम की चिन्ता मत करो, सब होता जा रहा है, तुम तो हरि हरि बोलो‘‘
उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया और बोलीं, ‘‘ अरे ! गायों को चारा डाला है या नहीं ‘‘ ।
सभी सदस्य चाहते थे कि उनकी मुक्ति हो, इसलिए वे उन्हें बार बार समझा रहे थे,
‘‘ माॅं ! घर के सभी कामकाज सही समय पर उचित ढंग से किये जा रहे हैं तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम तो केवल हरि हरि बोलो ।‘‘
दादी ने इसे फिर से अनसुना कर दिया और पूछने लगी, ‘‘ अरे ! कुत्ते को कुछ खिलाया या भूखा ही बैठा है ?‘‘
सदस्यों ने उनसे हरि हरि बोलने के लिए फिर से प्रार्थना की। इस बार वह झल्लाते हुए बोली,
‘‘ सब लोग यहाॅं से बाहर जाओ ! क्या मैं मर रही हॅूं ? एक ही नाम बार बार कहने की रट लगाए हो ? ए छोटी बहु ! आॅंगन में जाकर देख कपड़े सूख गए होंगे, उठा ला। ‘‘
बाहर आकर दादी माॅं के छोटे बेटे ने अपने बड़े भाई से पूछा,
‘‘भैया ! माॅं को यह क्या हो गया है ? हरि हरि बोलने में उन्हें कठिनाई क्यों हो रही है ?‘‘ वह बोले,
‘‘ मन के द्वारा शुरु से जैसे कार्यों, आदतों और विचारों का अभ्यास किया जाता है अन्त में भी वही विचार घेरे रहते हैं , इन्हें बदल पाना बहुत कठिन होता है।‘
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(13). सुश्री अपराजिता जी 
भीड़

दिन भर आग उगलने के बाद थका - मांदा सूरज पुराने तालाब मे डुबकी लगने को आतुर तेजी से ढ़लता जा रहा था । गोधूली बेला मे सभी अपने नीड़ की तरफ बढ़ चले । घंटो से नूरा को ढ़ूंढ़ती हताश फातिमा और रजिया भी हलकान हो घर को चल पड़ीं ।
" अम्मी ओ अम्मी , नूरा आ गयी क्या ? " फातिमा ने टेर लगाई ।
" नहीं तो , तुम्हारे साथ ही तो थी । क्यों , क्या हुआ ? " फरजाना चुन्नी से हाथ पोछती बाहर आई ।
" हाँ ! हम उसे नहला कर वहीं पोखर के पास छोड़ कपड़े धोने लग गयीं थीं फिर आते वक्त बहुत ढ़ूंढ़ा पर ..." रजिया रूआंसी हो उठी ।
"ओह ! अब तो अंधेरा हो गया , अब क्या होगा ?" अनजानी आशंका से कांप उठी फरजाना ।
" क्या हो गया ? " रहीम मियां अंदर आते हुए सबसे मुखातिब हुए ।
" अब्बा , वो नूरा नहीं मिल रही शाम से ।" रजिया बोली ।
"क्या ? या खुदा ! कहीं कुछ ...." कहते हुए दौड़ कर रहिम मियां बाहर निकले और अपने पड़ोसी रहमत और लल्लन को आवाज दी । कुल जमा तीन घर हीं थे बस्ती में इनके । सब जानकर दोनों डंडा और रस्सी लिए आ गये । रहीम मियां टॉर्च लिए लपकते से निकलने को हुए कि पड़ोस मे रहने वाले रामदीन मास्टर साहब ने टोका " क्या हुआ ? ये कहां की तैयारी ? "
" मास्टर जी , वो अपनी नूरा नही मिल रही शाम से । कल्लू चमार की नजर कब से उस पर लगी है ...हमेशा कहता है बूढ़ी गौ रख कर क्या फायदा ...इसे मुझे बेच दे । "
कहते हुए एक खौफ सा छा गया रहीम की आँखों में । रुंधे गले से बोला " आप तो जानते हो की वो हमारे घर की सदस्य जैसी है । उसी को ढ़ूंढने जा रहे हैं ।"
" बाहर बहुत अंधेरा है , कल सुबह ढ़ूंढ़ लेना ।" मास्टर जी ने गंभीरता से कहा ।
" अंधेरा ? आज तो पूरे चांद की रात है मास्टर जी , फिर ये टॉर्च भी तो है ..." उतावला होता रहीम बोला ।
" पूरे चांद से लोगों के दिमाग का अंधेरा नही जाएगा मेरे भाई ! नूरा को कुछ नही होगा , उसे बचाने के नाम पर सौ हाथ खड़े हो जाएंगे , भले उस भीड़ मे कल्लू चमार भी क्यों न हो , पर ..."
एक पल को रूक कर उन्होंने रहीम के कंधे पर हाथ रखते हुए भीगी आवाज मे कहा " अभी रात मे तुम सभी को नूरा के साथ देख कर तुम्हारे सच पर कोई यकीन न करेगा , और न बचा पाएगा भले उस भीड़ में मैं भी क्यों न होऊं "
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(14). योगराज प्रभाकर 
दिशा

चाय की गुमटी के आसपास काफी चहल पहल थी, चाय की चुस्कियों लेते लोगों के ठहाकों के स्वर भी बीच बीच में उभर रहे थेI किन्तु गुमटी के पीछे बैठे वे दोनों साथी बहुत उदास दिख रहे थेI उनकी चाय ठण्डी हो रही थी और हाथ में पकड़ी बीड़ियाँ भी बुझने को थींI काफ़ी देर की ख़ामोशी के बाद एक ने चुप्पी तोड़ी:
“बहुत बुरा वक़्त चल रहा है भाई! पता नहीं ये कैसा ज़माना आ गया हैI” बुझती हुई बीड़ी का अंतिम कश खींचते हुए एक ने कहाI“सही कह रहे तो यार, कितना अच्छा टाइम था वोI” चाय की प्याली उठाते हुए दूसरे ने हामी भरीI  
“क्या ज़माना था यार, हर रोज़ मुर्गा-मच्छी और अंग्रेजी दारूI” पुराने समय को याद करते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गईI 
“अब तो लगता है कि भूखो मरने की नौबत आने वाली हैI” एक आह उभरीI
“साल में दो दो बार पहाड़ों की सैर पर जाना, खाना-पीना, खूब मौज मस्ती करनाI” अतीत की रंगत उसके चेहरे पर उभर आईI
“सही कह रहे हो, कितने महंगे महंगे होटलों में ठहरा करते थे हमI”
“और अब देखो, साली दाल रोटी का जुगाड़ भी बड़ी मुश्किल से होता हैI”
“तुम्हें याद है बड़े बाज़ार के दंगों में कितना माल बनाया था मैने?”
“याद है भाई! मैंने भी तो लाल चौक वाले फसादों के बाद ही खुद का मकान खरीदा थाI”
“अरे मैंने तो दोनों बच्चों की शादी भी उसी कमाई से की थीI”
“अब तो साला ज़माना ही बदल गया हैI” एक उदास स्वर उभराI  
“वो ज़माना वापिस कब आयेगा यार?”
गुमटी वाला बूढ़ा; जो उन दोनों की बाते सुन रहा था, उनके पास आया और दोनों के कन्धों पर हाथ रखते हुए पूछा:
“पुराने वक्तों को याद कर रहे हो बच्चो?”
“अरे चाचा वो तो...I” यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर, वह दोनों सकपका उठेI   
“भूल जाओ बच्चो! वो ज़माना अब शायद कभी वापिस नहीं आएगाI” खाली गिलास उठाते हुए उसने कहाI
“क्यों चाचा?” दोनों साथिओं ने एक स्वर में प्रश्न चिन्ह उछालाI    
“तुम्हे याद है वो टाइम, जब एक ही आवाज़ पर हमारे लोग सड़कों पर निकल आते थे?”
“हाँ चाचा! मगर अब तो लगता है कि किसी को फुर्सत ही नहीं हैI”
“बिलकुल सही कहा तुमनेI मैं भी इसी तरफ इशारा कर रहा हूँI”
“इसका मतलब ये कि सरकार के साथ साथ हमारे लोग भी हमारे दुश्मन हो गए हैं?”
“नहीं, बिलकुल नहींI दुश्मन न तो सरकार है न हमारे लोगI”
“तो फिर वो दुश्मन कौन है चाचा?”
सड़क की दूसरी तरफ बने कारख़ाने और स्कूल की तरफ इशारा करते हुए चाचा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:  
“वो रहे तुम्हारे असली दुश्मनI”
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(15). श्री श्याम मठपाल जी
निर्णय

शर्मा जी के बेटी ने सब की तरह दसवीं कक्षा पास करने के बाद साइंस विषय लिया . क्लास ट्वेल्थ में बड़ी मुश्किल से पास हो पाई . हर कोई अपने बच्चों को डॉक्टर -इंजीनियर बनाने के होड़ में शामिल था . लाखों रूपये खर्च कर कोटा में कोचिंग इंस्टिट्यूट में भर्ती करा रहे थे . शर्मा जी व श्रीमती शर्मा ने बेटी गरिमा से बात की और जानना चाहा कि वो क्या करना चाहती है और उसकी रूचि किस में है . शर्मा परिवार इस बात से अवगत था कि अभिभावक अपनी हसरतों को बच्चों पर थोपते हैं जिससे कई बच्चे बर्बाद हो गए और कई तो आत्महत्या के दुखद कदम तक उठा लेते हैं. गरिमा ने कहा वो आर्ट्स में ग्रेजुएशन करना चाहती है . शर्मा परिवार ने सहर्ष उसकी बात मान ली तथा उसके पसंदीदा कॉलेज पर एडमिशन करा दिया. गरिमा को पढाई में काफी आनंद आने लगा. गरिमा ने ग्रेजुएशन गोल्ड मैडल के साथ किया . सारा परिवार ख़ुशी में झूम उठा . आज परिवार को अपने सही निर्णय पर गर्व है.
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(16). सुश्री डॉ संगीता गांधी जी 
हिंदी टीचर
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सुबह से ही कक्षा में आज सुरभि बड़े उत्साह से क्लास ले रही थी।तनख्वाह का दिन था ।अपनी पहली नॉकरी की पहली तनख्वाह मिलने का उत्साह वो समेट नहीं पा रही थी ।
" मैडम प्रिंसिपल ने आपको बुलाया है।"
चपरासी ने आकर जैसे ही खबर दी सुरभि मानो उड़ते बादल की तरह ऑफिस में पहुंची ।
"ये लीजिये आपका चेक ।यहां साइन कर दीजिए।
"सर ,ये तो दस हज़ार हैं!साइन आप पूरे स्केल पर करने को कह रहे हैं "!
"तो ,जो मिल रहा है,रख लो।हिंदी टीचर हो, इतना काफी है "!
"सर,बाकी टीचर को तो पूरा स्केल मिला है ।"
"वो साइंस ,इंग्लिश ,मैथ्स के टीचर हैं ।हिंदी तो हम सिर्फ दिखावे के लिए पढ़ाते हैं।हमारे हाई फाई पब्लिक स्कूल में लोग अपने बच्चों को हाई फाई इंग्लिश सीखने भेजते हैं ।हिंदी कौन सिखाना चाहता है अपने बच्चों को"!
"जी सर,एक रिक्वेस्ट है -ये मेरी पहली तनख्वाह है ।मैं चाहती हूं कि आप मुझे सारे स्टॉफ के सामने चेक दें।"
"चलिए स्टॉफ रूम में, आपकी ये इच्छा पूरी कर देते हैं "।
स्टॉफ रूम में --"लीजिये सुरभि जी अपनी पहली तनख्वाह का चेक "।
सुरभि चेक लेकर फाड़ कर प्रिंसिपल की ओर फेंकती है।सारा स्टॉफ अचंभित सा खड़ा हो जाता है ।
"ये क्या बदतमीजी है ।निकल जाओ मेरे स्कूल से"।
"जा रही हूं।कल हिंदी संस्थान की जिस गोष्ठी में आपको हिंदी प्रेम और हिंदी उन्नति पर भाषण देना है ,वहां मिलेंगे।"
सुरभि कहते हुए दरवाज़े तक पहुंची फिर पीछे मुड़ी --"आपकी हिंदीऔर हिंदी शिक्षक पर की गयीं महान टिप्पणियों को इस मोबाइल में रिकॉर्ड कर लिया है।कल की गोष्ठी यादगार होगी आइयेगा ज़रूर ।न भी आये तो भी मोबाइल तो बजेगा ही ...."!
सुरभि जा चुकी थी ।प्रिंसिपल ए सी में भी पसीने से लथपथ खड़ा था ।
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(17). गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
सबक
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कलुआ ठाकुर के पैरों पर पड़ा था –‘सरकार हमसे बड़ी गलती भई , हमका माफ़ करें माई-बाप .’
‘माफी की कौन बात है, रे कलुआ . अरे भाई गवाही देना न देना ई तो तुम्हारी मर्जी पर है. कोई किसी को मजबूर नहीं कर सकता न . बीस साल ऊ खेत तुम , जोतेव बोयेव, अब जो गवाही का टाइम आवा तो तुमरे पंख निकसि आये. हम तोहिसे झूठ बोले का तो नाही कहा. जा बचवा.  ई चकबंदी माँ हमार दस-पांच बीघा खेत कम होई जाई तो कौन पहाड़ टूटी परी .’
‘सरकार माफी होय ?’
‘हाँ-हाँ , हम तोहका माफ़ किया जा अपना घर-बार देख ‘
‘कौने मुंह जाई सरकार , हमार बिटीवा का छोटे ठाकुर के आदमी उठाय लाये हैं.’
‘ई लो ----‘- ठाकुर ठठा के हँसे –‘अभी माफी मांगत रह्या ससुर अब हमरे बेटवा पर इल्जाम लगावत है.’
‘इल्जाम नहीं, सरासर सच है सरकार . हमार बिटिया आपकी हवेली मां ही है . 
‘अच्छा ---!’- ठाकुर ने बनावटी आश्चर्य से कहा –‘अरे तो ठीक है एक दो रोज हमारी हवेली में रह लेई तो कौन आफत आ जाई , कै साल की है तोरी लौंडिया ?’
‘इहै अठारह बीस की सरकार !’
‘तो ठीक है कलुआ जा हमरे खिलाफ पुलिस में रिपोट लिखा .’
"नाही सरकार एक गलती हमसे भई , अब दूसर कौनो सूरत नाही होई .’
‘तो फिर बेफिक होकर अपने घरे जा, जरा हम हू तो देख लेई तोहर बिटीवा कस है ? अरे हम तो तोहार पुरानी खिदमत का खयाल कर माफी कर दिहे रहे पर छोटे ठाकुर सबक सिखाने से बाज नाहीं आये . हम का करी रे कलुआ,  जवान खून है, बाप की नाहीं सुनता .’
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(18). श्री तेजवीर सिंह जी 
सबक़ 

सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा आकाश मार्ग पर, अपने दैनिक कार्य करते हुए, विचरण काल में, एक विशेष अवसर पर आमने सामने हो गये।
"सूरज भैया, आपने यह क्या आफ़त मचा रखी है? क्यों आग उगल रहे हो? जन जीवन  अस्त व्यस्त हो रहा है| सारे प्राणी व्याकुल हैं| मैं स्वयम भी इस तापमान से त्रस्त हूँ | यह मेरी बर्दास्त के बाहर है"।
"प्रिय अनुजा पृथ्वी, क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि मैंने कुछ अतिरिक्त ऊर्ज़ा का प्रयोग किया है"?
"प्रिय भ्राता, आपके इस कथन का आशय क्या है, मुझे कुछ भी समझ नहीं आया"?
" प्रिय बहिना , मेरी दिनचर्या वही है जो सदैव रहती है। मैंने कुछ भी विशेष नहीं किया"।
"तो फिर यह भीषण गर्मी और ताप किसकी देन है"?
"प्रिय अनुजा, इसका ज़िम्मेवार मैं नहीं हूं | यह मेरे कारण नहीं है”।
“कृपा करके आप  थोड़ा स्पष्ट करेंगे"।
"प्रिय अनुजा, मेरे ताप से बचाव के लिये प्रकृति द्वारा  जो कवच प्रदान किये गये हैं जैसे पहाड़, जंगल, पेड़ पौधे, हरियाली,नदी, तालाब, झरने  आदि, मानव जाति स्वंयम ही उनको नष्ट करने में व्यस्त  है"।
“ हाँ भ्राता, आपकी यह बात तो सत्य है। मैं इससे सहमत हूँ| मैं खुद भी इनकी करतूतों से परेशान हूं। मैंने तो इनको आँधी, तूफ़ान, अतिवृष्टि एवम भूचाल आदि से डराया धमकाया, मगर यह लोग इतने ढीठ और बेशर्म हैं कि इन पर रत्ती भर भी असर नहीं होता”|
“यही तो मैं तुम्हें समझाना चाह रहा था, यह सब मानव जाति की अतिवादी सोच का परिणाम है,मेरी प्रिय बहिना”|
"तो यह मानव अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों चला रहा है"? वार्तालाप में शामिल होते हुए चंद्रमा ने प्रश्न किया|
"लालच, अपने निजी स्वार्थों के लिये प्रकृति का अनुचित दोहन"।
"इसके तो और भी खतरनाक़ परिणाम हो सकते हैं"।
"निश्चित रूप से, इसके कारण अनावश्यक प्रदूषण बढ़ेगा। तरह तरह की भयंकर बीमारियाँ पैदा होंगी"।
"तो क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं होगा"।
"होगा, अवश्य होगा और वह भी स्वंयम मनुष्य के ही द्वारा होगा""।
"वह कैसे"?
"जब उसे अपनी इस भयंकर भूल का अहसास होगा तब  वह  अपनी करनी से सबक़ लेगा और प्रायश्चित करेगा"।
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(19). सुश्री प्रतिभा पण्डे जी 
‘अधूरी आई ‘
 

बिट्टू को गोद में लिए पार्क की बेंच पर  गुमसुम बैठी रीना को देख , जूस वाला उसके पास आ गया I   

 “ टोले में किसी ने कुछ कह दिया क्या ?   उदास क्यों  है ?”

“कभी कभी अपनी अधूरी ज़िन्दगी पर बहुत गुस्सा आता है यार I घर संसार कुछ नहीं ,बस ताली बजाते यहाँ वहाँ फिरते रहो I मेरा भी मन करता है कि...I “ रीना की उदास आँखें कहीं दूर देख रही थीं  I

“ आज कल तो  मैंने सुना है कि ठीक  भी हो जाते हो तुम लोग,  कुछ  ऑपरेशन  वगेहरा  करवाकर   I पैसे तो खूब हैं तेरे पास , करवा ले इलाज I”  जूस  वाला उसे घूरता हुआ  धीरे से मुस्कुराया  I

“  तू करेगा फिर मुझसे शादी ?”  उसकी आँखों में झांकती रीना भी  अपने पर  उतर आई थी I

“ कर लेंगे I सुन्दर तो तू है ही ,पैसे भी हैं, साथ में बेटी भी है एक I क्यों बिट्टू i  “  रीना के धौल से बचता, हँसता हुआ  वो भागकर अपने ठेले  के पास आ गया I

जूस वाले को जवाब देने के लिए खड़ी हुई रीना की नज़र सामने बेंच  पर बैठे  जोड़े पर चली गई I   एकदम चिपक कर बैठे  वो दोनों एक दूसरे के ग्लासों से जूस पी रहे थे I  आदमी को झट पहचान गई रीना  I परसों इसी के  घर नेग लेने पहुंची थी  अपनी टोली के साथ I गोद में लल्ला लिए गोरी चिट्टी सकुचाई  उस नई माँ को देख, उसकी किस्मत से जलन हो आई थी रीना कोI

“देख रही है बिट्टू ii  घर में बिचारी  औरत बच्चा लिए बैठी है , और ये यहाँ .दूसरी के साथ I”  नफरत  से जमीन पर  थूक दिया उसने I

“ तो बिट्टू ,क्या सोचा तेरी आई ने ?” रीना से फिर  मसखरी करने की गरज से जूस वाले ने  चिल्ला कर पूछा I  अपना नाम सुन बिट्टू, जोर से उसकी तरफ देखकर भौंक दी I आसपास के  ठेले वाले  हँसने लगे I

“सुन लिया जवाब मेरी बेटी का ? ये कह रही है कि इस मरद जात का कभी भरोसा मत करना I बाहर से चमक और अन्दर से सड़ांध  हैं ये I ” उस जोड़े पर जलती नज़र डाल बिट्टू को कस कर अपने से भींच लिया था अब उसने  I

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(20). श्री मनन कुमार सिंह जी 
सबक
.
सामाजिक सरोकार की बातें गौण हो चली थीं।व्यक्तिगत-जातिगत स्वार्थ के कथ्य सर्व ग्राह्यता के तथ्य नियामित किये जा रहे थे। देश भर में उथल-पुथल की स्थिति थी।सरकारी घोषणा से लाभान्वित और गैर लाभान्वित आमने-सामने हो चले थे।सामाजिक समरसता के तत्वाधान में देव-पूजन कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।निहितार्थ यह था कि आस्तिकता की पक्षधर बहुसंख्यक आबादी इस महान कार्य में सलग्न हो जायेगी और वर्ण तथा वर्ग-विभाजन जैसी स्थिति से बचा जा सकेगा।देव-पूजन का कार्य भी रैलियों को पार करता हुआ एक आंदोलन की शक्ल में सामने आ गया।पूजन का दिन मुकर्रर हुआ।शुभ घड़ी भी आ गयी।मंत्रोचार हवा चली।जयकार का नाद हुआ।पूजन-मंडली अनियंत्रित हो गयी।होते-होते गैर धर्म के इबादत गाह की कुछ ईंटें खिसक गयीं।देश स्तब्ध रह गया।उस घटना की समरसता और धर्म निरपेक्षता के देशी पैमाने से पड़ताल की गयी।विद्वेष-विध्वंस की बू मिली।कई राज्य सरकारें बर्खास्त हुईं।खाये कोई,भरे कोई जैसे हुआ सब।पूजन प्रभुओं के महा प्रभुओं पर मुकदमे दायर हुए।इस्तीफे और वापसी
के दौर चलते रहे।
आज फिर मुकदमे की सुनवाई हुई।तब के पूजन-सूत्रधारों पर सामाजिक ताना-बाना को विघटित करने के प्रयास जैसे आरोप तय हुए।अदालत के बाहर खड़े दो बुजुर्ग बातें कर रहे थे:
-लाल जी तब के हीरो माने जाते थे।
-हाँ,क्यों नहीं?अपनी पार्टी को खूब फायदा पहुँचाया था उन्होंने।
-और अब क्या औकात रह गयी?
-समय-समय की बात है।
-नही,सबक लेने की।
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(21). श्री अजय गुप्ता 'अजेय जी 
छोटा किसान

कोहराम मच गया। पूरे गाँव में गौतम की मौत की खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गई। हर जुबान पर एक ही बात। रामनिवास के लड़के गौतम ने फांसी ले ली।
"क्या, क्या कह रहे हो। 11 साल के बच्चे ने फांसी।" हर कोई हैरान।
रामनिवास के घर के बाहर गाँववालों का जमावड़ा। रिश्तेदारों को खबर दे दी गयी थी। रोआ-रिट्टी मची हुई थी।
खिल्लू काका ने रामनिवास को सम्बल देने की कोशिश की। फिर सुमेरिया को बुलाया जो गौतम के साथ खेल रही थी।
"का रे सुम्मी। क्या हुआ था?"
8 साल की सुम्मी ज्यादा कुछ समझ न पायी थी। पर सबको रोता देख रोये जा रही थी। हिम्मत करके बोली,
"दादा हम तो खेती-खेती खेल रहे थे। हमने बीज बोये थे। पर पानी नहीं बरसा ना। तो गौतम ने कहा पिछले साल जब पानी नहीं बरसा था तो घोलू का बापू रस्सी से लटका था। वो घर से रस्सी लाया और लटक गया।"
हर चेहरा सुमेरिया को देख रहा था। रामनिवास का रोदन हलक में फंस गया। खिल्लू काका के हाथ से लाठी गिर गयी। उसने ऊपर देखा। आसमान से दो बूँद आंसू अब भी नहीं टपके थे।
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(22). श्री महेंद्र कुमार जी 
2 + 2 = 5
 
"मैं सच कह रहा हूँ पिता जी। आप इतने साल से कोमा में थे शायद इसलिए भूल गए। हम अंग्रेज़ों के नहीं, अंग्रेज़ हमारे ग़ुलाम थे।" हॉस्पिटल से कुछ ही दिन पहले लौटे रितेश को अभी भी अपने बेटे की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था।

अचानक उसे याद आया कि बेसमेंट में उसकी लाइब्रेरी है। वह दौड़कर नीचे गया। उसने सारी किताबें अलट-पलट कर देख डालीं मगर वो पुस्तकें वहाँ नहीं मिलीं जिनकी उसे तलाश थी। उसने अपनी पत्नी को आवाज़ लगायी, "यहाँ मेरी इतिहास की पुरानी किताबें रखी थीं, कहाँ गयीं?"
 
"वो तो बैंक में जमा हो गईं।" पत्नी ने सीढ़ी से नीचे उतरते हुए कहा। "उनकी जगह वहाँ पर नयी किताबें रखी हैं। तुम उन्हें देख सकते हो।" रितेश ने एक किताब उठायी और तेज़ी से पन्ने पलटने लगा। फिर दूसरी और तीसरी। और फिर बाकी की सब भी। सभी जगह एक ही बात, "सन् 1947 में ब्रिटेन को भारत से स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी।"
 
पर बचपन में तो उसने कुछ और ही पाठ पढ़ा था फिर यह कैसे हो सकता है? उसका सर चकराने लगा। वह ऊपर के कमरे में गया और इस तथ्य को कंप्यूटर पर खोजने लगा। मगर यहाँ भी वही जवाब। उसकी हैरानी का ठिकाना नहीं। यह कैसे सम्भव है? क्या कंप्यूटर में कोई वायरस आ गया है?
 
उसकी आँखें एक बार पुनः उस अख़बार पर टिक गईं जिसमें ब्रिटेन की स्वतंत्रता के विषय में पढ़कर उसने अपने बेटे से यह सवाल पूछा था। उसने टीवी ऑन किया। टीवी पर प्रधानमंत्री जी की लाइव स्पीच चल रही थी, "आज पन्द्रह अगस्त के दिन ही हमारे महान देश ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए अंग्रेज़ों को आज़ादी प्रदान की थी।" उसने कई चैनल बदले पर सभी का यही हाल। उसे लगा कि वह पागल हो जाएगा।
 
वह आईने के सामने खड़ा हो गया। "कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं अभी भी कोमा में हूँ?" उसने कहा और दोनों हाथों से अपने बाल नोचने लगा। तभी उसे लगा कि उसका दम घुट जाएगा। वह तेजी से घर के बाहर निकला।
 
बाहर सड़क पर लोगों का हुजूम इकठ्ठा था। उनके पेट कमर से चिपके थे तो चेहरे पसीने से तर। लोगों के जिस्म में जगह-जगह घाव थे जहाँ से ख़ून रिस रहा था और वो ऐसे चल रहे थे जैसे ज़ॉम्बीज़। सभी के हाथों में देश का गौरवशाली झण्डा था जिसे वे गीत गाते हुए लहरा रहे थे, "अपना देश सबसे अच्छा! सबसे अच्छा अपना देश!!"
 
उसने ऊपर की तरफ देखा। पूरा आसमान अजीब से काले-काले बादलों से ढका हुआ था। उसने सूरज को देखने की भरपूर कोशिश की मगर उसका कहीं नामोनिशान नहीं था।
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(23). डॉ आशुतोष मिश्रा जी 
तमाचा 
राम नगर की पी जी कॉलेज में रामनगर की रहने वाली टीना और छात्रावास में रहने वाली रीना की मुलाक़ात हुए चंद रोजात ही हुए थे किन्तु एक जैसे व्यक्तित्व, कद काठी और सुन्दरता जैसी खूबियों ने दोनों को इतना करीब ला दिया था मानो एक लम्बे अरसे से वो दोस्त होंI दिवाली के अवकाश के बाद आज टीना रीना से मिलने छात्रावास पहुँची तो उसकी आँखों में नमी और उसके रुख पर सूखे हुए आंसुओ की लकीरे देखकर हतप्रभ थीI  
“क्या हुआ रीना? कोई बात है क्या? घर की  याद आ रही है क्या या कोई और है जिसकी याद मे  आँसू बहा रही हो मेरी जान?” टीना ने माहौल को सामान्य बनाते हुए कहाI
“ऐसा कुछ भी नहीं हैI“ रीना ने बड़ी दबी आवाज में कहाI
“कुछ तो होगा, तुम मुझे बताना नहीं चाहतीं, तुमको मेरे कसम हैI “
“नहीं टीना कुछ भी तो नहीं हैI“
“इसका मतलब तुम मुझे अपना दोस्त नहीं मानती होI“
“ऐसा नहीं है रीना “ रीना ने फफककर रोते हुए कहा “टीना आज रामनगर के बिधायक के कुछ गुर्गे आज आये थे और उन्होंने कहा है कि आज शाम को होटल स्वप्निल के कमरे में पहुँच जाना, बिधायक जी ने बुलाया है, यदि नहीं पहुँची तो अंजाम समझ लेनाI“
सुनते ही टीना के माथे पर लकीर खिंच गयीं, रामनगर के बिधायक? ये कैसे हो सकता है?“ मन ही मन तमाम प्रश्नों में उलझी टीना ने अगले ही पल सहज होते कहा:
“रीना तुम कहीं नहीं जाओंगीI मेरे भैया भी पुलिस में बहुत बड़े अधिकारी हैं, तुम सब मुझपर छोड़ दो, आखिर मैं किस दिन काम आऊँगी?”  
“नहीं टीना! तुम उन लोगों को नहीं जानती होI “ रीना के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थेI
“नहीं रीना तुम कहीं नहीं जाओगीI बस मैंने कह दिया, तुमको मेरी कसम हैI”
रीना को आदेश के लहजे में कहकर टीना आनन् फानन में प्रस्थान कर गयी और ठीक शाम को सात बजे मुह पर चुनरी लपेटे होटल स्वप्निल के कमरे में पहुंचकर दरवाजे पर दस्तक दे दीI
“कम इन, दरवाजा खुला हैI“ कमरे के अन्दर से विधायक महोदय की आवाज आयी टीना बिना कुछ कहे विधायक से थोड़ी दूर रखे सोफे पर सर झुकाकर बैठ गयीI
”तुम्हे ६ बजे बुलाया था, अब आ रही होI आइन्दा से ऐसी गलती नहीं होनी चाहिएI जब से तुम्हे कालेज के कार्यक्रम में देखा है दिल को पल भर का भी करार नहीं हैI अब ये शर्म छोडो और चेहरे से ये नकाब उठाओं ताकि हम भी तो चाँद के दीदार कर सकेंI“
बेचेनी में अंगडाई लेते हुए विधायक जी ने अभी अपनी बात पूरी की भी न थी कि टीना ने अपने चेहरे से चुनरी हटा दी और विधायक की तरफ मुखातिब हो  गयीI
“अरे! बेटा टीना तुम यहाँ क्या कर रही हो?“ विधायक जी अपने चेहरे से पसीना पोंछते हुए बोलेI
“हाँ पापा मैं! क्या हुआ रीना को यहाँ क्यों बुलाया था? ऐसा क्या है रीना के पास जो मुझमे नहीं है? रीना आ सकती है तो मैं क्यूँ नहीं?“
टीना के जवाबों की झड़ी लगते ही विधायक जी को ऐसा तमाचा लगा कि वो तकिया सर पर रखकर बिस्तर पर औंधे लेट गए उनके पास न तो टीना से नजर मिलाने की हिम्मत थी न ही सवालों के जवाबI बेटी के तमाचे ने उन्हें बेटियां क्या होती हैं शायद इसका अहसास जरूर करा दिया थाI
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(24). श्री मोहन बेगोवाल जी
सबक
.
कालोनी के लोग चोपाल में आने लगे,धीरे धीरे चोपाल लोगों से भर गई, और सभी का ध्यान गेट की तरफ किसी के आने के इंतजार में है । कालोनी में सत्ताधारी पार्टी के लीडर के आने का समाचार पहले ही फैल चुका हुआ है। कालोनी का लीडर भी इधर उधर तेज़ गति से अपने लोगों को इकठ्ठा करने के लिए मोबाईल कर रहा है। लेकिन बहुत सारे उस के अपने घरों के लोग अभी तक यहाँ नहीं आए हैं, ये सोचकर कि उसके दिल की धडकन तेज़ हो रही है। उस पर आने वाले बड़े लीडरों का भी डर सता रहा है, क्यूंकि उसे लग रहा है कि अगर वह भीड़ न जुटा पाया तो वो लोग नाराज़ हो जायंगे, लेकिन अब तो पिछली पार्टी का भी साथ नहीं होगा ।
अचानक हरप्रीत वहाँ पहुंचा, और बोला “ कोई न आइएगा, सब सबक सीख गए हैं,  यदि आप थाली का बैंगन हो, हम तो नहीं हो सकते, हम सब अपनी जिंदगी खातिर अपनी मर्जी तो कर सकते हैं”।
ये सुन बस्ती का लीडर, हरप्रीत की तरफ देखता ही रह गया।
------------------
(25). सुश्री नीता कसार जी 
अक्खड
.
"कहाँ जा रही हो,नकाब पहन कर, सुनो हम से भी मिलते जाओ ?"
"कहाँ भैया? रास्ता ना रोको ।काम पर ना जाऊँगी तो घर में चूल्हा ना जलेगा ।"
"घर को छोड़ो हमारे साथ चलो,मजे में रहोगी । भैया कह के ज़ुल्म ना करो।" मजनूँ जैसे लड़के ,कामकाजी कोमल को आये दिन परेशान ही नही,नाक में दम करते।
आज कोमल के सिर तक पानी आ गया ,जब एक छिछोरे ने रास्ता रोक कर कहा ।
"भैया नही सैंया कहो ?"
उसने साईकल रोकी, मिर्च पावडर का डिब्बा उँडेल दिया उनके सामने, सख़्त सबक़ सिखाकर वह रवाना हो गई।
तथाकथित मजनूं आँखें मलते रह गये ।
----------------------------------
(26). सुश्री विभा रानी श्रीवास्तव जी
"सबक"

 "उंह्ह्ह !" नाक पर झट रुमाल रखना पड़ा... गंध से मितली आने लगी मुझे। कुछ ही दिन हुआ था मुझे अपने पति संग उनके नौकरी पर आये हुए... आज पड़ोसन से परिचय बढ़ाने के लिए उनके घर आ गई... उनके बैठकखाने में अजीब-सी गंध फैली मिली। गप्प करने में मुझे परेशानी हो ही रही थी कि चाय-नाश्ता भी आ गया।
“मैं चाय नहीं पीती हूँ” नाक से रुमाल हटाने पर गंध गले तक चला गया।
"ठीक है! मुँह मीठा कीजिये पहली बार मेरे घर आई हैं।
"ये गंध कैसी फैली है ?"
"रूम फ्रेशनर "
"कुछ और भी"
"कोने में निगाह डालिए न " पड़ोसन बताते बताते खिलखिला पड़ी
कोने में छोटे तिपाये पर सुंदर-सी प्लेट में एक सुलगी सिगरेट रखी हुई थी
"ये ? ऐसे!"
"मुझे सिगरेट की गंध बेहद पसंद है! अपने पति महोदय को कहती हूँ जोर देकर कि पीजिये वे मेरी बात मानते ही नहीं तो मैं हमेशा सिगरेट सुलगाये रहती हूँ"
"आप जानती हैं कि सिगरेट कितना हानिकारक होता है ?
"पीना हानिकारक होता है न ?
"शायद मैं आपके घर दोबारा ना सकूँ!"
तभी उनकी गर्भवती ननद भाई के संग डॉक्टर से रिपोर्ट दिखला कर वापस आई... सबके चेहरे लटके हुए दिखे... सिगरेट की धुंए से ननद को प्रभावित बताया था डॉक्टर ने...”
--------------------------------------------------
(27). सुश्री कल्पना भट्ट जी
हथकड़ी
 उसे हथकड़ियों में देख उसके दोस्त ने नाराजगी से कहा। "हज़ार बार समझाया था तुमको, शराब पी कर गाड़ी मत चलाया करो पर तुम तो हर बार मेरी बात को मज़ाक में टाल देते थे न!"
वह कुछ न बोल पाया, चुपचाप पुलिस वैन में जाकर बैठ गया। आसपास भीड़ जमा थी। कोई कह रहा था। "अच्छा हुआ पकड़ा गया, कम से कम मुक्ति तो मिली। हर वक़्त नशे में धुत्त मिलता था।"
पीछे से कोई और भी बोला। "इसका परिवार भी तो त्रस्त था।.... पर सुना है जिस गाड़ी को यह चला रहा था उसमें इसका परिवार भी था।"
"उनका क्या हुआ?" मित्र ने शीघ्रता से पूछा।
एक ओर से उत्तर मिला। "सुना है गाडी एक पेड़ से टकरा गयी थी और इसकी बेटी का सर पेड़ से टकराने से उसने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया।
सहसा वहां खड़े पुलिस अफसर ने सही बात बताई। "गाडी ये नही इसका नाबालिग बेटा चला रहा था और उसने भी शराब पी रखी थी। जानते-बूझते उससे गाडी चलवाने के आरोप में ही इसे पकड़ा गया है।"
पुलिस वैन में बैठते वक़्त पश्चाताप से आंसू बहाते हुए उसने दोस्त से कहा ," काश सही सबक सही वक़्त पर सीख लेता ! "
-------------------------------------------------
(28). श्री राज्यवर्धन सिंह “सोच” जी 
खैरख्वाह
.
कश्मीर में हालात बेकाबू होने को थे, कर्फ्यू लगने वाला था, आतंकवादियों और सेना के बीच की जंग शहर को भयावह मोड़ पर ले आयी थी। सुनसान से सड़क पर खुर्रम तेजी से चला जा रहा था। घर पहुँचने की जल्दी उसके चेहरे पर दिख रही थी।
घर के दरवाजे को इतनी बार खटखटाया मानो तोड़ देगा। पसीने की बूंदें उसके चेहरे पर उतर आयी थी।
“क्या हुआ, बेटे?” ; अम्मी ने घबराकर पूछा।
“अम्मी वो मैं मदरसे से.... लौट रहा था तो अब्बास मियाँ की दुकान पर अखबार उठाया था और........ और.....”
“हाँ, बोल बच्चे, क्या हो गया”; अम्मी जान अब सशंकित हो उठी ।
“वो... वो अखबार में अब्बा के मारे जाने की खबर....”; खुर्रम रो पड़ा।
“या खुदा, ये क्या.....” अम्मी बेहोश हो गयीं।
तभी तीन-चार असलहाधारी धड़धड़ाते घर में घुसे। खुर्रम घबरा गया।
“अरे नहीं, घबराओ नहीं, तुम्हारे अब्बा हमारे दिल अज़ीज कमाण्डर थे, हम तुम्हारे खैरख्वाह हैं- उनमें से एक बोला
“अ... आप लोग यहाँ”
“हम तुम्हें तुम्हारा हक मयस्सर करा रहे, साहबजादे, ये लो हथियार और इस नामुराद सेना से बदला लो हमारे अज़ीज और अपने अब्बा के कत्ल का, अल्लाह तुम्हें जन्नत बख्शेगा” ;एक और ने क्रूरता से कहा।
खुर्रम के चेहरे पर हजारों भाव आ जा रहे थे, उसने अपनी अम्मी के चेहरे पर निगाह डाली, उसके हाथ की पकड़ किताबों पर सख़्त हो गयी।
एक भावपूर्ण नजर उसने उन असलहाधारियों के चेहरे पर डाली और चीख पड़ा- “नहीं.... गलतियाँ दोहरायी नहीं जाती चचा जान”
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ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - 26, के सफ़ल आयोजन, त्वरित संपादन,संकलन एवम प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी। 

 आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , एक और सफल गोष्ठी के लिए आपको और सभी मित्रों को हार्दिक बधाई I  कृपया  १९ क्रमांक पर मेरी रचना को इस परिमार्जित रूप से प्रतिस्थापित कर दें I कृपया इस पर अपनी अमूल्य टिप्पणी देने की भी कृपा करें I सादर

‘बिट्टू की आई’  

 

 बिट्टू को गोद में लिए पार्क की बेंच पर  गुमसुम बैठी रीना को देख , जूस वाला उसके पास आ गया I   

 “ टोले में किसी ने कुछ कह दिया क्या ?   उदास क्यों  है ?”

“कभी कभी अपनी अधूरी ज़िन्दगी पर बहुत गुस्सा आता है यार I घर संसार कुछ नहीं ,बस ताली बजाते यहाँ वहाँ फिरते रहो I मेरा भी मन करता है कि...I “ रीना की उदास आँखें कहीं दूर देख रही थीं  I

“ आज कल तो  मैंने सुना है कि ठीक  भी हो जाते हो तुम लोग,  कुछ  ऑपरेशन  वगेहरा  करवाकर   I पैसे तो खूब हैं तेरे पास , करवा ले इलाज I”  जूस  वाला उसे घूरता हुआ  धीरे से मुस्कुराया  I

“  तू करेगा फिर मुझसे शादी ?”  उसकी आँखों में झांकती रीना भी  अपने पर  उतर आई थी I

“ कर लेंगे I सुन्दर तो तू है ही ,पैसे भी हैं, साथ में बेटी भी है एक I क्यों बिट्टू i  “  रीना के धौल से बचता, हँसता हुआ  वो भागकर अपने ठेले  के पास आ गया I

जूस वाले को जवाब देने के लिए खड़ी हुई रीना की नज़र सामने बेंच  पर बैठे  जोड़े पर चली गई I   एकदम चिपक कर बैठे  वो दोनों एक दूसरे के ग्लासों से जूस पी रहे थे I  आदमी को झट पहचान गई रीना  I परसों इसी के  घर नेग लेने पहुंची थी  अपनी टोली के साथ I गोद में लल्ला लिए गोरी चिट्टी सकुचाई  उस नई माँ को देख, उसकी किस्मत से जलन हो आई थी रीना कोI

“देख रही है बिट्टू ii  घर में बिचारी  औरत बच्चा लिए बैठी है , और ये यहाँ .दूसरी के साथ I”  नफरत  से जमीन पर  थूक दिया उसने I

“ तो बिट्टू ,क्या सोचा तेरी आई ने ?” रीना से फिर  मसखरी करने की गरज से जूस वाले ने  चिल्ला कर पूछा I  अपना नाम सुन बिट्टू, जोर से उसकी तरफ देखकर भौंक दी I आसपास के  ठेले वाले  हँसने लगे I

“सुन लिया जवाब मेरी बेटी का ? ये कह रही है कि इस मरद जात का कभी भरोसा मत करना I बाहर से चमक और अन्दर से सड़ांध  हैं ये I ” उस जोड़े पर जलती नज़र डाल बिट्टू को कस कर अपने से भींच लिया था अब उसने  I

 

यथा निवेदित तथा प्रस्थापित 

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक २६ के सभी २८ भागीदारों को हार्दिक बधाई और आदरणीय योगराज प्रभाकर सहित सम्पादन टीम को एक और सफल आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाई... समयाभाव में आयोजन में पूरे समय सक्रिय न रहने के लिए खेद और अगले आयोजन की तीव्र प्रतीक्षा में. सादर शुभकामनाओं के साथ.
मुहतरम जनाब योगराज साहिब,ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक-26 के त्वरित संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें
आदरणीय सर

ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक-26 के सफल आयोजन,त्वरित सम्पादन,संकलन एवं प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई ।
विनम्र निवेदन है कि कथा क्रमांक 27 में मेरी रचना को इस परिमार्जित रूप से प्रतिस्थापित कर दें ।

हथकडी

उसे हथकड़ियों में देख उसके दोस्त ने नाराजगी से कहा। "हज़ार बार समझाया था तुमको, शराब पी कर गाड़ी मत चलाया करो पर तुम तो हर बार मेरी बात को मज़ाक में टाल देते थे न!"
वह कुछ न बोल पाया, चुपचाप पुलिस वैन में जाकर बैठ गया। आसपास भीड़ जमा थी। कोई कह रहा था। "अच्छा हुआ पकड़ा गया, कम से कम मुक्ति तो मिली। हर वक़्त नशे में धुत्त मिलता था।"
पीछे से कोई और भी बोला। "इसका परिवार भी तो त्रस्त था।.... पर सुना है जिस गाड़ी को यह चला रहा था उसमें इसका परिवार भी था।"
"उनका क्या हुआ?" मित्र ने शीघ्रता से पूछा।
एक ओर से उत्तर मिला। "सुना है गाडी एक पेड़ से टकरा गयी थी और इसकी बेटी का सर पेड़ से टकराने से उसने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया।
सहसा वहां खड़े पुलिस अफसर ने सही बात बताई। "गाडी ये नही इसका नाबालिग बेटा चला रहा था और उसने भी शराब पी रखी थी। जानते-बूझते उससे गाडी चलवाने के आरोप में ही इसे पकड़ा गया है।"
पुलिस वैन में बैठते वक़्त पश्चाताप से आंसू बहाते हुए उसने दोस्त से कहा ," काश सही सबक सही वक़्त पर सीख लेता ! "

मौलिक एवं अप्रकाशित

सादर

आदरणीय भाई जी

ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक-26 के सफल आयोजन,त्वरित सम्पादन,संकलन एवं प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई । यदि आप योग्य समझे तो
विनम्र निवेदन है कि  मेरी रचना को इस परिमार्जित रूप से प्रतिस्थापित कर दें .
 

 "घर का वैरागी"-----

"बेटा अब मैं अपने घर  लौटना चाहती हूँ. वहाँ भी सब देखना-भालना होगा न!"

"माँ लेकिन वहाँ तुम अकेले कैसे... और फिर मुन्ना के बीना तुम्हारा जी...?"

"जी लग जाएगा बेटा ! जल्दी ही लौटूँगी तुम्हारे यहाँ जरुरत थी, आ गई  उस घर को भी मेरा इंतजार होगा"

"ठीक है अम्मा मैं छुट्टी की अर्जी डाल देता हूँ तुम्हें खुद छोड आउँगा"

....

उसका मानस अपने घर, बगीचे आदी की देखभाल मे उलझ गया था। अब  मुन्ना दादी को ही ’माँ ' कहने लगा था। उँगली पकड़ कर चलने लगा था।  स्नेहलता  को अब अपने  घर की याद सताने लगी थी पोते की देखरेख में उन्होने कोई कोताही नहीं बरती थी

उनके जीवन में सवाल केवल समय की प्राथमिकता का था जिंदगी के बीतें दिनों के जोड-घटाव, गुणनफल निकलता उनका मानस पति की निर्लिप्तता में आकर उलझ जाता था। हमेशा कहा करते "जीवन की चारों अवस्थाओ को शास्त्रों में निर्धारित चारों आश्रमो के अनुसार ही काटना है अब वान्प्रस्थ की ओर बढना है. तुम भी छोडो ये सब झमेले। "
" ठीक है देखिए न, वंशवृक्ष पर लगा नया फल है.इसे सींचने मे लगी हूँ।  मुन्ना के बडे होते ही चल दूगी आप जहाँ कहेंगे वहाँ

फिर अचानक  बीना किसी को कुछ बताएँ निकल गये थे। उसने फिर समय को अपने साथ बाँध लिया था। दिन बितते गए थे
---

तभी "मुन्ना मेरी दादी अम्मा" कहते धूल सने पाँवों से उनकी गोद में बैठ गया वो उसे खिलौने मे उलझा कर बाथरुम चली गई अचानक जोर-जोर से रोने की आवाज से बाहर  आई लेकिन मुन्ना  वहाँ था ही नही!! दौडकर मुख्य द्वार पर आई तो कोई अनजान आदमी मुन्ना को चुप कराने की कोशिश कर रहा था वो  झपट पडी--"कौन, कौन हो तुम? चोर-उचक्का...बच्चा चुराता..."

 एकाएक वह थम गई ,भाव थम गए,आँखे वही थी- चिरपरिचित बस भाव बदल गए थे वो  उनसे नजर ना मिला पाए पर उनकी आँखो की कोरों में छलक आए जल की गहराई मापने में उसे एक क्षण का भी समय नहीं लगा

" स्नेह क्या बताऊँ तुम्हें मंदिर-मंदिर, आश्रम-आश्रम जहाँ गया वहाँ नया अनुभव । मेरी किसी को चिंता नहीं थी  मठाधीश  ने कहा- नए आए हो भोजन कक्ष मे रहो।  सबको भोजन कराके फिर स्वयं करना  उनके पैर दबाना , सुबह जल्दी उठकर....  दर-दर भटकता रहा"

उसे  इस बार भी समय को बाँधने की व्यग्रता थी।  उसके  प्रकृति प्रदत्त स्त्री सुलभ  प्रयासों को सार्थक बनाता समय।  न शिकवा, न शिकायत।  बिना किसी आग्रह के आगे बढी स्नेहलता

मुन्ना को थामे हुए सुदीप अनुगामी बन गये

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