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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-29 में शामिल सभी रचनाएँ

(1). आ० मोहम्मद आरिफ जी 
नरक

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जीआरपी थाने के इंचार्ज -" देखो बेटी, ये तो अच्छा हुआ कि हमारे जवान तुम्हें यहाँ ले आए । सुंदर हो , सुशील हो और जवान भी । इतनी रात गए प्लेटफॉर्म पर अकेली क्यों घूम रही थी ,कुछ भी हो सकता है ।" लड़की ने चुप्पी साध ली थीं । कुछ भी नहीं बताना चाहती थी । थानेदार साहब के लाख मनाने , मान-मनौवल के बाद वह बोली -" जी वो...असली वजह माँ है ।"
"माँ क्यों ?"
" वो सौतेली और घर में नरक चलाती है । मुझे भी उसमें.....।" उसकी ज़बान लड़खड़ाने लगी मगर थानेदार सारा माजरा समझ गए थे ।
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(2). आ० नयना(आरती)कानिटकर जी 
"खारा पानी / दूषित मानसिकता"

" तुम्हें पता हैं, यहाँ के छोले भटूरे बेहद लज़ीज़ हैं ! कभी ट्राइ किए ?" मनोहर डेरी रेस्टोरेंट में कोने की एक टेबल की ओर जाते हुए उसने कहा 
" हूँउउउ! " धीरे से मुस्कुराते हुए वह भी सामने की कुर्सी खींचकर बैठ गई. 
" वेटर! आर्डर प्लीज" उसने बहुत ऊँची आवाज़ लगाई. 
" जी सर! क्या लेंगे आप" वेटर उसकी तेज आवाज़ सुन दौडकर आते हुए पूछा 
" दो प्लेट छोले भटूरे, कितना समय लगेगा जरा जल्दी करना. उसने उत्तेजित होकर कहा 
" सर! कुछ तो वक्त लगेगा ही गरम-गरम बनने में .तब तक आप कहे तो कुछ सॉफ्ट ड्रिंक लगा दूँ. 
" तुम क्या लोगी "- उसकी ओर देखे बिना ही उसने व्यग्रता से पूछा 
" कुछ भी " - उसका जवाब आया 
" मैं तो माकटेल ले रहा हूँ. दो अलग-अलग स्वाद एक साथ. क्या मस्त लगते हैं - तुम भी ट्राय करो" 
" नहीं - नहीं .. ऐसा करो मेरे लिए तो सिंपल आरेंज ही मंगवा दो. मुझे बहुत पसंद है" 
" तुम भी थोड़ी अजीब हो ! अरे, हमेशा कुछ नया करते रहना चाहिए. चलो कोई बात नही, अगली बार जब आओगी ... मेरा कहा मानना" इंतजार करते हुए वेटर को अपना आर्डर देते उसने कहा ----
" कितने सुंदर लग रहे है ना ये पीले और सुर्ख़ लाल गुलाब इस फूल दान में. मुझे पीला रंग बहुत पसंद है और तुम्हें ?" सृष्टि ने अपने आप को संयत करते हुए पूछा 
"ओह! तुम्हारी च्वाईस भी बडी ही सिंपल है. वैसे तुम खुद भी बडी सिंपल हो. उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसके नज़दीक कुर्सी खिसकाते उसने कहा 
" हां जी! मुझे ज्यादा दिखावा पसंद नहीं है" जल्दी - जल्दी हाथ छुड़ाने का प्रयत्न करते हुए उसने कहा 
एक हाथ में गिलास थामें धीरे-धीरे जूस सिप करते उसकी नजर जैसे ही सामने गई तो उसके देखते ही वो गिलास को एक साँस मे खाली कर चुका था . यह देख वो थोड़ा असहज हो गई थी. अभी कुछ ही दिनों पहले तो वे दोनो सगाई की रस्म में बंधे थे और इतनी आतुरता... 
" यू नो कॉलेज के समय से ही मुझे तो यह शोख लाल रंग वाले गुलाब पसंद है. मैनें बहुतों को...." उसने पेपर नेपकिन से मुँह साफ़ करते हुए कहा 
"ओह! "वह बस इतना ही कह पाई. 
"अच्छा , एक बात बताओ वास से एक फ्लॉवर स्टिक निकालते हुए उसने पूछा ..तुमने कभी किसी को लाल गुलाब देकर प्रपोज किया था." वो अब कुछ अघिक ही खुलना चाह रहा था. 
"शिट्ट्ट---" सृष्टि ने अपना हाथ छुडाते हुए अपने दाहिनी हाथ की अँगुली से रिंग निकालकर उसके सामने रख दी .. 
निलेश कभी टेबल पर पड़ी उसकी दी हुई अँगूठी तो कभी तेज कदमों से जाती हुई उसकी पीठ को देखता रहा. 
स्टिक का काँटा उसकी अँगूली में चुभ गया, गुलाब छिटक कर दूर जा गिरा 
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(3). आ० जानकी वाही जी 
बियाबान मन जंगल 
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" कई साल से रंग-रोगन के बिना घर बदहाल हो रहा है।"
कटोरे में पानी और चम्मच को पास रखी मेज पर रखते हुए पत्नी थके अंदाज़ में बैठ गई।
" जब तन -मन में ही घुन लग जाए तो कुछ नहीं भाता।न तारों भरा आसमान न सुबह की अरुणिमा।"
अटक-अटक कर पति बोला।पत्नी को लगा पति के मुँह से आये इन चन्द शब्दों ने मुँह से बाहर आने में युगों का सफ़र तय किया हो।
" जब घर ख़रीदा तो ठीक करने के लिए पैसे नहीं थे।फिर दोनों नौकरी में व्यस्त हो गये तो समय नहीं मिला अब पैसा और समय दोनों हैं तो शरीर नहीं है।"
पत्नी अपनी ही रौ में बोलती रही।उसकी आँख में छुपे सपने अपनी अंतिम साँस ले रहे थे।पति ने इशारे से पानी माँगा।
चम्मच से मुँह में पानी को बूँद की तरह टपकाते हुए पत्नी ने ठिठोली की।
"बिल्कुल उस चातक की तरह लग रहे हो जो स्वाति नक्षत्र में गिरी बूँद को निगलने के लिए आसमान की ओर ताकता रहता है।"
" अच्छा परिहास कर लेती हो।"
इतना बोलने में ही पति थक गया और आँखें बन्द कर ली।
" कुछ दिन से दोनों बेटों से कह रही हूँ , अब अकेले ये सब नहीं कर पा रही हूँ ।किसी लड़के को रख लेते तो मदद कर देता मेरी।अब देखो ना आपको कपड़े भी नहीं पहना पाती हूँ।घण्टा लग जाता है मुझे।"
ब्रेड को मसल कर पति के मुँह में डालते हुए पत्नी को मालूम है इस एक या आधी ब्रेड खिलाने में भी एक घण्टा लग जायेगा।
" हूँ... "
पति ने आँख खोलकर पत्नी को निहारा।
" कहते हैं ज़माना बहुत ख़राब है। नौकर रखने से घर की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी ।हम चारों तो सुबह के गये शाम को ही लौटते हैं।कहीं तुम दोनों को मार कर फ़रार हो गया तो ?"
" तो अभी कौन सा जिन्दा हैं।"
पति बोला और दो बूँद आँखों की कोर से बह निकली।शायद अपनी विवशता पर।
" चप्पल बुरी तरह घिस गई है जब भी लाने को बोलती हूँ तो दोनों यही बोलते हैं ले आएंगे।छह महीने हो गये ये सुनते -सुनते।"
पत्नी की आँख भर आई कहते हुए।पति ने बेबसी से देखा और बोला-
" खुद जाकर ले आओ।"
" कैसे लाऊँ ?आप तो एक पल को भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देते।"
कुछ समय दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी पसरी रही।फिर पति ने मुँह खोला-
" और भी कुछ कहना है ?"
"नहीं ।"
फिर हौले से बुदबुदाई कहना तो बहुत कुछ था।पर कैसे कहूँ , दो साल से बिस्तर पर पड़े हो। तिल-तिल छीज रहे हो ।कुछ कहकर आपका मन ही दुखाऊंगीं।"
कुछ बोली क्या तुम?"
"नहीं तो।"
पत्नी को देख पति ने कहना चाहा-
,"मन का बोल ही दे ,तुम्हारी मदद तो नहीं कर पाऊंगा पर सुन कर दुःख तो बाँट पाऊंगा।" पर शब्द अस्पष्ट बुलबुलों के रूप में निकले जो पत्नी समझ न पाई।
अब पत्नी मुस्कुराई और बोली-
अक्सर मुझे लगता है कभी हमारे सपनों का ये घर एक सघन वन में तब्दील हो गया है जिसके बियाबान मैं और तुम बातों की जुगाली करते हैं।"
फिर हौले से अपने हाथों में पति का बेज़ान हाथ लेकर सहलाने लगी।अब दोनों की ज़ुबान चुप है पर आँखें बहुत कुछ सवाल-ज़वाब बूझ रही हैं।
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(4). आ० सीमा सिंह जी 
आखिरी रोटी

“ओहो, माँ! दीदी होस्टल से आई है, अपनी ससुराल से नहीं जो आपने इसके लिए इतना कुछ बनाया है।” बहन को छेड़ने की गरज से राहुल मेज पर सजे हुए भोजन को देखकर माँ से बोला।
“अच्छा! छः महीने बाद माँ के हाथ का खाना मिल रहा है!” बड़ी बहन ने अपनी कुर्सी पर बैठ, सलाद की प्लेट में से खीरे का टुकड़ा उठाते हुए कहा।
“और क्या बेटा! बड़ी मेहनत का काम है। यूँ ही डॉक्टर नहीं बन जाते,” पिता ने स्नेहिल स्वर में बेटी से कहा।
“माँ, आप भी आ जाओ, साथ में ही खाएंगे।” बेटी ने माँ को आवाज़ लगाई।
“आ गई, बस तुम लोग सर्व करो!” फ़्रिज से ठंडा पानी निकालते हुए माँ ने कहा।
बेटे ने अपनी प्लेट लगा कर जैसे ही रोटी निकाली, माँ ने टोंका, “ये नहीं! दूसरी चपाती ले!”
“क्यों, इसमें क्या खराबी है?” बेटे ने रोटी हवा में लटकाकर उलट-पलट कर देखते हुए कहा।
“अरे, ये आख़िरी है! तू मत खा, मेरी प्लेट में रख दे!” माँ के स्वर में हल्की सी झुंझलाहट थी।
पर बेटे पर शरारत सवार थी। “आप ही हमेशा क्यों खाती हो, माँ?”
“अरे, बच्चों को खाने को नहीं देते हैं पिछली रोटी।”
“क्यों नहीं खाते, वही तो पूछ रहा हूँ!”
“मेरी माँ मना करती थी। कहती थी, पिछली रोटी से पिछली बुद्धि आती है। बच्चे अपने माँ-बाप को भूल जाते है।” माँ ने मुस्कुराते हुए बेटे को बहलाया।
“ये तो कोई बात नहीं हुई, माँ! आप हमेशा आखरी रोटी खाती हो… क्या आप अपने माता-पिता को भूल गईं?” बेटी ने कहा, तो माँ की आंखों में नमी सी तैर गई।
पर पिता ने अपनी थाली से नज़र उठाए बिना ही बेटी की बात को अनसुना करते हुए, पत्नी से कहा, “सुनो… क्यों न दो दिन के लिए तुम्हारे मायके हो आएं। बिटिया कितने दिन बाद घर आई है।”
बरसों बाद मायके जाने की खुशी माँ की आँखों से चू कर खाना परोसते हुए पति के हाथ पर टपक गई, जिसे उन्होंने बड़ी नरमी से पोंछ दिया।
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(5). आ० सुनील वर्मा जी 
छिलके

"अररे यार..पापा थे तब तक कम से कम यह चिंता तो नही थी|" रवि ने झुंझलाते हुए कहा|
"तो क्या मैनें कहा था उन्हें वापस गाँव जाने के लिए? वह तो मुझे उनकी हर बात पर टोका टोकी पसंद नहीं आती इसलिए उस दिन बस थोड़ी तेज़ आवाज़ में..." जवाब में सरिता की झुंझलाहट भी बाहर आयी|
"कोई बात नही| अब यह बताओ कि आगे क्या करे...? कोई फुल टाईम नौकर रख लें ?" एक समाधान की कोशिश हुई मगर यह कहते हुए तुरंत अस्वीकृत हो गयी "नही..नही..मुझे आजकल के नौकरों पर बिल्कुल भरोसा नही है|"
"तो फिर...! कहो तो पापा को ही दोबारा फोन करूँ ?" रवि ने सरिता से प्रश्न किया तो घर के मुख्य दरवाज़े के पास रखी हुई कुर्सी भी किये गये सवाल का जवाब सुनने को उत्सुक हो उठी|
"जिस तरह से नाराज होकर गये हैं न, मुझे नही लगता कि वो वापस आयेगें|"
"तो अब..? मैं जब घर से बाहर होता हूँ, तब मेरे पीछे से तुम्हारी सुरक्षा भी तो आवश्यक है न..!"
कुछ देर सोचने के बाद सरिता ने पूछा "क्यों न हम एक कुत्ता रख लें..?"
सवाल के रूप में समस्या का जवाब सुनकर रवि की आखों में चमक आ गयी मगर बाहर रखी कुर्सी उदास हो गयी|
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(6). आ० वसुधा गाडगिल जी 
ममता की ऊर्जा
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मधुरा तनाव में थी।समय पूरा होते ही नार्मल डिलेवरी हो गई।घर पर नवागंतुक के साथ दिनचर्या प्रारंभ हो गई थी। खाने की थाली पर हाथ रखते हुए वह बोली
" बस-बस गर्म रोटी ज़्यादा खायी जाती है।मोटी हो जाउंगी! "
" बिटिया ,गरम-गरम खाओगी तभी तो तुम और बेबी स्वस्थ रहोेगी! "
" चलो, नारियल- तिल की चटनी भी खाओ।अच्छा बताओ खाना कैसा बना है? "
" बहुत स्वादिष्ट!"
" यह पान भी खाओ... अजवाईन से बेबी के पेट में गैस
नही बनेगी।"
"अभी वह सो रही है, तुम भी थोडा आराम कर लो।"
तभी बेबी उठ गई।धीरे-धीरे करके उसके रोने की आवाज़ तेज़ होने लगी।मिताली ने उसे धीरे से गोद में लेकर तकिये पर रख फीडिंग कराने की कोशिश की।
" ओह!कैसे सम्हालूं इसे? "
" रुको-रुको! इधर से सपोर्ट देना ज़रुरी है।हाँ, अब ठीक है।"
" आप ने सब सम्हाल लिया, मैं तो टेंशन में आ गई थी।यहाँ यू. एस. में डिलेवरी, सासुमाँ की अचानक तबियत खराब होना, ऑपरेशन ...अकेले सौरभ यहाँ कैसे देख पाते!"
" बेटी, सुरेखा मुझसे हमेशा कहती थी,' नन्हा मेहमान आयेगा ऐसा करुंगी, वैसा करुंगी ...' आखरी समय में कुछ कहना चाहती थी।वही मेरी उर्जा बन गया है।"
" सच पापा... यू आर ग्रेट.." कहते हुए मिताली की आँखें छलछला आई।पापा का ममत्वपूर्ण हाथ मिताली की पीठ पर संबल बना ममता उडेल रहा था।नये मेहमान को भी ममता की ऊर्जा मिल रही थी।
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(7). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
ताने-बाने 
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"अरे! यहां कैसे खड़ी हुई हो?"
"खड़ी हूं! पड़ी तो नहीं हूं न?"
"मैं इतने अच्छे से पूछ रहा हूं, पर तुम हो कि ..."
"अच्छा! तो क्या तुम इतने अच्छे हो?"
"नहीं, सामने वाला अच्छा है!"
"क्या! फिर से तो कहो!"
"सामने वालों का बगीचा कितना अच्छा है, है न?"
"सिर्फ़ बगीचा ही नहीं, माली भी!"
"मैं क्या कोई कमी छोड़ता हूं, अपना यह बगीचा संभालने में?"
"कौन सा बगीचा?" पत्नी ने पल्लू सही करते हुए कहा।
"कौन सा कहो या कहो कि कितने बगीचे! मर्द के बराबर फर्ज़ के दर्द तुम्हें कहां!"
ग़ुस्से में खिड़की बंद करते हुए पैर ज़मीन पर पटकती हुई पत्नी बेडरूम में जाकर पलंग पर औंधी गिर पड़ी।
"अब यहां क्यों पड़ी हुई हो?" पलंग के पास खड़े हुए पति ने रिमोट से टी.वी. न्यूज़ चैनल चालू करते हुए कहा।
"वहां पड़ा हुआ मोबाइल भी उठा लो और अपने बगीचे संभालो और पड़ जाओ बगल में !" इस बार स्वर दुगुना कड़क था।
"अरे शुक्र करो कि घर में ही पड़े-पड़े दफ़्तर की थकान यूं दूर कर लेता हूं, दूसरों की तरह बाहर गुल नहीं खिलाता हूं!"
"घर के खिलते गुल पर नज़र-ए-इनायत हो, न हो!"
"कौन से गुलों की बात कर रही हो, पैंतीस पार होने पर?" कूलर चालु कर अपनी तोंद से बनियान ऊपर करते हुए पति ने कहा - "कितनी बार कहा है कि रोमांटिक उपन्यासें पढ़ना बंद करो!"
"कौन सी कमी छोड़ती हूं, क्या कमी है मुझमें, जो ऐसे ताने मारते हो?"
"कमियां न तुम में हैं, न ही मुझमें! हमारी ज़िन्दगी के ताने-बाने में है!"
बेडरूम में कुछ पल सन्नाटे के बाद सिसकियां टेलीविजन की आवाज़ों में फिर दबकर रह गईं।
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(8). आ० विनय कुमार जी 
एक छोटी सी बात--
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बहुत परेशान थे मिसिरजी, अब इस उम्र में पिताजी को समझाना चीन को समझाने जैसा था| पिछले कुछ महीनों की घटनाएं जैसे उनकी परेशानियों में इज़ाफ़ा ही कर रही थीं| जितना ही वह सोचते कि माहौल थोड़ा सुधरे तो पिताजी को समझायें उतना ही सब उल्टा हो रहा था| एक ही मोहल्ले में रहते हुए उन्होंने कभी फ़र्क़ महसूस नहीं किया लेकिन पिताजी तो जैसे अलग ही सोचने लगे थे| 
हर त्यौहार और हर सुख दुःख उन्होंने साथ ही मनाया और बांटा था| पहले तो पिताजी ही उनको भेजते थे कि जाओ और उनके साथ मिल कर खेलो, लेकिन अब तो जैसे उस घर की तरफ देखना भी नहीं चाहते थे| उस दिन तो रफ़ीक चाचा ने भी कहा "अमां नाहक ही परेशान हो रहे हो, अब इस उम्र में तो ऐसा होता ही है| तुम्हारे पिताजी तो फिर भी ठीक हैं, हमारे अब्बाजान तो इस उम्र में आते आते इतने बड़े नमाजी हो गए थे कि उनका बस चलता तो हम सब को सिर्फ इबादत में ही बैठा के रखते| अल्लाह उनको सुकून अता फरमाए"| लेकिन उनको तो महसूस होता ही था कि अब रफ़ीक़ चाचा या उनके परिवार के लोग पहले की तरह बेधड़क उनके घर नहीं आते थे, हाँ उनका परिवार पिताजी से नजर बचाकर गाहे बगाहे उनके घर जरूर हो आता था| 
मिसिरजी को लग रहा था कि अब कुछ नहीं हो सकता और इसी उधेड़बुन में खोये ऑफिस चले गए| शाम को अचानक घर से फोन आया कि जल्दी घर आओ, पिताजी बहुत बीमार हैं तो वह भागते हुए घर पहुंचे| घर में घुसते ही पत्नी मिल गयी और उनके कुछ पूछने से पहले ही उनका हाथ पकड़कर पिताजी के कमरे की तरफ ले चली| कमरे में पिताजी बिस्तर पर लेटे हुए थे और आरिफ चाचा का पोता उनको रामायण पढ़कर सुना रहा था|
आहट सुनकर पिताजी ने उनकी तरफ देखा और उनकी निगाहें बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह गयीं|
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(9). आ० शशि बांसल जी 
तुम भी ...?
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उसकी हृदय भूमि मरुस्थल की तरह जगह-जगह से न जाने कब तक दरकी रहती यदि उस पर उसके बॉस के मधुर व्यवहार की स्नेहिल बौछार न पड़ती ।पुलिस में भर्ती पति का कठोर व्यवहार ,तानाशाही रवैया , अकारण की टोका-टाकी , आये दिन रात की ड्यूटी एक अदृश्य दीवार की तरह पति-पत्नी के रिश्ते के बीच आ खड़ी थी ।ऐसे में ऑफिस की दीवारें ही थीं जो उसे सहज़ रखतीं , अपनी लगतीं ।हालाँकि बॉस ने उससे कभी कोई ऐसी बात नहीं की जिससे ये सिद्ध होता कि वह भी उसके प्रति विशेष भाव रखते हैं ।फिर भी वह कब अपने बॉस की ओर खिंचती चली गई उसे स्वयं पता नहीं चला । कई बार उसका दिल चाहता वह बॉस के साथ ढेर सारी बातें करे , उनके साथ घूमने जाये , अपने अहसासों को कहकर नहीं तो लिखकर उन तक पहुँचाये लेकिन उसके संस्कार उसे समस्त भाव भीतर ही जज़्ब करने को मजबूर कर देते ।
वह फाइलों का काम निपटाने में व्यस्त थी कि अचानक फ़ोन की घंटी घनघना उठी ,
" मैडम , हो सके तो जल्दी घर आ जाइये । बच्ची खेलते - खेलते गिर पड़ी और बहुत रो रही है । " आवाज़ बच्ची की आया की थी ।फ़ोन पर बच्ची की जोर से रोने की आवाज़ आ रही थी । वह झटके से उठी और छुट्टी लेने बॉस के केबिन में पहुँच गई ।कुर्सी खाली थी । वह वहीं बैचेन होकर बॉस के आने की प्रतीक्षा करने लगी ।सहसा उसकी नज़र बॉस की टेबिल पर रखी खुली डायरी पर गई ।न चाहते हुए भी उसके हाथ डायरी की ओर बढ़ गए ।
" कितनी सुंदर लग रही है चेतना आज काली साड़ी में । पाँच वर्ष हो गए मुझे उसे यूँ कैमरे से निहारते - निहारते ... उसकी उड़ती जुल्फें जब गालों पर आ गिरती हैं तो लगता है दौड़ पडूँ और अपने हाथों से हौले से कान के पीछे सरका दूँ ।पर ....? ये इतनी खामोश क्यों रहती है ? कभी ज्यादा बात भी तो नहीं करती । विवाह तो मेरा भी हो चुका है पर विवाह का सुख कहाँ मिला मुझे ? कैसे कहूँ चेतना से चेतना मैं तुमसे बहुत - बहुत प्यार करता हूँ..."
इससे आगे नहीं पढ़ पाई चेतना ।उसकी आँखों से दो बूँद ढलककर डायरी के पन्नों को गीला कर गईं ।वह जाने को पलटी तो देखा सामने दो अनकही आँखें खड़ी थीं ।
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(10). आ० अर्चना त्रिपाठी जी 
अनुसरणकर्ता

क्रोध में उबलते बड़े भैया रक्षिता पर चीख पड़े , " तुम्हे इतने दिनों से समझा रहा हूँ लेकिन तुम मान नही रही हो।मुझे कठोर कदम उठाने पर विवश मत करो।"
लंबे चौड़े संयुक्त परिवार की एम. ए. कर रही रक्षिता समझ गयी थी कि पुनः किसी ने आग घी डाल दिया हैं। उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर कर समझा। उसकी चुप्पी से बड़े भैया और अधिक आगबबूला हो गए:
" तुम किसी की नही सुन रही हो तो घर मे चूल्हा फूको और मैं उसके हाथ पैर ही तोड़ डालता हूँ।"
लेकिन राजेश सर को हानि पहुचाने की धमकी सुन वह चुप ना रह सकी ," भैया ऐसा कोई कदम मत उठाइयेगा। बदनामी आपकी ही होगी ।फिर प्रत्येक लेक्चरर पापा के पदचिन्हों का अनुसरणकर्ता तो नही होता।"
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(11). आ० तसदीक़ अहमद खान जी 
वसीयत
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ठाकुर शमशेर सिंह के पारिवारिक वकील मोहन को उनकी मौत के बाद जैसे ही पता
चला कि उनके बेटों अनिल और सुनील के बीच जायदाद के बटवारे को लेकर विवाद
शुरू हो गया , वो फ़ौरन उनके घर पर पहुँच गये |
वकील को देखते ही अनिल ,सुनील और उनकी माता पूछ्ने लगे " वकील साहिब कैसे आना हुआ "
वकील ने फ़ौरन जवाब दिया "जायदाद के बटवारे में विवाद की सुन कर चला आया "
माताजी आह भरती हुई बोलीं "ठाकुर साहिब मरने से पहले मुझसे कह गये थे कि बटवारा कैसे
करना है , वो बेटियों को भी हिस्सा देना चाहते थे ,मगर बेटे इसके लिए राज़ी न थे "
वकील ने हमदर्दी दिखाते हुए कहा "ठाकुर साहिब जीते जी घर में कोई विवाद नहीं चाहते थे "
अनिल और सुनील बीच में ही बोल पड़े," फिर यह बटवारा कैसे होगा "
वकील ने फ़ौरन जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर माताजी को देकर कहा ," आप लोगों का
बटवारा अब इस से होगा "
माता जी ने आश्चर्य से फिर पूछा ," इस में क्या है "
वकील ने जवाब दिया ,"ठाकुर साहिब की वसीयत "
वकील यह कहते हुए चले गये कि जो जीतेजी ठाकुर साहिब नहीं कर सके वो इस में लिखा
हुआ है --------
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(12). आ० डॉ टी आर सुकुल जी 
स्वयंवर

अपनी आत्मनिर्भर, सुन्दर, योग्य, और सुशील पुत्री के लिए उसके स्तर का वर खोजने में पिता ने अपनी पूरी ताकत लगा दी पर कहीं भी बात नहीं बनी । अवसादग्रस्त होते पति की दशा जब पत्नी से नहीं देखी गई तो एक दिन साहस बटोरकर वह पुत्री से बोली,
‘‘ क्या बात है बेटी, कल जिसे देखा वह लड़का तो पद में तुम से बड़ी नौकरी में है, सुन्दर भी है, फिर भी तुम्हें पसंद नहीं आया? इसके पहले, उद्योगपति के इंजीनियर बेटे और विद्वान प्रोफेसर के डीएसपी बेटे को भी तुमने पसंद नहीं किया?‘‘
‘‘हाॅं ! वे सचमुच बड़े पदाधिकारी, सम्पन्न या विद्वान हैं ।‘‘
‘‘ तो , संकोच किस बात का है जो अब तक मौन ...?‘‘
‘‘ माॅं ! मैं ‘मनुष्य‘ को ही वरण करूंगी । ‘‘
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(13). आ० मनन कुमार सिंह जी 
साथ
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तीर और लालटेन साथ हो गये।हाथ ने साथ दिया।बेचारा फूल मुरझाते-मुरझाते बचा।तीर को दिशा चाहिए थी।लालटेन के पास रोशनी थी।कुछ दिनों तक दोनों साथ रहे।घटा और आँधियों में लालटेन की लौ मद्धिम पड़ने लगी,पर तीर को धमकाती रही।आखिर बिना रोशनी के तीर भला कौन तीर मार लेता।न्याय और प्रगति के उसके दावे खोखले लगने लगे।असमंजस की स्थिति में उसने इधर-उधर नजर फिरायी।कुटिल हँसी बिखेड़ता फूल दिखा।डूबते को तिनके का सहारा हुआ।उसने फिर से फूल का दामन थाम लिया।अस्पृश्यता का नारा शिथिल हो गया।लालटेन भड़क गयी---
-पाँच सालों का साथ होगा,यह तय किया था जनता ने।बीच में गाँठ खोलना तो गद्दारी है।
-अन्याय और भ्रष्टाचार मुझे बिलकुल असह्य हैं,' तीर ने हुंकार भरी।
-हुँह.... इ थब किया कलता हाई थू सब'?हाथ हिलकर रह गया।
अब बुझती हुई लालटेन भीड़ जुटा रही है।माद्दा है कि लोगों को रोशनी अता फरमायेगी। लोग फुसफुसा रहे हैं--
-तीर फिर से फूल की खुशबू में मदहोश हो गया।
-अरे भाई!वह सब तो ठीक है।पर बुझती लालटेन से कहीं शंखनाद होता है?'
-वैसे भी यह समय बाढ़ की चपेट में आये लोगों की देखभाल का है।
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(14). आ० मनीषा सक्सेना जी 
अनकहा

बेटे बहु ने बड़े इसरार करके माता- पिता को अपने मेट्रो शहर में बुलाया |घर में हर प्रकार की सुविघाएँ थीं| फोन पर ही सब राशन-पानी, सब्जी– भाजी घर बैठे ही मिल जाती है |कभी हरी सब्जी लाने का मन किया भी तो बेटा ही कहने लगता आज तो लगता है आप पूरी मंडी ही उठा लायें हैं |नवां महीना लगने पर मांजी बहू को आराम करने को कहती तो वह टोकाटाकी में शामिल होता| बहु हंसकर कहती आपका पोता आयेगा ना तो वह आपको चैन से बैठने नहीं देगा और मांजी पोते का सपना देखा करतीं |
समय पर पोता ही हुआ, मानों सपना साकार हुआ, मांजी ने सारा काम अपने पर ले लिया |राततक थक के चूर हो जाती पर पोते में मगन रहती, मां के पास तो बच्चा सिर्फ दूध पीने जाता| सारे समय बाबा-दादी और उनका खिलौना-- प्यारा सा पोता|देखते ही देखते सालभर होने को आया, बेटे बहु की टोकाटाकी बढ़ने लगी –बच्चे को अपनेआप खाने दीजीये ,ज्यादा गुद्दकड़ ना बनाइये ,अपनेआप खेलने दीजीये, चलते समय गिर जाए तो अपनेआप उठने दीजीये आदि आदि| शूशू –पौटी के लिए भी बच्चे को डांट पड़ती तो दोनों का कलेजा मुंह को आ जाता |
शाम को बेटा बहू बहुत खुश खुश घर आये, आते ही बोले -------
“मां मंदिर में प्रसाद चढ़ाइए, आपके पोते का एडमिशन शहर के नामीगिरामी डे-स्कूल में हो गया है |अब हम लोग शांति से अपने काम पर लौट सकेंगे|”
“इतना छोटा बच्चा ------और ------स्कूल -----|” दादी का मुंह खुला रह गया |
“मांजी आप बिलकुल चिंता मत कीजीये ५ बच्चों पर एक आया है, साथ के बच्चों के साथ खेलने से उसे अच्छी कंपनी भी रहेगी |”
“पूरे पांच साल की छुट्टी हो गई |पांच साल का होने पर अपना काम अपने आप करने लगेगा|”
“इतना छोटा ----कैसे  ------दिन भर तुम लोगों को चिंता लगी रहेगी|”
“मां-------लड़की थोड़ी ना है जो दिनभर चौकीदारी करनी है, पोता है पोता--- तुम्हारा|” “तुम भी चिंता करना छोड़ दो|”
“बेचारा अभी से स्कूल के चक्रव्यूह में फंस जाएगा |”
“नहीं मां, शनिवार इतवार की छुट्टी  के साथ और भी अगल-बगल छुट्टी होगी ही, आप लोगों के बिना तो रह ही नहीं सकते, खून तो आपका ही है ना ----------|”
बाबा ने मोबाइल पर वापसी का टिकिट कटवा लिया|
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(15). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी 
गुरुवे नमः
.
बारिश शुरू होते ही, रिटायर्ड मास्टर जोशी जी  के घर की छत और दीवारें बिलखने लगीं, हर साल की तरह I
‘’  कहीं से पैसे का इंतजाम करके पुताई मरम्मत करवा लेते बारिश के पहले, तो कुछ तो रहने लायक होता घर I पर आप तो ..I’’ आवाज को संयत रखने की कोशिश में पत्नी का चेहरा तन गया I
“ उस समय का बना बहुत पक्का मकान है, मेरी तुम्हारी तरह I इतनी आसानी से ठहेगा नहीं I”  बेबसी को मुस्कान के पीछे साफ़ छिपा गए मास्टर साहब, हर बार की तरह I
“ अग्रवाल कोचिंग सेंटर को मना क्यों कर दिया ? दो घंटे के अच्छे पैसे दे रहा था I”
“ वो बच्चों और अभिभावकों को लूट रहा है, बेवकूफ बना रहा है और तुम चाहती हो मै उसे जॉइन कर लूं!!  चलो छोड़ो, ये देखो I” मास्टर साहब ने एक लिफाफा पत्नी की तरफ बढ़ा दिया I
“ क्या है ये ?’’
“ देखो खोलकर I मेरे एक पुराने स्टूडेंट ने भेजा है,  दिल्ली मे डॉक्टर है वो  I”
लिफ़ाफ़े के अन्दर एक खूबसूरत कार्ड और चिट्ठी थी I एक शिक्षक और व्यक्ति के रूप में, जोशी साहब की शख्सियत का बखान था चिट्ठी में I अंग्रेजी में छपे कार्ड के अंत में, हिंदी में हाथ से लिखा था ‘ शिक्षक दिवस पर देव तुल्य गुरूजी के चरणों में’I
" अच्छा है I“ चिट्ठी और कार्ड को लिफ़ाफ़े के हवाले करते हुए, पत्नी ने होंठ भींच रखे थे I
“ देखा !  चलो एक कप चाय पिला दो अब  I ढूध नहीं है तो काली चलेगी I” पत्नी से आँख चुराते हुए, लिफ़ाफ़े को बैग में रख दिया मास्टर साहब ने I
झटके से उठकर रसोई में जाती हुई पत्नी के पैर की ठोकर से स्टील का ग्लास, टन्न करके चीख उठा I
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(16). इ० गणेश जी बागी जी 
चित्त और पट
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सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष जी की प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी, पत्रकारों द्वारा प्रश्न पूछे जा रहे थे. 
“सर कल विरोधी दल की रैली थी, रैली की सफलता पर आपको क्या कहना है?”
“बिल्कुल फ्लॉप! विरोधी पार्टी असंवेदनशील हो गयी है, कल की रैली केवल जनता को परेशान करने वाली थी. गली-सड़कें उनके कार्यकर्ताओं से भरी पड़ी थी, विद्यार्थियों, रोगियों, मजदूरों और आफिस जाने वाले कर्मचारियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा”
“सर इसका मतलब आप मान रहे है कि रैली में काफी भीड़ थी.”
“खाक भीड़ थी? मुट्ठी भर लोग थे, जिन्हें पैसो के बल पर और कुछ को तो जान माल की धमकी देकर जबरदस्ती लाया गया था”
“सर यह आप कैसे कह सकते है?”
देखिये... मुझे राजनीति में 40 सालों का अनुभव है, मैं ऐसी दर्जनों रैलियों को आयोजित करवा चुका हूँ।“
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(17). आ० तेजवीर सिंह जी 
समझौता

"सुषमा, तुम्हारे बारे में एक बहुत ही चौंकाने वाली बात सुनी है। क्या यह सच है"?
"ऐसा क्या सुन लिया मेरे बारे में,  मेरी प्यारी दोस्त ने"?
"तेरा मंगेतर , बारहवीं क्लास में तीन साल से फेल हो रहा है, क्या यह सच है"?
"हाँ मीनू, यह सच है"।
"क़माल है यार, तू डाक्टरी पढ़ रही है और तेरा मंगेतर बारहवीं फेल"।
"यार यह रिश्ता मैंने तय नहीं किया"।
"तो किसने तय किया"?
 "मेरे माँ बापू ने"।
"अरे यार, तेरे माँ बापू भी गज़ब हैं। एक डाक्टर लड़की के लिये बारहवीं फेल लड़का ही मिला उनको"।
"मीनू, इसमें उनका कोई दोष नहीं है। यह रिश्ता कुछ ऐसी परिस्थितियों मेंतय हुआ था कि आज की तारीख में इसमें कुछ कहने सुनने की गुंजाइश नहीं बची है"।
"ऐसी क्या परिस्थितियाँ थी"?
"मेरे बापू और मेरे मंगेतर के बापू बहुत अच्छे मित्र थे। हम दोनों का जन्म एक ही अस्पताल में लगभग साथ साथ ही हुआ था। उसी समय उन दोनों ने अपनी इस दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने के लिये यह रिश्ता तय कर दिया था"।
"पर यार यह तो बिलकुल ही बेमेल रिश्ता है"।
"हाँ,अब तो यह बेमेल ही लगता है"।
"तो तू अब मना कर दे ना इस रिश्ते के लिये"।
""नहीं यार, मैं ऐसा नहीं कर सकती। समाज में मेरे माँ बापू की बात बिगड़ जायेगी"।
"और तेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस रिश्ते से"?
"असमानतायें और विसंगतियाँ तो हर रिश्ते में ही होती हैं, चाहे वह घर वालों ने तय किया हो या फिर प्रेम विवाह | हर दंपत्ति को जीवन में बहुत सारे अनकहे समझौते करने पड़ते हैं"।
"सुषमा, तू यह सब बातें अपने दिल से नहीं अपने दिमाग से कह रही है, काश तू अपने दिल की बात भी अपनी ज़ुबान पर ला पाती"।
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(18). आ० कल्पना भट्ट जी 
परेशानी

मोहल्ले के  कुत्तों ने एक बैठक आयोजित की ।
जो घरों में पल रहे  थे उसमें से अधिकतर मोटे ताज़े  नज़र आ रहे थे |
सड़को पर घूमने वालों  ने इर्श्या वश उनसे कहा ," तुम्हारा क्या है , तुमको तो खूब माल मिलता है खाने पीने को , दूध मिलता है । और एक हमें देखो भटकते फिरते है कहीं कुछ अच्छा मिल जाये पर कभी कभी तो भूखे पेट ही सोना पड़ता है ।"
पालतू कुत्तों  में से एक ने कहा ," इसमें हमारा क्या दोष , गर तुमको कोई पुचकारता नहीं है तो , कोई क्यों पिलाये तुमको दूध ? क्या तुम उनके तलवे चाटोगे ?"
सभी कुत्ते  एक दूसरे का मुँह ताकने लगे |
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(19). योगराज प्रभाकर
कहा-अनकहा

प्यारे दादा जी,
आज दिल बहुत उदास है, बर्फ से लदी चोटियाँ और चिनार के पेड़ रह रह कर बहुत याद आ रहे हैंI आपने मुझे कहा था कि आपको ख़त लिखता रहूँ, इसलिए कई घटनाओं के बारे में बताने का मन कर रहा हैI

ट्रेन जब यहाँ पहुँची तो लम्बे सफ़र के बाद भूख से परेशान था, इसलिए मैं अपना सामान उठाए बाज़ार में एक होटल पर पहुँचा, होटल वाले ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और कुटिल स्वर में बोला:
“मियाँ जी! तुम्हारे वाला खाना यहाँ नहीं मिलेगाI”
उसने मियाँ शब्द इस तरह चबाकर बोला कि वह मुझे ज़हर बुझे तीर की तरह महसूस हुआ, मैं कसमसाकर रह गया थाI खाना खाकर जाने के लिए मुड़ा तो पीछे से होटल वाले की आवाज़ सुनाई दी:
“अबे छोटू! इसके जूठे बर्तन ज़रा रगड़ रगड़ कर माँज लिओ बे!” बेगाना शहर बेगाने लोग, मैं सिर्फ कड़वा घूँट पीकर रह गया थाI

उस दिन होस्टल के हाल में क्रिकेट का मैच देखा जा रहा है, जब हमारी तरफ का कोई आउट होता तो दर्जनों आँखें मुझे घूरने लगतींI उस तरफ का कोई आउट होता तो मेरी तरफ देखकर भद्दे-भद्दे इशारे होने लगतेI दबी आवाज़ में बकी गई गालियाँ मुझ तक पहुँच रही थींI बाकी सब मैच का आनंद लेते रहे मगर मैं अपने कमरे में लेटा हुआ रात भर सुबकता रहा थाI

छुट्टी का दिन था, उस दिन कृष्ण भगवान का जन्म दिन मनाया जा रहा थाI बाज़ार में बहुत चहल पहल थीI लोगों के चेहरे खिले हुए थेI मैं चौक वाले मंदिर के अन्दर जाकर सब कुछ देखना चाहता था, मगर बाहर खड़े पुलिस वालों की जलती हुई निगाहों ने मेरे पाँव जकड़ लिएI

लेकिन आज तो हद ही हो गई दादा जीI टीवी पर दिखाया गया कि एक बम धमाके में बहुत से निर्दोष यात्रियों की जान चली गईI मैं यह भयानक मंज़र देख न पाया और कॉलेज के लॉन में जा बैठाI तभी पता नहीं कहाँ से अचानक बीस पच्चीस लड़के आए और मुझे घेर लियाI कोई माँ-बहन की गलियाँ दे रहा था, कोई हाथापाई पर उतारू हो रहा था और कोई मुझसे नारे लगाने को कह रहा थाI सब कुछ चुपचाप सुनने के इलावा मेरे पास चारा ही क्या था? लेकिन जैसे ही उनमे से किसी ने मुझे “तालिबान” कहा तो लगा जैसे हजारों महीन से कांटे सीधे मेरे दिल में उतर गए होंI मेरा विश्वास डगमगा रहा हैIमन में आता है कि सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापिस आ जाऊँI क्या सरहद पार वाले ठीक ही तो नहीं कहते? 
(आपकी गांधीवादी विचारधारा को ठेस न पहुँचे इसलिए मैं यह ख़त पोस्ट नहीं कर रहा हूँI)

आपका
बबलू
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(20). आ० अर्चना गंगवार 
रंगत

“हो ओ… मेरे घर आई एक नन्ही परी चांदनी से हसींन रथ पे सवार …”
निशा गुनगुनाते हुए,अपनी  नवजात बिटिया की मालिश  कर रही थी । अपने तीखे नाक नक्श और सांवले सलोने चेहरे की पूरी छाप, निशा को अतीत में ले गई। निशा का विवाह दहेज़ की लंबी चौड़ी मांगों के साथ पक्का हो चुका था कि अचानक  वर पक्ष की ओर से सन्देश आया कि,
‘लड़की का रंग काला है विवाह नहीं करेंगे।’
पर निशा के ताऊ जी भी दुनियादार थे, ऐसे  कहाँ हार मानने वाले, इंजीनियर लड़का हाथ से निकलने देते भला, तुरंत ही दहेज की रकम पन्द्रह से सत्रह लाख कर दी और बात बन गई निशा दुल्हन बन कर  आ गई ।
सासु माँ की आवाज़ कानो में टकराई, तो ध्यान टूटा,
"बहू, रोने की परवाह मत किया कर ! दूध चिरोंजी से बिटिया की मालिश जरूर किया कर।  नहीं तो शादी में परेशानी होगी ।"
सासु माँ ने कटाक्ष भरे स्वर में कहा तो जैसे निशा की बरसो की पीड़ा को आज आंच मिल गई थी, सारी पीढ़ा लफ़्ज़ों में गल गई ।लफ़्ज़ों की तासीर जितनी  गर्म थी  स्वर को उतना ही नरम करते हुए बोली,
"माँ जी चिंता की क्या बात है? दहेज़ में चार पांच लाख बढ़ा देगें।”
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(21). आ० बरखा शुक्ला जी 
'भ्रम '
.
दिल्ली में जॉब कर रही रीना के पास उसके मम्मी पापा आए हुए है , आज सुबह मम्मी रीना से बोली "बेटा इस बार जब से आए है , रोहित मिलने नहीं आया ।"
"उसके पास कहाँ टाइम , अपनी शादी की तैयारी में लगा हुआ है ।"फीकी सी हँसी हँसकर रीना बोली ।
"पर हमें तो लगा था वो तुमसे शादी करना चाहता है ।"मम्मी आश्चर्य से बोली ।
"वो तो मुझे सिर्फ़ अच्छा दोस्त मानता था मम्मी ।"रीना बोली ।
"कहाँ तय हुई है शादी ।"मम्मी ने पूछा ।
"अमेरिका में लड़की के पिताजी का अच्छा ख़ासा कारोबार है ,शादी करने यहाँ आए है ,ये भी शादी के बाद वही जाकर रहेगा । "रीना ने बताया ।
"ओह अब समझी हमेशा अमेरिका जाने की बात तो करता था ,इसीलिए तुझे छोड़ कर अमेरिका वाली से शादी कर रहा है ।"मम्मी ग़ुस्से से बोली।
"नहीं मम्मी उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा ,मैं ही उसके अनकहे को शब्द दे बैठी । "ऐसा बोलते २ रीना की आँखे भर आयी ।
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(22). आ० मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीक़ी जी 
" शिकवा "

वैसे तुमसे बात करने में मुझे कभी कोई भूमिका की ज़रुरत तो न होती थी।
लेकिन आज क्यों मुझे बात शुरू करने से पहले शब्द ढूंढने पड़ रहे हैं ?
और फिर ये शब्द ही , क्यों ?
पहले तो हम बिना कुछ कहे आँखों ही आँखों में बहुत सारी बातें कर लिया करते थे।
आँखें ख़ुशी भी बयां करतीं थीं और शिकायत भी। ग़ुस्सा भी तो बहुत करतीं थीं न तुम्हारी आँखें।
अरे हाँ , डाँट डपट खाने की तो जैसे आदत सी हो गई थी इन आँखों से।
ग़ज़ब का प्यार झलकता था जब तुम इशारों ही इशारों में डांट देतीं थीं। बहुत अपनापन सा था उनमें।
मैं माफ़ करने के लिए कहता तो तुम एक पल में माफ़ भी कर देतीं और ज़ोरदार ठहाका लगा कर हंसतीं , जैसे तुमने सारा जग जीत लिया हो।
देखा ना , ... इन सब में शब्दों की कोई दखलनदाज़ी कहाँ थी ?
रहने दो नीरज , कुछ बातें अनकही सी ही सही ... ... ...
क्योंकि बहुत से सवालों के जवाब , " मैं ने देखे हैं , तुम्हारी आँखों में अटके हुए !!! "
क्या कह रही हो सोरवी ," मैं कुछ समझा नहीं ?"
" जल्द ही समझ जाओगे " , नीरज।
इतने दिन हो गए साथ रहते हुए। खूब अच्छी तरह समझतीं हूँ , तुम्हें ... ... ... 
तुमने उन अधिकारों का मज़ाक उड़ाया है , जो मैं ने तुम्हें दे रखे थे।
तुम एक तरफ तो मुझ से प्यार जताते रहे और आफिस में ???
" ऑफिस में क्या ?" सोरवी।
कुछ नहीं ... ,
 मेरी सहेली रेखा ने सब कुछ बता दिया है।
मेरे होंठों के दरमियान भी बहुत से अनकहे लफ्ज़ हैं।
और तुम समझते हो ," मुझे तुमसे कोई शिकवा ही नहीं है।"
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(23). आ० सुनीता अग्रवाल"नेह" जी 
अँधेरा
.
उसने अंधकार में डूबे उस पथ पर एक दीया जला कर रख दिया । उसके पास ही एक पर्ची लिख कर रख दी जिस किसी को रोशनी की जरूरत है वो इसमें से रोशनी ले कर जा सकता पर साथ ही इसमें थोड़ा तेल डालता जाय । कुछ घण्टे बाद आस पास की बस्ती के हर घर में धीमा धीमा प्रकाश दिखने लगा ।उस रोशनी के कई टुकड़े हो चुके थे । पर वो दीया बुझ चुका था । वो रास्ता फिर से अंधकार में डूब गया ।
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(24). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
जुर्माना

ट्रेन का 5 मिनट का ठहराव था. टिकट लाइन बहुत लंबी थी. रमन की धड़कन बढ़ती जा रही थी. समय तेजी से भाग रहा था और लाइन धीरेघीरे खिंसक रही थी. यह ट्रेन चली गई  तो दूसरे दिन ट्रेन मिलेगी. यह सोच कर वह कभी ट्रेन का देख रहा था कभी खिड़की पर टिकट ले कर जाते हुए यात्रियों को.
तभी ट्रेन ने सीटी लगाई. वह खिड़की पर पहुँच गया. उस ने टिकट लिया. भागा. ट्रेन रफ्तार पकड़ रही थी. जो डिब्बा सामने आया उस में चढ़ गया.
अभी सांसें सामान्य भी नहीं हुई थी कि एक रौबदार आवाज आई, “ बिना टिकट यात्रा करते शर्म नहीं आती.” पांच बंदूकधारी सिपाही के साथ खड़े टीटी कह रहा था और वह फटेहाल यात्री गिड़गिड़ा रहा था , “ साहब ! गरीब आदमी हूं. पैसे नहीं है. माफ कर दीजिए. भगवान आप का भला करेगा.”
“दारू पीने के पैसे है टिकट खरीदने के लिए नहीं है.” कहते हुए टीटी ने नाक दबा कर गार्ड को इशारा किया, “ इसे पकड़ कर ले चलो. जेल में रहेगा तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी.” यह कहते हुए टीटी ने दूसरे यात्री से टिकट मांगा.
दूसरा यात्री आरक्षित सीट पर कब्जा जमा कर सामान्य श्रेणी के टिकट पर यात्रा कर रहा था. यह देख कर टीटी बिफर पड़ा, “ पढ़ेलिखे हो . शर्मा नहीं आती. आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए. दस गुना जुर्माना दीजिए.”
यह सब देखसुन कर रमन ने अपने हाथ में पकड़े टिकट को मुट्ठी में दबा लिया. जेब में हाथ डाला. 200 रूपए थे. जुर्माने का अनुमान लगाया. वह 800 रूपए हो रहा था. आसपास दृष्टि डाली. कोई पहचान वाला नहीं था. जिस से उधार ले सकें. वह जिस शहर में इस वक़्त था वहां भी कोई पहचान वाला नहीं था. जिस से मदद मांगी जा सकती थी इसलिए जेल जाना तय था.
टीटी रौब के साथ जुर्माना करते हुए चला आ रहा था. जैसेजैसे वह नजदीक आ रहा था रमन की दिल की धड़कन ट्रेन की गति के साथ बढ़ती जा रही थी.
‘” टिकट !” यह सुनते ही रमन ने चुपचाप टिकट आगे बढ़ा दिया, “ साहब ! माफ कीजिएगा, चलती गाड़ी में चढ़ गया था. अन्यथा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करता.” यह कहते हुए रमन ने सिर नीचे कर लिया.
‘‘” हूं. सामान्य टिकट.”
‘‘ “जी सर.”
‘‘”  जुर्माना निकालिए.” टीटी ने कहा तो रमन ने नहीं में गर्दन हिला दी.
टीटी ने गार्ड को इशारा किया, ”इन्हें ले चलिए.”
स्टेशन पर ट्रेन के रूकते ही रमन गार्ड के साथ नीचे उतरा पड़ा. उसे अपनी नजरों के सामने जेल की कालकोठरी नजर आने लगी थी. उसे अब जेल जाने से कोई रोक नहीं सकता था.
तभी बरसते पानी की ठण्डी हवा के साथ टीटी की आवाज सुनाई दी,”आप उस सामान्य श्रेणी के डिब्बे में चले जाइए ओर हां, ध्यान रखिएगा- कभी चलती ट्रेन में चढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. दुर्घटना हो सकती है.” कहते ही टीटी और गार्ड अगले डिब्बे में चढ़ गए.
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(25). आ० वीरेन्द्र वीर मेहता जी 
'इंसानी सोच'
.
साहब! क्या देखते हो रोज-रोज इस तरह हमें, ये आप ही लोगों की फैलाई गंदगी को साफ़ करती हूँ मैं!" अपनी ओर नजरें टिकाये साहब को देख, बिट्टो आज चुप न रह सकी।
हालांकि ये कोई नई बात नही थी शर्माजी अक्सर सुबह अपने बंगले के शानदार गेट पर खड़े हो कर उसे देखा करते थे। लेकिन आज काम की अधिकता के चलते शायद बिट्टो तनाव में थी और बाकी दिनो की अपेक्षा तेज हाथ चला रही थी जब उसे शर्माजी का खुद को देखना खल गया।
"नही भई, ऐसी कोई बात नही है दरअसल मुझे तेरी अपने काम के प्रति ये लगन बहुत अच्छी लगती है जो मैं कई दिन से देख रहा हूँ।" शर्माजी मुस्कराते हुये कहने लगे। "और मैं चाहता हूँ कि तुम्हे मोहल्ले में होने वाले सफाई अभियान का 'हेड' बनाया जाए।"
"साहब, हम क्या करेंगे हेड बनकर...?"
"अरे बहुत कुछ। ठहर जरा, पानी पीकर करते है बात।" कहते हुए उन्होंने नौकर को आवाज लगाकर दोनों के लिये पानी लाने के लिये कहा और आगे बोलने लगे। "देख बिट्टो, तुझे लोगों को सफाई के लिये जागरूक बनाना है, लोगों को सफाई के बारें में बताना है और उनकी सोच को बदलने का प्रयास.....।"
"अब रहने दो साहब..." बिट्टो ने उनकी बात बीच में ही काट दी। "...हम लोग तो समाज की वो कालिख है जिसे लोग अपनी दहलीज पर भी बैठाने से पहले दस बार सोचते है। हमारी बात सुनेंगे लोग?"
"क्यों नही?... बिट्टो ये सब बातें अब पुरानी हो गयी, समय बदल गया है।"
"हां साहब, समय तो बदल गया है, हमारे हालात भी बदल गए है। पर शायद इंसान की सोच.....।" अपनी बात कहते हुये बिट्टो की नजरें सहज ही शर्माजी के पीछे पानी लेकर आते नौकर पर जा टिकी थी। जो कुछ ही क्षण में खूबसूरत ट्रे में, एक 'बोरोसिल गिलास' के साथ एक 'डिस्पोज़ल गिलास' में पानी लिए ठीक उनके सामने आ खड़ा हुआ था।
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(26). आ० सुरेन्द्र इंसान जी 
"बीमारी"

माँ!!! क्या बीमारी है???? ये कर्कश से उकताहट भरे ऊँचे शब्द मेरे कानों में पड़े तो मैं चलते चलते रुक गया और आवाज की दिशा में देखा तो पता चला ये शब्द आलीशान कोठी के बाहर स्टार्ट खड़ी बड़ी सी वातानुकूलित कार जिसमे एक अच्छा पढ़ा लिखा जवान लड़का बैठा था, उसके थे।
फिर मेरे कानों में ये प्यार भरे मीठे शब्द पड़े
"बस आयी बेटा "
बज़ुर्ग महिला ने मैन गेट को ताला लगाते हुए कहा। जल्दी से ताला लगा वह गाडी में बैठी और बोली चलो बेटे और गाड़ी चली गयी।
पर मैं और मेरा ज़ेहन वही ठहर गया और सोचने लगा कि अस्ल में बीमारी किसे थी????
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(27). आ० अंजना बाजपेई जी 
सात जनम

थके हुए लड़खड़ाते कदमों के साथ रीना बरगद के चक्कर लगाये जा रही थी । उसके हाव-भाव बता रहे थे कि उसका शरीर यहाँ,पर दिमाग कहीं और है ।
तभी पड़ोसन ने आवाज लगाते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा , “अरे ,बहन… हम सब तो केवल सात चक्कर लगाकर सात जनमों के लिए पति को गांठ से बांध रही हैं, पर तू कितने चक्कर लगाएगी ?”
उसकी  बात सुन रीना हड़बड़ाकर रुक गई। तभी दूसरी पड़ोसन ने छेड़ा, “लगता है इसका पति कुछ ज्यादा ही प्यार करता है, इसीलिये इसको और ज्यादा जन्मों के लिये उसका साथ चाहिये।"
पड़ोसन की बात सुन रीना के सारे दर्द जाग उठे! खाने में नमक कम होने पर फेंककर मारी गई थाली की चोट, देर से लाने पर ऊपर उड़ेली गई चाय की जलन, जैसे सारे जख्म एक साथ ही रिसने लगे। रीना के चेहरे के भाव बदल गये । उसका चेहरा सख्त हो गया । हर कदम पर उठता दर्द उसे थप्पड़, घूसों और गलियों की याद दिलाने लगा।
“मेरे पति ने तो एक ही जन्म में साथ जन्मों का प्यार दे दिया है। अब और जन्मों के लिए उन्हें क्या माँगू!”
होंठो में ही बुदबुदाती रीना हाथ में थामें कच्चे सूत को पकड़ जल्दी जल्दी  बरगद के उल्टे चक्कर लगाने लगी थी।
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(28). आ० नीता कसार जी 
बिगड़ैल लाड़ला
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"अरे क्या हो गया है? इतनी भीड भडक्का काहे लगा रखें है ? भीड चीरती घबराती शांति
अशांत मन से घेरे के भीतर पहुँच गई ।
अरे देखो तो !ये मोटर सायकिल धूं धूं कर जल रही है कुछ तो बोलों ?
सब देख रहे है समझ रहे है,समझ लो ना तुम भी "- काका रामचरन,जलती मोटर सायकिल का धुंआ मुँह के सामने से हटाते बोले ।
देखो तो !मोटर सायकिल की का हालत हो गई ,कैसी ख़ाक हो गई ।तभी थोड़ी देर पुलिस आ धमकी ।आते साथ,लोगों में चल रही कानाफूसी ख़त्म हो गई ।
"किस किस ने घटना देखी है बताओ?" पुलिस वालों ने कड़क अंदाज में पूछा तो भीड छँटने लगी ।
"साब एक हट्टा कट्टा लड़का, तेज़ गति से ज़ा रहा था । ओवरटेक के कारण दूसरी गाड़ी से टकरा गया ।दोनों गाड़ी समेत सडक पर गिर पड़े ,उसने तैश में आकर खुद ही गाड़ी फूँक दी" काका रामचरन सामने आकर बोले ।
"होश में नही था क्या?"
"था ना तब ही तो फूँक दी ।"
"तो यही है श्रवण ?शांति तुम्हारा बेटा ?" पुलिसवाले ने उसे पकड़ कर लाते हुये कहा ।
"ना साहब बेटा तो नाम का है "माँ की आँखें सावन भादों बन बरस रही थीं
"आप ही होंश में लाओ इसको । इस अकेली बूढ़ी आँखों का सहारा नही, ये कलयुगी श्रवण है ।
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(29). आ० चन्द्रेश कुमार छतलानी जी 
गुलाम अधिनायक

उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।

वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।”

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?”
और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया।
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(30). आ० कुसुम जोशी जी 
हां है तो वही ..
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पच्चीस साल का अंतराल..पर मेरी आंखें धोखा नही खा सकती.., साकेत मन ही मन बुदबुदाया , थोड़ी मोटी हो गई है,परिवार और मातृत्व का सुख झलकता है चेहरे पर.. नाम.. ? कैसे भूल सकता हूं...सर में हल्की सी चपत लगाई साकेत ने...चारु.. हां...हां..चारु,
"चारुऊऊ"... साकेत अनायास ही आवाज लगा बैठा ,वही होगी तो कन्फर्म हो जायेगा , उसके मन ने भी उसको समर्थन दिया,
नाम सुनते ही 'वो' पीछे मुड़ी..उसकी आंखों में आश्चर्य और अजनबीपन भरा था, कुछ क्षण आवाक नजरों से आवाज लगाने वाले अजनबी को देखती रही...धीरे धीरे आंखों का अजनबीपन आश्चर्य में तब्दील हो रहा था , होंठ हिले "ओह साकेत.. तुम..यहां...इतने सालों बाद..अटक अटक के बोलती चारु अपना आत्मविश्वास जमाने लगी ।
"मैं सही था" साकेत ने मन ही मन अपनी यादाश्त का शुक्रिया अदा किया, "कैसी हो चारु"?
"मैं तो ठीक हूं ..पर तुम यहां दिल्ली में कैसे? इतने सालों बाद..." ,चारु हैरान सी बोली।
"कुछ ऑफिशियल काम के सिलसिले में आया था , फ्लाइट रात नौ बजे की है, तो आज शाम तक फुरसत में था सोचा कनाट प्लेस में तफरी कर ली जाय,..तुम दिल्ली वाले भी अकेले निकल आते हो तफरी के लिये।
चारु धीरे से मुस्कुराई , "कितने साल गुजर गये..लगभग पच्चीस साल ,अब मुलाकात हुई तुमसे ,मैं तो हर साल मुम्बई आती हूं पर तुम कभी मिले नही..",न कोई खबर..,
उदासी भरी आवाज दूर से आती महसूस हो रही थी साकेत को , लगा सालों पहले मेरी तरह शायद उसे भी कुछ कहना था ..वो कह नही पाई । अपने मनोभावों को पलभर में झटकते हुये बोला "मैं असल में जर्मनी में हूं , छुटका विनय मुम्बई में ही है,उससे ही मिलने जा रहा हूं"।
शाम को घर आ जाओ..लोधी कॉम्पेक्स में है हमारा बसेरा ,सौरभ से भी मुलाकात हो जायेगी,खूब सारी बातें करेगें।
अरे नही , आज तो सम्भव नही होगा, नेक्स्ट टाईम जब भी आना होगा,
"चलो नल्ली तक, बेटी की सगाई है अगले हफ्ते ,साड़ी तैयार करने को दी थी, फिर कही चाय कॉफी लेते हैं" चारु भी वर्तमान में लौटते हुये बोली।
"अरे वाह बधाई ! समय का घोड़ा सच में सरपट भागता है", तो पहले चलो बरिस्ता में ग्रीन एप्पल लेमोनेड की चुस्की ली जाय", 
"अरे अभी तक भी याद है" , "चलो मैं पिलाती हूं तुम्हारी फेवरेट कोल्ड कॉफी बरिस्ता ब्लास्ट", चारु हंसते हुये बोली,
"अब कुछ नही अब तो बस नीबू पानी विदाउट शुगर साल्ट"साकेत उदास हंसी हंसते बोला।
"तो फिर रहने ही दिया जाय ,पहले बिटिया के काम करने जरुरी है", चारु कुछ आगे निकलते हुये बोली।
"हां सही कहा चारु.....अब यही जरूरी है , वैसे भी वक्त तो कभी मेरी मुठ्ठी में था ही नही ...अब भी नही ...अब नसीब में कॉफी भी नही", और जोर से हंस पड़ा साकेत , मुझे भी होटल लौटना चाहिये , सामान भी समेटना है, समय रहते एयर पोर्ट निकल लूगां।
नमस्कार में जुड़े हाथों के साथ ही दोनों अपने गंतव्य की और निकल गये।
--------------------------------------------------
(31). आ० अन्नपूर्णा बाजपेई  जी 
रौशनी
.
चश्मा ऊपर सरकाते हुये लच्छों चाची ने उस बोर्ड को ध्यान से देखा । पढ़ी लिखी न होने के कारण वह कुछ पढ़ नहीं पाई । पर अचंभित सी उस बोर्ड वाले गेट के भीतर गाँव की बच्चियों और घूँघट में चेहरा छुपाए कुछ स्त्रियॉं को जाते हुये देख बाहर खड़े चौकीदार से पूछा , ‘ क्यों रे ! ये सारी बिटियाँ और लुगाइयाँ इस गेट के भीतर काहे को जावे हैं ? और इस फाटक के ऊपर इस बोरड पर का लिखा है ?’
हँसते हुये चौकीदार बोला ,’ अम्मा ! तोहे का करनो है ? ये लोक शिक्षा केंद्र है जहां सरकार की तरफ से गाँव की सभी बिटियां और औरतों को निःशुल्क पढ़ाया जा रहा है । जाओ ! और अपने घरे की सभी औरतें और बिटियाँ भेज भेज दो पढे खातिर ।” अपना डंडा टेकती लच्छों चाची चल दी घर को । घर पहुँच अपने पोते को पास बुलाया ,’ ओ रे बबलुआ ! जरा इधर तो आ अपना सकूल वाला झोला तो तो ले आ ।’ आश्चर्य चकित सा बबलू झोला ले आया , बोला “ दाई ! तुम्हें झोले से का चाहिए ? तनिक झिड़कते हुये दाई बोली,’ हम सोच रही हैं कि हम भी तुम्हारी तरह पढ़ें ।’ बड़की बहुरिया ज़ोर से हंस दी , ‘ का अम्मा बुढ़ापे मा बौरा गयी हो ? अपने घर मा औरतन को पढ़ावे की रीत कहाँ है । जब ही तो तुम न अपनी बिटिया पढ़वाई और न ही पढ़ी लिखी बहुरिया लाईं । अब का हुआ जो खुद पढ़ाई करन जा रही ।’ लच्छों चाची कुछ न बोली । बस झोले से स्लेट और खड़िया निकाल ली पीछे पलट कर एक बार देखा अपने घर की महिलाओं की तरफ और मुस्कुरा कर चल दी, थोड़ी ही देर में उसके पीछे घर की अन्य महिलाएं भी चल पड़ी ।
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(इस बार कोई रचना निरस्त नहीं की गई है अत: यदि कोई रचना छूट गई हो तो कृपया अविलम्ब सूचित करें.)  

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आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब, लघुकथा गोष्ठी के अंक 29 के त्वरित प्रकाशन , सशक्त संचालन और बेबाक टिप्पणियों के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए ।

हार्दिक आभार आ० मोहम्मद आरिफ साहिब. 

ओबीओ द्वारा लघुकथा गोष्ठी में आई लघुकथाओं को देखकर लगता है कि इस विधा में लोगों की रूचि बढ़ गई है। किसी भी विषय पर उनकी आई बाढ़ से आप यह कह सकते हैं कि लघुकथाकारों का मनोबल ऊँचा है और आगे इस तरह के आयोजन का सार्थक परिणाम भी आयेंगें। हमारे सम्पादक जी को हमारी तरफ से ढेर सारी बधाईंयां।

हार्दिक आभार आदरणीय 

सबसे पहले तो बेहद सफल आयोजन की बहुत बहुत बधाई हो जी। इस आयोजन में मेरी यह पहली हाज़री थी। मेरी लिखी रचना पर जिस तरह से आप सब ने अपनी बेहद स्नेहपूर्ण और हौसलाअफजाई भरी टिप्पणियां दी। उस से हौसला बहुत बढ़ गया। आप सबका बहुत बहुत दिली शुक्रिया और आभार जी। साथ ही आयोजन में शामिल हुए सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई जी।
संकलन में स्थान देने के लिए आभारी हूँ आदरणीय योगराज जी।

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