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हार्दिक आभार भाई पंकज जोशी जी।
आदरणीय योगराज सर,
दंगाई माहौल, अस्पताल, रक्त दाता की खोज आदि घटना क्रम का परिणाम "इस तरफ का उस तरफ से" सहयोग ही लघुकथा का स्वाभाविक अंत होगा, समझ आ जाता है किन्तु "मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।" ने कथा को मार्मिक बना दिया. इस विशिष्ट प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन
हार्दिक आभार प्रिय भाई मिथिलेश जी।
"मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।" योगराज प्रभाकर जी आप की लघुकथा पंच लाइन हमेशा जोरदार होती है .
इस से अब मैं भी कुछ कुछ सीख रहा हूँ.
दिल से शुक्रिया आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी। सीखने सिखाने के लिए ओबीओ से बेहतर जगह शायद ही कोई और होगी।
फरिश्तों की कोई जात नहीं होती ,इस बात को रेखांकित करती हुई उत्कृष्ट रचना का रसपान सुखद है .
इस मुखर अनुमोदन हेतु ह्रदयतल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ आ० रीता गुप्ता जी।
बहुत ही मर्मस्पर्शी लघुकथा, सर. दिल को छू गई. आपकी लेखनी को नमन ,आदरणीय योगराज जी
सादर!
हार्दिक आभार भाई जितेंद्र जी।
आपकी सराहना से उत्साहवर्धन हुआ है भाई विनोद खनगवाल जी, बहुत बहुत शुक्रिया।
''अब ताे भाई मैं कहीं का भी नहीं।'' इस एक पंक्ित में कथा का संपूर्ण सार है । मन पर कैसा भारी पत्थर रख कर एक बाप ने ऐसा कहा होगा । सिहर उठा यह कथा पढ़ते समय । ऐसी स्िथती दुश्मन पर भी न लाए भगवान । पहचान विषय को खूब 'पहचान' दी आपने । शुभकामनाएं आदरणीय प्रधान संपादक महोदय ।
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