आदरणीय साथिओ,
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बढ़िया कथा आदरणीय कुमार संभव जी ,प्रदत्त विषय का भरपूर निर्वहन, हार्दिक बधाई प्रेषित है
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना प्रदत्त विषय पर, अंत बढ़िया है| बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिए
प्रदत्त विषय पर एक भिन्न कथानक लेकर बढ़िया अंतिम पंक्ति युक्त बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ. कुमार सम्भव जोशी जी।
आदरणीय संभव जोशी जी अंत का अनकहा बहुत कुछ कह गया. बधाई आप को.
आशियाना - लघुकथा –
कबूतर का एक जोड़ा पिछले कई दिन से मेहता जी के घर के बाहरी हिस्से में अपना घोंसला बनाने का प्रयास कर रहा था। वह जिस स्थान पर भी अपने घोंसले की नींव जमाते, मेहता जी की पत्नी उस जगह झाड़ू मार देतीं। कबूतर का जोड़ा पुनः नयी जगह यही कार्य दोहराते। लेकिन कुछ समह बाद उस जगह का भी वही हश्र होता। ऐसी क्रिया जब बार बार हुई तो कबूतरी का धैर्य टूट गया। क्योंकि वह अंडे देने की जल्दी में थी|
"क्या मिलता है इन लोगों को, बार बार हमारा घर तोड़ देते हैं"?
"हम लोग तो पक्षी हैं। इनके कुछ नहीं लगते। लेकिन ये तो अपने जाति बंधुओं के भी घर तोड़ने में माहिर हैं"।
"इससे इनको क्या हासिल होता है"?
"इंसान बहुत से कार्य कुछ पाने के लिये नहीं वल्कि दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिये भी करता है"।
"परंतु ऐसा क्यों"?
“इन्हें इसी में आनंद मिलता है। यही तो इंसानी फ़ितरत है। शायद इसी सोच के कारण ये ज़मींन पर रेंगते हैं, वरना हमारी तरह ये भी उड़ रहे होते”|
"इसका मतलब इस तरह तो हमारा घर कभी भी नहीं बन पायेगा"?
"नहीं रे, दुनियाँ बहुत बड़ी है। अब हम इंसानों की बस्ती से दूर किसी बाग बगीचे में अपना आशियाना बनायेंगे"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
प्रदत्त विषय पर अच्छी व्यंग्यात्मक लघुकथा हुई है आ. तेज वीर सिंह जी. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
हार्दिक आभार आदरणीय Mahendra Kumar ji |
मुहतरम जनाब तेजवीर साहिब, प्रदत्त विषय पर सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
हार्दिक आभार आदरणीय Tasdiq Ahmed Khan Ji |
आदरणीय तेजवीर सिंह जी आदाब,
धरती का सबसे दुष्ट और सबसे श्रेष्ठ प्राणी मानव है । उसकी फितरत ही औरों की चीज़ों को हथियाना और उसके पना प्रभुत्व स्थापित करना होता है । उसके अधिकार क्षेत्र में जो आता है उसे हटा देता है । पता नहीं उसे क्यों चुभन होती है ।बेहतरीन व्यंग्यात्मक कथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।लघुकथा की विस्तृत विवेचना का अलग से शुक्रिया।
“इन्हें इसी में आनंद मिलता है। यही तो इंसानी फ़ितरत है। शायद इसी सोच के कारण ये ज़मींन पर रेंगते हैं, वरना हमारी तरह ये भी उड़ रहे होते”|// वाह बहुत सही कहा...प्रदत्त विषय पर खूबसूरत कथा हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीय तेजवीर जी
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