आदरणीय साथिओ,
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बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब.
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की पोल बहुत अच्छे से खोली है सर आपने। धंधे का गुणागणित हर जगह हावी है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे यह लघुकथा बेहद पसन्द आयी। मैं स्वयं भी इस विषय पर काफ़ी दिनों से लिखने के लिए सोच रहा था। इस उम्दा लघुकथा पर दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए सर। सादर।
रचना के मर्म तक पहुँचकर उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार महेंद्र कुमार जी.
बहुत उम्दा आदरणीय योगराज प्रभारकर भाई जी। प्रदत विषय को तो सार्थक किया ही रचना ने, साथ ही वर्तमान में चलने वाले गंभीर मुद्दे को बड़ी कुशलता से कथ्य में ढालते हुए विश्व मे फैले समीकरणों का भी सटीक चित्रण किया आपने। सर्वाधिक अहम बात इस रचना में जो हम नव लेखकों को आप से सीखनी चाहिए, वह यह है कि किस तरह आपने रचना में भागीदार देशों को प्रतीकात्मक रूप में दिखाते हुये भी उनके नाम का जिक्र नही किया। बहुत सुंदर। अनुज की ओर से आपको इस रचना के लिये तहे दिल से बधाई भाई जी। सादर।
दिल से शुक्रिया भाई वीर मेहता जी।
एक और सशक्त रचना आपकी पढने को मिली है आदरणीय सर, इस बेहतरीन लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई| विषय भी लाजावाब और आपकी लेखनी भी| साधुवाद आपकी सोच को| हार्दिक बधाई स्वीकारें सर|
हार्दिक आभार कल्पना भट्ट जी।
- //भूतपूर्व और उभरती हुई महाशक्ति// (पारस्परिक द्वंद्व)
-// तो हमारा सामान और हमारे हथियार कौन खरीदेगा?"//
- //मगर हम तो अपने साथी देश की निंदा नहीं करेंगे//
- //यानि, बस निंदा करो और इन्हें आपस में लड़ने मरने के लिए छोड़ दोI"//
आदि महत्वपूर्ण कथोपकथन/संवादांशों के साथ 'लम्बा चोगा' और 'शेख साहिब' जैसे प्रतीकों के साथ अंतिम असरदार पंचपंक्ति युक्त बेहतरीन लघुकथा से हम सब को लाभान्वित करने व बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया और आभार आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर साहिब। वैैश्वीकरण के दौर मेेंं पारस्परिक व्यापारीकरण समझौतों/संधियों के साथ गुंथे हुए स्वार्थ को प्रतिबिंबित करते बेहतरीन,उम्दा, सार्थक व सटीक शीर्षक के लिए भी हार्दिक बधाई। सादर।
रचना के मर्म तक पहुँच कर उसे सराहने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया उस्मानी भाई।
नई चुनौतियां !!
बेटी गौरी 8 साल की। माॅ सीमा ने अकेले ही गौरी को, बहुत नामी स्कूल में पढ़ाया। वयस्क होते ही अध्यापक से शादी। फिर बच्ची नंदनी का जन्म। सीमा के चेहरे पर भी नानी बनने की खुशी। बच्ची नौ साल की। अध्यापक पिता सड़क दुर्घटना के कारण लाचार। घर खर्च के लिए पढ़ी-लिखी गौरी ने जल्द ही नौकरी कर ली।
कुछ समय ही बीता और गौरी ने अपने आफिस के बाॅस के साथ लिव इन में रहना शुरू कर दिया। गौरी को अध्यापक पति ने रोका, समझाया, पर वह नहीं मानी। कहने लगी ‘‘उसे अपने तरीके से जीने का हक है।’’ पति, अस्थायी लाचारी से कहीं अधिक अपनी गरीबी और अपमान से आहत।
परिवार के संस्कारों की दुहाई का भी गौरी पर असर नहीं। पति के साथ रहने से ही इंकार। नंदनी के रूप में फिर एक बच्ची माॅ सीमा के पास। ईश्वर की इच्छा और परिवार का मान रखते हुए जिस माॅ ने अपनी बेटी को पाल-पोस कर बड़ा करने में जीवन लगा दिया, वह आज मन ही मन बुदबुदा रही है -‘‘33 साल पहले ये समीकरण उसकी समझ क्यों नहीं आया?’’ सही-गलत के चक्रव्यूह में उलझी, स्वयं को संभालते हुए बूढ़ी माॅ ने नातिन का चेहरा देखा और अपनी बेटी गौरी से पूछ बैठी -‘‘ये मेरे पश्चाताप के लिए मुझे सौंपे जा रही है या फिर मेरी भूल सुधार के लिए?’’ महंगी कार में बैठते हुए गौरी ने कहा-‘‘इसका जवाब तो बेटी बड़े होकर देगी!’’ हतप्रभ माॅ का अनुभव पुराना था, पर चुनौतियां नई....!
मौलिक, अप्रकाशित, स्वरचित
बहुत सारे पात्र होने से आपस में घुल मिल गए। आपका प्रयास सराहनीय है।
आदरणीय प्रतिक्रिया के लिए समय प्रदान करने के लिए शुक्रिया. वैसे ये लघुकथा एक सच्ची घटना पर केन्द्रित है, जो हमेशा अपने बच्चों को लेकर संस्कारों की बात कहती हैं। बच्चों में संस्कार व अनुशासन बहुत जरूरी हैं विषय समीकरण में जब हमने सभी की लघुकथा पढ़ी तो हमें भी वह बुजुर्ग अम्मा और उनका घर और मासूम सी बच्ची नातिन का स्मरण हो आया और हमने लिखने की कोशिश की। नाम सभी काल्पनिक हैं।
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