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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक 39 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(१). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी 
विदाई

" मैंने शैलजा की स्वीकृति ले ली है । वह पूरी तरह से सहमत है ।" आनंद जी ने पत्नी को खुश होकर कहा ।
" क्या कहा ! ज़रा फिर से तो कहना , मुझे यकीन ही नहीं हो रहा है । " शारदा देवी ने बड़े आश्चर्य से कहा ।
" यह सच है भाग्यवान । शैलजा ने हामी भर दी है ।"
" मुझसे भी अब उसका दु:ख देखा नहीं जाता । इसी दिन का इंतज़ार कर रही थीं । "
" हम शैलजा को बहू नहीं बेटी की तरह विदा करेंगे । आज से पाँच साल पहले हमारी बहू बनकर आई थी मगर ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था । हमारा बेटा असमय ही काल का ग्रास बन गया और शैलजा तभी से घुट -घुट जी रही है । बहुत अच्छा हुआ जो शैलजा ने सही समय पर हामी भर दी । पिता समान ससुर का मान रख लिया । " कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े । इतने में आनंद जी के परम मित्र समाज सेवी और मानव अधिकार कार्यकर्ता नवीन प्रताप जी का आगमन हुआ ।
" क्यों भई ! किस बात को लेकर आँसू बहाए जा रहे हैं ?"
" आइए ! आइए ! नवीन भाई । आपने जो सलाह दी थी वो कारगर हो गई । बहू ने शादी के लिए हाँ कर दी है । मैंने लड़का तो पहले ही देख लिया था । उसके घर वाले भी राज़ी है ।"
" मैंने आपको कोई ग़लत सलाह नहीं दी थी आनंद जी । ज़माना तेज़ी बदल रहा है । पुराने समीकरणों को हम नहीं बदलेंगे तो फिर कौन बदलेगा ? जवान विधवाओं को भी जीने का अधिकार है ।"
" सच कहा आपने ।" आनंद जी ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा ।
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(२). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'गौरैयों का आशियाना' 

"नहीं, यह नहीं हो सकता! कभी नहीं! यह न तो प्यार-मुहब्बत है और न ही कहे गये 'लव-जिहाद' जैसा कुछ!" सबके साथ चटाई पर बैठकर भोजन करते हुए ही ज़हूर ने अपने दोस्त इंद्रजीत (इंदु) के प्रस्ताव का जवाब देते हुए कहा - "यह मत समझना इंदु भाई कि हम अहसानफ़रामोश हैं! आपके अहसानात तो हम कभी नहीं चुका सकते! लेकिन जब हमारी बिटिया इसे सिर्फ़ एक तरफ़ा पसंद कह रही है, तो यह शादी का रिश्ता हम कैसे कबूल कर सकते हैं?" यह कहते हुए अपनी बीवी से ज़हूर बोला -"चलो! बिटिया कश्मीरा को भी ले चलो! अब हम अपना आशियाना ख़ुद संभालेंगे।"
दरअसल ज़हूर अब अरब से काफ़ी धन-दौलत कमा कर लौटा था। बदहाली से मज़बूर होकर, ज़िद में आकर वह दो पड़ोसियों के मकानों के बीच अपने प्लॉट पर बने एक छोटे से घर सहित अपनी जवान बीवी और छोटी सी बिटिया को अपने अज़ीज़ पड़ोसियों के भरोसे छोड़़ गया था। इंदु जी ने दूसरे पड़ोसियों की बुरी नज़रों से बचाते हुए, न केवल उसके परिवार की देखभाल की, बल्कि उसके प्लॉट के एक हिस्से पर भी फलदार वृक्ष लगाकर उनकी भी देखभाल की। यह बात और है कि समाज के तानों के चलते ज़हूर की ख़ूबसूरत बीवी पर लांछन लगने लगे और खिलती, जवान होती बेहद ख़ूबसूरत बिटिया कश्मीरा पर भी। इंदु जी के बिगड़ैल बेटे के बढ़ते रुझान के कारण मां-बेटी दोनों का 'बढ़िया मददगार माहौल' में भी जब दम सा घुटने लगा, तो ज़हूर के अरब से वापस लौटने का वे बेसब्री से इंतज़ार करने लगीं थीं। ज़हूर भी मिहनत-मज़दूरी कर पैसा जोड़कर, अपनी लाड़ली बिटिया की बदनामी होने से से पहले ही उसके हाथ ज़ल्दी ही पीले करने अपने वतन लौट आया था।
"कुछ रिश्ते अच्छे होते हुए भी ख़ूबसूरत औरत जात के लिये बदनामी का सबब बन जाया करते हैं!" अपने घर में पहुंचने पर ज़हूर से उसकी बीवी ने कहा - "इंदु भाई ने हम दोनों के साथ वही किया, जो एक अच्छे हमवतन पड़ोसी, भाई और बाप को करना चाहिए, लेकिन उनके बिगड़ैल जवान बेटे ने वही किया, जो जवानी के जोश में लड़के नासमझी कर बैठते हैं!" साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पौंछ कर बिटिया कश्मीरा का सिर गोदी में रखते हुए शौहर के पैर दबाते हुए उसने कहा - "कश्मीरा को यक़ीं था कि तुम ज़ल्दी ही लौट आओगे; उसके लिये! ... मालूम! वो आगे पढ़कर कुछ बनना चाहती है शादी से पहले!"
"ऐसा ही होगा बेगम! हम सब मिलकर पहले अपने को और इस घर को संवारेंगे; प्लॉट पर ख़ूबसूरत बड़ा सा मकान बनायेंगें! अपनी दम पर! कब तक किसी के भरोसे रहेंगे?"
अम्मीजान की गोदी में सिर रखे हुए कश्मीरा ख़ुशी के आंसू पौंछती हुई अब मंद-मंद मुस्करा रही थी।
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(३). आ० मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी 
सुख-शांति
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आज फिर अंजलि आफिस से आते-आते लेट हो गई थी। लिफ़्ट में क़दम रखते ही सासू माँ और बच्चों के चेहरे नज़र के सामने झूम गए।कितनी बेक़रारी से इन्तिज़ार कर रहे होंगे? ऑफिस से काम्प्लेक्स तक का सफर इतना दूभर नहीं था जितना ये लिफ्ट का एक मिनट का सफर। फ्लेट का दरवाज़ा भी जैसे उसके इन्तिज़ार में ढलका हुआ था। सहमे - सहमे क़दमों से जैसे ही दाखिल हुई सबकी सवालिया नज़रों का सामना था। बच्चे , अंकुर और सौरवी भी अपने कॉलेज की पढ़ाई में व्यस्तता के कारण घर के कामों में हाथ नहीं बटा पाते थे। किसी को कोई सवाल-जवाब किये बिना ड्रेस चेंज कर किचन में चली गई। 
फिर क्या था चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान के साथ चाय नाश्ता हाज़िर था। बुज़ुर्ग सासू माँ की सेवा और उनका अनुशासन। पति और बच्चों की ज़रूरतें तो हैं ही।  ज़िन्दगी इसी तरह एक मशीन बन चुकी थी। घर के काम निपटाते हुए कभी ऑफिस के लिए लेट हो जाना तो कभी ऑफिस के काम निपटाते हुए घर पहुँचते पहुँचते लेट हो जाना। और जब सारे काम निपट जाएँ तो फिर अपने कमरे में पहुँचते ही अनुराग की ख़्वाहिशी नज़रों का सामना..
“अनुराग, मैं तो ज़िन्दगी के तमाम अनसुलझे समीकरणों को हल करते करते थक चुकी हूँ।“
“मैंने तो प्रत्येक समीकरण में उपयुक्त मान रख कर उसे हल करने की सदैव कोशिश की है। लेकिन..” 
“तो मैं क्या करूँ?
“अंजलि। अब तुम ही बताओ मैं इस अवस्था में माताजी को कहाँ छोड़ कर आऊँ?”
“मैं छोड़ने की बात नहीं कर रही। मैं तो केवल इतना चाहती हूँ कि माता जी को भी हमारी मजबूरियाँ समझना चाहिए।“
“मैं कितनी बार कह चुका हूँ अंजलि , हम उन्हें समझा नहीं सकते। " हमें ही उनके अनुसार ढलना पड़ेगा।" 
“तो फिर अनुराग मुझसे ये सब नहीं होगा।“ अंजलि आज जैसे दो टूक कह देना चाहती थी।
माँ- बाप को ऊँची आवाज़ में बात करते देख बच्चे भी कमरे में आ चुके थे। बेटे को पास खड़ा देख अनुराग ने हिदायती लहजे में कहा - 
“बेटे अंकुर, अगर तुम अपनी ज़िन्दगी में सुख शांति चाहते हो तो हमें कभी अपने साथ मत रखना।" 
“अनुराग, आप ये कैसी शिक्षा दे रहे हैं अपने बेटे को?" 
“सही तो है अंजलि,  मेरी माँ के कारण यदि हमारी ज़िन्दगी नर्क बन चुकी है। तो फिर हमें भी अपने बच्चों की ज़िन्दगी की सुख शांति छीनने का हक़ नहीं है।“ 
ये सब सुनकर अंजलि की आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। क्योंकि उसने तो अपने बच्चों के बिना जीने की कल्पना तक नहीं की थी
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(४). आ० कनक हरलालका जी 
चोर वर्सेस चौकीदार

"मास्साब ...मास्साब..." सुबह सुबह दरवाजे पर बहादुर की आवाज और दस्तक दोनों सुनकर मैंने दरवाजा खोला। बहादुर मुहल्ले का चौकीदार था। पहाड़ी सीधा सरल। सारी रात खुद जाग कर पूरी निष्ठा से सबके लिए 'जागते रहो' की गुहार लगाता था।
"मास्साब, देखो न कईसा कागद है?"
"यह तो तुम्हारे काम से छुट्टी का नोटिस है। पर क्यों.. किसने दिया?"
नोटिस मुहल्ले की तीन सदस्यीय समाज साथ वी संचालक समीति द्वारा दिया गया था।
बहादुर का चेहरा जैसे जीवन्त तस्वीर बन गया था।उसके चेहरे पर बीमार पत्नी, दो बच्चे, जवान लड़की, सबके साथ बेघर भटकन साफ नजर आ रही थी।
"साबजी, वो जो अपना दुर्गा मां का मन्दिर है न, जिसके पीछे वाली कोठरी में कमेटी वालों ने अपना दफ्तर बना रखा है.."
"हाँआ..हाँ.., क्या हुआ वहाँ?"
" साबजी, कल रात जब हमारी बिटिया मन्दिर में जागरण के लिए गई थी तो कमेटी के साब लोगों ने उसे किसी काम के लिए कोठरी में बुलाया रहा..।"
मेरा दिल धड़क सा गया। कहानी खुल रही थी।
"फिर..?"
"वो तो हम ड्यूटी पर वहीं घूम रहे थे। सो हमने देखा तो बिटिया के संग हो लिए। अंधेरे में अकेले जाने का क्या काम ।चलो हम भी चलते हैं।"
"हुम्म्म.."
"उन्होंने ने पूछा ईधर क्या करता। दूसरी तरफ चोरी हो गई तो? ऊधर पहरा तुम्हारा बाप देगा?"
"ऐसा...।"
"सुबह बुला कर यह कागद पकड़ा दिया। अब हम तो पढ़े लिखे हैं नहीं। न जाने इसमें क्या लिखा है?"
नोटिस में लिखा था 'कल रात बहादुर के काम के समय तत्परता से ड्यूटी न देकर घरवालों के साथ रहने व सोने के कारण कहीं भी चोरी हो सकती थी। अतः सुरक्षा कारणों से चौकीदार बहादुर को बरखास्त किया जाता है।
हस्ताक्षर:- तीनों समाजसेवी संचालक समिति सदस्य।"
"हम क्या गलत किए साबजी? 
"मैं उसे किस समीकरण और भाषा से समझाता कि गरीब के घर में जवान सुन्दर लड़की आंचल में रखे सुलगते कोयले की आंच होती है ,आग तो लगनी ही थी जिसे आन का पानी आंखों से बहकर बुझाता नहीं बल्कि घी की तरह भड़का देता है।
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(५). आ० तस्दीक़ अहमद ख़ान जी 
हम सरी 
इंसाफ खान साहिब ईद की नमाज़ पढ़ कर रास्ते में सबसे ईद मिलते हुए जैसे ही घर के अन्दर दाखिल हुए, उनके दोनों बच्चे सलीम और सलमा उनसे लिपट गए |
उन्होने दोनों के सर पर हाथ रख कर कहा "हमें मालूम है तुम दोनों को ईदी चाहिए"
सलमा को मायूस देख कर खान साहिब बोले "क्या बात है बेटी, आज ख़ुशी का दिन है, चहरे पर उदासी अच्छी नहीं"
सलमा ने रोते हुए कहा "अम्मी ने मुझे सौ रुपए और भैया को दो सौ रुपए ईदी दी है"
खान साहिब ने बीवी को आ वाज़ देकर कहा "तुम ने बच्चों के साथ ऎसा भेद भाव क्यूँ किया?"
बीवी ने किचन से जवाब दिया "सलीम लड़का है इसलिए ऎसा किया "
खान साहिब ने त्युरी चढ़ाते हुए कहा" जब हमारे नबी ने औलाद में फ़र्क़ नहीं किया तो हम कौन होते हैं फ़र्क़ करनेे वाले, हमारी नज़र में दोनों बराबर हैं"
खान साहिब ने मुस्कराते हुए सलीम से कहा" यह तुम्हारी छोटी बहन है, क्या तुम चाहते हो कि यह आज के दिन उदास रहे?"
सलीम ने जवाब दिया "नहीं अब्बू जान "
खान साहिब ने फिर सौ रुपए सलीम को और दो सौ रुपए सलमा को देते हुए कहा" अब दोनों मुस्कुराओ और मिल जुल कर ईद की खुशी मनाओ |"
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(६). आ० तेजवीर सिंह जी 
ऊँचे लोग
ऊँचे लोगपुजारी जी अपनी पत्नी की बात सुनकर सन्न हो गये। एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ। चौधरी राम जीत और उसकी झूठी प्रतिष्ठा से विश्वास ही उठ गया। जितने बड़े लोग, उतने ही घटिया काम| गाँव का सबसे नामी और धनवान खानदान और ऐसे गिरे कारनामे। पुजारी जी माथा पकड़ कर भोलेनाथ की मूर्ति के समक्ष औंधे मुँह गिर पड़े| जैसे किसी बात का प्रायश्चित कर रहे हों|

पुजारी जी की आँखों के सामने एक महीने पहले की घटना चल चित्र की तरह घूम गयी।
पूर्णमासी की सुबह लगभग पांच बजे चौधरी राम जीत ने मंदिर का दरवाजा खटखटाया। पुजारी जी ने द्वार खोला। चौधरी एक नवजात शिशु को गोद में लिये खड़ा था। चौधरी ने बताया कि, वह टहलने निकला था तो देखा कि यह बच्चा  मंदिर के प्राँगण में मुख्य दरवाजे पर रेशमी वस्त्र में लिपटा रो रहा था ।
आनन फ़ानन में पुजारी ने गाँव के प्रधान  जी को बुला लिया। गाँव में खबर आग की तरह फ़ैल गयी। मंदिर में लोगों का जमघट लग गया। कानाफ़ूसी होने लगी। छोटा सा गाँव था। हर पहलू पर विचार किया लेकिन कोई हल नहीं निकला।
अंततः चौधरी  जी ने सुझाव दिया कि चूँकि दो साल पहले उनके इकलौते बेटे की सड़क दुर्घटना में मौत होने से उनका कोई वारिस नहीं है। उनकी विधवा पुत्र वधू को भी समय बिताने का एक जरिया मिल जायेगा। इसलिये वे यह बच्चा गोद लेना चाहते हैं।
पंचायत ने सलाह मशविरा कर, सर्व सम्मति से फ़ैसला कर बच्चा चौधरी को सोंप दिया।
बच्चे की देखभाल और मालिश बगैरह के लिये चौधरी ने पुजारी जी की अनुभवी घरवाली को इस काम पर रख लिया।
आज पुजारी की पत्नी ने पुजारी को बताया, “चौधरी के बेटे की विधवा उस बच्चे को स्तन पान करा रही थी। मुझे अचानक आया देखकर सकपका गयी। बोली कि रो रहा था तो ऐसे ही बहला रही थी जबकि बच्चे के मुँह में माँ का ताज़ा दूध लगा हुआ था”।
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(७). आ० मनन कुमार सिंह जी 
समीकरण
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-बाबा ...?
-बोलो।
-पता है?फिर नीतू मीतू को
ढूँढ़ रहा है।
-क्या हुआ,बचवा?
-फूल की सुगंध से मन भर गया,ऐसा लगता है।
-ऐं?
-हाँ बाबा।लगता है,मदहोशी उतरने लगी है।उजाला चाहता है,फिर से।
-रोशनी का स्रोत तो गँवा चुका है। अब क्या मिलेगा?
-उखड़े मुर्दों(मुद्दों)को दफ़नाने की कोशिश में है।
-लालटेन जलायेगा क्या?
-उसके तीर से घायल लालटेन जल-बुझ रही है।उसने हाल-चाल लेना शुरू कर दिया है।
-हेहेहे!तीर तो घाव ही देगा न; चाहे लालटेन को,या फूल को।
-विश्वसनीयता जैसे लफ्ज तिरोहित हो चुके हैं ऐसे लोगों के लिए।
-अब यह महज लफ्ज है,अर्थहीन-सा बस।
-वही तो बाबा।पर जनता क्या करे?
-वो तो जो कर सकती है,कर ही रही है।जात-धरम के नाम पर वोट देना उसका ध्येय रह गया है।और क्या?
-बाबा।इसको समीकरण कहा जाता है,सत्ता का समीकरण।
-हाहाहा!वही तो मैं भी कहूँ।समीकरण में अंक दायें-बायें होते ही रहते हैं।
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(८). आ० टी आर सुकुल जी 
पका आम

‘‘वैसे ही इस साल आम कम फले हैं और ये तोते, गिलहरियाॅं सब खाए जा रहे हैं’’ कहते हुए सुलोचना ने लम्बा सा बाॅंस उठाया और आॅंगन में लगे पेड़ पर कई बार ठोकर देकर सभी तोते और गिलहरियों को भगा दिया। पास में खड़ी उसकी चार पाॅंच साल की बेटी बोल पड़ी,
‘‘ माॅं ! तोते को क्यों भगा दिया, गिलहरी भी चली गईं, वे सब कितने अच्छे हैं, मैं उनके साथ खेल रही थी ...’’ 
‘‘ अरे! ये सब आम खा जाएंगे, हमें कुछ न बचेगा, इन्हें देखते ही भगा दिया करो’’
‘‘ तो अब वे क्या खाएंगे?’’
सुलोचना इसका उत्तर सोच ही न पाई कि बेटी बोल पड़ी,
‘‘ कोई बात नहीं, अब मैं अपने स्कूल के लंचवाक्स से उनको खिलाया करूंगी ’’
‘‘ नहीं नहीं... .. ’’ बोलते हुए सुलोचना कुछ और कह पाती कि एक पका आम टूट कर बेटी के पास गिरते हुए बोला,
‘‘ बेटी! जब तुम्हारी माॅं तुम्हारी तरह छोटी थी, वह भी ऐसा ही कहा करती थी , अब वह बड़ी हो गई है न ! इसलिए कुछ स्वार्थी हो गई है।’’
‘‘ बड़ा होने पर मैं भी स्वार्थी हो जाऊॅंगी क्या?’’
‘‘ हो सकता है पर, नहीं, तुम स्वार्थी बिलकुल न होना, हम पेड़ों की तरह सबका हित चाहना, किसी को उनके अधिकार से वंचित न करना, सभी पेड़ पौधों, पशु पक्षियों को अपना मित्र बनाए रखना’’
झट से सुलोचना वह पका आम लपकते हुए बोली,
‘‘ बहुत गर्मी है, अन्दर चल, होमवर्क नहीं करना क्या? छुट्टियाॅं खत्म होने वाली हैं। ...’’
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(९). आ० बबिता गुप्ता जी 
बदलते समीकरण रिश्तों के...

आज ख़ुशी का दिन था,नाश्ते में ममता ने अपने बेटे दीपक के मनपसन्द आलू बड़े वाउल में से निकालकर दीपक की प्लेट में डालने को हुई तो बीच में ही रोककर दीपक कहने लगा-माँ,आज इच्छा नही हैं ये खाने की.और अपनी पत्नी के लाये सेंडविच प्लेट में रख खाने लगा.
इस तरह मना करना ममता के मन को आघात कर गया.वो उठी और कमरे में चली गई.पीछे से उसके पति कमरे में बैठी ममता के उखड़े मूड़ को भांप समझाने लगे- अरे ,अब वो वही माँ के पल्लू से बंधा दीपक नही रहा....दो बच्चों का बाप बन गया हैं....
बात पूरी सुने बिना ही ममता रूआंसी हो शिकायती लहजे में कहती-क्या,अब मेरा उस पर कुछ हक ही नही रहा??कितने पसंद करता थे आलू बड़े?क्या शादी होते ही.......
बीच में ही श्याम बाबू बोल पड़े- ऐसा सोचना,केवल तुम्हारा एकाधिकार वाला अंधा ममत्व हैं.अब उस पर उसकी पत्नी,बच्चों का बनता हैं ,समझी.
"लेकिन आप ने तो कभी अपने माँ-बाबू  की इस तरह अवहेलना नही की",ममता बात काटकर बोली, 
सब कुछ समझते हुए भी श्याम बाबू ढाढस बढ़ते हुए कहने लगे- "छोडो इन फिजूल बातों को.आज हमारे दीपक का प्रमोशन के साथ-साथ सम्मान किया जा रहा हैं,हम सभी को भी जाना हैं".
बड़ा-सा मंच सजा हुआ था.कुर्सियों पर ऑफिस के लोग अपने परिवारों के साथ विराजमान थे.
पास में थोड़ी दूर बैठे श्याम बाबू के दोस्त श्रीकांत मिलते ही कहने लगे- "बेटा हो तो दीपक जैसा.अब आप अपने बेटे के नाम से जाने जायेंगे". 
शयाब बाबू का सीना गौरवान्वित से दो फुट चौड़ा हो गया,हाथ थाम कहते- बस ,सब आप सभी की शुभकामनाओं का असर हैं.....
"ना...ना..आपकी और भाभी जी तपस्याओं का फल हैं",बीच में ही श्रीकांत बोल पड़े,
ऐसा सुन ,पास बैठी ममता के मन से आगापीछा सब विस्मृत हो गया.
तभी तालियों की गडगडाहट से ध्यान मंच की ओर चला गया .दीपक हाथ में शील्ड लिए माईक पर धन्यवाद के साथ-साथ अपनी इस तरक्की का श्रेय में कुछ कह रहा था 
सतर्क हो श्याम बाबू सुनने लगे.
दीपक बोल रहा था- मुझे मेरे माँ बाबू जी ने अच्छी परवरिश दी.पढाया-लिखाया,पर मेरी इस तरक्की पर वास्तविक अधिकार मेरी पत्नी नीरा का हैं जिसने मेरा हर परिस्थिति में साथ दिया.मैं ये सम्मान उसे देना चाहूँगा.......
आगे और दीपक ने क्या कहा कुछ सुनाई नही आया श्याम बाबू को.अपने आप से कहने लगे कि क्या हमने केवल जिम्मेदारी निभाई....और कुछ नही किया... सब उसकी पत्नी.......श्याम बाबू अपने आप को समझा नही पा रहे थे......क्या रिश्तों के इस तरह समीकरण बदलते हैं....
मनोस्थिति भांप ममता श्याम बाबू के कंधे पर हाथ रख पनीली आँखों से सांत्वना देती हैं कि क्या हुआ किसी को भी मिला......
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(१०). आ० मोहन बेगोवाल जी 
बदल रहे समीकरण
आज यहाँ लड़की के घर वाले विवाह की तारीख फिक्स करने आये हैं। क्योंकि वह बिटिया की शादी लड़के के शहर में आ कर करना चाहते हैं। 
इस लिए जरूरी था कि ये प्रबंध पहले से हो जाए कौन से होटल में मैरिज करनी है और विवाह से इक दो दिन पहले आ कर भी रहना होगा तो कहाँ रहेंगे ? 
सभी लोग ड्रइंग रूम बैठे लड़के वालों से सलाह मशिवरा कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद ममता चाय ले कर ड्रइंग रूम में दाखिल हुई और चाय परोसने लगी। 
तभी ससुर ने कहा,”देखिए, हमारी बहू कितनी अच्छी है, अभी से मेहमानों का कितना ध्यान रखने लगी है।“
दादा जी की आँखे खुली रह गई और वह ये सब देख कर हैरान हो गए।
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(११). आ० शशि बांसल  जी 
उजड़ा फूल 
" हाय! कुलच्छिनी खा गई मेरे इकलौते बेटे को । तिल-तिल मरता रहा छोरा उसे और अपने बच्चे को याद कर , पर उस पत्थर औरत का कलेजा जरा भी नहीं पसीजा ।"
" चुप हो जाओ माँ ! भाई इतनी ही जिंदगी लिखाकर लाया था ऊपर से । मौत को तो बस बहाना चाहिए आने का ।" जवान भाई की मौत और अकेली माँ को कैसे संभालेगी सोच ने उसे पत्थर बनाकर रख दिया था ।
माँ का करुण रुदन जारी था । पास ही घूँघट निकालकर बैठी स्त्रियाँ अपने तरह से शोक प्रकट कर रही थीं ।
" बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ । पति तो पहले ही नहीं था , अब बेटा भी नहीं रहा ।"
" हुआ क्या था ? सुना है बहू भी घर छोड़कर चली गई थी ।"
" सुना तो यही है कि ब्याह के तीन साल बाद जो रूठकर गई तो फिर न लौटी । अपने साथ दूध मुँहे बेटे को भी ले गई ।" 
" हे भगवान ! "
" सुना तो ये भी है रूठना तो एक बहाना था असल बात तो कुछ और ही थी ।"
" बुआ... बुआ...मुझे भूख लगी है , कुछ खाने को दो न ।" नन्हे दीपू ने आँचल खींचकर उसके ख्यालों की श्रृंखला तोड़ दी । जिसे वह उसकी माँ की मृत्यु का समाचार सुन कुछ दिन के लिए अपने पास ले आई थी । एक तरह से अनाथ ही तो हो गया था दीपू । अदिति का मन नहीं माना तो वह सारा मान-अपमान भूलकर पहुँच गई थी उसके सौतेले पिता के पास ।
" हमें अपने ही किये की सजा मिली है । न हम इस तरह समाज की मर्यादाओं को तोड़ते और न आपके परिवार को ये जलालत सहनी पड़ती । हम दोनों के एक गलत कदम ने आपसे भाई और माँ दोनों छीन लिए ।"
अदिति खामोश रही । भाई और माँ को यादकर उसकी आँखें भर आईं तो उसने अपना हाथ दीपू के सिर पर रख दिया जो उसके अनजाने चेहरे को टुकुर-टुकुर ताक रहा था ।
" मैंने निर्णय कर लिया है कि दूसरा विवाह न कर अपने पाप का प्रायश्चित करूँगा । अभी तक दीपू को पाल रहा था पर अब उसका पिता बनूँगा , ताकि कभी उसे जीवन में अपने अनाथ होने का दुख न हो । फिर शायद ऊपर वाला मेरे गुनाह की सजा कुछ कम कर दे ।"
और इस तरह एक नया समीकरण बन गया था उन रिश्तों के बीच । अदिति के पति ने दीपू को लाने का विरोध तो नहीं किया था , पर उसे सही भी नहीं ठहराया था । वह जवाब में सिर्फ इतना ही बोली थी , " माली बदल गया तो क्या ? वह फूल है तो मेरे ही बाग का । थोड़ी देर को ही सही , उसकी खुशबू तो ले ही सकती हूँ न ?"
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(१२) आ० महेंद्र कुमार जी 
प्यादे

पुलिस अधिकारी थाने पहुँचने ही वाला था।

रात को, अब से कुछ घण्टों पहले।
“सर आप चिन्ता न करें। आपके दोनों बेटों को कुछ नहीं होगा।” पुलिस अधिकारी ने उद्योगपति से कहा। “कल सुबह वो दोनों आपके बेटों का इल्ज़ाम अपने सर लेंगे।”

पुलिस अधिकारी अलग-अलग कोठरियों में बन्द उन दो मरियल आदमियों की चर्चा कर रहा था जिसे उसके सिपाही अभी थोड़ी देर पहले ही उठा कर ले आये थे।
“पर वो ऐसा करेंगे क्यों?“ उद्योगपति ने जानना चाहा।
“क्योंकि मैंने गोट ही ऐसी बिछायी है।” थानेदार ने तफ़्सील से अपनी योजना बतानी शुरू की कि वह कैसे उन दोनों के पास अलग-अलग गया और कैसे दोनों के पास चारों विकल्प रखे, “देखो, तुम्हारे पास केवल चार विकल्प हैं। पहला, अगर तुमने यह मान लिया कि तुम दोनों ने मिलकर उस आदमी का ख़ून किया है और अगर तुम्हारे साथी ने नहीं माना तो तुम्हें फ़ौरन छोड़ देंगे लेकिन तुम्हारे साथी को दस साल की जेल होगी। दूसरा, अगर तुमने नहीं माना कि तुम दोनों ने मिलकर उस आदमी का ख़ून किया है और अगर तुम्हारे साथी ने यह मान लिया तो तुम्हें दस साल की जेल होगी और तुम्हारे साथी को फ़ौरन छोड़ दिया जाएगा। तीसरा, अगर तुम दोनों ने ही मान लिया कि तुम दोनों ने मिलकर उसका ख़ून किया है तो मैं ऐसा केस बनाऊँगा कि तुम दोनों को केवल तीन साल की जेल होगी या यह भी हो सकता है कि कोई मुफ़ीद जज मिल जाए तो हम तुम दोनों की सज़ा ही माफ़ करवा दें। और चौथा, अगर तुम दोनों में से किसी ने नहीं माना कि तुम दोनों ने उसका ख़ून किया है तो तुम दोनों को मैं ख़ुद कम से कम सात साल की जेल करवाऊँगा। बाकी तुम ख़ुद समझदार हो। तुम्हारे पास सिर्फ़ सुबह तक का समय है।”

“मतलब बोलने पर अधिकतम तीन साल की सज़ा या तुरन्त मुक्ति और चुप रहने पर सात या दस साल की क़ैद। यानी दोनों ही बोलेंगे क्योंकि यही दोनों के लिए सर्वाधिक लाभदायी विकल्प है। बहुत ख़ूब! ह्यूमन बिहेव्यर को आप अच्छे से समझते हैं।” उद्योगपति को पुलिस अधिकारी की बुद्धिमत्ता पर गर्व महसूस हो रहा था।
“जी सर, हमें हर हाल में तीसरा विकल्प ही मिलेगा। और फिर हम दोनों को डबल क्रॉस करते हुए उनके बयान रिकार्ड कर न्यायालय में प्रस्तुत कर देंगे। इस तरह आपके बेटे साफ़ बच जाएँगे।” पुलिस अधिकारी ने अपने पूरे पत्ते खोल दिए थे।

“शाबाश!” उद्योगपति बेहद ख़ुश था। उसने पुलिस वाले को मोटी रक़म दी जिसे ले कर वो फ़ौरन उसके घर से चला गया।

सुबह हो चुकी थी। पुलिस अधिकारी थाने पहुँचने ही वाला था कि तभी उसके पास फ़ोन आया, “सर, वो दोनों लॉकअप से भाग गए हैं। हमने उन्हें बहुत ढूँढा पर वो नहीं मिले।” इतना सुनते ही पुलिस अधिकारी ने गुस्से से फ़ोन पटक दिया। उसे नहीं मालूम था कि वो दोनों मरियल आदमी शातिर चोर थे जिनके लिए कोई भी ताला तोड़ना उनका बायें हाथ का खेल था। दोनों ही सिपाहियों की आँख लगते वहाँ से भाग गए थे।
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(१३). आ० नीलम उपाध्याय जी 

 "माँ आप अभी से किचेन में क्या कर रही हैं ? मैं आ गयी हूँ । अब आप बाहर आ जाइए ।" दरवाजे से अंदर आते ही शारदा जी को किचेन में लगी देख कर उनकी बड़ी बहू  ने आवाज लगाया ।
"कुछ नहीं आरती, तुम आ रही होगी तो सोचा चाय के साथ थोड़े पकोड़े ताल लूँ । आज बारिश हुई है तो चाय और पकोड़ों खाके का मजा आ जाएगा "
"नहीं-नहीं आप बाहर आइए, अब मैं आ गयी हूँ न, मैं करती हूँ ।"
"अरे दीपाली, तुम्हारी देरी हो रही है, ये काम छोड़ो । तुम जाओ मैं कर दूँगी ।"
"बस दो मिनट मिनट में हो जाएगा मम्मीजी ।" छोटी बहू बोली। 
"नहीं नहीं बेटा, तुम निकलो । मैं तो खाली ही बैठी हूँ । मैं कर दूँगी । तुम जाओ – bye ।"
शारदा जी के घर में लगभग हर दिन का यही नजारा होता है । दो बहुओं के साथ शारदा जी का बहुत अच्छा समीकरण था । बहुओं के साथ उनके व्यावहार को देख कर उनके घर आने वालों को सहसा यकीन नहीं होता कि आरती और दीपाली उनकी बहुएँ हैं या बेटियाँ । ऐसे ही किसी मौके पर उनकी पड़ोसन ने उन्हें बोल ही दिया – "शारदा जी आपने अपनी बहुओं को बहुत सर चढ़ा रखा है । इतना ज्यादा घर के कामों में अपने आप को उलझाए रखोगी तो कल को वो लाट साहब की तरह बैठी रहेंगी और तुम घर की नौकरनी की तरह घर के कामों में पिसती रहोगी । आखिर तुम भी तो दफ्तर जाती हो तो तुम्हें भी तो थकान होती होगी ।"
पड़ोसन की बात पर शारदा जी मुस्कराईं । फिर बड़ी सी सौम्यता से उन्होने कहा – "सुशीला जी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं । मैं भी तो दफ्तर जाती हूँ तो थकान तो मुझे भी होती होगी । लेकिन ये भी तो देखिये मेरा दफ्तर घर से बहुत थोड़ी दूरी पर है जब कि उन्हें 28 केएम और 32 केएम का सफर कर के दफ्तर जाना पड़ता है । दफ्तर पहुँचने के लिए मैं उन दोनों लड़कियों के घर से निकालने के बहुत बाद घर से निकलती हूँ और शाम को भी उनके दफ्तर से आने के बहुत पहले घर पहुँच जाती हूँ । इस तरह वो दोनों मुझसे बहुत ज्यादा थकी हुयी होती हैं । फिर ये भी तो सोचिए, मैंने अपने बेटों को जिस तरह उच्च शिक्षा दी है, उनके माँ बाप ने भी उन्हें उच्च शिक्षा दी है । तो अगर मैं अपने बेटों से ये उम्मीद नहीं करती कि वो दफ्तर से आने के बाद घर का काम करें तो बहुओं से भी तो ये आशा नहीं रखनी चाहिए । अगर मेरी बेटियाँ होती तो क्या मैं उनसे भी ऐसी ही आशा रखती । फिर बेटी और बहू में तो मुझे कोई फर्क नजर नहीं आता । मुझे तो वो दोनों ही अपने बेटों जितनी ही प्यारी है ।"
सुशीला जी से फिर कुछ कहते नहीं बना ।
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(१४) योगराज प्रभाकर 
अंकगणित  
. 
पडोसी देश द्वारा भारत पर हुए भयानक आतंकवादी हमले के मद्देनज़र विश्व के कुछ अति महत्वपूर्ण राष्ट्रों के मध्य शिखर वार्ता कई दिनों से जारी थीI किन्तु बड़ी शक्तियों के ढुलमुल रवैये के कारण कोई ठोस परिणाम नहीं निकल पा रहा थाI  
“देखिए एक शांतिप्रिय देश पर हमला हुआ है जिसमे अनगिनत निर्दोष लोगों की जान गई हैI अगर जल्द ही कोई निर्णय न लिया गया तो यह आग हम सब तक भी पहुँच सकती हैI” भूतपूर्व महाशक्ति ने चेतावनी भरे स्वर में कहाI
“अरे सोचते हैं कुछ, इतनी जल्दी भी क्या है?" ऊँची कुर्सी पर विराजमान वर्तमान महाशक्ति के लापरवाही से उत्तर दिया। 
“शायद आप इसलिए दिलचस्पी नहीं ले रहे क्योंकि उस हमलावर देश को हथियार और पैसा देकर आपने ही हमारे साथी के खिलाफ खड़ा किया थाI" उसने ताना दिया। 
"आप भी उस शांति के पुजारी कहे जाने वाले देश को हथियार देते है।" वर्तमान महाशक्ति भी भड़क उठीI 
“शांति मित्रो शांति!” एक प्रतिनिधि ने बीच बचाव किया  
“आप ही बताएँ कि इस समस्या का क्या हल खोजा जाए?"
“इसके दो हल हैंI” आतंकवाद से पीड़ित एक अन्य देश आगे आयाI
“जी जी कहिएI” सामूहिक स्वर उभरा
“नम्बर एक, उस हमलावर देश पर कड़े प्रतिबन्ध लगाकर उसको अलग थलग कर दिया जाएI”
“तो तुम चाहते हो कि हमारा साथी कमज़ोर हो जाए? नहीं ये हमें मंज़ूर नहीं, दूसरा हल बतायोI” यह स्वर उभर रही महाशक्ति का थाI 
“दूसरा उपाय ये है कि पीड़ित देश द्वारा हमलावर को घर में घुस कर उसे मारने दिया जाएI”
“अगर हमारे हम-मज़हब देश पर हमला हुआ तो आप लोग तेल की एक एक बूँद के लिए तरस जाएँगेI” लम्बे चोगे वाले ने सबको ललकारते हुए चेतायाI  
“शांत शेख साहिब शांत! भड़कने से कुछ हासिल नहीं होगाI पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, समय की मांग यही है कि हम समझदारी से काम लेंI"
वर्तमान महाशक्ति ने कुटिल स्वर में कहा, " मेरा सुझाव है कि इस समय हमे अपने आपसी मतभेद भुलाकर इस हमले की कड़ी निंदा करनी चाहिए।”
“मगर हम तो अपने साथी देश की निंदा नहीं करेंगे।” 
“निंदा हमले की करनी है, न कि हमलावर कीI” वर्तमान महाशक्ति ने आँख दबाते हुए कहा। 
“यानि?”
“यानि, बस निंदा करो और इन्हें आपस में लड़ने मरने के लिए छोड़ दोI" 
"मगर हम तो यहाँ इसलिए इकट्ठे हुए है कि इस क्षेत्र शांति क़ायम की जा सके।" भूतपूर्व महाशक्ति ने बैठक का उद्देश्य याद दिलाया।वर्तमान महाशक्ति ने भूतपूर्व और उभरती हुई महाशक्ति के कन्धों पर हाथ रखते हुए कहा,
"ज़रा सोचिए, अगर इस क्षेत्र में शांति हो गई तो हमारा सामान और हमारे हथियार कौन खरीदेगा?"
जैसे ही यह स्वर हवा में फैला तो अधिकांश चेहरों पर चमक सी फैल गई, समाधान का मसौदा शब्दों में ढलने के लिए तैयार होने लगा। किन्तु एकाएक लगभग सभी लोग जुड़वाँ भाई दिखाई देने लगे थे।  
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(१५). आ० आशीष श्रीवास्तव 
नई चुनौतियां

बेटी गौरी 8 साल की। माॅ सीमा ने अकेले ही गौरी को, बहुत नामी स्कूल में पढ़ाया। वयस्क होते ही अध्यापक से शादी। फिर बच्ची नंदनी का जन्म। सीमा के चेहरे पर भी नानी बनने की खुशी। बच्ची नौ साल की। अध्यापक पिता सड़क दुर्घटना के कारण लाचार। घर खर्च के लिए पढ़ी-लिखी गौरी ने जल्द ही नौकरी कर ली।
कुछ समय ही बीता और गौरी ने अपने आफिस के बाॅस के साथ लिव इन में रहना शुरू कर दिया। गौरी को अध्यापक पति ने रोका, समझाया, पर वह नहीं मानी। कहने लगी ‘‘उसे अपने तरीके से जीने का हक है।’’ पति, अस्थायी लाचारी से कहीं अधिक अपनी गरीबी और अपमान से आहत।
परिवार के संस्कारों की दुहाई का भी गौरी पर असर नहीं। पति के साथ रहने से ही इंकार। नंदनी के रूप में फिर एक बच्ची माॅ सीमा के पास। ईश्वर की इच्छा और परिवार का मान रखते हुए जिस माॅ ने अपनी बेटी को पाल-पोस कर बड़ा करने में जीवन लगा दिया, वह आज मन ही मन बुदबुदा रही है -‘‘33 साल पहले ये समीकरण उसकी समझ क्यों नहीं आया?’’ सही-गलत के चक्रव्यूह में उलझी, स्वयं को संभालते हुए बूढ़ी माॅ ने नातिन का चेहरा देखा और अपनी बेटी गौरी से पूछ बैठी -‘‘ये मेरे पश्चाताप के लिए मुझे सौंपे जा रही है या फिर मेरी भूल सुधार के लिए?’’ महंगी कार में बैठते हुए गौरी ने कहा-‘‘इसका जवाब तो बेटी बड़े होकर देगी!’’ हतप्रभ माॅ का अनुभव पुराना था, पर चुनौतियां नई....!
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(१६). आ० बरखा शुक्ला जी 
आक्रोश 
लीना ने घबराते हुए पति निलेश को बताया ,”सुनिए निन्नी अभी तक कोचिंग से नहीं आयी है।”
“अरे आ जाएगी ,मोबइल लगायो उसे । “निलेश बोले ।
“अरे कब से लगा रही हूँ , बंद आ रहा है ।”लीना बोली ।
“उसकी किसी सहेली से पूछो ।”पति बोले ।
लीना के पूछने पर सहेली ने बताया “आज वो कोचिंग ही नहीं आयी ।”
ये सुन कर निलेश भी घबरा गए ।और फिर चौंक कर घर के नौकर राजू के बारे में पूछते हुए बोले “वो राजू कहाँ है ,मुझे लेने दफ़्तर भी नहीं आया ।”
“वो तो ४ बजे मुझे किट्टी पार्टी में छोड़ कर बोला “राशन लेकर साहब को लेने चला जाऊँगा ।”लीना ने बताया ।
“कही वो ही तो अपनी निन्नी को भगा कर नहीं ले गया ।”निलेश सर थाम कर बैठते हुए बोले । 
“ये क्या कह रहे है आप ।”लीना रुआंसी होकर बोली ।
“तुम्हें अपनी पार्टी से फ़ुर्सत मिले तब तो घर पर ध्यान दो , गाँव से राजू को आगे पढ़ाने का लालच देकर ले आयी ,यहाँ उसे नौकर बना कर रख लिया ।”निलेश बोले ।
“खाना ,रहने की जगह सब तो उसे मिल रही थी ,उसके पिताजी को रुपए भी तो भिजवाती थी ,इन सबका ये सिला दिया ।”लीना रोते हुए बोली ।
“पर उसे तो पढ़ना था न । “निलेश बोले ।
“एक बार दिलवाई तो थी परीक्षा पास ही कहाँ हो पाया ।”लीना बोली 
“तुम घर के काम के चक्कर में उसे पढ़ने ही कहा देती थी ।तुमने अपना समीकरण लगाया ,उसने अपने आक्रोश में अपना समीकरण लगा लिया ।”निलेश बोले ।
“अब उठो ,चल कर पुलिस की मदद से बेटी को खोजे ,अभी ज़्यादा देर नहीं हुई है ।”लीना बोली ।
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(१७). आ० विनय कुमार जी 
येन केन प्रकारेण-
"तो फिर क्या सोचा आपने रघुबीर जी, इस बार किसके समर्थन से सरकार में जाने का सोच रहे हैं!", बच्चू खान ने हाथ में ग्लास को उठाते हुए कहा.
"आप तो जानते ही हैं बच्चू भाई, हम तो उसी तरफ रहते हैं जिधर सबसे बेहतर आसार रहते हैं", रघुबीर जी ने अपना ग्लास उठाया और बिना चियर्स बोले गटकने लगे.
बच्चू खान ने अपना ग्लास खाली किया और थोड़े चिंता भरे शब्दों में कहा "लेकिन आपकी पार्टी ने तो उस दल से किसी भी हाल में समर्थन नहीं लेने का ऐलान किया है, फिर आप क्या करेंगे?
"आप भी बहुत भोले हैं बच्चू भाई, ये कहाँ लिखा है कि पार्टी नहीं बदली जा सकती. जंग और राजनीति में सब जायज़ है, एक एक पैग और लगाते हैं".
रघुबीर जी के ठहाके काफी देर तक गूंजते रहे, बच्चू खान भी धीरे धीरे अपना ग्लास ख़त्म करते रहे. 
--------------------
(१८). आ० वीरेंद्र वीर मेहता जी 
'रिश्तों के समीकरण'
.
"लगता है बुरा समय बीत गया।" घर की चौखट पर बैठी मां बुदबुदा उठी।
एक लेनदेन के चलते जिनकी शिकायत पर उसे ससपेंड किया गया था, वही 'बड़े साहब' अपनी शिकायत वापिस लेने और नौकरी बहाल करवाने के 'आश्वासन पत्र' के साथ सामने बैठे थे। ये अलग बात थी कि 'ऊपर की इन्कम' के मकड़जाल से उसका परिचय करवाने वाले भी वही थे।
घर में खुसर-फुसर शुरू हो गयी थी। भाई-भाभी के कान दरवाजे पर लगे थे और पति से नाराज मायके में बैठी बहन कमरे के बाहर से अपनी नजरें इधर ही गड़ाये बैठी थी। बड़े साहब चाय पीने के साथ उसके चेहरे पर नजरें टिकाये हुये थे और वह, अपने ही ख्यालों में गुम बीतें समय की कड़ियाँ जोड रहा था।
भरा पूरा घर था, कहीं कोई कमी नहीं थी लेकिन पिता की असमायिक मृत्यु के बाद परिवारिक सदस्यों की अपने प्रति घटती दिलचस्पी से वह अक्सर विचलित हो जाता था लेकिन जल्दी ही नौकरी मिलने के बाद सब ठीक हो गया था। नौकरी में बड़े साहब के साथ बने ऊपरी कमाई के समीकरण ने जल्दी ही परिवार में भी सभी के साथ अच्छे समीकरण बना दिये थे लेकिन एक 'संस्पेंशन ऑर्डर' ने उसके सारे प्रयत्नों को धराशाई कर दिया था।
"......अरे भाई, अब मेरी इन्कम तेरे जैसी नहीं है कि तेरा बोझ उठा सकूँ।"
"......छोटे! गलत काम गलत ही होता है, पहले सोचना चाहिए था न।"
".......देवर जी, हम अपना खर्चा तो चला ही लेंगें जैसे तैसे। और फिर हमने तो नहीं कहा था कि ऐसे कमाओ।"
"...... भैया, मैं कब कह रही हूँ रिश्ते पैसों से बड़े होते है लेकिन कभी कभी......।"

"क्या हुआ बेटा, कहाँ खो गया?" माँ के शब्दों से वह वर्तमान में आ खड़ा हुआ। "बड़े साहब कब से बैठे हुए हैं?" माँ चौखट से उठकर सामने आ खड़ी हुई थी।
"अरे, कहीं नहीं माँ! बस कुछ रिश्तों के समीकरण बिगड़ गए थे, उन्हीं को सुधारने के बारे में सोच रहा हूँ।" कहते हुए वह मुस्करा दिया। और अगले ही क्षण वह 'आश्वासन पत्र' को खेद सहित बड़े साहब को थमाते हुए चौखट का रास्ता दिखा चुका था।
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(१९). आ० अर्पणा शर्मा जी 
समीकरण अपने-अपने

"सुना है पड़ोस वाले शुक्ला जी की बेटी एक ही शहर में अलग- अकेली रहती है। उसका तो अभी ब्याह भी नहीं हुआ। ऐसा भी कहीं होता है क्या !!"
दुबे जी ने गहरी गहरी उच्छ्वांस लेते हुए उत्तर दिया-
"हाँ पिताजी, शुक्ला जी को बड़ा चाव था कि दहेज रहित आदर्श विवाह करके घर में बहू नहीं बल्कि बेटी लाएंगे",
"फिर , ऐसे भले परिवार में बिखराव क्यों ",दुबे जी के पिता हतप्रभ थे।
दुबे जी ड़ूबी आवाज़ में बोले- " रोज की कलह से बचने,
क्योंकि, उस बेटी ने उनकी बेटी को अपनी बहन सा कभी नहीं समझा न.. ."
------------------
(२०).  आ० प्रतिभा पांडे जी 
समीकरण

"सर जी रेप हुआ है।"
" हूँ, आगे!"
"जी बच्ची है पाँच साल की।"
" आगे?"
" जी..जी"
" क्या जी.जी पर अटक गई है सुई! तफसील से बता किस धर्म की है, किस जात की है, किस विधायक के क्षेत्र की है। ऐसी आधी अधूरी जानकारी लायगा तो दिन नहीं टिक पायगा पुलिस महकमें में।" दरोगा ने जलती निगाह नये भर्ती काॅन्स्टेबल पर डाली।
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जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,इस बार आपकी मसरूफ़ियत कुछ ज़ियादा रही,इसी कारण से संकलन कुछ देर से आया, कोई बात नहीं इंसान अपनी मजबूरियों के आगे बेबस हो जाता है,ख़ैर लघुकथा गोष्ठी के सफ़ल संचालन और संकलन के लिए बधाई स्वीकार करें ।

मुहतरम जनाब योगराज साहिब, ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक _39 के कामयाब संचालन और संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं l

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक 39 के सफल संचालन और शानदार संकलन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी ।मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस लघुकथा गोष्ठी के समय पर मैं होंगकोंग में था।भारत के और वहाँ के समय में ढाई घंटे का अंतर होता है।इस वज़ह से कुछ साथियों की लघुकथाओं पर अपनी रॉय नहीं दे सका।जिनमें आदरणीय विनय जी,वीर मेहता जी, बरखा जी,अपर्णा जी और प्रतिभा जी की बेहतरीन लघुकथायें थी।हालाँकि अगले दिन मैंने सब लघुकथायें पढ़ लीं थी।सभी को हार्दिक बधाई।

आदरणीय योगराज जी, नमस्कार ।  लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक 39 के सफल संचालन और संकलन के लिए हार्दिक बधाई । 

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