आदरणीय साथिओ,
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आ. बबीता जी, सुंदर कथा हुयी है । हार्दिक बधाई ।
वक़्त की नब्ज़-
सब कुछ जैसे एक फिल्म की तरह उनके जेहन में घूम रहा था, आखिर ऐसा क्यूँ हो गया| उनकी परवरिश में तो कोई खोट नहीं थी फिर रज्जब की गिरफ़्तारी, शायद इस राह पर चलने का यही परिणाम होता हो? रशीदा तो जैसे काठ हो गयी थी, लोगों की नज़रों का सामना करने की उसकी हिम्मत नहीं बची थी|
बहुत लाड़ से पाला था उन दोनों ने रज्जब को, यहाँ तक कि यूनिवर्सिटी में भी भेजा| उसकी बातें वैसे तो बहुत अच्छी लगती थीं उनको लेकिन कभी कभी थोड़ा डर भी लगता था| खासकर जब वह अपने ही धर्म के गुरुओं की बातों की धज्जियाँ उड़ाने लगता था| कई बार उन्होंने उसे समझाया भी कि अपने विचार तो ठीक हैं लेकिन इस तरह उनको व्यक्त करना लोगों को शायद नागवार गुजरेगा|
"देखिये अब्बू, मैं उनमे से नहीं हूँ जो इनके जाहिलपन को बर्दास्त करूँ| हमें सीख देते हैं कि मजहब की तालीम लो और उसे आगे बढ़ाओ, लेकिन खुद इनके बच्चे बाहर देशों में पढ़ते हैं और इसके लिए कोई इनको नहीं पूछता"|
"ठीक है, तू मत सुन इनकी बात और जो ठीक लगता है वैसी तालीम ले| हमने तो तुम्हें कभी मना नहीं किया इसके लिए, फिर क्यूँ बेकार में इनकी नज़र में चढ़ता है", मोहसिन ने उसको समझाया|
"दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं हैं कि अपनी कौम पढ़े लिखे, इसलिए बस मज़हब और डर की बात करते रहते हैं लोगों से| इनका एक ही जवाब है अब्बू, अपने आप को शिक्षित करना और इनके फैलाये भ्रम के जाल को तोड़ना", रज्जब अपनी दलील रखता| मोहसिन को कभी कभी थोड़ी घबराहट भी होती लेकिन फिर वह रज्जब के आत्मविश्वास से वह अपने आप को तसल्ली दे देते|
रज्जब फिर भी वही करता जो उन धर्म के ठेकेदारों को बुरा लगता| युनिवर्सिटी से लौटने के बाद तो जैसे वह उनके पीछे ही पड़ गया था| अपने मोहल्ले के लोगों को उसने धीरे धीरे समझाना शुरू किया और लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा| धीरे धीरे मोहल्ले के बहुत से लोग रज्जब की बात समझने लगे और यही बात उन चंद ठेकेदारों को बर्दास्त नहीं हुई.
पिछले दो दिन से रज्जब की कोई खबर नहीं थी उनको, लेकिन आज पुलिस स्टेशन जाते समय उन्होंने सोच लिया कि अब रज्जब को अब वक़्त के साथ चलने की नसीहत देने की जरुरत नहीं रह गयी है.
मौलिक एवम अप्रकाशित
अक्सर ऐसा देखा गया है जो भी समाज सुधार की बात करता है उसे सहज स्वीकार नहीं किया जाता। बल्कि वह किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। और अपना ही मुँह खुद ही सिल लेता है। एक अच्छा विषय चुना है आपने। बहुत बहुत बधाई।
लघुकथा पर टिप्पणी करके उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार आपका
समाज के तथाकथित कर्णधारों को समाज सुधार में कोई रूचि नहीं होती और जो वास्तव में समाज का सुधार करना चाहता है वह इन तथाकथित कर्णधारों के विरोध में कहीं खो जाता है। बहुत ही बढ़िया रचना की प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकार स्वीकार करें आदरणीय विनय कुमार जी।
लघुकथा पर टिप्पणी करके उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत बहुत आभार
बढ़िया लघुकथा है आदरणीय विनय कुमार जी. समाज सुधार का रास्ता निश्चित पर बेहद कठिन है. तथाकथित ठेकेदार इसे आसानी से पचा नहीं पाते. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. //फिर वह रज्जब के आत्मविश्वास से वह अपने आप को तसल्ली दे देते//
2. //अब रज्जब को अब वक़्त के साथ चलने की//
सादर.
लघुकथा पर टिप्पणी करके उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत बहुत आभार
धर्मान्धता और उससे उपजने वाले असामाजिक कृत्यों पर बढ़िया कथा हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी
लघुकथा पर टिप्पणी करके उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत बहुत आभार
आदरणीय विनय कुमार जी बहुत सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई .
लघुकथा पर टिप्पणी करके उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत बहुत आभार
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