आदरणीय साथिओ,
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बहुत बढ़िया और अर्थपूर्ण रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आ टी आर शुकुल साहब
मंज़िल
(लघुकथा)
मनु की चाल बहुत तेज़ थी। पता नहीं कितनी मंज़िलें अभी बाकी थीं। चला जा रहा था अपनी ही धुन में।
तभी समय रास्ते में समय मिला, बोला "कहाँ जा रहे हो दोस्त? मुझे भी तो बताओ?"
मनु ने कहा "क्या करोगे तुम जानकर। मुझे मेरी मंज़िल पता है। अभी बहुत दूर है। अगर रुक कर तुम्हारे पास बैठ जाऊँगा तो मंज़िल तक पहुँच पाना असंभव है। तुम मेरे रास्ते में बाधा उत्पन्न कर रहे हो। अभी तक तमाम उबड़-खाबड़ रास्ते मुझे रोक न सके। ये छायादार वृक्ष भी मुझे न रोक सके। मेरा कोई संगी साथी नहीं है। अगर कोई साथ है तो मेरी साया है। ये भी मेरे आगे पीछे चलता है। जब ये साथ छोड़ता है तो रात हो जाती है। सुबह से सूरज फिर इसे मेरे साथ कर देता है। मैं इंसान की ज़िन्दगी को उस मुकाम पर पहुँचाना चाहता हूँ, जहाँ उसे दुनियाँ में ही स्वर्ग की सी अनुभूति हो सके।"
समय ने कहा मेरी बात ध्यान से सुनो, "इस संसार का सबसे अनुभवी व्यक्ति, मैं ही तो हूँ। ये दिन और रात मेरे हैं। ये कल और आज मेरे हैं। मुझ से ही तो दुनियाँ की रौनकें हैं।दुनियाँ की तबाही और बर्बादी का कारण भी, मैं ही हूँ। इस दुनियाँ को अनेकों बार नष्ट कर चुका हूँ। आदि और अन्नत मैं ही हूँ। क्या तुम नहीं जानते?"
जानता हूँ, "तुम ही मेरे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हो। तुमने अनेकों बार बर्बाद किया है मुझे। लेकिन मैं भी बहुत ज़िद्दी हूँ। फिर खड़ा हो जाता हूँ। मेरी चेतना बारम्बार तुम्हें ललकारती है, तुम मुझ से हो। मैं तुमसे नहीं हूँ। इस संसार की आपदाओं की जड़ में तुम ही हो। तुम उजाड़ देते हो। मैं फिर बस जाता हूँ। क्या तुम नहीं जानते, मैं मनुष्य हूँ?"
"हाँ, अच्छी तरह जनता हूँ। चलो आज ऐसा करते हैं हम दोनों साथ-साथ चलते हैं।
लेकिन मैं ने तो कभी समय के साथ चलना सीखा ही नहीं। मैं तो रूढ़िवादी हूँ।
"एक बार तुम मेरे साथ चलकर तो देखो तुम्हारी मंज़िल खुद चलकर तुम्हारे पास आ जाएगी।" समय ने लालच दिया।
"इस बार मनु हार गया और समय के साथ-साथ चलने लगा। बिना किसी मंज़िल के।"
( मौलिक व् अप्रकाशित )
मसलन मनु की चेतना सुप्त हो गई क्या,जगने के बदले,आदरणीय मुजफ्फर जी?विषय बड़ा गूढ़ और झकझोड़ने वाला रहा,पर ध्येय समय के प्रवाह में बह गया।पुनः लिखा जाए,तो शायद बेमिसाल रचना हो,शुक्रिया -बधाई आपको।हाँ, व्याकरण संबंधी तथ्यों पर गौर करना लाजिमी है,सादर।
सादर आभार आपका, आपकी सलाह का स्वागत है।
बेहतरीन रचना,जहां एक ओर रूढ़िवादी सोच से बाह्रर निकाल समय साथ चलना सिखाती हैं,तो वही दूसरो ओर लक्ष्यहीन दिशा में चलने लगता हैं,मन के भटकाव को दर्शाती रचना।बधाई आदरणीय इकवाल सरजी.
सादर धन्यवाद आपका, लघुकथा के मर्म को समझने के लिए।
मनु/समय और चेतना को लेकर इस गूढ़ विषय पर यह आपका उम्दा व शानदार प्रयास है। हार्दिक बधाई आदरणीय मुजफ़्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी साहिब। आप इसे थोड़ा और समय देकर बेहतर रूप भी दे ही देंगे। कुछ शब्द-चयन /टंकण-त्रुटियां भी सही कर लीजिएगा।
बहुत शुक्रिया शेख साहब। आपकी सलाह का भी शुक्रिया।
आदरणीय मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी जी, एक रचना जो एक शानदार लघुकथा में बदलने जा रही थी, अफ़सोस अन्त में पटरी से उतर गयी. आपसे गुज़ारिश है एक बार इसके अन्त के विषय में पुनः सोचें. एक उम्दा विषय को उठाने के लिए मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आ महेन्द्र जी, सादर आभार आपकी उपस्थिति के लिए। आपके निर्देशन के अनुसार अंत के बारे में पुनः विचार करूँगा।
सोई हुई चेतना.....
रामदीन काका का पटा हैं,सो उनके बेटा-दामाद ,नाते रिश्तेदार सभी उपस्थित होकर,कृतज्ञ हो रहे थे.पूजा की पूरी तैयारी होने पर पंडितजी ने काका का फोटो पूजा स्थल पर रखने के लिए कहा.तभी काका की बड़ी बहू की आवाज ने सभी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया,वो कह रही थी- 'मेरा आप सभी से अनुरोध हैं कि अगर पिताजी के साथ,अम्मा का भी पटा किया जाय तो अच्छा रहेगा.'
'पर अपने यहां घर की औरतों का पटा करने की कोई रीति नहीं हैं,' बड़े बावा ने आपत्ति जताई.
'और नहीं तो क्या ?ये नई-नई रीति चलाकर कोई नया बखेड़ा खड़ा ना करों बहुरिया,'पूजा में शामिल हुई परिवार की बड़ी दादी के साथ बुआ सास ने भी आवेशित व आक्रोशित आवाज में विरोध किया.
''क्यों नहीं करना चाहिए ? क्या वो हमारी पूर्वज नहीं हैं.' बड़ी बहू ने धीमी आवाज में कहा.
'बहुरिया तुम्हें जरा-सी बात की समझ नहीं.हम औरतों को मर्दों के साथ ,बराबर से पूजा करना ,माने अपने बुजुर्गों का अपमान करना.'
'इसमें कैसा अपमान बड़ी अम्मा ?हम औरतों के कारण ही वंश चलता हैं,तो फिर उनके साथ ये नाईंसाफी क्यों.आप ही बताईये पंडित जी?'
दुविधा में पड़े पंडित जी की तो जवान को जैसे ताला लग गया.दबी जवान से ,समझाईस से कहने लगे,- 'घर की बड़ी बूढ़ी हैं ,सही ही कह रही हैं...औरतों का....'
पंडित जी की बात में सहमति जताते हुए ,शर्मा अंकल कहने लगे- 'बिलकुल सही ,जो रीतिबद्ध हैं,वही होना चाहिए.'
'तभी अंकल आपने अपनी जीवन गाथा की वंशावली में गुजरी अम्मा-दादी को तो छोडो,जीवित अपनी पत्नि का नाम ही शामिल नहीं किया.जीवनभर केवल उनपर अपना हक जमाया ,तो फिर ये हक क्यों नहीं,' जैसे बड़ी बहू को ,शर्मा अंकल को अपनी आधुनिक सोच को आईना दिखाने का मौक़ा मिल गया हो.
सभी की बातों को अनसुना कर,बड़ी बहू ने अडिग फरमान सुना दिया कि पूजा में वो तभी शामिल होगी,जब अम्मा का भी पटा किया जाएगा.
काफी गहमा-गहमी,विचार-विमर्श के पश्चात आखिरकार बड़ी बहू की बात माननी पड़ी.इक्तफाक से काका-अम्मा का दिन एक ही था.
पूजा सम्पन्न पश्चात बढ़ी बहू ने परिवार के बड़े बावा के चरण स्पर्श करने झुकी तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा- 'बेटा,आज तुमने रीति के नाम पर हम अहंकारी मर्दों की आँखों पर चढ़ा दकियानूसी का पर्दा हटा,औरतों के प्रति दकियानूसी सोच को जगा दिया.'
'पास खड़ी बड़ी अम्मा का स्नेहमयी हाथ बड़ी बहू के सिर से हट ही नहीं रहा था.उनकी आँखें, जैसे ,अपने विरोध के पश्चाताप में कह रही हो,हम ही एक दूसरे के कदम से कदम मिलाकर नहीं चलेंगे तो फिर कौन.........
मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। महिला समानता की चेतना व संकल्प पर बढ़िया रचना कही है आपने। हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता साहिबा। कुछ पंक्तियां कम की जा सकतीं हैं। दूसरी बात यह कि इस सदी इस तरह के रिवाज़ो को बंद करने पर भी विमर्श के स्वर सुनाई देते रहते हैं। इस संदर्भ की ओर भी सकारात्मक संदेशवाहक रचना कही जा सकती है मेरे विचार से।
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