आदरणीय सुधीजनो,
दिनांक -15’नवम्बर 14 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक-49 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “बंधन” था.
महोत्सव में 21 रचनाकारों नें शब्द-चित्र, कुण्डलिया छंद, घनाक्षरी छंद, गीत-नवगीत, ग़ज़ल व अतुकान्त आदि विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति द्वारा महोत्सव को सफल बनाया.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.
विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा
सादर
डॉ. प्राची सिंह
मंच संचालिका
ओबीओ लाइव महा-उत्सव
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क्रम संख्या |
रचनाकार |
रचना |
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1 |
डॉ० प्राची सिंह |
बंधन (गीत) ========== पग-पग बंधन, बेबस क्रंदन, मन असहाय अधीर
मधुर मदिरमय जग सम्मोहन
प्रियतम के घर तुझको जाना
भींची मुठ्ठी कर दे ढीली |
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2 |
आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव |
मनहरण घनाक्षरी छंद - बंधन - ( 1 ) मोह से बँधा है कोई, भोग में फँसा है कोई, संयम से रहते जो, वही तो इंसान है। बेहतर संस्कार हो, धार्मिक परिवार हो, सुसंस्कृत समाज की, यही पहचान है॥ रिश्ते- नाते छूट गये, परिवार टूट गये, ब्याह बिना साथ रहें, पशु के समान हैं। जीवन उन्मुक्त जहाँ, वासना से युक्त वहाँ, भारत को छोड़ सभी, देश परेशान हैं॥ ( 2 ) शराब है शबाब है, नीयत भी खराब है, वेलेन्टाइनी मस्ती में, डूबा हिंदुस्तान है ! माँ बाप बेटे बेटियाँ, पब औ रेव पार्टियाँ, मुक्त सारे बंधनों से, पूरा खानदान है!! टीवी नेट का शोर है, अश्लीलता पे ज़ोर है, आजकल के बच्चे भी, लगते जवान हैं! लाचार क्यों ये राष्ट्र है, मां बाप धृतराष्ट्र हैं, बच्चे बड़े चतुर हैं , बुज़ुर्ग नादान हैं॥ ( 3 ) मांसाहारी बढ़ गये, कत्ल खाने खुल गये, हमारे लिए गौमाता, देती बलिदान है! निर्दयी व्यभिचारी हैं, निडर भ्रष्टाचारी हैं, मानव की पशुता से, पशु भी हैरान हैं!! स्वदेशी अपनाइये, विदेशी ठुकराइये, त्याग दें अंग्रेजियत, ‘कोढ़’ के समान है! हजार हो बुराइयाँ, कुछ तो है अच्छाइयाँ, विज्ञापनों में देखिये, भारत महान है !! ( 4 ) माया हमें घुमाती है , इंद्रियाँ बहलाती हैं , जग में क्यों आये हम लोग अनजान हैं। तन का भी बंधन है, मन का भी बंधन है, मुक्त वही हो सकते ‘‘मैं’’ का जिसे ज्ञान है॥ दर्शन की प्यास बढ़े, भक्ति भी निष्काम बने, बंधनों से मुक्ति का ये सरल विधान है। ‘‘राधे - राधे’’ बोलकर, चतुराई छोड़कर, धाम उसके जाइये, जिसकी संतान हैं ॥ *संशोधित |
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3 |
आ० सौरभ पाण्डेय जी |
बन्धन : पाँच अनुभूतियाँ |
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4 |
आ० राजेश कुमारी जी |
बंधन (नवगीत ) जगत समाया जिस ग्रंथि में कण से कण को बांधती जाए बंधन वो प्रीत की रीत सिखाए
खिले प्रेम की रजनी गंधा कली मधुप को गीत सुनाये व्योम, महिका मलय से मिलकर दिक् दिक् में खुशबू फैलाये महकें जब तक श्वास-श्वास चन्दन न बन जाए बंधन वो प्रीत की रीत सिखाए
चूल्हे की माटी यूँ कहती आ संग संग तपें खिलकर स्वर्णकार की उग्र भट्टी में रजत कनक सम संविलय कर दहकें जब तक देह पीत कुंदन न बन जाए बंधन वो प्रीत की रीत सिखाए
आखर से आखर का मिलना गीत नया रच जाता है माटी से बीजों का बंधन नव्य सृजन कर जाता है बांधे ऐसी डोर हिय जो वन नंदन बन जाए बंधन वो प्रीत की रीत सिखाये |
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5 |
आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी |
प्रथम प्रविष्टि: बंधन में मत बाँध मुझे प्रिय उड़ने दे !
द्वितीय प्रविष्टि : बंधन
बंधन में बंधना किसे अच्छा लगता है हर कोई चाह्ता है आकाश में उड़ना नये क्षितिज छूना सुरभियों को सहेजना रश्मियों को अपनी मुट्ठी में बंद करना शीत अहसास को हृदय मे उतारना सफेद-काले बादलों का स्पर्श करना वायु की स्फीत को नापना या निर्वात में निर्भार होकर तैरना पर, यह क्या संभव है बिना बंधन के I
हे उड्डयन अभिलाषी ! एक बार बंधकर तो देखो उस बंधन में जिसे कहते है प्यार जहाँ अंतस से झरता है पराग और परिमल जहाँ झिलमिलाती है भावो की आकाश गंगा जहां ठनकते है सुहाग के नूपुर जहाँ बरसते है सुमनों के बाण जहाँ मिलती है दो आत्माये तभी तुम पाओगे शायद अपना सही विस्तार जो तुम चाहते हो अपना आकाश अरुणिम क्षितिज ---- i |
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6 |
आ० मनन कुमार सिंह जी |
प्रथम प्रविष्टि : बंधन(आस्था)
द्वितीय प्रविष्टि : बंधन(धृतराष्ट्र की आत्मकथा)
देख तो सकता नहीं, पर दिख गया जो कुछ कहीं, |
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7 |
आ० सोमेश कुमार जी |
प्रथम प्रविष्टि: बंधन बंधन दुनियाँ ने नहीं बांधा है ये दिल अपने आप ही जुड़ गया है आज भी वहीं खड़ा हूँ यकीन से जाते-जाते जहाँ तुम मिले थे | यकीन है या मेरा पागलपन विश्लेषण करते हैं सारे बंधन कपड़ो की तरह नित बदलना सीखा नहीं, मेरे संस्कार नहीं | पैरहन कभी व्यर्था नहीं होती लिहाफ़-तकिया-कथरी-पवेतरा बहुत कुछ बनाती थी माँ उसीसे उतरन में ,प्यार था,बंधन नहीं अभाव तो इसे बाज़ार ने कहा | कूड़ा नहीं है वो स्मृतियाँ अनमोल धरोहर है मेरी बन्धनों का फ़र्क है केवल तुम्हारे लिए कूड़ा,बेवफाई मेरे लिए निधि,आबंध-प्रेम |
द्वितीय प्रविष्टि: बंधन सात जन्म का बंधन नहीं मांगती ऐसा वचन इस जन्म में भरी माँग माँगती हूँ पूरा जीवन | विश्वास डोर से गए बांधे जीवन पथ पे बढ़े आगे प्रबल हों रिश्तों के धागे दो भाग्य मिले सौभाग्य जागे | कर्म-भावनाओं से ओत-प्रोत मिलें उदभव के नव-स्रोत सृजन कर जीवन विस्तार सुंदर सतरंगी जीवन संसार | |
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8 |
आ० सुशील सरना जी |
प्रथम प्रविष्टि : प्रेम पंथ के दो पथिक .... कुछ तुमने बढ़ा ली दूरियां
द्वितीय प्रविष्टि : बंधन … हर रिश्ता इक बंधन है मोड़ लिया मुंह वृद्धावस्था में
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आ० खुर्शीद खैरादी जी |
प्रथम प्रविष्टि : बंधन-ग़ज़ल ८+८+४ खोल न देना आप हमारे बंधन लगते हैं अब हमको प्यारे बंधन
चाशनी गरज़ की थी इनमें गाढ़ी लगते हैं अब कितने खारे बंधन
धार नदी की बँधती है कब किससे कहते हो क्यूं आप किनारे बंधन
उलझ गया बंजारा मन जाले में रिश्तों के ये न्यारे न्यारे बंधन
तारे गाँठें रजनी लंबी डोरी चंदा खूंटी स्वप्न कुँवारे बंधन
बाँध सके ना परछाई को मेरी शर्मसार है फिर बेचारे बंधन
हो जाऊंगा ओझल दूर गगन में तोड़ दिये है मैंने सारे बंधन
नज़रें उसकी काले जादू सी है तोड़ सकोगे क्या कजरारे बंधन
जाल रश्मियों का ‘खुरशीद’ समेटो जग को लगते अब उजियारे बंधन
द्वितीय प्रविष्टि: ग़ज़ल-१२२२ १२२२ १२२२ १२२ परों के हौसलों को नभ दिखाना चाहता हूं कफ़स सब खोलकर सूवे उड़ाना चाहता हूं (कफ़स=पिंजरा) हर इक बंधन हर इक ज़ंजीर मुझको तोड़नी है घटाओं की तरह ख़ुद को बहाना चाहता हूं न मज़हब हो न फ़िर्क़े हो दिलों के दरमियाँ अब मैं नफ़रत की फ़सीलें सब गिराना चाहता हूं (फ़सीलें=दीवारें/परकोटे) हवा को साँखले क्या बाँध पायेगी अज़ीज़ों ज़माने के हुनर को आज़माना चाहता हूं वतन वाले बँधे हों एकता की डोर से बस मेरा मक़सद है सबको साथ लाना चाहता हूं निगूँहिम्मत कोई क्यूं हो किसी बंधन में बंँधकर (निगूँ हिम्मत =हतोत्साहित) रवानी रेगज़ारों में जगाना चाहता हूं (रेगज़ार=रेगिस्तान) कोई ज़ुल्मत की बेड़ी से न बाँधें सुबह के पाँव (ज़ुल्मत=तिमिर, अंधकार) मैं इक 'खुरशीद' हूं सबको बताना चाहता हूं |
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आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी |
प्रथम प्रविष्टि: गीत बैसाखी वे नहीं ढूंढते, क्रंदन उनको नहीं सुहाता |
समय चक्र का बंधन समझे, वही समय पर पाँव बढाते, पीछे छूट गए जो दौड़ में, नहीं ज्ञान का लाभ उठाते | उनको बंधन नहीं गँवारा,विरह वियोग जो नहीं जनाता, बंधन पाखी ने कब माना, डाली डाली उड़ता जाता | बैसाखी वे नहीं ढूंढते, क्रंदन उनको नहीं सुहाता |
आलस सुस्ती ही बाधाए, बंधन उनका एक बहाना, कर्मशील बंधन को तोड़े, जीवन सार उन्ही ने जाना | डरे न कूदे दरियाँ में जो, पथरीले पथ पर वे चलते, उनको जीवन लगे सुहाना, वे बंधन का पहने बाना | बैसाखी वे नहीं ढूंढते, क्रंदन उनको नहीं सुहाता |
लड़ते सदा ही मुश्किलों से, वे ही आपनी राह बनाते काँटों पर चलते है वे ही, बंधन को वे दूर हटाते | दुर्बल तन में भी दम भरते, वंदन करना उनको भाता, आलोचक को जो भी चाहे, बंधन उनको नही लुभाता | बैसाखी वे नहीं ढूंढते क्रंदन उनको नहीं सुहाता |
द्वितीय प्रविष्टि: कुण्डलिया छंद अनुशासन की पालना, करने को मजबूर प्यार भरा बंधन कहे, मानो इसे जरूर | मानों इसे जरूर, ---- नहीं ये बंधन खारे पंछी भरे उडान, -------पंख फैला दे सारे लक्ष्मण कहे विधान,,नियम से चले प्रशासन चले तभी संसार, सभी मानें अनुशासन || (2) बंधन बांधे समय ने, तोड़ काल के गाल उजियारे को रोकते, लगते वे जंजाल | लगते वे जंजाल, लांघ न सके मर्यादा माने यदि प्रतिबन्ध,विधा के बंधन ज्यादा कह लक्ष्मण कविराय, भाग्य पर करे न क्रंदन ईश्वर कर्माधीन, कर्म बिन कटे न बंधन || |
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आ० वंदना जी |
(1) छटपटाकर निकली घूंघट और बुर्केनुमा कोकून से बाहर अब खुश हैं हाथों पर दस्ताने और चेहरे पर स्कार्फ लपेटे तितलियाँ (2) उन्हें भी कहाँ सुकून देते हैं ये तराशे हुए बगीचे उन्हें भी बुलाते हैं बेतरतीब फैले जंगल जंगल पर खुला आसमान लेकिन लौटकर दुबक रहीं हैं चिड़ियाएँ बाज के पैंतरे देखकर |
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आ० महर्षि त्रिपाठी जी |
बंधन गीत पडी नज़रें धरातल पर ,दर्शन माँ के पाए हम माँ और पिता के गोद ,में आसमा पाए हम थामकर उन की ऊँगली ,सहारा हमने पाया बचपन जीने का तब ,किनारा हमने पाया खिल उठा है उन यादों से,आज मेरा तन मन बड़े अटूट होते हैं ,हमारे प्रेम के बंधन | याद है हमें वो दिन जब उनके पास होते थे उस वक़्त तो बस ,हम ही उनके खास होते थे किसी भी गलती पर,सजा जब भी पाते थे उनकी सजा में प्यार ,हम तब भी पाते थे अब याद आते हैं माँ ,तेरे हाथ के व्यंजन बड़े अटूट होते हैं ,हमारे प्रेम के बंधन | कहीं डूबते थे जब हम ,दुःख के सागर में दुआएं निकलती थी हज़ारों ,माँ के गागर से आपने किये जो त्याग ,उन्हें भुला नही सकते कुरबां करें जीवन ,कर्ज़ चूका नही सकते माँ-बाप के एहमियत को,समझ लें जन-जन बड़े अटूट होते हैं ,हमारे प्रेम के बंधन | खुद व्यस्त रहकर भी,हमारा ध्यान रखते थे कागज़ कलम का नही,मन का ग्यान रखते थे हमारी भूख और प्यास उन्हें ,महसूस होती थी जख्म न बताएं हम, पर इन्हें सूझ होती थी प्रतिज्ञा कर लें सत्कार कि,निज माँ बाप के नंदन बड़े अटूट होते हैं ,हमारे प्रेम के बंधन || |
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आ० छाया शुक्ला जी |
"बंधन" हाथ की जो टेढ़ी रेखा है , |
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आ० गिरिराज भंडारी जी |
अतुकांत ******* मैं सच में हूँ या केवल आपकी सोच में हूँ एक एहसास के रूप में मै ख़ुद कैसे कहूँ जब मैं होता हूँ , तब मैं सच में होता हूँ अपनी पूर्णता के साथ लेकिन, उससे पहले आपका होना ज़रूरी है नहीं तो मुझे पैदा कौन करेगा आपने पैदा किया तो मैं हुआ जब मैं हुआ, तो फिर मैं हूँ कुछ ऐसे भी होते हैं लोग जो स्वयं तो होते हैं पर मुझे पैदा नही करते, अनावश्यक समझते हैं तब मै नहीं भी होता , शायद शायद इसलिये कि जब मैं हूँ ही नहीं तो कौन कहे कि मैं नहीं हूँ मैं पैदा हो जाता हूँ आपके महसूस करते ही शायद मैं सच में नहीं हूँ मैं बस आपका एक एहसास हूँ जो मुझे महसूस करेगा वही पायेगा , मेरा अस्तित्व भी देवता की तरह है , मानों तो देवता नहीं तो पत्थर महसूस न करने वालों के लिये मैं हूँ भी नहीं पर जब मैं होता हूँ तो मेरा नाम लोग बताते हैं -- बन्धन । |
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आ० हरि प्रकाश दूबे जी |
“बंधन” मन धीरे धीरे रो ले, कोई नहीं है अपना, मुख आँसुओं से धो ले ! मन धीरे धीरे रो ले..... मात –पिता के मृदुल बंधन में, था जीवन सुखमय जाता ! ज्ञात नहीं भावी जीवन हित , क्या रच रहे थे विधाता ! अन भिज्ञ जगत के उथल पुथल, क्या परिवर्तन वो निष्ठुर करता, लख वर्तमान फूलों सी फिरती, सखियों संग बाहें खोले ! मन धीरे धीरे रो ले..... शुभ घड़ी बनी मम मात पिता ने, वर संग बंधन ब्याह रचाया ! सजी पालकी लिए अपरिचित, दूल्हा बन कर आया ! तेल चढ़ा द्वारे पूजा पर- क्या अद्भुत उत्साह दिखाया, पड़ी भावंरें माँग भरी, दुल्हे ने दिल को खोले ! मन धीरे धीरे रो ले..... नव सप्त श्रंगारों में सज धज, दूल्हन बन घर पर आयी ! लाडली कभी थी माता की, नव वधु बनी है पराई ! सासु मुखाकृति देख देख, फूली थी नहीं समाती ! उल्लास छा गया घर आँगन में, पायल की रन झुन को ले ! मन धीरे धीरे रो ले..... दो मिले अपरिचित नव बंधन में, कैसा था उल्लास रहा ! पति के प्रसन्न मुख लख छिप- छिप, हिय बीच समुन्नत हास रहा ! प्रथम –मिलन हित चले प्राण पति, मिश्रित परिहास नयन थे ! पर विधि के खेल अनोखे हैं, जाने कब किस पर डोले ! मन धीरे धीरे रो ले..... दुर्भाग्य आज अब बनी लाज, मुख खोल दिया सत्कार नहीं ! ऐहिक सुख का था भास् कहाँ, जब किया क्षणिक अभिसार नहीं क्या पता खोलेंगे सब बंधन , दुर्घटना में उनका निधन हुआ ! पति की आभा छिन गयी आज, जीवन मैं अमा को घोले ! मन धीरे धीरे रो ले..... सर्वस्व छीन ले चले संग, सिन्दूर माथ की बिन्दीयाँ बंधन,गुंजन ,कंगन के संग, हरी हाथ की चूड़ियाँ ! मल्हार गया मनुहार गया, झुन झुन पायल –स्वर सार गया ! बस आह दे गये जीवन में, कर क्षार विषम विष घोले ! मन धीरे धीरे रो ले..... कोई नहीं है अपना, मुख आँसुओं से धो ले ! मन धीरे धीरे रो ले !! |
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16 |
आ० मनोज कुमार श्रीवास्तव जी |
इस मिट्टी का कण-कण, |
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17 |
आ० रमेश कुमार चौहान जी |
मृत्युलोक माया मोह अमर । मोह पास ही जग लगे समर |
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18 |
आ० सत्यनारायण सिंह जी |
बन्धन अति दुःखदायी जान। देह मोह दारा सुत रस्सी, सारा बँधा जहान। नाते रिश्ते हाट हवेली, सब जग बंध प्रमान।। मोह नुपुर बान्धे जग माया, नाचे जग खो भान। लाज जगत की रही न बाकी, टूटी कुल की शान।। जीवन काल कोठरी सम है, गाढ़े बन्धन जान। माया ममता चहुँ दिशि मिलकर, आज लिया है तान॥ कैसे छूटूँ इस बन्धन से, ढूँढे सत्य निदान। टूटेगें सब बन्ध एक दिन, कर हरि का गुनगान।। |
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19 |
आ० गीतिका वेदिका जी |
गीत/ नवगीत विधा |
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आ० अरुण कुमार निगम जी |
गीत :
बहुत कठिन है साथी मेरे , बंधन को परिभाषित करना बंधन सुख का कहीं सरोवर और कहीं है दु:ख का झरना ...
कोई बंधन रेशम जैसा, कोमलता बस चुनता जाये बिन फंदे के अंतर्मन तक , मीठे नाते बुनता जाये
कोई बंधन नागपाश-सा , कसता जाये - डसता जाये विष बनकर फिर धीमे-धीमे, नस-अन्तस् में बसता जाये
कोई बंधन में सुख पाये , कोई चाहे सदा उबरना बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना .......
नन्हें तिनकों वाला बंधन , नीड़ बुने ममता बरसाये नन्हें चूजे रहें सुरक्षित , हर पंछी को बहुत सुहाये
लोभ-मोह दिखला कर फाँसे, बाँगुर का बंधन दुखदाई जो फँसता माया-बंधन में कब होती है भला रिहाई
कोई चाहे नाव न छूटे , कोई चाहे पार उतरना बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना........
मृदा-मूल का बंधन गहरा , तरुवर को देता ऊँचाई पूछ लता से देखे कोई , बंधन है कितना सुखदाई
अभिभूत कर देता सबको, सात जनम का बंधन प्यारा निर्धारित करता सीमायें , वरना जीवन तो बंजारा
कोई बँधकर रहना चाहे , कोई चाहे मुक्त विचरना बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना |
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21 |
आ० अशोक कुमार रक्ताले जी |
घनाक्षरी
माता के अधीन बीता, एक रंग जिन्दगी का, एक रंग गुरुओं के नाम पे कुर्बान है | एक रंग नित छलता था तब रात दिन, एक रंग बहुरंग बीबी की मुस्कान है | नित नए बन्धनों में, जकड़ा हूँ रात-दिन नित नए रंग नयी-नयी पहचान है | एक रंग बेटे-बेटी का अभिन्न भिन्न रंग, लोभ रंग मोह रंग माया के समान है || |
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आदरणीय प्राची जी
सादर आभार i
आदरणीया मंच संचालिका, प्राचीजी
महोत्सव - 49 की रचनाओं के संकलन के लिए हार्दिक आभार ।
आप सभी के सुझाव और अपनी समझ के अनुसार गेयता की दृष्टि से घनाक्षरी छंद को संशोधित कर पुनः पोस्ट कर रहा हूँ। इसे पूर्व की रचना के स्थान पर प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।
एक अनुरोध और
महोत्सव - 47 में मेरी संशोधित रचना संकलन में प्रतिस्थापित नहीं हो पाई , शायद आप लम्बे अवकाश पर थीं । उसमें भी मैंने पूरी रचना पोस्ट की है।
मनहरण घनाक्षरी छंद - बंधन -
( 1 )
मोह से बँधा है कोई, भोग में फँसा है कोई, संयम से रहते जो, वही तो इंसान है।
बेहतर संस्कार हो, धार्मिक परिवार हो, सुसंस्कृत समाज की, यही पहचान है॥
रिश्ते- नाते छूट गये, परिवार टूट गये, ब्याह बिना साथ रहें, पशु के समान हैं।
जीवन उन्मुक्त जहाँ, वासना से युक्त वहाँ, भारत को छोड़ सभी, देश परेशान हैं॥
( 2 )
शराब है शबाब है, नीयत भी खराब है, वेलेन्टाइनी मस्ती में, डूबा हिंदुस्तान है !
माँ बाप बेटे बेटियाँ, पब औ रेव पार्टियाँ, मुक्त सारे बंधनों से, पूरा खानदान है!!
टीवी नेट का शोर है, अश्लीलता पे ज़ोर है, आजकल के बच्चे भी, लगते जवान हैं!
लाचार क्यों ये राष्ट्र है, मां बाप धृतराष्ट्र हैं, बच्चे बड़े चतुर हैं , बुज़ुर्ग नादान हैं॥
( 3 )
मांसाहारी बढ़ गये, कत्ल खाने खुल गये, हमारे लिए गौमाता, देती बलिदान है!
निर्दयी व्यभिचारी हैं, निडर भ्रष्टाचारी हैं, मानव की पशुता से, पशु भी हैरान हैं!!
स्वदेशी अपनाइये, विदेशी ठुकराइये, त्याग दें अंग्रेजियत, ‘कोढ़’ के समान है!
हजार हो बुराइयाँ, कुछ तो है अच्छाइयाँ, विज्ञापनों में देखिये, भारत महान है !!
( 4 )
माया हमें घुमाती है , इंद्रियाँ बहलाती हैं , जग में क्यों आये हम लोग अनजान हैं।
तन का भी बंधन है, मन का भी बंधन है, मुक्त वही हो सकते ‘‘मैं’’ का जिसे ज्ञान है॥
दर्शन की प्यास बढ़े, भक्ति भी निष्काम बने, बंधनों से मुक्ति का ये सरल विधान है।
‘‘राधे - राधे’’ बोलकर, चतुराई छोड़कर, धाम उसके जाइये, जिसकी संतान हैं ॥
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आदरणीया डॉ प्राची जी, ओ बी ओ लाइव महोत्सव अंक ४९ में शामिल रचनाओं के इस संकलन हेतु आपका हार्दिक आभार
सादर धन्यवाद
आ० अखिलेश श्रीवास्तव जी
आपकी संशोधित रचना से पूर्व रचना को प्रतिस्थापित कर दिया गया है.
ओबीओ के संकलन में मेरी रचनाएँ शामिल करने के लिए आदरणीय प्राचीजी को धन्यवाद।
आदरणीया मंच संचालिका, प्राचीजी
इस महोत्सव में रचनाकारों को दो सप्ताह का पर्याप्त मिला। कृपया इसी प्रकार माह की पहली तारीख को ही विषय की जानकारी हो जाय तो यह हमारे लिए हर दृष्टि से सुविधाजनक होगा ।
सादर
आदरणीया प्राचीजी,
अतिशय व्यस्तता ने जकड़ रखा है, अतः समयानुसार इस संकलन पर नहीं आ सका. एक अत्यंत भावमय शब्द को शीर्षक बना कर जो महोत्सव आयोजित किया गया वह अभिभूत कर गया.
हालाँकि मैं लखनऊ में अभिव्यक्ति-अनुभूति की ओर से आयोजित ’नवगीत महोत्सव’ में शामिल होने के कारण महोत्सव के दूसरे दिन दोपहर के बाद उपस्थित नहीं रह पाया था. उसकी कमी संकलन से पूरी हो गयी.
आपके प्रति हार्दिक धन्यवाद आदरणीया.
सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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