आदरणीय साथिओ,
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जनाब आसिफ साहिब, प्रदत्त विषय पर लघुकथा की अच्छी कोशिश की है, मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l शहज़ाद उस्मानी साहिब के मशवरे पर ग़ौर कीजियेगा I
मोहतरमा तस्दीक साहब आपकी तवज्जो और अपनेपन का बहुत शुक्रिया मोहतरम।
आदरणीय आसिफ साहब ।प्रदत्त विषय पर बहुत बढ़िया लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीय कनक जी बहुत बहुत धन्यवाद आपकी तवज्जो के लिए सादर।
वाह वाह बहुत ख़ूब मुबारकबाद जनाब आसिफ़ ज़ैदी साहब ख़ूबसूरत लघुकथा हुई है l
बहुत सुन्दर व भावावेश रचना के लिए हार्दिक बधाई। कहीं-कहीं नाटकियता का समावेश ज्यादा हो गया है बाकी की रचना बहुत बढ़िया है । नाटक में दिए गए निर्देश लघुकथा में उचित नहीं होते हैं।
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी के द्वारा आपकी रचना को बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।हार्दिक बधाई इस शानदार रचना के लिए।
हार्दिक बधाई आदरणीय आसिफ़ ज़ैदी साहब जी।बेहतरीन लघुकथा। समाज की एक ज्वल्लंत समस्या पर उम्दा लघुकथा।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएःआ आदरणीय आसिफ सरजी।
प्रतिध्वनि
"आपके पास हमारा मोबाइल नंबर नहीं है क्या? बालकनी से हमारा नाम पुकार के मत बुलाया करो साहब! मेमसाब को अच्छा नहीं लगता!"
"तुम इतने दिनों से नहीं आ रहीं थीं। देखो, पूरा घर कैसा गंदा पड़ा है!"
"मेमसाब ने मना किया था। कह गईं थीं कि दस दिन बाद मायके से लौटूंगी, तभी आना!" फ़ुर्ती से कमरों में झाड़ू-पोंछा करती हुई मीरा ने अपना पल्लू समेट कर कमर ढांकते हुए कहा।
"सुना है तुम चाय बढ़िया बना लेती हो!" साहब के मुंह से यह सुनकर जवाब दिये बग़ैर मीरा ने चाय बनाई और साहब को बिस्किट्स के साथ परोस कर जाने लगी।
तभी खट्ट की आवाज़ के साथ ट्रे ज़मीन पर गिर जाने पर पूरी चाय फ़र्श पर फैल गई। मीरा समझ गई कि ऐसा जानबूझकर किया गया है।
"सफ़ाई बाद में करना! पहले यह बताओ, जब तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो कि किसी स्कूल या दफ़्तर में काम कर सकती हो, तो यूं घरों में काम क्यूं करती हो? मेरे दफ़्तर में करना चाहोगी?"
"किसने कहा कि मैं पढ़ी-लिखी हूँ! पांचवीं पास हूं, बस! ...और हमारे हसबैंड घरों में ही काम कराना पसंद करते हैं! दफ़्तर वालों पे उन्हें भरोसा नहीं!"
"तो तुम इतनी अच्छी भाषा कैसे बोल लेती हो? पढ़े-लिखों की तरह सलीके से रह लेती हो और काम भी वैसा ही कर लेती हो!"
"साहब, अच्छी बातें सीखने के लिए स्कूल जाना ज़रूरी नहीं! अच्छे घरों में काम करके सब कुछ सीख लिया हमने! पड़ोस वाले हमें बहिन जैसा मानते हैं। उनके यहां बच्चे नहीं पैदा हुए, तो क्या! बहुत सुखी हैं दोनों! हम अपने बच्चे भी उन्हीं के यहां अक्सर छोड़ आते हैं!" लगातार बोलते हुए मीरा बोली, "सारे सलीके उन दोनों मियां-बीवी से सीखे हैं हमने, साहब!"
" ... और हमारे यहां से?"
"कुछ न कुछ अच्छाई तो हर घर में मिलती है न! साहब, बुरा मत मानना! आपके पास सब कुछ है, लेकिन वैसा सुख नहीं! ...आप भी पड़ोस वाले साहब जैसे बन जाओ! वाइफ के साथ घर के काम भी करवाया करो, उन्हें समय दिया करो!" फ़र्श फ़ुर्ती से साफ़ करते हुए मीरा ने कहा, "हम ग़रीब भले हैं, लेकिन सुखी हैं! हमारा आदमी हमारा बहुत ख़्याल रखता है, साहब!"
फ़िर वह चली गई। साहब बालकनी से उसे देखते रहे। उसके शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे।
(मौलिक व अप्रकाशित)
बहुत बहुत मुबारकबाद, बहुत बढ़िया, प्रदत्त विषय पर मोहतरम ।
आदाब। मेरी प्रविष्टि पटल पर समय देकर पहली टिप्पणी द्वारा मेरी हौसला अफ़ज़ाई हेतु हार्दिक धन्यवाद जनाब आसिफ़ ज़ैदी साहिब।
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