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आ० विजय शंकर जी ,आपने बहुत गम्भीर बात कही है अपने देश की संस्कृति के विषय में किन्तु लघु कथा के मानकों पर ये खरी उतरेगी इस बात में संशय है देखिये गुरुजन क्या कहते हैं ...फिलहाल भाव के लिए बधाई लीजिये.
सुन्दर बात कही है आपने इस रचना में , शेष विद्वानों के रिमार्क्स कह रहे हैं। बधाई आपको आ. विजय शंकर जी।
आ. विजय शंकर जी आपकी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आपको !
आदरणीय विजय शंकर सर, आपने संस्कृति की विडंबना और वेदना को जिस तरह शाब्दिक किया है वह चकित करता है. इस प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई. लघुकथा के शिल्प पर इतना जरुर है कि कथ्य पर कल्पनाओं की थोड़ी सी छौंक लगती तो लघुकथा निखर जाती. सादर
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, आपने मेरे कहे का अनुमोदन किया आश्वस्त हुआ हूँ. मैंने कथ्य पर कल्पनाओं की थोड़ी सी छौंक लगाने संबधी निवेदन किया था. उसी बात को आगे बढ़ाते हुए इस कार्यशाला में अभ्यास के क्रम में, आपके गहन विश्लेषण को पुनः संयोजित करने का प्रयास किया है. इस गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहते हुए निवेदन कर रहा हूँ-
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“ये सब बंद करना पड़ेगा आखिर हमारी संस्कृति का सवाल है.”
“भई ये संस्कृति-वंस्कृति के चक्कर में पड़कर संगठन, नारेबाजी.... ये सब अपने से नहीं होगा.”
“तुम लोग समझाओं इसे कि हमारी संस्कृति का क्या महत्त्व है?”
“देखों भाई, हमारी संस्कृति की बुनियाद इतनी गहरी है कि कोई विदेशी आक्रांता वहां तक कभी पहुँच नहीं पाया। उसे समझने की कोशिश बहुतों ने की , पूजा भी उसे बहुतों ने , पर उसे कोई क्षति पहुंचा नहीं पाया।”
“ये भी बताओ कि संस्कृति ने ही विश्व की एक बहुत बड़ी व्यापारिक कम्पनी के सौ वर्षों के शासन को उन्मूलित कर दिया और ब्रिटिश ताज की हुकूमत को ये वचन देना पड़ा था कि हम उसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे।”
एक बुजुर्ग जो उन चारों की बात बड़ी गंभीरता से सुन रहे थे, हताशापूर्ण लहजे में बोले- “ बस एक हम ही हैं जो उसे बिना जाने समझे उखाड़ने में लगे रहते हैं” कहते कहते बुजुर्ग उठे और जाते हुए बुदबुदाये “और मुंह की खाते रहते हैं।”
आदरणीय डॉक्टर विजय शंकर जी बहुत ही प्रभावशाली विचार है परन्तु यह एक सपाट सा कथन बन कर रह गया है। मैं आदरणीय योगराज प्रभाकर सर की टिप्पणी से पूर्णत सहमत हूं । सादर
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