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हार्दिक धन्यवाद मीनाजी..
आदरणीय सौरभ जी, बहुत ही चुभती हुई लघुकथा,बधाई!जब गॉव में अपने मॉ बाप को छोडा था तभी तय हो गया थ कि हमारे साथ भी यही होगा!अति उत्तम , शान्दार!
आदरणीय तेज़वीर सिंहजी, अपने रचना का मर्म समझा. मेरे प्रयास् को मान मिला.
सादर धन्यवाद
आदरणीय सौरभ सर, आज की जीवनशैली में जो बुनियादी सिद्धांत धराशायी हुए है ये उनमे से एक है. कारण जो भी हो, जैसा भी हो लेकिन 'अलग सेटल' हो जाते है और यह प्रक्रिया आगे बढती है तो अपने किये की याद आती है. पंचलाइन ने अपना पूरा प्रभाव दिखाया है और पाठक को गहरे तक प्रभावित किया है. सफल लघुकथा की इस सशक्त प्रस्तुति पर बधाई.
आदरणीय मिथिलेशभाईजी, आपने संवेदना के साथ प्रस्तुति के मर्म को छूने का प्रयास किया है. आपका अनुमोदन आश्वस्तिकारी है.
हार्दिक धन्यवाद
मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार सर.
अक्षरशः सही कहा आपने लघुकथा के माध्यम से ।अपने किए कर्मों का ग्यान भी तभी होता है जब स्वयं पर पड़ती है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। अपने मन को मनाना ही शेष रहता ह॥ सुन्दर अभिव्यक्ति आ. सौरभ पांडे जी। बधाई सुन्दर रचना के लिए।
आदरणीया नीरज शर्माजी, आपके अनुमोदन ने आश्वस्त किया है. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय सौरभ सर प्रदत शीर्षक पर प्रस्तुत लघु कथा ने उसमें निहित मार्मिक भाव ने नेत्रों के कोने भिगो दिए। अंतिम पंक्ति ''गुप्ताजी ने देखा, रोहिणी की आँखें पूरी तरह से डबडबायी हुई थीं."पगली.. इन घड़ियों की बुनियाद तो उसी दिन पड़ गयी थी, जब हम गाँव में अम्मा-बाबूजी को छोड़ यहाँ सेटल हो गये थे.. बाबूजी कितना.. पर.. " में छुपा कथा सार बुनियाद की गहनता को लिए है। इस प्रस्तुति के लिए दिल से हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं आदरणीय सर।
आदरणीय सुशील सरनाजी, आपको प्रयास रुचिकर लगा इसके लिए धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ जी, बुनियाद विषय को छूती, और एक कटु सत्य को उजागर करती आपकी इस लघु - कथा पर हार्दिक बधाई आपको !
भाई सचिनदेवजी, यदि मेरा प्रयास रुचिकर लग रहा है तो यह आपसबों का सान्निध्य ही है.
सहयोग बनाये रखें
हार्दिक धन्यवाद
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