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हार्दिक आभार आ० कल्पना भट्ट जीI
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी। आपका एक और बहुमूल्य तोहफ़ा, हम जैसे नये लघुकथाकारों के लिये। यह एक सच्चाई है कि प्रदत्त शीर्षक या विषय पर लघुकथा लेखन में हाथ पैर फूल जाते हैं। बहुत मशकत्त करनी पड़ती है। आप का यह लेख निश्चित रूप से एक राहत भरी सामग्री है।आप के इस अनमोल मार्गदर्शन हेतु पुनः आभार।
उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आ० तेजवीर सिंह जीI
आ.योगराज भाई जी आपने सिलसिलेवार जिस तरह उदाहरण सहित शब्दो को खोलकर अपने लेख मे रखा वो हमारे रचनाकर्म के समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगा,खासकर विषय और शिर्षक के मध्य का भेद. ह्रदय्तल से आभारी हूँ आपकी
हार्दिक आभार नयना ताई.
हार्दिक आभार आ० नीता कसार जीI
आ० समर कबीर साहिब
लघुकथा लेखन का एक और महत्वपूर्ण (किन्तु दुर्भाग्य से अति उपेक्षित) हिस्सा है "शीर्षक", वास्तव में शीर्षक लघुकथा का ही एक हिस्सा माना जाता है। शीर्षक का चुनाव यदि पूरी गंभीरता से किया जाये तो अक्सर शीर्षक ही पूरी कहानी बयान कर पाने में सफल हो जाता है या फिर लघुकथा ही अपने शीर्षक को सार्थक कर दिया करती है। जिस प्रकार किसी भवन का नामकरण बहुत सोच समझकर किया जाता है, लघुकथा का शीर्षक भी उसी प्रकार चुनना चाहिए। सुन्दर और सारगर्भित शीर्षक भी लघुकथा की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। (मेरे आलेख लघुकथा विधा: तेवर और कलेवर से)
शीर्षक किसी भी रचना का प्रवेश द्वार होता हैI बहुत से पाठक केवल शीर्षक से प्रभावित होकर ही रचना पर उपस्थित होते हैं I "मजबूरी", "ग़रीबी", "दहेज़", "लुटेरे" आदि चलताऊ शीर्षक गंभीर पाठक को रचना से दूर रखते हैं I इसलिए लघुकथाकार को चाहिए कि अपनी रचना को एक प्रभावशाली शीर्षक दे I शीर्षक ऐसा हो जो पूरी लघुकथा का आईना हो, अथवा लघुकथा ही ऐसी हो जी शीर्षक को सार्थक करती हुई हो I (मेरे आलेख:"लघुकथाकारों के ध्यान योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें" में से)
मेरे मतानुसार लघुकथा का शीर्षक ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे पढ़कर कथा उजागर न होती होI लघुकथा में "आश्चर्य तत्व" (Element of surprise) होना पाठक को अंत तक बांध कर रखने में सफल रहता है यह देखने के लिए कि आगे क्या होगाI आचार्य संजीव सलिल के मतानुसार, लघुकथा की रचना में शीर्षक भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है. शीर्षक ही पाठक के मन में कौतूहल उत्पन्न करता हैI लेकिन इसके विपरीत "सरकारी गुंडे" या "हाथी के दांत" आदि शीर्षक देखकर एक पाठक बिना पढ़े ही समझ जायेगा कि अन्दर क्या परोसा गया हैI साथ ही ऐसे शीर्षक देने से भी बचना चाहिए जो शीर्षक न होकर मात्र नारा ही लगें, जैसे "नारी अब कमज़ोर नहीं", "पढ़ोगे तो बढ़ोगे", "बदल रहा है इंडिया" आदिI
शीर्षक तो बाद में ही दिया जाता है आ० कल्पना भट्ट जी, कम से कम मैं तो ऐसा ही करता हूँI रचना विषयाधारित हो या न, उसी हद तक कलम आजमाई उचित है जहाँ तक गुणवत्ता से समझौता न करना पड़ेI
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