आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय आशा जुगरान जी। विषयांतर्गत बेहतरीन लघुकथा।मुझे आपकी लघुकथा बहुत पसंद आई।उससे भी अधिक उसका शीर्षक चयन।बहुत बार ऐसा होता है कि परिवार के सदस्य परिवार के मुखिया या कमानेवाले को मात्र एक रुपया कमाने वाली मशीन समझ लेते हैं।यह गलत है।उसकी भी कुछ इच्छायें होती हैं।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया आशा दी।
अधिकार
'दिखाओं, क्या छिपा रहा हैं.'
'नहीं मैं नही दूंगा',दोनों हाथों से और कसकर दबा,अपनी मैली कमीज में छिपाने लगा.
'लगाऊं दो डंडे,ला इधर',ऑखे निकालते हुये उसके जल्लाद नेता ने छीनने की कोशिश की.
पर इससे पहले कि जल्लाद नेता छीनता, उसने भीख में मिली टाॅफी का पैकेट खोल उसमें से एक टाफी झटसे मुंह में डाल बाकी अपने साथियों की तरफ फेंक,हकदारी की आवाज में कहा, 'ये मेरी कमाई हैं.हक, मांगने से नहीं, छीनने से मिलता हैं.'
देखा-देखी उसके सभी साथियों ने भी वैसा ही किया और उन्हें भी समझ आ गया था.खिसियानी बिल्ली की तरह जल्लाद नेता मुंह ताकता रह गया।
मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। नकारात्मक राजनीति, दबंगई, धौंस, छीना-झपटी आदि और तथाकथित नेतागीरी पर कटाक्ष करती विषयांतर्गत बढ़िया रचना के लिए सादर हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता जी। कुछ टंकण त्रुटियाँँ रह गई हैं।
बढ़िया कटाक्ष करती चुटीली रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको आ बबिता गुप्ता जी
दबंग के सामने दबंग के सामने अधिकार नहीं रहते एक मर्मस्पर्शी संदेश देती अच्छी लग जाता बहुत-बहुत बधाई बबीता जी
हार्दिक बधाई आदरणीय बबिता गुप्ता जी। विषयांतर्गत बेहतरीन लघुकथा। बाल मनोविज्ञान पर आधारित बहुत प्रासंगिक लघुकथा।
मेरा भाई - लघुकथा -
माँ जब आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी और कंडे की आग से रोटी बनाना शुरू करती, हम दोनों भाई अपनी अपनी पसंदीदा थाली लेकर चूल्हे के सामने बैठ जाते। माँ पहली रोटी चूल्हे के ऊपर रख देती गाय के लिये। दूसरी रोटी निकलते ही हम दोनों थाली आगे कर देते। माँ वह रोटी मेरी थाली में डाल देती।
मेरा भाई माँ पर झल्लाने लगता," क्या माँ, तुम हमेशा इसे ही पहले देती हो?"
माँ बोलती,"पहली रोटी पर बड़े बेटे का ही हक़ होता है।"
"हम दोनों तो एक साथ एक ही दिन पैदा हुए थे फिर यह बड़ा कैसे?"
"यह तुझसे दस मिनट पहले पैदा हुआ था।"
छोटा कब हार मानने वाला था,"माँ, यह किस किताब में लिखा है कि पहली रोटी बड़े को ही मिलनी चाहिये?"
"हर बात किताबों में नहीं होती, कुछ घर परिवार के रीति रिवाज भी मानने पड़ते हैं।"
मैं माँ को कहता कि इसे ही दे दिया करो यह रोटी। माँ मुझे ही चुप करा देती,"उसकी हर बात में जिद करने की आदत हो जायेगी।"
अब अगली रोटी सिकने तक वह बड़बड़ाता ही रहेगा यह सोच कर मैं ही आधी रोटी तोड़कर उसे दे देता ताकि यह विवाद खत्म हो।
माँ अगली रोटी उसकी थाली में डाल देती। मैं उसे कहता, "अब तू आधी रोटी मुझे दे।"
वह मुकर जाता,"मैं क्यों दूं?"
"मैंने भी तो दी थी।"
"पर मैंने तो नहीं मांगी थी।"
माँ बीच में बोल पड़ती,"देख लिया, यही बड़प्पन बताता है कि कौन बड़ा है।"
मौलिक और अप्रकाशित
आदाब। वाह। विषयांतर्गत बेहतरीन सृजन के लिए सादर हार्दिक बधाई जनाब तेजवीर सिंंह साहिब। क्या कहूं इसे? बेहतरीन शिक्षाप्रद यथार्थपूर्ण लघुकथा या बोधकथा या प्रेरक कथा। सभी तत्व/कथ्य मौजूद हैं इसमें! रिश्तों के कड़वे सत्य; ममता; दायित्व; कर्तव्य; अधिकार; प्रत्युत्पन्नमति; हाज़िर जवाबी; मिसाल बेमिसाल और बढ़िया शीर्षक भी! बड़प्पन और रोटी के साथ दायित्वबोध अधिकार बोध कराते रिश्ते और ममता! मुझे पसंद आई आपकी एक और बेहतरीन रचना।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।आदाब। लघुकथा पर आपकी सुंदर टिप्पणी निश्चित तौर पर मन को आल्हादित करने वाली है।
एक एक सामान्य व्यवहार को अलग दृष्टि से देखने का बहुत ही सफल प्रयास अत्यंत साधुवाद तेजवीर जी बहुत-बहुत बधाई
हार्दिक आभार आदरणीय अजय गुप्ता जी।
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