परम स्नेही स्वजन,
मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों में दो रंग भरे गए हैं लाल अर्थात बहर से ख़ारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐब वाले मिसरे|
**************************************************************************************************************
मिथिलेश वामनकर
जो बात उठी महफ़िल से चार दिशाओं में,
वो बात दबी ऐसे, क्यूँ आज हवाओं में?
चुपचाप रहेंगे हम, ख़ामोश रहोगे तुम,
इक़बाल कहाँ से हो नाशाद सदाओं में।
कुछ यार अलग ऐसे कर आज न जुड़ पाऊं
इस बार बिखरना है हर सिम्त ख़लाओं में।
सब नाज़ उठाते थे, क्या चीज बुलंदी थी
हम आज गिने जाते, बेकार बलाओं में ।
मालूम जमानों से.... तू भूल गया हमको,
बस याद ज़रा कर ले, इक बार दुआओं में।
दो चार दिनों की फिर... बेनूर जवानी है,
बेकार यहाँ उलझे.... सरकार अदाओं में।
क्यूं देख रहे मलबा, बेज़ान बहारों का ?
कुछ रंग नए देखों अब यार खिज़ाओं में।
जो आज बदल सकते पामाल निज़ामत को
वो लोग छिपे बैठे.... ख़ामोश गुफाओं में ।
मत ढूंढ जमाने में, हर शख्स ख़ुदा होगा,
आसान नहीं मिलना, इंसान ख़ुदाओं में ।
खुद जह्र यहाँ पी ले अब कौन भला ऐसा
गंगा को बिठाएगा अब कौन जटाओं में ।
‘मिथिलेश’ यक़ीनन अब बरसात नहीं होगी,
“ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में।”
____________________________________________________________________________
दिनेश कुमार
इस माह दिसम्बर में इन सर्द हवाओं में
दिलबर के बिना जीना मुश्किल है ख़िज़ाओं में
मन्दिर मैं नहीं जाता बच्चों को हँसाता हूँ
मुझको तो खुदा दिखता मासूम अदाओं में
हर शख़्स पशेमाँ है हर आँख में पानी है
होता है यही हासिल हर बार ग़ज़ाओं में
नाराज़ भले हो लो तुम छोड़ के मत जाओ
पहले ही मैं भटका हूँ अन्जान अमाओं में
जिस दिन से तुम्हें देखा नज़रों में तुम्हीं तुम हो
खुशबू मैं तुम्हारी ही पाता हूँ सबाओं में
होंठों पे तबस्सुम है आँखों में नहीं पानी
जीने का हुनर आया मुझको भी अज़ाओं में
हर रात गुज़रती है उम्मीद-ए-सहर पर ही
तुम खुद पे यकीं रक्खो थोड़ा सा बलाओं में
हम सब की ही फ़ितरत है औरों को बुरा कहना
खुद लाख बुरे लेकिन, मानें न अनाओं में
बच्चों के लिए जीना बच्चों के लिए मरना
बच्चों की खुशी माँगें माँ बाप दुआओं में
ग़ज़लें ये मेरे दिल से निकली हुई आहें हैं
जिस दिन मैं नहीं हूँगा गा लेना सदाओं में
इसको तू चकोरी से मिलवा दे 'दिनेश' अब तो
" ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
__________________________________________________________________________
Saurabh Pandey
जब रात पिघलती है सुनसान फिजाओं में
आवाज कसकती है ख़ामोश सदाओं में
क्या बात न जाने थी पर मेरी ग़ज़ल सुन कर
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
जिस पेड़ की किस्मत में चिड़ियों की न हो खुशियाँ
चुपचाप खड़ा अक्सर रोता है दुआओं में
हरकत ही बताती है व्यवहार हथेली का
हर दीप परखता है तूफ़ान हवाओं में
अहसान भुला कर वो सम्बन्ध मिटा बैठे
अब खूब भुनाते हैं, अहसास सभाओं में
इतिहास के पन्नों में इक जिक्र नहीं, जिनका
आदम तो भला आदम, था ख़ौफ़ खुदाओं में
बंदूक कभी दुनिया बदली है न बदलेगी
कुछ लोग मगर करते व्यापार नफाओं में
______________________________________________________________________________
arun kumar nigam
इतिहास लिखा तुमने , मासूम अदाओं में
दो नाम खुदे दिखते , हर ओर शिलाओं में
“सौंदर्य” समझने को, जप-तप हैं किये बरसों
तब फर्क समझ आया , जुल्फों में-जटाओं में
अनमोल बड़ा जीवन , मत व्यर्थ गँवाओ पल
है सार लिखा पढ़ लो, वेदों की ऋचाओं में
गैरों की अमानत से, कब प्यास बुझी किसकी
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
वो स्वप्न दिखाता है, झूठे ही सही लेकिन
पुरजोर बजी ताली, अब उसकी सभाओं में
______________________________________________________________________________
दिगंबर नासवा
बारूद की खुशबू है दिन रात हवाओं में
देता है कोई छुप कर तकरीर सभाओं में
इक याद भटकती है, इक रूह सिसकती है
घुंघरू से खनकते हैं खामोश गुफाओं में
चीज़ों से रसोई की अम्मा जो बनाती थी
देखा है असर उनका देखा जो दवाओं में
हे राम चले आओ उद्धार करो सब का
कितनी हैं अहिल्याएं पत्थर की शिलाओं में
तुम छत पे चली आईं, सब तारे उतर आए
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओ में
जीना तो तेरे दम पर मरना तो तेरी खातिर
मिलते हैं मेरे जैसे किरदार कथाओं में
बादल भी नहीं गरजे बारिश भी नहीं आई
कितना है असर देखो आशिक की दुआओं में
__________________________________________________________________________________
गिरिराज भंडारी
अजदाद के किस्सों में ऋषियों की ऋचाओं में
हर सम्त तुझे पाया , ज़र्रों में हवाओं में
बेलौस इबादत तू , ख़ामोश ज़ियारत तू
रू पोश कभी लगता मासूम दुआओं में
खोजो उसे शिद्दत से पोशीदा तुम्हीं में है
बाहर नहीं मिलता है, पर्वत में, खलाओं में
हर इक में ख़ुदा भी है , शैतान भी है हाज़िर
मासूम मुहब्बत में , बे दिल की जफ़ाओं में
खोये बिना ही खुद को, पा लेने की हसरत ले
‘ ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में ’
हम जिस पे चढ़े-कूदे ,थे धूल नहाये फिर
मैं ढूँढ रहा बचपन बरगद की जटाओं में
वो ख़्वाब था या सच था, कोई तो बताये कुछ
कल तितलियों को देखा बेख़ौफ़ हवाओं में
बे सब्र मेरी चाहत, बेखौफ़ मेरे सपने
दम देखने आये हैं, मेरी ही भुजाओं में
______________________________________________________________________________
वीनस केसरी
है जज़्ब हक़ीक़त भी, ख़्वाबों की रिदाओं में
कुह्रे की तरह उड़ता फिरता हूँ हवाओं में
तौबा! ये मुहब्बत ही, बन बैठी सवाले-जां
माँगा था कभी इसको, दिन रात दुआओं में
मुह्ताजे-सदा कोई, होता है तो होता हो
हम ज़िक्रे - मुहब्बत हैं, रहते हैं अदाओं में
नज़रों के तलातुम से, जो बच के निकला पाया
ये चाँद बहुत भटका, सावन की घटाओं में
"पत्थर" को मुहब्बत क्यों, "शीशा" न बना पाई
सुनते थे बहुत ताकत, होती है वफ़ाओं में
______________________________________________________________________________
मोहन बेगोवाल
तुम लाख छुपा खुद को माज़ी की घटाओं में
क्या ढूंढना पड़ता है कभी खून शिराओं में १
वो याद बहुत आया जो दूर फजाओं में
दिल उसको मिले कैसे रहता जो खलाओं में २.
कर जाएगा वो रोशन अब राह अंधेरों की
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में ३
ये शहर है कैसा अब कैसी है ये दुनिया भी
होता है दर्ज कब जो हो दर्द सजाओं में ४
आई जो समझ हम को वो थी जहाँ को कब की
हम लोग निभाते थे हर बात वफाओं में ५
उस दौर की बातें क्या अब कोई बताएगा
जो बात बताते अब मिलती है कथाओं में ६.
कुछ लोग हमारी तो इस बात पे हंसते है
कि जीत गए कैसे हम यार जफाओं में ७
___________________________________________________________________________
शिज्जु "शकूर"
अब खुलके उगलते हैं वो ज़ह्र फ़िज़ाओं में
क्यों एक क़यामत की है गंध हवाओं में
उफ़! कितना भयानक है ये मंज़रे फ़र्दा क्यों
इक आग सी दिखती है नज़रों को खलाओं में
खुश तुम भी रहो अपनी दुनिया में हरीफ़ानो
ढूँढो न जफ़ा नाहक यूँ मेरी वफ़ाओं में
आँखों में दिखी नफ़रत अंजाम अयाँ था ये
बेलौस बदन लिपटे वो सुर्ख़ कबाओं में
है शिद्दते ग़म दिल में इतना कि झुका के सर
हर शख़्स यहाँ माँगे बस अम्न दुआओं में
ये ख़ल्क मुकम्मल ही कम पड़ गई थी यारो
“ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में”
_____________________________________________________________________________
khursheed khairadi
महफूज रहा हरदम घिरकर भी घटाओं में
पुरजोर असर पाया ममता की दुआओं में
जो खून बहाते हैं मासूम अबोधों का
है जहर रवाॅ उनकी नापाक शिराओं में
देता है हर इक मजहब पैगाम मुहब्बत का
ये बात अजानों में ये बात ऋचाओं में
जो दीन सिखाता है नफरत के सबक यारों
वो जहर मिलाता है बच्चों की दवाओं में
अंजाम खुदा जाने नादान तमन्ना का
इक दीप जलाया है हमने भी हवाओं में
गुरबत न रहेगी अब जुल्मत न रहेगी अब
ये शोर मचाते हैं अहबाब सभाओं में
आँखों में लिये आँसू इक बर्क लबों पर
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
ईमान परस्तों का जीना भी हुआ मुश्किल
घुस तो न गया कोई शैतान खुदाओं में
हजरात! पयम्बर है 'खुरशीद' उजाले का
वो नूर बिखेरेगा बेनूर गुफाओं में
_________________________________________________________________________________
Rahul Dangi
खेती की जमीनों पे फसलों की रिदाओं में!
क्यूं शहर उगाते हो खुशबू की फिजाओं में!!
वे सख्त जुबां हैं पर दिल मोम के रखते हैं!
माँ जिस्म-ए- मुहब्बत है तो रूह पिताओं में!!
छप्पर वे बिटौरे और वे धूल भरे रस्तें!
वो बात नहीं है अब गाँवों की अदाओं में!!
कागज की भी कश्ती का हमको न तजुरबा था!
और नाव चले लेकर तूफानी हवाओं में!!
तारे भी नहीं आये तुमने भी नहीं देखा!
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में!!
कल रात बचा लाई अम्मी की दुआ वरना!
था कैद तेरा 'राहुल' जंजीर-ए-बलाओं में!!
___________________________________________________________________________
laxman dhami
शैतान किये हैं घर जब चार दिशाओं में
किस सोच में डूबा है भगवान खलाओं में
है धर्म की बैसाखी बातों में, सदाओं में
पर क्यों न खुदा दिखता मासूम अदाओं में
नश्लों की तबाही है पुरखों की खताओं में
हर उम्र गुजरनी है अब यार अजाओं में
है प्रश्न जो समझे हैं खुद को भी खुदाओं में
मासूम हँसी कब तक डूबेगी अनाओं में
कुछ आब करो पैदा संसार दुआओं में
जो जह्र न धुलने दे अब और हवाओं में
है प्यास अभी बाकी शायर की कताओं में
सागर सा उमड़ता है उन मौन सलाओं में
आयेगी तपिष कैसे इन सर्द हवाओं में
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
______________________________________________________________________________
vandana
जब भी न असर दिखता दुनिया की दवाओं में
मन ढूँढने लगता है दादी को खलाओं में
बारूद कहीं फैला लाज़िम ही हवाओं में
दिखने लगी बैचैनी अब नन्हीं बयाओं में
क्यूँ ढूंढते कमजोरी तुम उनकी अदाओं में
क्या जीने की सद-इच्छा दिखती न लताओं में
यायावरी की अल्हड इक ज़िद लिए बच्चे सी
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
रोशन जहाँ के हाकिम भरना तू मेरी झोली
हाँ नामशुमारी है अपनी भी गदाओं में
वो बाँटता था सुख दुःख सौ हाथ मदद लेकर
यूँ ही नहीं थी गिनती कान्हा की सखाओं में
उम्मीद मेरे दिल की है तुझसे ही तो कायम
साहस को नवाजेगा तू अपनी अताओं में
_____________________________________________________________________________
भुवन निस्तेज
अखबार पकड़कर यूँ बैठो न सभाओं में
होती है खबर पढ़कर सिरहन सी शिराओं में
निकले हैं कबूतर कुछ उड़ने को दिशाओं में
ऐसे भी नहीं छोड़ो तुम तीर हवाओं में
अब खौफ ही बोता है औ’ खौफ उगाता है
इन्सान यहाँ खुद को गिनता है खुदाओं में
सभ्यों को हो मुबारक ये गाँव, शह्र, बस्ती
चलते हैं चलो वापिस हम यार गुफाओं में
बदले हुए मंजर का किस्सा क्या सुनाएंगे
बदलाव नहीं करते जो अपनी कथाओं में
जुगनू के सहारे मैं चलता ही चला पथ में
‘ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में’
यों भी तो सियासत के मानी न निकालो जी
भटकाव युवाओं में, बहकाव युवाओं में
है हाशिये पे छोड़ा इतिहास ने ही जिनको
हम यार कहाँ मिलते हैं तेरी सदाओं में
वीजे की कतारों में उस रोज़ दिखा कान्हा
गोकुल में यही अक्सर चर्चा है युवाओं में
होते हैं कहाँ दंगे, कब घर कोई जलता है
परबत की अजानों में, नदियों की ऋचाओं में
‘निस्तेज’ हूँ अभी पर मैं तेज से भर जाऊं
तू याद मुझे भी कर ऐ यार दुवाओं में
____________________________________________________________________________
लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
इस बार रखे मजबूती आप भुजाओं में
क्यों हार रहे जीवन में शक्ति दुआओं में
ये बात कहे बाबा हर वक्त कुराणों में
हर बार सुने बोली पीर की गुफाओं में
उपकार नहीं आभा साकार करे मेरी
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
उपहार नहीं मांगे परिवार अभी मेरा
सौगात मिले उनको मेरी रचनाओं में |
सब प्यार करे मुझको नाचीज यही कायल
विश्वास करे ये सारी बात हवाओं में |
कमजोर रहा बचपन तू भोग करम पिछलें
मतसोंच अधिक अब रखना हिम्मत भुजाओं में
________________________________________________________________________________
Gajendra shrotriya
बेकार ही भटके तुम जंगल में गुफाओं में
हमने तो खुदा पाया बच्चों की अदाओं में
दुनियाँ महकाता है उस घर में खिला हर गुल
तहज़ीब की ख़ुशबू हो जिस घर की फिज़ाओं में
हर शाख पे चर्चा है उस मस्त परिन्दे का
पर खोल दिये जिसने इन तुंद हवाओं में
महफूज़ बलाओं से इसने ही रखा मुझको
तावीज़ मुहब्बत का है माँ की दुआओं में
दिन बीत गये कितने पहचान लिया फिर भी
क्या खूब रफ़ाक़त है गाँवों की हवाओं में
जो ख्वाब निगाहों में रखते हैं बहारों का
वो पात नहीं झड़ते पेड़ों से ख़िज़ाओं में
मैं नूर खुदा का हूँ फिर एक बशर बोला
फिर ज़ह्र के प्याले हैं तैयार सज़ाओं में
हर रोज़ इसे पीकर करता हूँ शिफ़ा अपनी
जो दर्द दिया तूने शामिल है दवाओं में
मौक़ूफ़ लबों का क्या है दर्द समझ जाओ
आवाज़ नहीं होती खामोश सदाओं में
मैं जिस्म कहाँ अब हूँ बस रूह में ज़िन्दा हूँ
ये रूह भी जानी है इक रोज़ ख़लाओं में
पहचान नहीं पाया बादल के सराबों को
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
___________________________________________________________________________
Dayaram Methani
खुशबू की तरह छाये हो चारों दिशाओं में,
भगवान बचायेंगे दुनिया की जफाओं में।
हो आज मिलन अपना मौसम का इशारा है,
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में।
तुम जान हमारी हो, लो आज बताता हूं,
मासूम सी छाई हो तुम दिल की गुफाओं में।
वो देख रहे थे सपना बच्चों के आने का
खुशियां खो गई उनकी आतंकी हवाओं में,
तुम याद सदा रखना पुरखों का यही कहना,
कुछ असर भी होता है अपनों की दुआओं में।
___________________________________________________________________________
Sachin Dev
कुछ बात है ऐसी तेरी महकी अदाओं में
आता है नजर तेरा ही अक्स फिजाओं में
माना कि सजा पाई चाहत में तेरी हमने
आता है मजा हमको उल्फत की सजाओं में
गुम हो गये हो तुम मेले में जो जमाने के
हम ढूंढते हैं क्यूँ फिर भी तुम्हें वफाओं में
ऐ चाँदनी अब तो दे भी दे तू ठिकाना इसे
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
तू शौक से मुझको भूल जाना हक है तुझको
शामिल तू रहेगा हरदम मेरी दुआओं में
_______________________________________________________________________________
सूबे सिंह सुजान
क्या बीत रही है हम पर सर्द हवाओं में
बढने लगी जकडन टाँगों और भुजाओं में
बादाम वो खाते हैं, हीटर भी लगाते हैं
सरदी उन्हीं को लगती है चार दिशाओं में
जब तेरी महब्बत बन कर शीत-लहर आई
हम आ गये झाँसे में कातिल की अदाओं में
हम एक जडी-बूटी हैं जान तुम्हारी की
तुम ढूंढ हमें लेना पर्वत की गुफाओं में
एक बूँद भी पानी की,ये पी न सका लेकिन,
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में
__________________________________________________________________________________
मिसरों को चिन्हित करने में कोई त्रुटि हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
Tags:
राणा साहब बड़ी बेसब्री से संकलन का इंतज़ार था। आपके समर्पण की दाद दूँगा तमाम व्यस्तताओं के बावजूद आपने इस श्रमसाध्य काम को पूरा किया संकलन करना, रंग भरना बहुत मुश्किल काम है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय Rana Pratap Singh सर, इस संकलन का बेसब्री से इंतज़ार था, बहुत बहुत आभार धन्यवाद
आदरणीय राणा प्रताप भाई जी , बहुप्रतीक्षित संकलन को आज देख बहुत खुशी हुई , सच है , इतनी व्यस्तताओं के बाद भी आपका समय निकाल लेना प्रणम्य है । आपकी लगन शीलता को नमन ।
आदरणीय -
ग़मनाक ठंडी आहें उस तक पहुँच गईं क्या ?
गर्मी नहीं है बाक़ी , सूरज की शुआओं में
शायद रुखे रोशन ने पर्दा हटा के रक्खा
क्यों नूर सा है फैला , तारीक़ फज़ाओं में ------ इन दोनो अशार को गज़ल से निकाल देने की कृपा करें , गज़ल पोस्ट करने के लिये मै इन्हें चुनना नहीं चाहता था , गलती से कापी पेस्ट हो गया है । सादर निवेदन !!
कल तरही मुशायरा समाप्त हुआ. अत्यंत व्यस्त प्रवास के बाद देर सायं हम वापसी के लिए ट्रेन में थे. सोचे थे, ट्रेन में ही इत्मिनान से प्रस्तुत हुई ग़ज़लों से स्वयं को लाभान्वित करेंगे. लेकिन डोंगल ने जो अपनी आँखें लाल कीं, तो कीं. सारा कुछ चौपट. उसका मूड बिगड़ा तो बिगड़ा ही रहा. आज सुबह से एक-एक ग़ज़ल को पढ़ते जा रहे हैं और आह-वाह करते जा रहे हैं. वाह कि क्या ग़ज़ब-ग़ज़ब के विचार शेरों में ढल कर नुमाया हुए हैं. और आह, कि हतभाग्य कि हम मुशायरे में न हुए !
कि, संकलन पर नज़र पड़ी. और संकलित ग़ज़लों को ग़ौर से देखा तो वाह-वाह-वाह ! इस दायित्व निर्वहन के प्रति भाई राणा को बधाई.
हम सभी जाननेवालों को मालूम है कि राणा भाई किस व्यस्तता और दौर से ग़ुजर रहे हैं. अतः उनसे मुशायरे में स्वीकृत और चिह्नित ग़ज़लों का समय पर प्रस्तुत न हो पाना हमसभी को सालता तो है लेकिन ऐसी प्रस्तुतियो का कोई स्थानापन्न न होने से हम मन मसोस कर रह जाते हैं. लेकिन भले विलम्ब से, आज पिछले मुशायरे की ग़ज़लों का संकलन प्रस्तुत हुआ देख कर मन आश्वस्त है. हमसभी की व्यस्तता अपनी जगह, हमारे दायित्व निर्वहन में कोई कमी नहीं है.
जय ओबीओ !
अपनी प्रस्तुत हुई ग़ज़ल के मिसरों को काला-काला देखना सुखद अनुभूति है. वैसे भी हमारी ग़ज़लें अपने स्वभाव और शब्दों की ग़ज़लें हुआ करती हैं. अतः राणा भाई भाषायी तौर पर कई जगह मेरे शब्दों के विन्यास से संतुष्ट नहीं भी हो सकते हैं, हमें इसका भान है. सर्वोपरि, हम वस्तुतः विधान के अनुसार ग़ज़लें कहते हैं, न कि उर्दू भाषा के अनुसार. अन्यान्य भाषायी स्वीकार्यता अब व्यापक हो चुकी है.
शुभ-शुभ
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |