आदरणीय सुधीजनो,
दिनांक -11 अप्रैल’ 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ लाइव महा-उत्सव अंक 54" की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “व्यावहार” था.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.
विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा
सादर
डॉ. प्राची सिंह
मंच संचालिका
ओबीओ लाइव महा-उत्सव
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क्रम संख्या |
रचनाकार का नाम |
रचना |
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1 |
आ० मिथिलेश वामनकर जी |
प्रथम प्रस्तुति किया तुमने हमेशा नार-सा व्यवहार भैयाजी करो इक बार तो दमदार-सा व्यवहार भैयाजी
जहाँ बस काम पड़ जाए झरे है फूल बातों से करें मतलब बिना इक खार-सा व्यवहार भैयाजी
बहुत दानव बने अब जानवर-सी आदतें छोड़ो दिखाओं अब पुरुष-अवतार-सा व्यवहार भैयाजी
हमेशा वार कर जाए, हमेशा घाव दे जाए करेंगे जख्म पर फिर क्षार-सा व्यवहार भैयाजी
किया बस फ़र्ज़ पूरा है, न इससे और कुछ ज्यादा भला क्यों कर रहें उपकार-सा व्यवहार भैयाजी
हमारे और दुख के बीच आकर बैठ जाओ तुम करो मजबूत इक दीवार-सा व्यवहार भैयाजी
मनुजता तब सफल होगी कि जिस दिन सीख जायेंगे सभी से दोसती इकरार-सा व्यवहार भैयाजी
हमारे दो नयन लाचार अपनी आदतों से हैं कि इनका तो नदी की धार-सा व्यवहार भैयाजी
सुनो मिथिलेश छोड़ो मत करो उम्मीद कोई भी करेंगे अब न पानीदार-सा व्यवहार भैयाजी
द्वितीय प्रस्तुति- लौटा जो परदेश से, पंख लिए जरदार । बरगद रोये देख के, पंछी का व्यवहार।1।
पहले सी हंसती नहीं, नदिया की जलधार । क्योंकर बदला सोचती, पनघट का व्यवहार।2।
सारी गलियां एक तो, कैसी ये तकरार । रोया आँगन देख के, गलियों का व्यवहार।3।
धरती सीना चीर के, नभ को दे ललकार । चल तू भी अपना निभा, बादल का व्यवहार ।4।
जीवन भर पाला जिसे, देकर सब आधार । सहने को मजबूर वो, बेटे का व्यवहार ।5।
अब माटी कच्ची कहाँ, कैसे दे आकार । देखें गुरुजन मौन से, शिष्यों का व्यवहार।6।
धीरे-धीरे टूटते, आँचल के सब तार । ममता रोई देख के, बच्चों का व्यवहार ।7।
पहले सी अब ना रही, बरखा की बौछार । जब से बदला भूमि ने, हरियाली व्यवहार ।8।
रिश्तों की लय में फंसी, सिक्कों की झनकार । दौलत हँस दी तोड़ के, बरसों का व्यवहार ।9।
दोहे का तो मानिए, तेरह-ग्यारह सार । बस दो पद में हो गया, छंदों का व्यवहार ।10।
तृतीय प्रस्तुति-
उमस से भरा हुआ कमरा। मौन है दीवारें। छत भी चुप्पी साधे है। सफ़ेद बल्ब की पीली रौशनी में कमरे का व्यवहार पुराना-सा है, बिलकुल मन की तरह। जो असंख्य विचारों के गडमड संसार में, नए विचारों से बोझिल होकर करने लगता है व्यवहार पुराना सा। वही मृगतृष्णा। घड़ी चल रही है दिमाग की तरह, मगर निर्जीव सी पड़ी है मन के जैसे । कमरे का व्यवहार है हृदय की तरह । कमरे में प्रवंचना से उपजी घृणा की तरह पीली रौशनी देती है अँधेरे का आभास। जैसे मन। अतृप्त सा मन, हजारों कामनाएं लिए, व्याकुल है। अर्थभरी दृष्टि- कमरे में मन है या मन में कमरा । कामनाएं, स्वप्न के साथ छोटे बच्चों सी लेट गई अस्त-व्यस्त परिस्थिति की अप्रत्याशितता, प्रवंचना की अस्वीकृति, व्यवहार मन का उतर आया कमरे में, या कमरे का अतृप्त विकृति मन में। बल्ब बुझा दिया- बदल गया पीली रौशनी का व्यवहार, पल भर में अतृप्त कामनाएं पड़ गई काली बिलकुल काली ..... झटके से खोल दी खिड़कियाँ, सफ़ेद रौशनी फ़ैल गई कमरे में, और मन में भी। अतृप्ति हुई कम और होती गई। मृगतृष्णा पिघलती रही और पिघल गई। फिर बदल गया कमरे का व्यवहार और मन का भी। एक उन्मुक्तता का अनुभव कमरे के मन में और मन के कमरे में भी, उन्मुक्तता..... बस उन्मुक्तता।
चतुर्थ प्रस्तुति-- एक गीत
यही है जीवन का आधार, करें जन आपस में जब प्यार, बदल के थोड़ा सा व्यवहार, तुम्हारा मान बढ़ेगा
जरुरी जिनको तेरा साथ, लिए हाथों में उनका हाथ, करो तुम सबके दिल की बात, उजालों से भर दो ये रात, करो मानवता पर उपकार, बदल के थोड़ा सा व्यवहार, तुम्हारा मान बढ़ेगा
किसी की भूख मिटा दो तुम, किसी की प्यास बुझा दो तुम नया विश्वास जगा दो फिर, हृदय से तम को भगा दो फिर अभी तो इतनी ही दरकार, बदल के थोड़ा सा व्यवहार, तुम्हारा मान बढ़ेगा
कहीं न गम का साया कर, ख़ुशी का वृक्ष लगाया कर बहे खुशियों की जलधारा, सुखों का हो बस बँटवारा, बढ़ा दो खुशियों का विस्तार, बदल के थोड़ा सा व्यवहार, तुम्हारा मान बढ़ेगा
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2 |
आ० कृष्णा मिश्रा ‘जान’ गोरखपुरी |
प्रथम प्रस्तुति
पैसा और ओहदा है कलियुग का सार परिवार माता-पिता और गुरुजन है ‘व्यवहार’ की शाला ये पंक्तियां बड़े भारी मन से पर सत्य है तो कहना पड़ रहा है- तोड़ दी सब मर्यादा,गुरु-शिष्य संबंध और मानवता हुई शर्मसार
द्वितीय प्रस्तुति
१) प्राणिमात्र के प्रति आपका व्यवहार ही अस्ल में सबसे बड़ी पूजा है, और भवसागर पार करने का.. सबसे आसान और उत्तम साधन!
२) गर सुदामा सा हो व्यवहार तो स्वयं भगवान भी नंगे पाँव दौड़े आते है,गले से लगाने!
३) व्यवहार वह कुंजी है, जिससे मनुष्य के हृदय का ताला खुलता है!
४) व्यवहार ही वह माध्यम है जिससे ज्ञान के द्वार खुलते है, क्युकी गुरु शिष्य की बुद्धि देखकर नही.. वरन! व्यवहार देखकर ही अपनी कृपा बरसाता है!
५) व्यवहार सबसे बड़ा धर्म है, इसमें समाहित है...सच्ची- युक्ति,शक्ति,भक्ति,तृप्ति,मुक्ति!
तृतीय प्रस्तुति : गज़ल
जीस्त लेगी तेरा इम्तिहाँ हौसला रखना इल्म के दीप से मन को रौशन सदा रखना
यूँ मुसीबत तो आती रहेगी मगर यारों घर का दरवाज़ा मेहमां के वास्ते खुला रखना
ये जरुरी नही हर कोई आसमां छूले कद बड़ा हो न हो दोस्त,दिल तुम बड़ा रखना
बात है इक तजुर्बे की,मानो न मानो तुम है ज़रूरी मुहब्बत में कुछ फासला रखना
माफ़ दुनिया में गर बन न पाओ किसी के तुम पर तो माँ बाप से हर कदम तुम वफ़ा रखना
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3 |
आ० गिरिराज भण्डारी जी |
प्रथम प्रस्तुति
इच्छायें जब मुँह उठा लेतीं हैं विचारों के स्तर पर स्वयं बनने लगती हैं योजनायें ताकि पूरी हो सकें इच्छायें
योजना की पूर्णता बाध्य करती है शरीर को उस दिशा मे श्रम के लिये तब लग जाती हैं सारी ऊर्जायें, योजनाओं को मूर्त रूप देने में
चाहे इच्छायें तृप्त हों या रहें अतृप्त वही तय करती रहतीं हैं हमारे व्यवहार व्यवहार, ख़ुद के साथ भी और जगत - व्यवहार भी
प्रयत्नशील रहने तक , या तृप्त होने तक चेतन में और अतृप्ति की अवस्था में अचेतन से निर्देशित होते रहते हैं , हमारे व्यवहार
चूँ कि जीवन बाक़ी है अभी मन अघा भी जाता है , एक रसता से एक ही तृप्ति से मन फिर खोजने लगता है कोई नयी इच्छा नई अतृप्ति जागती है फिर बनती हैं नई योजनायें फिर लगती है ऊर्ज़ा और फिर से इच्छायें तय करने लगतीं हैं हमारा व्यवहार मरते दम तक या इच्छा शून्य होने तक
द्वितीय प्रस्तुति
मुझे फर्क नहीं पड़ता तुम्हारे अस्वीकार से , अस्वीकार के तर्कों से और न ही तर्कों से उपजे आधे अधूरे स्वीकार से , ये सब मानवीय व्यवहार हैं
मै सत्य हूँ , सनातन सत्य तुम्हारे तर्कों से परे चाहे तर्क स्वीकार के हों या अस्वीकर के
तुम नहीं जानते ये सारे तर्क बस तुम्हारे थोथे ज्ञान का अहंकार मात्र है मै जानता हूँ तुम्हारा स्वीकार भी अगर निर्जीव है आधा अधूरा है मेरे पास नहीं पहुँच सकता जब तक वो पूर्ण न हो जाये
मै ये भी जानता हूँ अगर अस्वीकार भी पूर्ण हो तो तुम्हारा अस्वीकार तुम्हें मुझसे दूर नहीं करता
तुम मेरी तरफ पीठ करके भी चलो पूर्ण अविश्वास से तो पहुँचोगे मुझ तक ही
क्यों कि केवल मै ही पूर्ण हूँ और हर व्यवहार की पूर्णता निकलती है मुझसे केवल मुझसे
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4 |
आ० सत्य नारायण सिंह जी |
*झलके दर्पण में सदा, बाह्य मनुज का रूप। गोरा, काला, साँवला, सुन्दर या विद्रूप।। सुन्दर या विद्रूप, व्यक्ति का तन हो जैसा। खोले दर्पण राज, मनुज की छबि का तैसा।। कहता सत्य पुकार, बात यह मत लो हलके। कद काठी अनुरूप, रूप दर्पण में झलके।१।
कहलाये दर्पण सुनो, मानव का व्यवहार। अंतर मन छबि को जहाँ, जग ले साफ निहार।। जग ले साफ निहार, भले भाये ना भाये । क्षुद्र भद्र व्यक्तित्व, मनुज गुण दोष दिखाये ।। जीवन सत्य स्वरूप, सदा व्यवहार खिलाये। मानव का व्यवहार, अतः दर्पण कहलाये।२।
अपने सद्व्यवहार से, जीतें जग मन आप। जीवन में फिर हार का, क्यों भोगें अभिशाप।। क्यों भोगें अभिशाप, विषय यह तात्विक जितना। जीवन में व्यवहार, सुनो आवश्यक उतना।। यश कीरत सम्मान, सत्य जीवन के सपने। मनुज कुशल व्यवहार, नाम सब करता अपने।३। *संशोधित
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आ० डॉ० विजय शंकर जी |
प्रथम प्रस्तुति
व्यवहार में व्यापार है
द्वितीय प्रस्तुति सद्व्यवहार
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आ० चौथमल जैन जी |
मानव का न मोल जगत में , मानवता धर्म कहाता है।
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आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी |
*प्रथम प्रस्तुति
झूठा जग का प्यार है, झूठा जग व्यवहार। मतलब के सब यार है, मतलबिया संसार॥ साथ दक्षिणा लाइये, फूँक रहे गुरु कान। जो आया इनकी शरण, स्वर्ग गया श्रीमान॥ ............... खुद का घर बर्बाद क्यों, समझ नहीं जो पाय। राय बहादुर बन गये, मुफ़्त बाँटते राय॥ व्यवहारी दिखते मगर, रखते मन में बैर। बात करें क्या शत्रु की, मित्र मनाते खैर॥ ........... सिर्फ किताबी ज्ञान से, बना धूर्त इंसान। बड़े- बड़े घपले किए, अफसर चतुर सुजान॥ ............ जब चुनाव हो देखिए, करें मधुर व्यवहार। विजय मिली करने लगे, खुलकर भ्रष्टाचार॥ अफसर नेता रात में, मिलकर धूम मचायँ। महा पाप कर ताल में, दोनों खूब नहाय़ँ। *द्वितीय प्रस्तुति कृष्ण सहज मुस्काते रहे, सौ गालियों की बौछार से। दुर्व्यवहार की सज़ा मिली, शिशुपाल गये संसार से॥ विदुरानी के घर खाये, कदली के छिलके प्यार से। छप्पन भोग को त्याग दिये, दुर्योधन के व्यवहार से॥ ........................... फिल्मी स्टाइल में पाल रहे, बच्चों को छूट दिये ज़्यादा। ज़िद्दी और नशेड़ी हुए, नहीं शर्म लिहाज़ न मर्यादा॥ नौकर आया की गोद पलें, मॉम डैड से मिला न प्यार। श्वान लगे व्यवहार कुशल, दिये न बच्चों को संस्कार॥ अपसंस्कृति हमें डुबाएगी, बच्चे हैं आज मझधार में। भारत की संस्कृति परम्परा को, हम लायें व्यवहार में॥ *संशोधित
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आ० राजेश कुमारी जी |
प्रथम प्रस्तुति : त्रिवेणियाँ
किसी के दिल में हो ,लोगों की जुबां पर हो या लोगों के तीक्ष्ण बाणों की नोक पर हो सिर्फ अपने व्यवहार के कारणवश.
आँसू भी सूख गये पपड़ियाँ जम गई अधरों पर हृदय भी टूक- टूक हो गया धरा का सूरज का व्यवहार भी कहाँ एक सा रहता है
वो कुत्ता आजकल दरवाजे पर नहीं बैठता कबूतर भी रोशन दान छोड़ कर चले गये इंसानी व्यवहार को जानवर भी पढ़ लेते हैं .
कल आसमां ने उसे गले लगाया आज उसी को जमीन पर पटक दिया दोनों में से किसी के व्यवहार ने तो पलटी खाई होगी
जंगल में आई एक नन्ही सी चिंगारी किसी ने भड़का दी, किसी ने बुझा दी हवा और बादल के इस व्यवहार से इंसान कुछ सीखा ?
द्वितीय प्रस्तुति- ग़ज़ल (व्यवहार ) १२२ १२२ १२२ १२२ ख़ुदा ने लिया जिस तरह बंदगी को यूँ हमने लिया वक़्त की हर बदी को
हुई जैसी शफ़कत मिली उसकी रहमत जिये हम उसी की तरह जिन्दगी को
बनी ये इमारत ही व्यवहार से है तआरूफ़ यही बस कहें क्या किसी को
ये आँखों कि भाषा ये आँखें ही जाने पढ़ा गम किसी ने किसी ने ख़ुशी को* चुराई जो नजरें उजालों ने हमसे उठा लाए हम प्यार से तीरगी को
दिखाई दिया दाग़ सबको मगर हम ही देखा किये चाँद की सादगी को
कमल का दिखाई दिया सबको कीचड़ मगर हमने देखा फ़कत ताजगी को
ये तहजीब मेरी ये व्यवहार मेरा मुहब्बत को पूजूं जिऊँ हर घड़ी को
बशर को बनाता है शिद्दत से ख़ालिक मिटाता मगर आदमी आदमी को *संशोधित |
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आ० निधि अग्रवाल जी |
प्रथम प्रस्तुति
सीरत बुरी मेरी पर मैं दरिंदा नहीं हूँ नापाक इरादों का कोई पुलिंदा नहीं हूँ
फितरत भले रही हो मांस खाने की मेरी नोचूं मासूम को, मैं वो परिंदा नहीं हूँ
वस्ल की चाहत रखता हूँ, इक इन्सां मैं भी पाकीजा लाज छीनूँ, वो बशिंदा नहीं हूँ
ख़बरों को ढूँढ लाने की नीयत बुरी मेरी उछालूं इज्जत किसी की, वो गरिंदा नहीं हूँ
फूल-फल पत्तीयां-घांस सब चर जाऊंगा, पर बाड़ को ही खा जाऊं वो चरिंदा नहीं हूँ
तलहटी छूता हूँ “निधि” मोती की तलाश में पानी में जहर घोलूं वो तरिंदा नहीं हूँ
द्वितीय प्रस्तुति
बुढापे की लकीरों में उनको बोझ नज़र आता है हमें तो उनकी झुर्रियों में भी ओज नज़र आता है
वो चेहरे बुझ गए उत्सव में बड़ों को साथ देखकर हमको बुजुर्गों के चेहरों में सरोज नज़र आता है
वो कहते हैं अब पुराने हो गए हैं दादा के ख्याल बुजुर्गवार का हर अनुभव हमें खोज नज़र आता है
वो क्यों जी चुराते हैं दादी-नानी की बातें सुनने से हमको तो बड़ों की हर बात में चोज नजर आता है
हम तड़प रहे हैं बूढी हड्डियों की अंतहीन पीड़ा में लोगों को मौत के इंतज़ार में भोज नज़र आता है
भुनभुनाते, वो क्यों नहीं सीखते जीने के नए तरीके उनसे व्यवहार की सीख लेने में डोज नज़र आता है
मज़ाक उड़ाते “निधि” वो टूटी आवाज़ में बने अर्थ का उनकी कंपकंपाती आवाज़ में तो दोज नज़र आता है
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आ० मनन कुमार सिंह जी |
प्रथम प्रस्तुति
कैसा यह तेरा व्यवहार! रूपवती सुन्दर-सी मछली माना अथाह सागर-सरिता बैठा हूँ देख बिछाये चादर
द्वितीय प्रस्तुति मौसम है प्यार बढाने का!
गाता उसका गीत रहा, बेमतलब कोई कुछ देगा?
तृतीय प्रस्तुति
सोचा कबके ख़त लिखूँ नाम तेरे प्यार का,
चतुर्थ प्रस्तुति
समझो तू अबका व्यवहार!
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11 |
आ० सुशील सरना जी |
प्रथम प्रस्तुति जीवन का प्रभात ……
कितना विचित्र व्यवहार है अपना
द्वितीय प्रस्तुति
यही अपनों ने सिखलाया है … लाजवंती जो कहलाती थी
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आ० समर कबीर जी |
नालाँ हैं सब फूल चमन के माली के व्यवहार से |
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आ० जवाहर लाल सिंह जी |
*प्रथम प्रस्तुति
यूं तो आते है कई, वर्ष मध्य त्यौहार होली में ही दीखता, अपनों सा व्यवहार होली में दिल से मिलें, रख मन शुद्ध विचार, दुश्मन से भी प्रेम हो, ऐसा हो व्यवहार नेकी मन से चाहिए, उर में उच्च विचार यही सिखाते है हमें, संस्कृति धर्माचार दिखलावा हो प्रेम का, मन में रहे विकार इससे अच्छा है यही , रूखा हो व्यवहार
द्वितीय प्रस्तुति
माँ बापू ने मुझे सिखाया, पैर बड़ों का नियमित छूना,
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* संशोधित |
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आ० श्री गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी |
प्रथम प्रस्तुति
बना रहेगा सर्वदा मनुज-मनुज में प्यार यदि आपस में हम करें सदा उचित व्यवहार सदा उचित व्यवहार कपट मन में मत आये बात-बात में विनय मधुरता स्वर सरसाये कहते हैं गोपाल. कष्ट वह नहीं सहेगा पायेगा सम्मान सर्व प्रिय बना रहेगा
बिकता सब कुछ है नहीं, नहीं सत्य का दाम कभी-कभी व्यवहार से बन जाता है काम बन जात्ता है काम सदा प्रिय बोलो भाई हो अच्छा व्यवहार सभी से करो मिताई कहते हैं गोपाल आचरण जग में टिकता बिना मोल के मनुज प्रेम के हाथो बिकता
बनते उसके मीत सब जिसका सद्व्यवहार प्यार लुटाता जो चला उसको मिलता प्यार उसको मिलता प्यार सभी जन आदर करते उसके सारे काम सभी मिल सादर करते कहते हैं गोपाल धन्य तू एक सुजनते ! महिमा अपरम्पार काज सब तत्क्षण बनते
द्वितीय प्रस्तुति
मनस का स्पंदन सुकुमार धडक उठता उर-वीणा-तार महक मलयज में मन्मथ मार प्रणय का मुक्त खुला है द्वार सृष्टि गत है सारा व्यापार प्रकृति का यह अद्भुत व्यवहार
पवन लहरों पर करता राज रही है पायल जग की बाज मेदिनी से अम्बर तक छाज नए परिवर्तन का है साज शांत-रस का सहसा शृंगार प्रकृति का यह अद्भुत व्यवहार चमकता रवि मंडल है लाल रहा है जग-शैशव को पाल लिपटते चंदन में विष-व्याल मंद स्मित करता है काल चलो चलकर देखें उस पार प्रकृति का यह अद्भुत व्यवहार
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15 |
आ० नादिर खान जी |
क्षणिकाएँ (एक) व्यवहार दूसरों का कैसा हो सब जानते हैं मगर अंजान हैं अपने व्यवहार से.....
(दो) जरूरत नहीं किसी लंबी चौड़ी तकरीर की समझाने के लिए व्यवहार कैसा हो बस ये समझ लीजिये जो अपने लिए गलत वो दूसरों के लिए गलत और जो अपने लिए सही वही दूसरों के लिए .....
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16 |
आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी |
प्रथम प्रस्तुति
प्रेम पूर्ण व्यवहार से, बढ़ता प्यार अपार, मधुर वचन से आदमी, जीत सके संसार |
शब्दों के क्या अर्थ है, पहले करे विचार, संबंधों की डोर पर, करते शब्द प्रहार |
नैतिकता बेजार है, भारी अब बाजार, लेन-देन हावी हुआ, कमतर है व्यवहार |
यहाँ प्रदूषण खा रहा, खिलते सुंदर फूल, मानवता की राह में, बिछतें देखे सूल |
जीवों का आदर करे, प्रेम पूर्ण व्यवहार, याद रहेंगे कृत्य ही, छोड़ें जब संसार |
कड़वी हो सच्चाइयां, पर अच्छा बर्ताव, गाँठ कभी बांधें नहीं, मन में रख दुर्भाव |
नेता जब करने लगे, सबसे सद्व्यहार, राम राज्य की कल्पना,तब होगी साकार |
द्वितीय प्रस्तुति कुण्डलिया छंद कंचन जैसा अब कहाँ, मानव का संसार गिरगिट सा बदला करे,नेता का व्यवहार नेता का व्यवहार, सदा ही बदला रहता दुर्जन का आचार, नहीं सादगी भरता लक्ष्मण समझे बात,नहीं जो माने बंधन मन में हो दुर्भाव, रहे न खरा सा कंचन ||
संतोषी मन भाव से, करे ह्रदय को तृप्त इच्छाएं बढती रहे, रहता मन संतप्त | रहता मन संतप्त,सदा तनाव में रहता करता खूब जुगाड़, पूर्ण इच्छाएं करता इच्छा रहे अपूर्ण, किसी को माने दोषी रखे सके व्यवहार, ह्रदय जिसका संतोषी ||
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17 |
आ० दिनेश कुमार जी |
रिश्तों से बढ़कर ये दौलत हो गई |
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18 |
आ० लक्ष्मण धामी जी |
प्रथम प्रस्तुति :दोहे
दूसरी प्रस्तुति- गजल |
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19 |
आ० रमेश कुमार चौहान जी |
आल्हा छंद हमें चाहिये सेवा करना, मातु-पिता वृद्धो के खास । चलना चाहिये सभी जन को, नीति- रीति के जो सद् राह । कहने सुनने में भला लगे, बात आदर्श की सब आज । चाहिये चाहिये सब कहते, पर तन मन से जाते हार । धरा खड़े वह गिनते तारे, बाहों में भरने लगाय आस । बेटा बेटी का कौन कहे, मातु पिता भी लगे उदास । यहां स्वार्थ के रिश्ते नाते, बुने स्वार्थ के ही व्यवहार । चाहिये शब्द को अभी हटाओ, मानव शब्द-कोश से आज । करना अब तो करना होगा, जिससे आये सद्व्यवहार ।
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20 |
आ० केवल प्रसाद जी |
मुक्तक व्यवहारों के झूले, सावन भूल गए। व्यवहारों की हवा जगत की श्वांस बनी। जीव-जगत के इस बन्धन में, केवल रिश्ते ही खास रहे। सच्चा-झूठा, दोष युक्त भय, शोक-मोह, यश, करूणा-ममता ।
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आदरणीया डॉ. प्राची जी, सादर अभिवादन! मेरी दोहावली में कुछ मात्रागत शिल्प दोष था ..वहीं प्राप्त सुझावों के अनुसार संशोधित दोहावली पेश कर रहा हूँ अगर आपको सही लगे तो प्रतिस्थापित कर दें ... आपका पुन: अभिनन्दन सारी रचनाओं सुसज्जित संकलन हेतु ..सादर
यूं तो आते है कई, वर्ष मध्य त्यौहार
होली में ही दीखते, अपनों सा व्यवहार
होली में दिल से मिले, मन में शुद्ध विचार,
दुश्मन से भी प्रेम हो, यही सदव्यवहार
नेकी मन से चाहिए, सह हो उच्च विचार
यही सिखाती है हमें, संस्कृति शिष्टाचार
दिखलावा हो प्रेम का, मन में रहे विकार
इससे अच्छा है यही , रूखा हो व्यवहार
आ० जवाहर लाल सिंह जी
अपनी समझ भर आपको दोहों का अवलोकन कर अपनी राय रखी है...कृपया संज्ञान में लें और तदनुरूप पुनः संशोधन के लिए निवेदन करें
यूं तो आते है कई, वर्ष मध्य त्यौहार
होली में ही दीखते, अपनों सा व्यवहार...................दीखते को दीखता करना सही होगा
होली में दिल से मिले, मन में शुद्ध विचार,............मिले की जगह मिलें / रख मन शुद्ध विचार
दुश्मन से भी प्रेम हो, यही सदव्यवहार....................सद्व्यवहार की मात्रा को आपने कितना गिना है ?
नेकी मन से चाहिए, सह हो उच्च विचार
यही सिखाती है हमें, संस्कृति शिष्टाचार...............इस दोहे पर कथ्य को पुनः बाँधने का प्रयास कीजिये
दिखलावा हो प्रेम का, मन में रहे विकार
इससे अच्छा है यही , रूखा हो व्यवहार ....................यह दोहा निर्दोष है
शुभकामनाएं
आदरणीया आपके परामर्शानुसार मैंने सुधारने की पुन: कोशिश की है आप देख लें
यूं तो आते है कई, वर्ष मध्य त्यौहार
होली में ही दीखता, अपनों सा व्यवहार
होली में दिल से मिलें, रख मन शुद्ध विचार,
दुश्मन से भी प्रेम हो, ऐसा हो व्यवहार
नेकी मन से चाहिए, उर में उच्च विचार
यही सिखाते है हमें, संस्कृति धर्माचार
दिखलावा हो प्रेम का, मन में रहे विकार
इससे अच्छा है यही , रूखा हो व्यवहार
सादर
आ० जवाहर लाल सिंह जी
दोहावली पर मेरे सुझावों को मान देने के लिए आपका धन्यवाद.
आपकी मूल रचना को संशोधित दोहावली से प्रतिस्थापित कर दिया गया है.
बहुत बहुत आभार आदरणीया डॉ प्राची जी मेरे जैसे लोग काफी कुछ सीखते हैं इस मंच से आगे भी सीखना चाहते हैं ...पुन: आभार!
आदरणीया प्राचीजी
महोत्सव के सफल आयोजन और संकलन के लिए हृदय से आभार , शुभकामनायें
दोनों प्रस्तुति को संशोधन पश्चात पोस्ट कर रहा हूँ कृपया संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।
प्रथम प्रस्तुति
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झूठा जग का प्यार है, झूठा जग व्यवहार।
मतलब के सब यार है, मतलबिया संसार॥
साथ दक्षिणा लाइये, फूँक रहे गुरु कान।
जो आया इनकी शरण, स्वर्ग गया श्रीमान॥
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खुद का घर बर्बाद क्यों, समझ नहीं जो पाय।
राय बहादुर बन गये, मुफ़्त बाँटते राय॥
व्यवहारी दिखते मगर, रखते मन में बैर।
बात करें क्या शत्रु की, मित्र मनाते खैर॥
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सिर्फ किताबी ज्ञान से, बना धूर्त इंसान।
बड़े- बड़े घपले किए, अफसर चतुर सुजान॥
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जब चुनाव हो देखिए, करें मधुर व्यवहार।
विजय मिली करने लगे, खुलकर भ्रष्टाचार॥
अफसर नेता रात में, मिलकर धूम मचायँ।
महा पाप कर ताल में, दोनों खूब नहाय़ँ।
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द्वितीय प्रस्तुति
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कृष्ण सहज मुस्काते रहे, सौ गालियों की बौछार से।
दुर्व्यवहार की सज़ा मिली, शिशुपाल गये संसार से॥
विदुरानी के घर खाये, कदली के छिलके प्यार से।
छप्पन भोग को त्याग दिये, दुर्योधन के व्यवहार से॥
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फिल्मी स्टाइल में पाल रहे, बच्चों को छूट दिये ज़्यादा।
ज़िद्दी और नशेड़ी हुए, नहीं शर्म लिहाज़ न मर्यादा॥
नौकर आया की गोद पलें, मॉम डैड से मिला न प्यार।
श्वान लगे व्यवहार कुशल, दिये न बच्चों को संस्कार॥
अपसंस्कृति हमें डुबाएगी, बच्चे हैं आज मझधार में।
भारत की संस्कृति परम्परा को, हम लायें व्यवहार में॥
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आ० अखिलेश श्रीवास्तव जी
आपकी पूर्व रचनाओं को निवेदनानुरूप संशोधित रचनाओं से प्रतिस्थापित कर दिया गया है
आ. डॉ प्राची सिंह जी सादर,
महोत्सव के सफल आयोजन एवं रचनाओं के संकलन हेतु हृदय से बधाई एवं सादर आभार प्रेषित करता हूँ. निम्नवत संशोधित प्रस्तुति को मूल रचना से प्रस्थापित करने की कृपा करें. सादर,
झलके दर्पण में सदा, बाह्य मनुज का रूप।
गोरा, काला, साँवला, सुन्दर या विद्रूप।।
सुन्दर या विद्रूप, व्यक्ति का तन हो जैसा।
खोले दर्पण राज, मनुज की छबि का तैसा।।
कहता सत्य पुकार, बात यह मत लो हलके।
कद काठी अनुरूप, रूप दर्पण में झलके।१।
कहलाये दर्पण सुनो, मानव का व्यवहार।
अंतर मन छबि को जहाँ, जग ले साफ निहार।।
जग ले साफ निहार, भले भाये ना भाये ।
क्षुद्र भद्र व्यक्तित्व, मनुज गुण दोष दिखाये ।।
जीवन सत्य स्वरूप, सदा व्यवहार खिलाये।
मानव का व्यवहार, अतः दर्पण कहलाये।२।
अपने सद्व्यवहार से, जीतें जग मन आप।
जीवन में फिर हार का, क्यों भोगें अभिशाप।।
क्यों भोगें अभिशाप, विषय यह तात्विक जितना।
जीवन में व्यवहार, सुनो आवश्यक उतना।।
यश कीरत सम्मान, सत्य जीवन के सपने।
मनुज कुशल व्यवहार, नाम सब करता अपने।३।
सादर
यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित
आदरणीया प्राचीजी
महोत्सव के सफल आयोजन और संकलन के लिए हृदय से आभार , शुभकामनायें
सुन्दर और सफल आयोजन के लिए बधाई
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