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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-56 (विषय: समय)

आदरणीय साथिओ,

सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-56 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है:  
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-56
विषय: समय
अवधि : 29-11-2019  से 30-11-2019 
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अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं। 
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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सबक

****

वो जैसे ही आज घर में आया उसे माहौल रोज़ से कुछ बदला-बदला से लगा। पत्नी खाना ले आई। फिर रोज़मर्रा की बातें कर-करा कर बोली:

- सुनिये जी, एक बात कहनी है

-बोलो

-देखिए एकदम गुस्सा मत करिएगा। थोड़ा समझा-बुझा कर देख लेंगें। फिर जो आप कहेंगें मान लेंगें।

-अरे हुआ क्या है, साफ़-साफ़ कहो ना।

-हमारी सुनयना को एक विजातीय से प्यार है या उससे शादी करने की कह रही है

खाना खाते उसके हाथ रुक गए। कुक पल सोच में डूबा से दिखा। फिर हाथ का कौर मुँह में डालते हुए बोला:

-ठीक है। बोलो लड़के को मिलवाये हमसे। अगर घर-परिवार, पढ़ाई-लिखाई, कमाई-धंधा ठीक हुआ तो हमें क्या एतराज़। देख लेंगें।

-होऊहहह। मेरी तो जान में जान आई। बोल दूँगी। मुझे तो लग ही नहीं रहा था कि आप मान जाएंगें

-क्यों? तुम्हें लग रहा होगा कि इनको भी मैं अपनी बहन और उसके प्रेमी किबतरह ही......

-ह...हाँ...हाँजी

-नहीं री। जेल में दस साल खोए हैं। इतना तो जान गया हूँ कि हाथ से गए समय का मोल क्या है। और फिर समय बदल भी तो गया है। ला रोटी ला एक और।

#मौलिक व अप्रकाशित

आदाब। समय के साथ सोच परिपक्व होने के संदेश के साथ बहुत बढ़िया सकारात्मक रचना। हार्दिक बधाई जनाब अजय गुप्ता साहिब। टंकण आदि संबंधित कुछ एक सुधारों की ज़रूरत है। जैसे  आरंभ में.. //कर-करा... // आदि।

शुक्रिया उस्मानी साहब।

आ. भाई अजय जी, अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।

हार्दिक बधाई आदरणीय अजय जी। लघुकथा अच्छी है लेकिन कुछ अशुद्धियाँ लघुकथा का आनंद कम कर रही हैं।

जैसे -"हमारी सुनयना को एक विजातीय से प्यार है या उससे शादी करने की कह रही है।"

"कुक पल सोच में डूबा से दिखा।"

"अपनी बहिन और उसके प्रेमी किबतरह ही।"

शायद थोड़ी जल्दबाजी में लिख दी है। संपादन की आवश्यकता है।

बहुत बहुत आभार तेजवीर जी। वाक़ई मैंने ध्यान नहीं दिया कि टंकण में इतनी त्रुटियां आ गई हैं। आगे से ध्यान रखूंगा

धन्यवाद लक्ष्मण भाई

बहुत ही सकारात्मक सन्देश दे रही है आपकी लघुकथा भाई अजय गुप्ता जी. बहुर-बहुत बधाई प्रेषित है 

बहुत बहुत आभार आदरणीय योगराज जी।

एक दूजे के लिए (लघुकथा) :


"सज्जन ही सार्थक संकल्पनायें कर सृजन वास्ते समर्पित होते हैं! दुर्जन तो स्वार्थ या भड़ास वास्ते नाना प्रकार से विध्वंस ही करते रहते हैं, बस!"


"जनाब, ये जुमले इस दौर में तो मात्र क़िताबी रह गये हैं! रोपण हो या उन्मूलन! संगठन हो या विघटन! जीत हो या हार! सृजन हो या विध्वंस; अब तो ये सब ख़ुदग़र्ज़ी, धंधे या भड़ास वास्ते ही किये या करवाये जाते हैं! ... सज्जनों द्वारा या दुर्जनों के ज़रिये या फ़िर दोनों की साझेदारी से, समझे!"


"हाँ, सब एक दूजे के लिये; एक दूजे से; एक दूजे के द्वारा! किंतु सवाल तो सार्थकता, निरर्थकता, स्वार्थपरकता का है न!"


"असल सवाल और मुद्दा तो यह है न कि दाँव पर क्या और कौन है भाई?"


"दाँव पर! ... दाँव पर तो प्रकृति, विरासत, संस्कृति और संस्कार हैं! ... नीति-रीति, विधि-विधान, तंत्र और संविधान भी!"


"हाँ... ये ही तो कभी एक दूजे के लिए; एक दूजे से; एक दूजे के द्वारा हुआ करते थे, है न!"


(मौलिक व अप्रकाशित)

आ. भाई शेखशहजाद जी, बेहतरीन कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।

आदाब। इस रचना पटल पर समय व राय देकर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहिब।

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