परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 62 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह मशहूर शायर जनाब "शाद अज़ीमाबादी" की ग़ज़ल से लिया गया है|
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
1212 1122 1212 112
मुफाइलुन फइलातुन मुफाइलुन फइलुन
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 21 अगस्त दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 22 अगस्त दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
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सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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बहुत बहुत आभार आ. कान्ताजी आपकी दाद के लिए।
आदरणीया नीरज जी , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , ये दोनो आध्यात्मिक भाव के अशआर खूब पसन्द आये ।
जहां में मोह व माया सा तो अदू ही नहीं।
इसीलिए तो खुदा होता रूबरू ही नहीं। -- सत्य वचन !
न मिल सकेगा खुदा लाख चाहने पर भी
करो सफा दिलों को भी , फक़त वज़ू ही नहीं -- ऊपरी सफाई , बनावटी श्रद्धा भाव के कुछ हासिल नही हो सकता , सही कहा आपने ।
आपको गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
तहेदिल से शुक्रिया आ. गिरिराज जी रचना पसंद करने के लिए।
जहां में मोह व माया सा तो अदू ही नहीं।
इसीलिए तो खुदा होता रूबरू ही नहीं।-----बहुत खूब कहा वाह्ह
जहां के कोने कोने में तुझे तलाश किया---इसमें बह्र थोड़ी भटकी हुई लगी ----कोने के न को गिरा सकते हैं को को नहीं ---दुसरे कोने को कुने पढ़ा जा रहा है
बची हो कोई जो दुनिया में, कू-ब-कू ही नहीं।(कू-ब-कू गली-गली)
न मिल सकेगा खुदा लाख चाहने पर भी
करो सफा दिलों को भी , फक़त वज़ू ही नहीं।( वज़ू--नमाज़ से पहले हाथ मुंह धोना)बेहतरीन शेर
करो दिलों को जरा साफ़ फ़कत वजू ही नहीं --ऐसा करके देखें
करो निसार जान-औ`-तन वतन की राहों में---यहाँ बह्र गड़बड़ा गई है जान के जा को नहीं गिरा सकते
करो निसार सदा जाँ वतन की खातिर तुम ---ये कर सकती हो ----राहों में ठीक नहीं राह होता है
वतन के वास्ते खौले न जो लहू ही नहीं।
मिटी हूं जिसके लिए मैं वफ़ा की राहों में
उसे तो पर कभी थी मेरी आरज़ू ही नहीं।----बहुत खूब
समझ न आए किया क्या ये तूने सेहर है (सेहर-- जादू-टोना)
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं।-----ठीक
बड़े अकीदे से दी थी जो तूने रब मुझको ( अकीदा--विश्वास)
मैं रख सकी वो चदरिया भी मू-ब-मू ही नहीं।(मू-ब-मू -- ज्यों की त्यों) चदरिया के साथ मू ब मू ....जमा नहीं
कुल मिलाकर आपने बहुत बढ़िया प्रयास किया है थोड़े से सुधार से ग़ज़ल चमक उठेगी ऐसा मेरा विश्वास है ...बहुत बढ़िया प्रयासरत रहें ..हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें डॉ० नीरज जी
तहेदिल से शुक्रिया आ. राजेश कुमारी जी। इंगित संकेतों का भान हुआ, ध्यान दूंगी।
करो दिलों को जरा साफ़ फ़कत वजू ही न--- साफ़ व फ़कत एक साथ नहीं आ सकते-- लय बिगड़ रही है।
आदरणीया नीरजजी,सभी अश'आर बा -कमाल हुए , कई उर्दू भाषा के नए अलफाज सीखने को मिले
बहुत सुंदर अशआर हुए हैं..ढेर सारी बधाई पेश है
समझ न आए किया क्या ये तूने सेहर है (सेहर-- जादू-टोना)
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं।
बड़े अकीदे से दी थी जो तूने रब मुझको ( अकीदा--विश्वास)
मैं रख सकी वो चदरिया भी मू-ब-मू ही नहीं।(मू-ब-मू -- ज्यों की त्यों)
इन दोनों अलग तासीर के अशआर पर तो ख़ास बधाई आ० नीरज शर्मा जी
न जाने कब से हमारी तो गुफ्तगू ही नहीं
हमें भी मिलने की अब तुमसे आरज़ू ही नहीं
तमाम उम्र की कोशिश, मगर मना न सके
हमीं पे फिर भी है तोहमत के आरज़ू ही नहीं
|
बहुत मिला है खुदा से बस एक तेरे सिवा
खुदा का शुक्र करूँ कैसे जब के तू ही नहीं
पहुँच गया हूँ मै मंजिल के आस पास मगर
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं
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खुदी को कर लिया ज़ख्मी, खुदी तबाह हुये
हमी हैं ख़ुद के, कोई और अब अदू ही नहीं
दिया है आस से ज्यादा मुझे खुदा ने मगर
मुझे तलाश है तेरी के एक तू ही नहीं
भटक रहा हूँ मै कब से बस एक तेरे लिए
है एक तू के जिसे मेरी जुस्तजू ही नहीं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
नादिर भाईजी, आपकी उपस्थिति से आयोजन का आयाम और बढ़ गया.
भटक रहा हूँ मै कब से बस एक तेरे लिए
है एक तू के जिसे मेरी जुस्तजू ही नहीं
इस शेर के हवाले से आपकी ग़ज़ल पर दाद कह रहा हूँ.
ग़िरह का शेर बहुत ही बढ़िया हुआ है. इसके लिए अलग से दाद लीजिये. किसी खास की अपनी ज़िन्दग़ी में कितना महत्त्व होता है, उसका सुन्दर नमूना है आपका उक्त शेर.
काफ़िया के हिसाब से कहा जाय तो आप भी थोड़ा परेशान दिख रहे हैं. लेकिन आपकी कोशिशों पर मन प्रसन्न है.
शुभ-शुभ
अदरणीय सौरभ सर हमारी कोशिश को आपने सराहा बहुत शुक्रिया आपका ...
आदरणीय नादिर खान सर, बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, शेर दर शेर दाद हाज़िर है-
न जाने कब से हमारी तो गुफ्तगू ही नहीं
हमें भी मिलने की अब तुमसे आरज़ू ही नहीं........... बहुत अच्छा मतला हुआ है.
तमाम उम्र की कोशिश, मगर मना न सके
हमीं पे फिर भी है तोहमत के आरज़ू ही नहीं......... बहुत खूब
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बहुत मिला है खुदा से बस एक तेरे सिवा
खुदा का शुक्र करूँ कैसे जब के तू ही नहीं....... बढ़िया शेर
पहुँच गया हूँ मै मंजिल के आस पास मगर
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं............ शानदार गिरह लगाईं है
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खुदी को कर लिया ज़ख्मी, खुदी तबाह हुये
हमी हैं ख़ुद के, कोई और अब अदू ही नहीं ............ बहुत ही बेहतरीन शेर हुआ है.
दिया है आस से ज्यादा मुझे खुदा ने मगर
मुझे तलाश है तेरी के एक तू ही नहीं............... बहुत अच्छा शेर है.
भटक रहा हूँ मै कब से बस एक तेरे लिए
है एक तू के जिसे मेरी जुस्तजू ही नहीं........... कमाल का शेर .... हासिल-ए-ग़ज़ल
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कुबूल फरमाएं.
हौसला अफजाई का बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी ... दोपहर 2 बजे से लगे थे साढ़े 6 बजे गज़ल कंप्लीट हुयी अब लगता है मेहनत व्यर्थ नहीं गई कोशिश सार्थक हुयी ।
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