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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 67 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 19 नवम्बर 2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 67 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.


इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा और उल्लाला छन्द.


वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ

******************************************************************************

१. आदरणीय़ मिथिलेश वामनकर जी
दोहा छंद आधारित गीत
======================
आख़िर इतनी तेज़ क्यों, इस जीवन की रेल
बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल

गिल्ली डंडा तो सखा, बचपन का था प्यार

चकाचौंध के मोह में, क्यों कर ली तकरार

गिल्ली हुई क्रिकेट की, डंडा अफ़सर पास

आँगन सूना कर गए, कम्प्यूटर के दास

कहाँ महकती दूब का, मधुमय वह आह्वान

दीवारों में खो गए,  हरे भरे मैदान  

जीवन में जीवन्तता, थोड़ी किन्तु उड़ेल

बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल ....................... (संशोधित)


अब ना मेरा दाँव है, अब ना तेरा दान
अब तो जिंदा खेल से, बच्चें भी अनजान
मैदानों से आज तो, बचपन हुआ विरक्त
तकनीकी संघर्ष से, बचा कहाँ है वक्त
जीवन गिल्ली क्यों भला, ‘गिच’ में धँसती आज
खुशियों का डंडा हुआ, हंसने से नाराज

ये कैसी रफ़्तार है, कैसी पेलमपेल
बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल
***********************************
२. आदरणीय समर कबीर जी
दोहे
====
देखा इस तस्वीर को,बचपन आया याद ।
अपना ही ये खेल है,अपनी ही ईजाद।।

फैले दोनों हाथ हैं,लड़का है तैयार ।
गिल्ली उछली तो कहीं,पकड़ न ले इस बार।।

सारी दुनिया भूल के ,बच्चे खेलें खेल ।
उसकी होगी जीत जो,गिल्ली लेगा झेल ।।

दुबला लड़का सोचता,कब आयेगा दाम।
गिल्ली डंडे मे करूँ,मैं भी अपना नाम ।।

गिल्ली पर तुम देखना,इस डंडे की मार।
गिल्ली जायेगी अभी,नदिया के उस पार।।
*************************************
३. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
उल्लाला छंद
============
गुल्ली डंडा खेलते ,.बच्चे दिखते तीन हैं
अपने ही संसार में ,यह तीनों तल्लीन हैं

नूर खड़ा है झेलने ,मोहन गुल्ली ताकता
डंडा लेकर हाथ मे, किसना दम ख़म मापता

पैरों में चप्पल नहीं ,कपड़े भी बदरंग हैं
मुट्ठी में इनकी जहाँ ,बच्चे मस्त मलंग हैं

खेल कूद तालीम से ,ना कोई भी दूर हो
हर बच्चे को यह मिले ,हो मोहन या नूर हो

हुई सुबह लो आ गए ,बच्चे लेकर टोलियाँ
सीमा के इस गाँव में ,रात चली थी गोलियाँ

साहस डंडा हाथ में ,जीत उसी के साथ में
बाधा गुल्ली कूटता, मुश्किल में ना टूटता

गुल्ली बन पिटती रही ,जनता ही पिसती रही
डंडा जिसके हाथ में ,सिस्टम उसके साथ में
********************************************
४. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
उल्लाला छंद [ प्रथम प्रस्तुति ]
=======================
गर्मी की छुट्टी हुई, अब चिंता सारी खतम।
दिन भर खाना खेलना, अब रोज करेंगे उधम॥

गिल्ली डंडा खेल में, दिखते हैं तीनों मगन।
राम लखन तो दाम दे, गिल्ली को मारे जगन॥

ऊपर जब गिल्ली उठे, तब ही तेज प्रहार हो।
मजा खूब है खेल में, जीत मिले या हार हो॥

इसे सैकड़ों साल से, खेलें शहर व गाँव में।
ना कोई गणवेश है, ना जूता है पाँव में॥

पाबंदी ना समय की, ना सीमा मैदान की।
चिंता घास न धूल की, न खेत औ’ खलिहान की॥

माँ की लोरी की तरह, विशेष नियम न रीति है।
गिल्ली डंडा खेल से, आज भी वही प्रीति है॥
*****************************
५. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
दोहा-गीत [दोहा छन्द पर आधारित]
=====================
गिल्ली डंडा नाम से, रहा खेल सरनाम 
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

गिल्ली डंडा खेलते, होकर के तल्लीन
दूर गाँव मैदान में, बालक मिलकर तीन
इस मैदानी खेल में,
लगे न कोई दाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

नील गगन सी बाल ने, पहन रखी पतलून
सिर पर जिसके खेल का, देखो चढ़ा जुनून
बहुत सुने इस खेल के,
गुणकारी परिणाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

रंग बाल परिधान का, भूरा ज्यों मैदान ........................(संशोधित )

खडा बाल फैला भुजा, लगा खेल में ध्यान
होता मन एकाग्र औ ....................................          (संशोधित) 
तन का हो व्यायाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

बाल शर्ट अरु खेत का, इक जैसा है रंग
गिल्ली उड जाए कहाँ, आँक रहा मन दंग
सही आकलन की विधा,
हो विकसित अविराम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

गिल्ली जैसे खो गया, बचपन अपना ख़ास
बाल दिवस पर खोजने, का हम करें प्रयास
जगे खेल रूचि बाल मन,
ऐसा हो शुभ काम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...
*********************************************
६. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
गीत
=====
बचपन है मस्ती भरा,चिन्ता जाते भूल
हर तन पर लिपटी रहे,भले सदा ही धूल।

छोटे-छोटे खेल में,मग्न रहे हैं मन सदा
खेल-खेल कर दिन कटे,थकता क्या कोई कदा?
मिट्टी,लकड़ी ही रहे,अपना तो सामान ये
इन सब से हम खेलते,सुनो लगाकर कान ये।

रज में भी खिलता रहे,बालकपन का फूल।

गिल्ली-डंडा खेलते,जो सस्ता-सा खेल है

दल अपने हम बाँटते,फिर भी सब में मेल है

कोई दल है जीतता,मिली किसी को हार है
झगड़ा थोड़ा हो मगर,रहता फिर भी प्यार है।

बच्चे देते कब कभी,किसी बात को तूल?

बड़े बड़प्पन भूलकर,अपना आपा खो रहे
बीज छोड़ सब प्रेम के,केवल नफरत बो रहे
छोटी-मोटी बात पर,कहते घटिया बोल हैं
आपस में लड़-लड़ मरें,लेते झगड़े मोल हैं।

ऐसी आदत का कभी, नहीं मिला है कूल।

बचपन तो भोला-भला,आता सबको याद है
जीवन बचपन-सा कटे,सबकी यह फरियाद है
हृदय सुकोमल-सा रहे,केवल सच को जानता
सभी बड़ों की बात ज्यों,बच्चा दिल से मानता

दिल में रखना पुष्प ही,रहे न कोई शूल।

द्वितीय प्रस्तुति
उल्लाला छ्न्द
===========

करते धरती से रहें,प्यार सदा ही हम सभी
उससे दूरी मत करें,खेल-कार्य सबमें कभी।

मिट्टी में ही खेलते,दुःख व सुख सब झेलतेे
मिलता माँ-सा साथ है,सिर पर जैसे हाथ है।

खेल भूमि से हों जुड़े,दृष्टि नहीं उससे मुड़े
इसे मातु सब मान लें,इसकी महता जान लें।

बचपन का जो खेल हो,घर से बाहर मेल हो
गुल्ली डंडा पास हो,आँख मिचौली ख़ास हो।

खुले-खुले मैदान में,बढ़ें खेल की शान में
खुली हवा का पान हो,पुलकित सबकी जान हो।

पलटन बच्चों की सकल,खूब लगाती है अकल
मेल-जोल बढ़ता सही,राणा ने सच्ची कही।

(संशोधित)

*****************************************************
७. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(1) दोहा छन्द
------------------
(१ ) हमने जीवन भर सदा ,खेले अपने खेल
गुल्ली डंडे से भला ,क्या क्रिकेट का मेल
(२ ) गुल्ली डंडे से अधिक ,आवश्यक है काम
लगते हैं वालिद थके ,दे इनको आराम
(३ ) खेतों में भी काम कर ,बन पापा का हाथ
गुल्ली डंडा खेल के , दे उनका तू साथ
(४ ) गुल्ली डंडे की नक़ल , है क्रिकेट ही यार ......................  (संशोधित)
अँग्रेज़ों का खेल अब ,कहे जिसे संसार
(५ ) गुल्ली डंडा खेल के ,वक़्त न कर बर्बाद
सबक़ हमें कॉलेज का ,भी करना है याद
(६ ) गुल्ली डंडा से फक़त ,नहीं चलेगा काम
क्रिकेट को भी खेल तू ,गर चाहे कुछ नाम

(2 ) उल्लाला छन्द
-------------------
(१ ) गुल्ली ऊपर उठ गयी ,तू जल्दी डंडा मार
इसे पकड़ने के लिए ,दो बच्चे हैं तैयार
(२ ) बच्चों देखो खेल में ,तुम यह मत जाना भूल
जाना है फिर कल सुबह ,तुमको भी देखो स्कूल
(३ ) बने खिलाड़ी किस तरह ,साधन है किस के पास
गावों के बच्चे हुए ,यूँ ही तो नहीं उदास
(४) जल्दी बाज़ी ख़त्म कर ,तू मान हमारी बात
ढलता सूरज कह रहा ,होने वाली है रात
(५ ) हमने इस तस्वीर पर ,जब किया देख कर गौर
याद आ गया दोस्तों ,हम को बचपन का दौर
(६ ) खेलें क्रिकेट किस तरह ,है नहीं जेब में दाम
इसी लिए हमने लिया ,गुल्ली डंडे से काम 

द्वितीय प्रस्तुति
(उल्लाला छन्द )
===========

(१ ) जल्दी डंडा मार तू ,गुल्ली उठी है ऊपर
बच्चों पर भी रख नज़र ,पकड़ न लें कहीं बढ़ कर
(२ ) बहुत हो चुका खेल अब ,सिर्फ़ है यह समझाना
भूल न जाना कल सुबह ,तुमको स्कूल है जाना
(३ ) बनें खिलाड़ी किस तरह ,नहीं हैं साधन अच्छे
यूँ ही तो मुज़तर नहीं ,गॉव के मुफ़लिस बच्चे
(४ ) बाज़ी जल्दी ख़त्म कर ,फिर कल यहीं है आना
होने वाली रात है ,लौट के घर है जाना
(५ ) हमने इस तस्वीर को ,गौर से जिस दम देखा
याद आ गया दोस्तों, दौर हमको बचपन का
(६ ) क्रिकेट का तो शौक़ है ,लेकिन पास है कब ज़र
गुल्ली डंडे से न यूँ , लेता काम मैं अक्सर
***********************************************
८. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी
उल्लाला छंद .
=============
जितना सुंदर बालपन, उतना सुंदर ये वतन |
बच्चों में जो मेल है , उससे ही हर खेल है ||

खेतों को मैदान कर, तज कर सारी फ़िक्र डर |

खेल रहे शिशु तीन ये , पगडंडी तक आ गये ||........   (संशोधित)

बचपन के क्या मायने, देखो शिशु माटी सने |................ (संशोधित)

गिल्ली डंडा खेलते , इक मारे दो झेलते ||.........



बदल गए हैं गाँव अब, यादों के हैं चित्र सब |
गिल्ली डंडा हो जहाँ , अब वो पगडंडी कहाँ ||

इस पीढ़ी की भूल से, बच्चे वंचित मूल से |
अब तो हैं बस नाम के, खेल सभी व्यायाम के ||
*****************************************************
९. आदरणीया राजेश कुमारी जी
उल्लाला छंद
==========
नील गगन की छाँव में, बचपन हँसता गाँव में|
आम,नीम पर झूलता, क्रोध कष्ट को भूलता||

कभी गाँव या खेत में ,माटी में या रेत में|
मिलकर खेलें साथ में ,डाल हाथ को हाथ में||

डरें न माटी धूल से ,वन उपवन के फूल से|
खुली हवा में घूमते ,धरती माँ को चूमते||

तीन खिलाड़ी व्यस्त हैं ,अपनी धुन में मस्त हैं|
धूप पसीना झेलते ,गुल्ली डंडा खेलते||

अलग धर्म के नूर हैं,भेदभाव से दूर हैं|
मुख पर कोई छल नहीं,पैरों में चप्पल नहीं||

कहाँ कान की पत्तियाँ ,कहाँ कबड्डी गिट्टियाँ|
पहली सी कसरत नहीं , चैटिंग से फुर्सत नहीं||

ढूँढ रहा मानव यहाँ , खोया बचपन है कहाँ|
उलझ गया जो नेट में, मूवी गेम, क्रिकेट में||
*************************************************
१०. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
गीत रचना (उल्लाला छंद में)
======================
धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते 


हरी भरी जब छाँव हो, या अपना ही गाँव हो,
धरती माँ की गोद में, खेले सभी विनोद में |
रहें जीत की कामना, ह्रदय खेल की भावना,

गुल्ली डंडा खेलते, कभी चोट भी झेलते |
धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते

मन में रख विश्वास जो, होते नहीं हताश वो,
रहे खेल की भावना, ह्रदय जीत की भावना |
प्यार झलकता खेल में, सब बच्चो के मेल में,

धूप पसीना झेलते, दण्ड बैठकें पेलते ................................. (संशोधित)

धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते

धर्म जाति अदृश्य हो, सद्भावों. का दृश्य हो .......................... (संशोधित)
वैर भाव रखते नहीं, मिले हार जलते नहीं |
भेद न राम रहीम में, सक्षम और यतीम में,


हार सभी स्वीकारते, गुस्सा नहीं उढ़ेलते
धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते
*******************************************
११. आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी
दोहा छन्द (प्रथम प्रस्तुति)
==================

खेल बहुत संसार में, सबकी अपनी बात।
देते सबको देखिये, गिल्ली डंडा मात।।

 

ये मनभावन खेल है, गिल्ली डंडा नाम।
गोल्फ गरीबों का यही, कौड़ी लगे न दाम।2।

नहीं रहे मैदान वो, नहीं रहा वो मेल।
बच्चे घर में कैद हैं, जैसे काटें जेल।3।

गिल्ली डंडा ना रहे, चले गए वो खेल।
बचपन छिनता जा रहा, होती धक्का पेल।4।

गिल्ली डंडा की जगह, आए विडियो गेम।
आँखों पर ऐनक लगी, मन में रहा न प्रेम।5।

ऊँच नीच के भेद को, जानें ना ये बाल। 

गिल्ली घूमे है गगन, रहता यही खयाल।

बाल मगन हैं खेल में, हरे भरे हैं खेत।

गिल्ली ऐसे उड़ रही, उड़ती जैसे रेत।।

द्वितीय प्रस्तुति
उल्लाला छन्द
==========
गोधूली का वक्त है, सूरज अपने घर चला।
रलमिल खेलें बाल ये, गिल्ली डंडे की कला।।

कितना सुन्दर खेल है, नमक लगे ना तेल है।
झूम रहे ये फूल हैं, मस्ती में मशगूल हैं।।

वही देख लो खेल भी, वही देख लो मेल भी।

चमकी अंचल की धरा, कण-कण खुशियों से भरा।

गिल्ली डंडा खेल में, खूब मचाते शोर थे।

खेल-खेल में मस्त हो, खोते अपने ढोर थे।

हरियाली थी खेत में, बीता बचपन रेत में।
गिल्ली डंडा यार वो, देते कितना प्यार वो।।

नहीं माप मैदान का, नहीं खास परिधान है।
नग्न पैर भी खेलते, गिल्ली डंडा शान है।।

(संशोधित)
**********************************************
१२. आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी
दोहे
====
गिल्ली डंडा खेलते, हारे या हो जीत।
यारों इनके शौक़ से, बढ़े परस्पर प्रीत।।

देशी खेल लुभावने, मित्रता की पहचान।
बच्चे अपने दौर के, हैं इससे अनजान।।

खिलता बचपन खेल में, खूब बरसता प्यार।
कभी लड़ाई हो गई, कभी मान-मनुहार।।

खेल है यह स्वदेश का, अपनी ये पहचान।
बच्चे-जवान खेलते, समझे अपनी शान।।

उछली गिल्ली जो वहाँ, बच्चे करते शोर।
संगी साथी दौड़ते, मैदानों की ओर।।
*****************************************************
१३. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
दोहे
====
उस झाड़ी में है छिपा एक भयंकर नाग
जिह्वा से जो उगलता क्रुद्ध दहकती आग

सांस रोक वह छोड़ता जहरीली फुत्कार
आँखे ऐसी लाल हैं मानो है अंगार

दृश्य भयावह है बड़ा बालक है सुकुमार
सबके अंतस में धंसा दारुण हाहाकार

दो बालक उद्विग्न हैं एक खडा है शांत
बाहर से अविकार है भीतर से उद्भ्रांत

देखेंगे यदि दूर से यह अद्भुत रोमांच
आयेगी बिलकुल नहीं कभी किसी को आंच

मानव करते हैं नहीं विषधर पर विश्वास
पर वह डसता है तभी जब संकट हो ख़ास

जितना रहता है मनुज सर्पों के प्रति शंक
उतना ही है सर्प पर मानव का आतंक

उल्लाला
=====
दूर गाँव की राह में .बच्चे है उत्साह में
एक शांत निश्छल खड़ा दूजा विस्मय में पड़ा :
उसे पकड़ना है अभी घात लगाये है सभी
मृग, शश अथच चकोर है पारावत या मोर है

मन में है उत्सव भरा गिल्ली डंडा खेलते
बाधा जो भी खेल की अपने सर पर झेलते
शॉट मारते है कभी कभी पकड़ते कैच हैं
कभी हार से क्षुब्ध हैं भी जीतते मैच है

या फायर क्रैकर खेलते बालक ये सुकुमार सब
क्या दीप पर्व की सांझ है मन में आता भाव अब
हां आग लग गयी है भली फूट जायगा अभी बम
तब और दगाएंगे सखे हम किससे हैं भला कम
********************************************************
१४. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी
दोहे
====
गिल्ली डंडा खेलते, बच्चे धुन में मस्त।
दुनिया की ना फिक्र है, होय कभी ना पस्त।।

भेद नहीं है जात का, करे भेद ना रंग।
ऊँच नीच मन में नहीं, बच्चे खेले संग।।

आस पास को भूल के, खेले हो तल्लीन।
बड़ा नहीं कोई यहाँ, ना ही कोई हीन।।

छोड़ मशीनी जिंदगी, बच्चे सबके साथ।
हँसते गाते खेलते, घाल गले में बाथ।।

खुले खेत फैले यहाँ, नील गगन की छाँव।
मस्ती में बालक जहाँ, खेलें नंगे पाँव।।

शहरों का ना शोरगुल, नहीं प्रदूषण आग।
लेवें जो ये मस्तियाँ, उनके खुलते भाग।।
*****************************************************

१५. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी

//उल्लाला छंद//

गिल्ली डण्ड़ा खेलते, मिलकर बच्चे साथ में ।

गिल्ली को उछाल रहे, डण्ड़ा लेकर हाथ में ।।

गांव-गली का खेल यह, मिले नहीं परदेश में ।

कल की यह गौरव कथा, कहते भारत देश में ।।

स्वस्थ रखे यह स्वास्थ को, भरे ताजगी श्वास में ।

खेलो मिट्टी धूल में, चाहे खेलो घास में ।।

बंधन इसमें है नही, चाहें जितना खेल लें ।

गोला घेरा खींच कर, गिल्ली जरा धकेल लें ।।

डंठल लेकर पेड़ का, गिल्ली-डंडा काट लो ।

बच्चों का टोली खड़ा, अपना साथी छांट लो ।।

मुफ्त-मुफ्त का खेल यह, खेलो चाहे बाट में ।

खेत-खार गौठान में, चाहे खाली प्लाट में ।।

************************************************************

 

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Replies to This Discussion

परम आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम 

"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 67 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन हेतु हार्दिक बधाई एवं सादर आभार निवेदित है 

         

आदरणीय आपसे अनुरोध  है कि -  निम्न संशोधित पंक्ति को  मूल से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।

 

  भूरा रंग मैदान का, तन भूरा परिधान   

  रंग बाल परिधान का, भूरा ज्यों मैदान (संशोधित )

होता मन एकाग्र अरु, 

होता मन एकाग्र औ (संशोधित)

     आदरणीय संकलन में आ. रमेश कुमार जी की प्रविष्टि भूलवश संकलित होने से  शायद रह गयी है कयोंकि नाम दिख रहा है किन्तु प्रविष्टि नहीं दिख रही है शायद इसके पीछे  कोई तकनीकी कारण  हो.. 

सादर धन्यवाद 

आदरणीय सत्यनारायण जी, संशोधित पंक्तियाँ प्रत्स्थापित हो गयी हैं. 

आदरणीय रमेश कुमारचौहान जी की रचना संकलित हुई है आदरणीय. किन्तु तकनीकी कारणॊं से दीख नहीं रही है. आपको याद हो तो ऐसा पहले भी कई बार हुआ है. यह क्यों होता है यह आजतक मुझे समझ में नहीं आया है. मैं पुनः संकलित रचना को डिलीट कर नये ढंग से पेस्ट करता हूँ. 

अगाह करने के लिए हार्दिक धन्यवाद 

सादर धन्यवाद आदरणीय

मोहतरम जनाब सौरभ साहिब , ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव अंक --67 के त्वरित संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
दोहा -4 के पहले मिसरे को संशोधित करने की ज़हमत कीजिये
" गुल्ली डंडे की नक़ल , है क्रिकेट ही यार "
शुक्रिया

आपकी पंक्ति प्रस्थापित हो गयी आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब 

आप उल्लाला छन्द पर अभ्यास करें. दोहा लिखने वाले को उल्लाला आदि छन्दों में कठिनाई नहीं होनी चाहिए. आपसी हुई चूक विधान पर उपलब्ध आलेख को न पढ़ने के कारण मात्र है. 

शुभेच्छाएँ

श्रद्धेय सौरभ सर सादर वन्दे!छंदोत्सव के सफल संचालन के लिए हार्दिक बधाई!संकलन प्रस्तुति के लिए सादर हार्दिक आभार।
श्रद्धेय सर उल्लाला छ्न्द(द्वितीय प्रस्तुति) के संशोधन का निवेदन प्रेषित है कृपया इसे विस्थापित कर कृतार्थ करें:

करते धरती से रहें,प्यार सदा ही हम सभी
उससे दूरी मत करें,खेल-कार्य सबमें कभी।

मिट्टी में ही खेलते,दुःख व सुख सब झेलतेे
मिलता माँ-सा साथ है,सिर पर जैसे हाथ है।

खेल भूमि से हों जुड़े,दृष्टि नहीं उससे मुड़े
इसे मातु सब मान लें,इसकी महता जान लें।

बचपन का जो खेल हो,घर से बाहर मेल हो
गुल्ली डंडा पास हो,आँख मिचौली ख़ास हो।

खुले-खुले मैदान में,बढ़ें खेल की शान में
खुली हवा का पान हो,पुलकित सबकी जान हो।

पलटन बच्चों की सकल,खूब लगाती है अकल
मेल-जोल बढ़ता सही,राणा ने सच्ची कही।

आदरणीय सतविन्द्र जी, आपकी संशोधित रचना को प्रतिस्थापित कर दिया गया.

 

सादर हार्दिक आभार श्रद्धेय!
गिल्ली-डंडा खेलते बालकों के चित्र पर बहुआयामी दृष्टिकोण व परिकल्पना से चित्र को परिभाषित करते दोहा-छंद व उल्लाला-छंद सृजन करने वाले सभी सहभागी रचनाकारों को व मंच संचालक महोदय को सफल आयोजन व संकलन प्रस्तुति के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद। बहुत मज़ा आया इस बार भी। गिल्ली व डंडा और बालकों के तीन प्रतीकों को लेकर संस्कृति, संस्कार देशवासियों या सरकार, राजनेताओं को निशाना बनाती हुई रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी। यहाँ यह भी कहना चाहता हूँ कि एक और खेल 'खो-खो'.पर चित्र काव्य छंदोत्सव हो सकता है सुझाव प्रस्तुत करता हूँ।

आदरणीय शेख शहज़ाद जी, उत्साहवर्द्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद. 

संकलन में कुछ चूक सी हुई है एक जगह रचनाओं के साथ रचनाकार का नाम नहीं है व अंत में 15 क्रमांक पर केवल नाम है। सादर सूचनार्थ।

इस तरह की परेशानी पहले भी होती रही है. यह तकनीकी दिक्कत है. कई बार कॉपी-पेस्ट को दुबारा करने से अदृश्य हुई रचना दिखने लगती है. कई बार सफलता नहीं भी मिलती. 

// एक जगह रचनाओं के साथ रचनाकार का नाम नहीं है // 

कृपया स्पष्ट करें यह किस क्रमांक के पास है. 

//व अंत में 15 क्रमांक पर केवल नाम है //

आदरणीय रमेश चौहान की रचना को फिर से पेस्ट करने का प्रयास करता हूँ. देखें क्या होता है. 

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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion कामरूप छंद // --सौरभ in the group भारतीय छंद विधान
"सीखे गजल हम, गीत गाए, ओबिओ के साथ। जो भी कमाया, नाम माथे, ओबिओ का हाथ। जो भी सृजन में, भाव आए, ओबिओ…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion वीर छंद या आल्हा छंद in the group भारतीय छंद विधान
"आयोजन कब खुलने वाला, सोच सोच जो रहें अधीर। ढूंढ रहे हम ओबीओ के, कब आयेंगे सारे वीर। अपने तो छंदों…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion उल्लाला छन्द // --सौरभ in the group भारतीय छंद विधान
"तेरह तेरह भार से, बनता जो मकरंद है उसको ही कहते सखा, ये उल्लाला छंद है।"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion शक्ति छन्द के मूलभूत सिद्धांत // --सौरभ in the group भारतीय छंद विधान
"शक्ति छंद विधान से गुजरते हुए- चलो हम बना दें नई रागिनी। सजा दें सुरों से हठी कामिनी।। सुनाएं नई…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Er. Ambarish Srivastava's discussion तोमर छंद in the group भारतीय छंद विधान
"गुरुतोमर छंद के विधान को पढ़ते हुए- रच प्रेम की नव तालिका। बन कृष्ण की गोपालिका।। चल ब्रज सखा के…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion हरिगीतिका छन्द के मूलभूत सिद्धांत // --सौरभ in the group भारतीय छंद विधान
"हरिगीतिका छंद विधान के अनुसार श्रीगीतिका x 4 और हरिगीतिका x 4 के अनुसार एक प्रयास कब से खड़े, हम…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion गीतिका छंद in the group भारतीय छंद विधान
"राम बोलो श्याम बोलो छंद होगा गीतिका। शैव बोलो शक्ति बोलो छंद ऐसी रीति का।। लोग बोलें आप बोलें छंद…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion कुण्डलिया छंद : मूलभूत नियम in the group भारतीय छंद विधान
"दोहे के दो पद लिए, रोला के पद चार। कुंडलिया का छंद तब, पाता है आकार। पाता है आकार, छंद शब्दों में…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion चौपाई : मूलभूत नियम in the group भारतीय छंद विधान
"सोलह सोलह भार जमाते ।चौपाई का छंद बनाते।। त्रिकल त्रिकल का जोड़ मिलाते। दो कल चौकाल साथ बिठाते।। दो…"
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