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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 67 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 19 नवम्बर 2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 67 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.


इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा और उल्लाला छन्द.


वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ

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१. आदरणीय़ मिथिलेश वामनकर जी
दोहा छंद आधारित गीत
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आख़िर इतनी तेज़ क्यों, इस जीवन की रेल
बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल

गिल्ली डंडा तो सखा, बचपन का था प्यार

चकाचौंध के मोह में, क्यों कर ली तकरार

गिल्ली हुई क्रिकेट की, डंडा अफ़सर पास

आँगन सूना कर गए, कम्प्यूटर के दास

कहाँ महकती दूब का, मधुमय वह आह्वान

दीवारों में खो गए,  हरे भरे मैदान  

जीवन में जीवन्तता, थोड़ी किन्तु उड़ेल

बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल ....................... (संशोधित)


अब ना मेरा दाँव है, अब ना तेरा दान
अब तो जिंदा खेल से, बच्चें भी अनजान
मैदानों से आज तो, बचपन हुआ विरक्त
तकनीकी संघर्ष से, बचा कहाँ है वक्त
जीवन गिल्ली क्यों भला, ‘गिच’ में धँसती आज
खुशियों का डंडा हुआ, हंसने से नाराज

ये कैसी रफ़्तार है, कैसी पेलमपेल
बचपन छूटा साथ में, छूटे सारे खेल
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२. आदरणीय समर कबीर जी
दोहे
====
देखा इस तस्वीर को,बचपन आया याद ।
अपना ही ये खेल है,अपनी ही ईजाद।।

फैले दोनों हाथ हैं,लड़का है तैयार ।
गिल्ली उछली तो कहीं,पकड़ न ले इस बार।।

सारी दुनिया भूल के ,बच्चे खेलें खेल ।
उसकी होगी जीत जो,गिल्ली लेगा झेल ।।

दुबला लड़का सोचता,कब आयेगा दाम।
गिल्ली डंडे मे करूँ,मैं भी अपना नाम ।।

गिल्ली पर तुम देखना,इस डंडे की मार।
गिल्ली जायेगी अभी,नदिया के उस पार।।
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३. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
उल्लाला छंद
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गुल्ली डंडा खेलते ,.बच्चे दिखते तीन हैं
अपने ही संसार में ,यह तीनों तल्लीन हैं

नूर खड़ा है झेलने ,मोहन गुल्ली ताकता
डंडा लेकर हाथ मे, किसना दम ख़म मापता

पैरों में चप्पल नहीं ,कपड़े भी बदरंग हैं
मुट्ठी में इनकी जहाँ ,बच्चे मस्त मलंग हैं

खेल कूद तालीम से ,ना कोई भी दूर हो
हर बच्चे को यह मिले ,हो मोहन या नूर हो

हुई सुबह लो आ गए ,बच्चे लेकर टोलियाँ
सीमा के इस गाँव में ,रात चली थी गोलियाँ

साहस डंडा हाथ में ,जीत उसी के साथ में
बाधा गुल्ली कूटता, मुश्किल में ना टूटता

गुल्ली बन पिटती रही ,जनता ही पिसती रही
डंडा जिसके हाथ में ,सिस्टम उसके साथ में
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४. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
उल्लाला छंद [ प्रथम प्रस्तुति ]
=======================
गर्मी की छुट्टी हुई, अब चिंता सारी खतम।
दिन भर खाना खेलना, अब रोज करेंगे उधम॥

गिल्ली डंडा खेल में, दिखते हैं तीनों मगन।
राम लखन तो दाम दे, गिल्ली को मारे जगन॥

ऊपर जब गिल्ली उठे, तब ही तेज प्रहार हो।
मजा खूब है खेल में, जीत मिले या हार हो॥

इसे सैकड़ों साल से, खेलें शहर व गाँव में।
ना कोई गणवेश है, ना जूता है पाँव में॥

पाबंदी ना समय की, ना सीमा मैदान की।
चिंता घास न धूल की, न खेत औ’ खलिहान की॥

माँ की लोरी की तरह, विशेष नियम न रीति है।
गिल्ली डंडा खेल से, आज भी वही प्रीति है॥
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५. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
दोहा-गीत [दोहा छन्द पर आधारित]
=====================
गिल्ली डंडा नाम से, रहा खेल सरनाम 
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

गिल्ली डंडा खेलते, होकर के तल्लीन
दूर गाँव मैदान में, बालक मिलकर तीन
इस मैदानी खेल में,
लगे न कोई दाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

नील गगन सी बाल ने, पहन रखी पतलून
सिर पर जिसके खेल का, देखो चढ़ा जुनून
बहुत सुने इस खेल के,
गुणकारी परिणाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

रंग बाल परिधान का, भूरा ज्यों मैदान ........................(संशोधित )

खडा बाल फैला भुजा, लगा खेल में ध्यान
होता मन एकाग्र औ ....................................          (संशोधित) 
तन का हो व्यायाम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

बाल शर्ट अरु खेत का, इक जैसा है रंग
गिल्ली उड जाए कहाँ, आँक रहा मन दंग
सही आकलन की विधा,
हो विकसित अविराम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...

गिल्ली जैसे खो गया, बचपन अपना ख़ास
बाल दिवस पर खोजने, का हम करें प्रयास
जगे खेल रूचि बाल मन,
ऐसा हो शुभ काम
आखिर फिर क्यों देश से,
हुआ खेल गुमनाम...
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६. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
गीत
=====
बचपन है मस्ती भरा,चिन्ता जाते भूल
हर तन पर लिपटी रहे,भले सदा ही धूल।

छोटे-छोटे खेल में,मग्न रहे हैं मन सदा
खेल-खेल कर दिन कटे,थकता क्या कोई कदा?
मिट्टी,लकड़ी ही रहे,अपना तो सामान ये
इन सब से हम खेलते,सुनो लगाकर कान ये।

रज में भी खिलता रहे,बालकपन का फूल।

गिल्ली-डंडा खेलते,जो सस्ता-सा खेल है

दल अपने हम बाँटते,फिर भी सब में मेल है

कोई दल है जीतता,मिली किसी को हार है
झगड़ा थोड़ा हो मगर,रहता फिर भी प्यार है।

बच्चे देते कब कभी,किसी बात को तूल?

बड़े बड़प्पन भूलकर,अपना आपा खो रहे
बीज छोड़ सब प्रेम के,केवल नफरत बो रहे
छोटी-मोटी बात पर,कहते घटिया बोल हैं
आपस में लड़-लड़ मरें,लेते झगड़े मोल हैं।

ऐसी आदत का कभी, नहीं मिला है कूल।

बचपन तो भोला-भला,आता सबको याद है
जीवन बचपन-सा कटे,सबकी यह फरियाद है
हृदय सुकोमल-सा रहे,केवल सच को जानता
सभी बड़ों की बात ज्यों,बच्चा दिल से मानता

दिल में रखना पुष्प ही,रहे न कोई शूल।

द्वितीय प्रस्तुति
उल्लाला छ्न्द
===========

करते धरती से रहें,प्यार सदा ही हम सभी
उससे दूरी मत करें,खेल-कार्य सबमें कभी।

मिट्टी में ही खेलते,दुःख व सुख सब झेलतेे
मिलता माँ-सा साथ है,सिर पर जैसे हाथ है।

खेल भूमि से हों जुड़े,दृष्टि नहीं उससे मुड़े
इसे मातु सब मान लें,इसकी महता जान लें।

बचपन का जो खेल हो,घर से बाहर मेल हो
गुल्ली डंडा पास हो,आँख मिचौली ख़ास हो।

खुले-खुले मैदान में,बढ़ें खेल की शान में
खुली हवा का पान हो,पुलकित सबकी जान हो।

पलटन बच्चों की सकल,खूब लगाती है अकल
मेल-जोल बढ़ता सही,राणा ने सच्ची कही।

(संशोधित)

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७. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(1) दोहा छन्द
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(१ ) हमने जीवन भर सदा ,खेले अपने खेल
गुल्ली डंडे से भला ,क्या क्रिकेट का मेल
(२ ) गुल्ली डंडे से अधिक ,आवश्यक है काम
लगते हैं वालिद थके ,दे इनको आराम
(३ ) खेतों में भी काम कर ,बन पापा का हाथ
गुल्ली डंडा खेल के , दे उनका तू साथ
(४ ) गुल्ली डंडे की नक़ल , है क्रिकेट ही यार ......................  (संशोधित)
अँग्रेज़ों का खेल अब ,कहे जिसे संसार
(५ ) गुल्ली डंडा खेल के ,वक़्त न कर बर्बाद
सबक़ हमें कॉलेज का ,भी करना है याद
(६ ) गुल्ली डंडा से फक़त ,नहीं चलेगा काम
क्रिकेट को भी खेल तू ,गर चाहे कुछ नाम

(2 ) उल्लाला छन्द
-------------------
(१ ) गुल्ली ऊपर उठ गयी ,तू जल्दी डंडा मार
इसे पकड़ने के लिए ,दो बच्चे हैं तैयार
(२ ) बच्चों देखो खेल में ,तुम यह मत जाना भूल
जाना है फिर कल सुबह ,तुमको भी देखो स्कूल
(३ ) बने खिलाड़ी किस तरह ,साधन है किस के पास
गावों के बच्चे हुए ,यूँ ही तो नहीं उदास
(४) जल्दी बाज़ी ख़त्म कर ,तू मान हमारी बात
ढलता सूरज कह रहा ,होने वाली है रात
(५ ) हमने इस तस्वीर पर ,जब किया देख कर गौर
याद आ गया दोस्तों ,हम को बचपन का दौर
(६ ) खेलें क्रिकेट किस तरह ,है नहीं जेब में दाम
इसी लिए हमने लिया ,गुल्ली डंडे से काम 

द्वितीय प्रस्तुति
(उल्लाला छन्द )
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(१ ) जल्दी डंडा मार तू ,गुल्ली उठी है ऊपर
बच्चों पर भी रख नज़र ,पकड़ न लें कहीं बढ़ कर
(२ ) बहुत हो चुका खेल अब ,सिर्फ़ है यह समझाना
भूल न जाना कल सुबह ,तुमको स्कूल है जाना
(३ ) बनें खिलाड़ी किस तरह ,नहीं हैं साधन अच्छे
यूँ ही तो मुज़तर नहीं ,गॉव के मुफ़लिस बच्चे
(४ ) बाज़ी जल्दी ख़त्म कर ,फिर कल यहीं है आना
होने वाली रात है ,लौट के घर है जाना
(५ ) हमने इस तस्वीर को ,गौर से जिस दम देखा
याद आ गया दोस्तों, दौर हमको बचपन का
(६ ) क्रिकेट का तो शौक़ है ,लेकिन पास है कब ज़र
गुल्ली डंडे से न यूँ , लेता काम मैं अक्सर
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८. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी
उल्लाला छंद .
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जितना सुंदर बालपन, उतना सुंदर ये वतन |
बच्चों में जो मेल है , उससे ही हर खेल है ||

खेतों को मैदान कर, तज कर सारी फ़िक्र डर |

खेल रहे शिशु तीन ये , पगडंडी तक आ गये ||........   (संशोधित)

बचपन के क्या मायने, देखो शिशु माटी सने |................ (संशोधित)

गिल्ली डंडा खेलते , इक मारे दो झेलते ||.........



बदल गए हैं गाँव अब, यादों के हैं चित्र सब |
गिल्ली डंडा हो जहाँ , अब वो पगडंडी कहाँ ||

इस पीढ़ी की भूल से, बच्चे वंचित मूल से |
अब तो हैं बस नाम के, खेल सभी व्यायाम के ||
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९. आदरणीया राजेश कुमारी जी
उल्लाला छंद
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नील गगन की छाँव में, बचपन हँसता गाँव में|
आम,नीम पर झूलता, क्रोध कष्ट को भूलता||

कभी गाँव या खेत में ,माटी में या रेत में|
मिलकर खेलें साथ में ,डाल हाथ को हाथ में||

डरें न माटी धूल से ,वन उपवन के फूल से|
खुली हवा में घूमते ,धरती माँ को चूमते||

तीन खिलाड़ी व्यस्त हैं ,अपनी धुन में मस्त हैं|
धूप पसीना झेलते ,गुल्ली डंडा खेलते||

अलग धर्म के नूर हैं,भेदभाव से दूर हैं|
मुख पर कोई छल नहीं,पैरों में चप्पल नहीं||

कहाँ कान की पत्तियाँ ,कहाँ कबड्डी गिट्टियाँ|
पहली सी कसरत नहीं , चैटिंग से फुर्सत नहीं||

ढूँढ रहा मानव यहाँ , खोया बचपन है कहाँ|
उलझ गया जो नेट में, मूवी गेम, क्रिकेट में||
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१०. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
गीत रचना (उल्लाला छंद में)
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धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते 


हरी भरी जब छाँव हो, या अपना ही गाँव हो,
धरती माँ की गोद में, खेले सभी विनोद में |
रहें जीत की कामना, ह्रदय खेल की भावना,

गुल्ली डंडा खेलते, कभी चोट भी झेलते |
धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते

मन में रख विश्वास जो, होते नहीं हताश वो,
रहे खेल की भावना, ह्रदय जीत की भावना |
प्यार झलकता खेल में, सब बच्चो के मेल में,

धूप पसीना झेलते, दण्ड बैठकें पेलते ................................. (संशोधित)

धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते

धर्म जाति अदृश्य हो, सद्भावों. का दृश्य हो .......................... (संशोधित)
वैर भाव रखते नहीं, मिले हार जलते नहीं |
भेद न राम रहीम में, सक्षम और यतीम में,


हार सभी स्वीकारते, गुस्सा नहीं उढ़ेलते
धर्म जाति को भूलते, सभी साथ में खेलते
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११. आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी
दोहा छन्द (प्रथम प्रस्तुति)
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खेल बहुत संसार में, सबकी अपनी बात।
देते सबको देखिये, गिल्ली डंडा मात।।

 

ये मनभावन खेल है, गिल्ली डंडा नाम।
गोल्फ गरीबों का यही, कौड़ी लगे न दाम।2।

नहीं रहे मैदान वो, नहीं रहा वो मेल।
बच्चे घर में कैद हैं, जैसे काटें जेल।3।

गिल्ली डंडा ना रहे, चले गए वो खेल।
बचपन छिनता जा रहा, होती धक्का पेल।4।

गिल्ली डंडा की जगह, आए विडियो गेम।
आँखों पर ऐनक लगी, मन में रहा न प्रेम।5।

ऊँच नीच के भेद को, जानें ना ये बाल। 

गिल्ली घूमे है गगन, रहता यही खयाल।

बाल मगन हैं खेल में, हरे भरे हैं खेत।

गिल्ली ऐसे उड़ रही, उड़ती जैसे रेत।।

द्वितीय प्रस्तुति
उल्लाला छन्द
==========
गोधूली का वक्त है, सूरज अपने घर चला।
रलमिल खेलें बाल ये, गिल्ली डंडे की कला।।

कितना सुन्दर खेल है, नमक लगे ना तेल है।
झूम रहे ये फूल हैं, मस्ती में मशगूल हैं।।

वही देख लो खेल भी, वही देख लो मेल भी।

चमकी अंचल की धरा, कण-कण खुशियों से भरा।

गिल्ली डंडा खेल में, खूब मचाते शोर थे।

खेल-खेल में मस्त हो, खोते अपने ढोर थे।

हरियाली थी खेत में, बीता बचपन रेत में।
गिल्ली डंडा यार वो, देते कितना प्यार वो।।

नहीं माप मैदान का, नहीं खास परिधान है।
नग्न पैर भी खेलते, गिल्ली डंडा शान है।।

(संशोधित)
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१२. आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी
दोहे
====
गिल्ली डंडा खेलते, हारे या हो जीत।
यारों इनके शौक़ से, बढ़े परस्पर प्रीत।।

देशी खेल लुभावने, मित्रता की पहचान।
बच्चे अपने दौर के, हैं इससे अनजान।।

खिलता बचपन खेल में, खूब बरसता प्यार।
कभी लड़ाई हो गई, कभी मान-मनुहार।।

खेल है यह स्वदेश का, अपनी ये पहचान।
बच्चे-जवान खेलते, समझे अपनी शान।।

उछली गिल्ली जो वहाँ, बच्चे करते शोर।
संगी साथी दौड़ते, मैदानों की ओर।।
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१३. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
दोहे
====
उस झाड़ी में है छिपा एक भयंकर नाग
जिह्वा से जो उगलता क्रुद्ध दहकती आग

सांस रोक वह छोड़ता जहरीली फुत्कार
आँखे ऐसी लाल हैं मानो है अंगार

दृश्य भयावह है बड़ा बालक है सुकुमार
सबके अंतस में धंसा दारुण हाहाकार

दो बालक उद्विग्न हैं एक खडा है शांत
बाहर से अविकार है भीतर से उद्भ्रांत

देखेंगे यदि दूर से यह अद्भुत रोमांच
आयेगी बिलकुल नहीं कभी किसी को आंच

मानव करते हैं नहीं विषधर पर विश्वास
पर वह डसता है तभी जब संकट हो ख़ास

जितना रहता है मनुज सर्पों के प्रति शंक
उतना ही है सर्प पर मानव का आतंक

उल्लाला
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दूर गाँव की राह में .बच्चे है उत्साह में
एक शांत निश्छल खड़ा दूजा विस्मय में पड़ा :
उसे पकड़ना है अभी घात लगाये है सभी
मृग, शश अथच चकोर है पारावत या मोर है

मन में है उत्सव भरा गिल्ली डंडा खेलते
बाधा जो भी खेल की अपने सर पर झेलते
शॉट मारते है कभी कभी पकड़ते कैच हैं
कभी हार से क्षुब्ध हैं भी जीतते मैच है

या फायर क्रैकर खेलते बालक ये सुकुमार सब
क्या दीप पर्व की सांझ है मन में आता भाव अब
हां आग लग गयी है भली फूट जायगा अभी बम
तब और दगाएंगे सखे हम किससे हैं भला कम
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१४. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी
दोहे
====
गिल्ली डंडा खेलते, बच्चे धुन में मस्त।
दुनिया की ना फिक्र है, होय कभी ना पस्त।।

भेद नहीं है जात का, करे भेद ना रंग।
ऊँच नीच मन में नहीं, बच्चे खेले संग।।

आस पास को भूल के, खेले हो तल्लीन।
बड़ा नहीं कोई यहाँ, ना ही कोई हीन।।

छोड़ मशीनी जिंदगी, बच्चे सबके साथ।
हँसते गाते खेलते, घाल गले में बाथ।।

खुले खेत फैले यहाँ, नील गगन की छाँव।
मस्ती में बालक जहाँ, खेलें नंगे पाँव।।

शहरों का ना शोरगुल, नहीं प्रदूषण आग।
लेवें जो ये मस्तियाँ, उनके खुलते भाग।।
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१५. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी

//उल्लाला छंद//

गिल्ली डण्ड़ा खेलते, मिलकर बच्चे साथ में ।

गिल्ली को उछाल रहे, डण्ड़ा लेकर हाथ में ।।

गांव-गली का खेल यह, मिले नहीं परदेश में ।

कल की यह गौरव कथा, कहते भारत देश में ।।

स्वस्थ रखे यह स्वास्थ को, भरे ताजगी श्वास में ।

खेलो मिट्टी धूल में, चाहे खेलो घास में ।।

बंधन इसमें है नही, चाहें जितना खेल लें ।

गोला घेरा खींच कर, गिल्ली जरा धकेल लें ।।

डंठल लेकर पेड़ का, गिल्ली-डंडा काट लो ।

बच्चों का टोली खड़ा, अपना साथी छांट लो ।।

मुफ्त-मुफ्त का खेल यह, खेलो चाहे बाट में ।

खेत-खार गौठान में, चाहे खाली प्लाट में ।।

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Replies to This Discussion

"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 67 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन हेतु हार्दिक बधाई एवं सादर आभार आदरणीय  

         

आपसे अनुरोध  है कि   निम्न संशोधित पंक्तियाँ सही और शुद्ध हो तो, मूल से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।

धूप पसीना झेलते, दण्ड-बैठक जब पेलते - की जगह - धूप पसीना झेलते, दण्ड बैठकें पेलते |

जात-पात अद्रश्य हो, सद्भावों का द्रश्य हो - की जगह - धर्म जाति अद्रश्य हो, सद्भावों. का दृश्य हो 

 सादर !

’अद्रश्य’ शब्द शुद्ध रूप में वस्तुतः ’अदृश्य’ है. जब आपने ’दृश्य’ लिख लिया, तो ’अदृश्य’ को ’अद्रश्य’ क्यों कर दिया, आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी ? 

जी जी |

जाति धर्मं अदृश्य हो, सद्भावों. का दृश्य हो, - प्रस्थापित कर कृतार्थ करे | आदरणीय  

हो गया आदरणीय ... :-) 

आप इन सभी विन्दुओं के प्रति सतर्क और जागरुक हों, आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी. तभी आप नये सदस्यों को कई बारीकियाँ समझा पायेंगे. यह अब अधिक आवश्यक है.

सादर

 

जी | पूरा प्रयास रहेगा | सादर 

जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,आयोजन 67 की कामयाबी की मुबारकबाद वुबुल फरमाएं ।
आपका मैसेज देर से देखा,क्षमा चाहता हूँ,आयोजन में सिर्फ़ तस्वीर देख कर ही रह गया,क्योंकि उल्लाला छन्द के बारे में सोचा ही नहीं था इसलिए लिंक नहीं देख सका, पहले से ही दिमाग़ बन गया था कि दोहे में ही रचना लिखनी है इसलिए इत्मीनान था,अब विधान ध्यान पूर्वक पढूँगा इसका वादा है ।

आदरणीय समर साहब, आपने अगर ग़ौर किया हो तो पायेंगे कि कई महीनों से दोहा छन्द को नहीं हटाया गया है. कारण कि पूर्व में कुछ सदस्य अति उत्साह में संकल्प तो ले कर बहुत कुछ बोल गये थे, कि, छन्द पर अब ये, वो, या, पता नहीं क्या-क्या ! लेकिन उन सभी के संकल्प नये साल के पहले दिन के ख़ुमार के संकल्प ही साबित हुए. वे अब छन्दोत्सव में आते भी नहीं. कारण तो आप समझते ही हैं. फिर भी हम इसी आशा में कि कुछ अभ्यासी सदस्य लगातार अभ्यास करें तो उन्हें सहुलियत होगी, दोहा को दुहराये जा रहे हैं. इसका लाभ भी मिला है. आप जैसे छन्दकार मंच को मिले हैं.

इस छन्द के साथ का जो दूसरा छन्द होता है वह भी अनायास नहीं हुआ करता. किसी न किसी रूप में थोड़े फेर-बदल के साथ वह भी दोहा छन्द के विधान से मिलता-जुलता होता है. ताकि कोई नया किन्तु जागरुक सदस्य चाहे तो उस पर भी अभ्यास करे. चाहे वह रोला हो, या कुण्डलिया या कोई और छन्द. या फिर लावणी छन्द की श्रेणी के ताटंक या कुकुभ को लिया गया. ताकि तनिक सा फेर बदल अधिक परेशानी का सबब न बने. 

विश्वास है, आप जैसे सुधी सदस्य इस प्रयास और प्रबन्ध पर ध्यान देंगे. 

थोड़े भी कठिन छन्दों को सम्मिलित करने का अभी तो सवाल ही नहीं उठता. 

सादर

जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब,पहले मैं छन्दों को वाक़ई हौआ समझता था लेकिन ओबीओ से जुड़ने के बाद मेरी राय बदल गई और मुझे लगा कि ये तो बहुत आसानी से थोड़े अभ्यास के बाद लिखे जा सकते हैं,और फिर आपने हर क़दम पर मेरी और मेरे जैसे अभ्यासियों की सहायता की ये भूलने वाली बात नहीं है,मैं छन्दों को लेकर आजकल बहुत गंभीर हूँ और हर दिन इसके बारे में जहां से भी जो भी मालूमात हासिल होती है उसे हासिल करता रहता हूँ,इस कोशिश में जनाब अशोक रक्ताले सहिब को फोन कर कर के परेशान करता हूँ,वो मेरी पूरी सहायता करते हैं,मेँ उनका भी शुक्रगुज़ार हूँ,जनाब रामबली गुप्ता जी भी इस मुआमले में मेरी मदद करते रहते हैं,और आप तो हैं ही ।
मैं देख रहा हूँ कि इन दिनों बहुत से सदस्य छन्दों पर अभ्यासरत हैं,ये बहुत सुखद पहलू है,ज़बानी जमा ख़र्च करने वाले तो आपके कहे अनुसार अपनी दुकान बढ़ा कर जा भी चुके,इंशा अल्लाह धीरे धीरे सभी छन्दों पर अभ्यास ज़रूर करूँगा,ग़ज़ल के प्रति मेरी रुची आजकल सिर्फ़ तरही मुशायरे तक ही महदूद है, आप इसी तरह दोहा छन्द को चित्र से काव्य आयोजन में जारी रखें और उल्लाला छन्द की तरह कोई दूसरा ऐसा ही आसान छन्द उसके साथ रखें जैसा कि आप करते भी हैं । धन्यवाद

आदरणीय समर साहब, ग़ज़लों के साथ-साथ छन्दों पर भी आपकी जिज्ञासा और उत्सुकता मुझे ओबीओ के उन दिनों की याद करा रही है, जब आप जैसे ही सभी सदस्य करीब-करीब सभी विधाओं में रुचि लिया करते थे और उसी अनुरूप गहन अभ्यास भी किया करते थे. उन्हीं दिनों का सुखद परिणाम है कि आज हिन्दी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में ओबीओ से सीखे हुए लोगों की बड़ी जमात कार्यरत है. भले ही वे आज वे इस मंच पर उपस्थित हों या न हों.

आदरणीय अशोक रक्ताले साहब एक सुलझे हुए रचनाकार हैं. और, यह उनकी लगन, इस मंच के साथ उनकी संलग्नता और उनका समर्पण ही है कि आज वे इस दम के साथ छान्दसिक रचनाकर्म करते हैं. वे आपके  मददग़ार हैं, यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई है. भाई रामबली जी स्वयं एक अभ्यासी हैं. फिर भी उन्हें हमने शायद ही आयोजनों में मैंने देखा है. 

सादर

ओबीओ का वो सुनहरा दौर वापस आ सकता है,लेकिन शर्त ये है कि हमें इसके लिये समय की क़ुर्बानी देनी होगी,उस समय ओबीओ पर विद्वानों का जमघट हुआ करता था जो आज नज़र नहीं आता,ब्लाग्स पर रचनाओं पर दो दो तीन तीन दिन कोई अपनी प्रतिक्रया ही नहीं देता,सब अपनी मसरूफ़ियत की बात करते हैं,ख़ुदा का शुक्र है कि आयोजनों में सदस्य रूचि लेते हैं,लेकिन उसमें भी जहाँ 90 पेज होते थे अब 50 बड़ी मुश्किल से होते हैं,पहले की तरह अगर सभी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर मंच को अपना समय दें तो वो दौर फिर से वापस आ सकता है,इस नुक्ते पर सोचने की ज़रूरत है ।
जनाब रामबली गुप्ता जी भले ही छन्दों के अभ्यासी हैं,लेकिन छन्दों में मेरे सीनियर हैं,और में सीनियर का बड़ा एहतराम करता हूँ,ये अलग बात कि वो आयोजन में नहीं आते लेकिन छन्दों पर अभ्यास ख़ूब करते हैं,कोशिश करूँगा कि वो आयोजन में भी शामिल हों ।

क्या समझते हैं, आदरणीय हमने समय यों ही देना बन्द किया है ? मसरूफ़ियत अपनी जगह है. एक सीमा के आगे जा कर हम उपस्थिति बनाते रहे हैं.

अभी के सदस्यों में.. खैर छोड़िए. जब मुफ़्त की वाह-वाही का चस्का लग जाय, तो वह मेहनत से किनारा करने को उत्प्रेरित करता है. बात यहाँ है. सुनना कोई नहीं चाहता.  

हमारे कई सदस्यों को अपनी भाषा तक पर ध्यान देना है. भाव-भावनाओं पर तमाम बातें तो बाद की हैं. लेकिन मज़ा ये है कि उनकी न केवल किताबें आ रही हैं, आये दिन जिस-तिस मंच से उनका सम्मान होता रहता है. ऐसे में किसी को क्या आवश्यकता है अध्ययन और विधान पर सिर खपाने की ? कुछ कह-समझा दीजिए तो बड़ा नागवार गुजरता है. अब तो गुजरेगा ही. उस पर, विधा विशेष पर लोग यों तल्लीन होने लगे हैं गोया किसी और विधा पर कलम चल गयी तो लाहौलबिलाकुव्वत का फिकरा सुनने को मिल जायेगा.

चलिए आदरणीय, आप सचेत है. जागरुक हैं. यही उम्मीद है. 

:-))

आगे देखा जाय.

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