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आदाब। विषयांतर्गत बेहतरीन व उम्दा प्रभावशाली रचना संवादात्मक शैली में। बहुत ख़ूब। हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। वो दो/वे दो?
आ. प्रतिभा बहन , सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
भावपूर्ण संवाद शैली में सुन्दर रचना,बहुत-बहुत बधाई आदरणीया प्रतिभा जी।
चैन-स्नेचर्ज़ (लघुकथा) :
सब अपने सपनों और अपनों के ही पीछे दौड़ रहे थे। कलयुग के घोर अँधकारमय अँधेर नगरी चौपट राजा शासनकालीन चित्रण करती बेहद डरावनी फ़िल्म के क्लाइमेक्स वाले चरण माफ़िक परिदृश्यों में कोरोना भी अपने वंश के साथ प्रतियोगिता में था। उसको मात देने वाले विद्वान, यौद्धा और तकनीकें भी। जीत और हार में भी कशमकश थी। जद्दोजहद सब के साथ थी। राजनीति और उद्योग अवसर में आपदा पैदा करने और आपदा में अवसर खोजने और पकड़ने में जुटे हुए थे। यक़ीनन काफ़ी सफल भी हो रहे थे हमेशा की तरह मुल्क, मिल्कियत, विरासत, ताक़त, स्वयं की हिफ़ाज़त, बग़ावत, अदावत, शरारत, ख़िलाफ़त, विद्रोह, नौकरशाही, तानाशाही, तुष्टिकरण अर्थात सबके साथ, सबके विकास के साथ।
ईमानदारी, देशभक्ति, प्रकृति-भक्ति और मानवता आदि को तो बस यही लग रहा था कि दौड़ में वे थक कर हार रहे हैं और शेष सभी प्रतियोगी व विरोधी चैन-स्नेचर्ज़ ही साबित हो रहे थे। योग, ध्यान, धर्म-आध्यात्म आँखें फाड़े चैन-स्नेचर्ज़ की क़ामयाबियों पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मूक दर्शक रह गये थे या बली के बकरे औद्योगिकीकरण की आँधी में।
(मौलिक व अप्रकाशित)
आ. भाई शेख शहजाज जी, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदाब। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी।
उम्दा रचना। बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय शेख सरजी।
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया बबीता गुप्ता जी।
प्रदत्त विषयांतर्गत पहले मैंने एक अन्य लघुकथा भी लिखी थी जो फेसबुक की एक चित्राधारित प्रतियोगिता में पोस्ट की गई थी। (मेरे अपने और सपने)। आशा है कि उसे भी पढ़कर उस पर भी प्रतिक्रियायें मिल सकेंगी। सादर।
वह तब से भाग रहा है;कभी पेट की खातिर,तो कभी इज्जत की खातिर।जाने कब तक भागेगा,पता नहीं।भरे पूरे घर के लोग यही चर्चा कर रहे हैं। वह भागता भागता अकस्मात उनके सामने आ जाता है।लोग रास्ता देने लगते हैं,पर वह ठहर जाता है।
' क्यों भई?आगे बढ़ जा।।' एक व्यक्ति बोला।
'आगे कोई राह कहां है?' उसने कहा।
'क्यों?रास्ता तो सीधा दिखता है।जा बढ़ जा।'दूसरे ने चौड़े होते रास्ते की तरफ इशारा किया।
'नहीं,यह चौड़ा दिखता रास्ता आगे बहुत संकरा है भाई। जाकर लौटा हूं।भूल भुलैया है सब।'भागकर आया हुआ व्यक्ति बोला।
'तो फिर?'एक तीसरे भरे पूरे ने चुस्की ली।
'अब मांगते खाते थक गया हूं।अब हाथ पैर चलाना चाहता हूं।काम मांगूंगा,खाना नहीं।'उसने कहा।
'हाहहा! हाहहा!!'भरे पूरे लोग ठठाकर हंसे।उनमें से एक ने फब्ती कसी,
'तब से वोट तो से ही रहे हो न? देते रहो।''
"मौलिक तथा अप्रकाशित"
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
सादर नमस्कार। वाह । /'तब से वोट तो दे (से) ही रहे हो न? देते रहो।''// बहुत बढ़िया कटाक्ष। कड़वा सच। हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। शीर्षक देना आप भूल गये हैं। शीर्षक सुझाव - /ख़ातिर/
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