परम आत्मीय स्वजन
76वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|
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Mohd Nayab
वो अपनी आंखों में है कोई ख्वाब पहने हुए
मेरी नजर में है वो इजतराब पहने हुए
जो अब फकीर की सूरत में एक फरिश्ता है
लिबास इतना है वो क्यूँ ख़राब पहने हुए
कभी हैं पाँव में बेंडी कभी हैं हाथ में शूल
वही तो आज भी है इंकलाब पहने हुए
न जाने कौन है ग़ुज़रा ये दिल की बस्ती से
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए"
उसी की देखिए दुनिया में अज़मत है
जो सर से पाव तलक है हिजाब पहने हुए
हरी हरी हैं बहुत चूड़ियां लिबास के साथ
जो लग रही है हमें लाजवाब पहने हुए
खुदा का शुक्र है वो आज हैं गुहर 'नायाब'
जो मेरे यार ने हैं बेहिसाब पहने हुए
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दिनेश कुमार
मिलन की रात के आँखों में ख़्वाब पहने हुए
भटक रही है जवानी शबाब पहने हुए
खिले हैं फूल मगर, उनमें रंग-ओ-बू ही नहीं
बहार आई है अब के अज़ाब पहने हुए
चमकती रेत पे सागर के अक़्स दिखते हैं
पड़े हैं सदियों से सहरा सराब पहने हुए
ये देखना है कि क्या इन्क़िलाब आएगा
घरों से लोग हैं निकले इताब पहने हुए
मेरी क़मीज़ से क्यों है सफ़ेद उसकी क़मीज़
हसद के मारे हैं सब, इज़्तिराब पहने हुए
ग़रूर बन ही गया उसकी सोच का पैकर
वो ओहदा साथ लिए था ख़िताब पहने हुए
लिफ़ाफा देख के मज़्मून भांप लूँगा मैं
भले हों लफ़्ज़ तुम्हारे नक़ाब पहने हुए
दुकान ऊँची है, पकवान की तसल्ली क्या
तमाम काँटे भी अब हैं गुलाब पहने हुए
फ़लक से उतरी है महफ़िल में आज मेरी ग़ज़ल
" सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए "
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ashfaq rasheed
हमारे वास्ते फ़र्ज़ी नक़ाब पहने हुऐ।
भटकता फिरता है सहरा सराब पहने हुऐ।।
वो मेरे दिल की इसी कहकशां में रहता है।
सितारे ओढ़े हुवे माहताब पहने हुऐ।।
तेरे करम की हो बारिश तो गर्द छंट जाये।
कई दिनों से पड़े हैं तुराब पहने हुए।।
हर एक दौर में ज़ुल्मत का सर कुचलने को।
हमें निकलना पड़ा आफ़ताब पहने हुऐ।।
कोई भी आये , करे इश्क़ पे बहस मुझ से।
दीवाना घूम रहा है , जवाब पहने हुऐ।।
किसी नजूमी ने इक रोज़ था कहा हम से।
कटेगी उम्र तुम्हारी भी ख्वाब पहने हुऐ।।
अजीब बात है काँटों की शान में अशफ़ाक़।
किसी ने खूब लिखा है गुलाब पहने हुवे।।
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Samar kabeer
बदन पे अपने अज़ाब-ओ-सवाब पहने हुए
मिलेंगे हश्र में सारे हिसाब पहने हुए
दिखाई देते हैं शैतान के पुजारी सब
अदालतों में मुक़द्दस किताब पहने हुए
भले बुरे में बता किस तरह तमीज़ करें
जिधर भी देखिये सब हैं निक़ाब पहने हुए
सुना है उनकी कहानी का ये हुवा अंजाम
वो दोनों सो गये इक दिन चिनाब पहने हुए
ग़रीब लोगों के तन पर तो चीथड़े भी नहीं
उधर हैं रेशमी कपड़े किलाब पहने हुए
तमाम उम्र गुज़ारी थी जिस ने काटों पर
जनाज़ा निकला है उसका गुलाब पहने हुए
न जाने कितने बरस बाद वो मिला मुझको
उदास आँखों में बोसीदा ख़्वाब पहने हुए
मुझे वो ख़्वाब में अक्सर दिखाई देता है
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए"
ज़हे नसीब "समर" आज मेरी हालत पर
किसी की आँखों के ख़ंजर हैं आब पहने हुए
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ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi)
ये फूल ख़ार की सूरत इताब पहने हुए
हों जैसे ज़ख्म मेरे इजतराब पहने हुए
जो कल था हार की सूरत गुलाब पहने हुए
वही है आज भी खाना खराब पहने हुए
नज़र उठा के न देखा उसे किसी सूरत
वो जब भी आया नज़र थी हिजाब पहने हुए
फ़लक़ से चांद सितारे जमीन से कुछ फूल
वो देखो आये हैं क्या क्या जनाब पहने हुए
वो कोई शाह-ओ-कलंदर था या मेरा हमदम
जो कल भी आया था आंखों में ख्वाब पहने हुए
ये कौन आया अंधेरे में रोशनी लेकर
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए"
निखार आयेगा हर फूल पर तेरे 'गुलशन'
कली कली है बहारों के ख्वाब पहने हुए
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गिरिराज भंडारी
कभी तो अब्र मिलें सच के आब पहने हुये
गुज़र न जायें कहीं फिर सराब पहने हुये
पलक झपक भी न पाये, गुज़र गया कोई
ये ज़िन्दगी भी मिली तो हबाब पहने हुये
वही घुटन , वही तारी उमस फज़ाओं में
कहीं हुई न सहर फिर गुलाब पहने हुये
वो दिन गये कि जगाने को सुबह आती थी
उफक से रोज़ घरों तक रबाब पहने हुये
चली गईं मेरी नीन्दें उदास कर के मुझे
सुकूत ओढ़े हुये और ख़्वाब पहने हुये
बरस न जाये कभी सोई आग अंदर की
जमाना गुज़रा है हमको इताब पहने हुये
जमाने भर का पी के ज़ह्र लफ़्ज़ निकले हैं
बयाँ करें भी वो कैसे हिजाब पहने हुये
हटी न तीरगी, वैसे तो रात आयी थी
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए "
हज़ार आँखें सवालों से घिर गईं यारों
हुआ मैं जब भी मुकाबिल जवाब पहने हुये
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HAFIZ MASOOD MAHMUDABADI
किताबे जीस्त का हर एक बाब पहने हुए
सवाल आया है खुद ही जवाब पहने हुए
फ़ज़ा-ए-बज़्म नहाई हुई है खुशबू में
गजल सरा है वो जैसे गुलाब पहने हुए
हया परस्तों की आंखें झुकी हैं हैरत से
लिबास आए हैं ऐसा जनाब पहने हुए
किसी के बारे में मुम्किन नहीं वह सोचेगा
जो घूमता है हवस का नक़ाब पहने हुए
चमक रहा है कोई रोज़ ख़ान-ए-दिल में
किताबे हुस्न का तन पर निसाब पहने हुए
हमारी नजरें किसी और सम्त कैसे उठें
करीब बैठा है कोई शबाब पहने हुए
यह कौन गुजरा है 'मसऊद' सहने-दिल से मेरे
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए"
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सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'
यहा पे हर कोई मिलता सराब पहने हुए।
भला कहें तो किसे सब नकाब पहने हुए।।
तमाम उम्र बिताई चमन में ख़ार के संग,
कफ़न मिला है मगर सद गुलाब पहने हुए।।
सुना बहुत था जमाले जलाल उनका पर,
नज़र मुझे भी वो आये हिजाब पहने हुए।।
जो वायदे से मुकरते रहे हमेशा ही,
वो वोट माँगते सत्ता का ख्वाब पहने हुए।।
अजीब दौर है पहचानता नहीं बेटा,
अगर हो बाप ने कपडे खराब पहने हुए।।
हो आरती तो दिखे यूँ भगीरथी, गोया
*सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।।*
जवाब भी तुम्हे देना पड़ेगा हश्र में नाथ,
खड़े रहेंगे सभी वाँ हिसाब पहने हुए।।
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Kalipad Prasad Mandal
बदन छुपा लिया पूरा नकाब पहने हुए
कभी चमकते हुए आबताब पहने हुए |
निकलती हैं सभी शर्मों हया बचा बचा कर
शबाब ढकते हुए औ नकाब पहने हुए |
निशा सजायी है महफ़िल ले साथ चाँद गगन
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए |
कभी कभी तू खयालों में यूँ खो जाती सनम
लगे तेरी भरी आँखें सराब पहने हुए |
अदालतों में भी उनके अलग समूह वहाँ
वकील सारे नियत कीमखाब पहने हुए
प्रवेश करते सभी स्वर्ग जो सुकर्म किये
सुकर्म पुण्य शकल कीमखाब पहने हुए
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Tasdiq Ahmed Khan
मिले हसीं हमें जो भी शबाब पहने हुए ।
वो निकले रुख पे फरेबी हिजाब पहने हुए ।
खड़ा था आँख में मिलने का ख़्वाब पहने हुए ।
मगर गुज़र गया कोई निक़ाब पहने हुए ।
चराग़ जलने की जुरअत करें तो कैसे करें
खड़े हैं राह में वो आफ़ताब पहने हुए ।
जुबां भी किस की भला उनके सामने खुलती
ख़मोश लोग थे लब पर जवाब पहने हुए ।
उसी के नक़्शे क़दम पर हमें मिली मंज़िल
जो रह पे बैठा था कपड़े ख़राब पहने हुए ।
गुमान होता है यह देख कर लबे शीरीं
वो आज आये हैं रंगे गुलाब पहने हुए ।
निगाहे बद से बचाना खुदा वो निकले हैं
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए ।
हुई न ख़त्म अभी आजमाइशे उल्फ़त
मैं कैसे निकलूं फ़रेबी ख़िताब पहने हुए ।
हसीन चेहरे पे बिखरी हैं इस तरह ज़ुल्फ़ें
क़मर हो रात में जैसे सहाब पहने हुए ।
यूँ ही न देख के मैं उनको लड़ खङाया हूँ
वो थे नज़र में लिबासे शराब पहने हुए ।
नज़र मिलाने की तस्दीक़ तू न कर जुरअत
वो तूर जैसा नज़र में हैं ताब पहने हुए ।
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शिज्जु "शकूर"
ज़मीं तमाम बदन पर सराब पहने हुए
दिखाई देता है मन्ज़र अज़ाब पहने हुए
नज़र की हद्द तलक कारवाँ है रौशनी का
ये रात जैसे गुहर बेहिसाब पहने हुए
छुपा सके न वो उर्यानियाँ कभी अपनी
ख़बर-नवीस वफ़ा का नक़ाब पहने हुए
ज़माने पर मेरे असरार खुल गए आखिर
ग़ज़ल के हर्फ़ नुमायाँ थे ख़्वाब पहने हुए
चहार सम्त नज़र आते हैं ज़रा देखो
लिबास ज़ख़्म के ख़ाना-ख़राब पहने हुए
हर एक चौक पे नुक्कड़ पे शह्र को देखा
“सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए”
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
नये अमीर हैं लटके जुराब पहने हुए,
बड़ी सी तोंद पे टाई जनाब पहने हुए।
अकड़ तो देखिए इनकी नबाब जैसे यही,
चमकता सूट है जूते खराब पहने हुए,
फटी कमीज पे लगता है ऐसा सूट नया,
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।
चबाके पान बिखेरे हैं लालिमा मुख की,
गजब की लाल है आँखें शराब पहने हुए।
हुजूर वक्त की चाँदी जो सर पे बिखरी है,
ढ़के हुए हैं इसे क्यों खिजाब पहने हुए।
भरा है दाग से दामन नहीं कोई परवाह,
छिपाए शक्ल को बैठे नकाब पहने हुए।
लगाए नाम के पहले खरीद के तमगे,
'नमन' जनाब निकलते खिताब पहने हुए।
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सुचिसंदीप अग्रवाल
बड़े बड़े ये जो नेता खिताब पहने हुए,
छुपाके रखते हकीकत नकाब पहने हुए।
लिए कटार वो बैठे हलाल करने को,
तलाशे मुर्ग जो बैठा शबाब पहने हुए।
पड़ें है लाख जमीं पे खुली छतों के तले,
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।
नशे में चूर सितारे जमीं पे जो उतरे,
गरीब को वो कुचलते शराब पहने हुए।
पुकार सुन खुदा मेरे 'शुचि' दिलों में रहे,
नयी सुबह निकले आफताब पहने हुए।
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
किसी के प्यार का ताजा गुलाब पहने हुए
उन्हें गुमां भी नहीं, हैं अजाब पहने हुए
तमाम शाम फकत आरजू में बीत गयी
फलक पे चाँद दिखा तो नकाब पहने हुए
अभी तलक है मुझे याद प्यार की वो घड़ी
उमड़ उठी थी नदी सी शबाब पहने हुए
जलाल वो कि मुझे आसमां उतरते दिखा
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए
इसी गली में था देखा तमाम उम्र कभी
जेवर-ए- हुस्न उसे बेहिसाब पहने हुए
नहीं कभी उसे मेरी वफ़ा का पास रहा
मिली कभी तो गरूरे हिजाब पहने हुए
नहीं पता कि मुझे जिदगी कहाँ से मिली
मगर कहीं तो है कोई आफताब पहने हुए
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जयनित कुमार मेहता
ज़बाँ पे खार, बदन पर गुलाब पहने हुए!
अजीब लोग मिले हैं नक़ाब पहने हुए!
नज़र मिला के उसे आज देख सकता हूँ
लिबास कैसा है ये आफ़ताब पहने हुए!
बचाया दामन-ए-ईमान इम्तिहान के वक़्त
सो लौट आये सिफ़र का अजाब पहने हुए!
ये शब का आसमाँ! जैसे हो कोई शहज़ादा
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए!"
तुम्हारे ज़ुल्म ने कुछ ऐसा तार-तार किया
ज़माना गुज़रा इन आँखों को ख़्वाब पहने हुए!
पड़ा ही रह गया पर्दा सवाल पर मेरे
वो आया सामने, मेरा जवाब पहने हुए!
अना की टोपियाँ सबने उतार फेंकी थी "जय"
तू होता कैसे भला क़ामयाब, पहने हुए?
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Mahendra Kumar
दिखे जो ख़त कहीं ख़ुशबू जनाब पहने हुए
समझिये चाँद है उसमें हिजाब पहने हुए
तुम्हारी याद मुझे दुल्हनों सी छेड़ रही
"सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए"
न जाने कौन सा जादू है तुमने छोड़ रखा
मुझे हैं आते सभी ख़्वाब, ख़्वाब पहने हुए
मैं दरिया आग का भी पार कर के आ ही गया
जो तुमने दी थी मुझे वो किताब पहने हुए
फ़लक से देख रहा हूँ तुझे ऐ ज़िन्दगी अब
तेरे सवालों का इक इक जवाब पहने हुए
रही मेरी ही नज़र तिश्नगी से दूर सदा
मिली यूँ ही मुझे या थी सराब पहने हुए
लुटा रही थी मुहब्बत यहीं पे एक परी
हाँ अपने हाथ में खिलता गुलाब पहने हुए
न जाने क्यूँ मुझे अब आइने से डर सा लगे
मिलूँ मैं ख़ुद से भी हरदम नक़ाब पहने हुए
सबक ये सीखा है साक़ी से मैंने मयक़दे में
जो जितने होश में उतनी शराब पहने हुए
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rajesh kumari
लो चाँद ईद का निकला शबाब पहने हुए
थी मुन्तजिर कई आँखे भी ख़्वाब पहने हुए
मचल उठे तभी भँवरे लबों की प्यास जगी
मिली जो राह में डाली गुलाब पहने हुए
बुरी नज़र न पड़े उन पे मनचलों की कहीं
निकल रही हैं वो कलियाँ निकाब पहने हुए
हजा़र धोखे हैं राही सँभल के रहना जरा
बुलाएगा तुझे सहरा सराब पहने हुए
फ़रेब झूट कि फ़ितरत जनाब की है मगर
जहीनियत का मिले है हिज़ाब पहने हुए
खिजाँ ने छीन लिये पैरहन शज़र के तो क्या
लिया है जन्म सभी ने हुबाब पहने हुए
उसूल साथ थे उसके कहीं वो जब भी मिला
हमेशा चेह्रे पे खासा रुआब पहने हुए
निहाल हो गये जुगनू मिली जो रात जवाँ
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए
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Ravi Shukla
मैं सोचता था कि सहरा है आब पहने हुए,
खुला ये राज़ कि वो था सराब पहने हुए।
किसे है फ़िक्र मेरे हाल पर करे पुरसिश,
उठा हूँ बज़्म से इक इज़्तिराब पहने हुए।
महक रही है चमन में हर एक शय यारो,
बहार आई लिबासे गुलाब पहने हुए।
ये मानते हुए घर से निकल पड़े हम भी,
सफ़र में ज़ीस्त है अपनी हुबाब पहने हुए।
कुछ एक गाम चले थे मगर सफ़र की धूल,
लिपट गई है थकन का हिसाब पहने हुए।
ज़मीन धूप से सरशार हो न हो लेकिन,
उफ़क ने खोल दिए शब् के ख्वाब पहने हुए।
तमाम रात रहा ज़िक्र कौन आया था,
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।
यहाँ वहाँ रवि फिरते हो क़ैस की मानिंद,
गले में तौके वफ़ा क्यूँ जनाब पहने हुए।
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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"
अदा में शोखियाँ मस्ती रुआब पहने हुए
ये कौन आया लबों पर गुलाब पहने हुए
यकीन किस पे करें कैसे ऐतबार करें
यहाँ हरेक नफ़र है निकाब पहने हुए
सभी के पास हैं ग़म सबके दिल में दर्द भरा
जुबानें सबकी प्रश्न लाज़वाब पहने हुए
नुमाइशों का दौर है तो कौन टोकेगा
हसीनों मत चलो कपड़े खराब पहने हुए
तमाम रोगों से बचना है तो न जाना कभी
रसोई घर में तो चप्पल जनाब पहने हुए
दिवाली वाली निशा साँवरी है फिर से सजी
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए
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ashfaq rasheed
हमारे वास्ते फ़र्ज़ी नक़ाब पहने हुऐ।
भटकता फिरता है सहरा सराब पहने हुऐ।।
वो मेरे दिल की इसी कहकशां में रहता है।
सितारे ओढ़े हुवे माहताब पहने हुऐ।।
तेरे करम की हो बारिश तो गर्द छंट जाये।
कई दिनों से पड़े हैं तुराब पहने हुए।।
हर एक दौर में ज़ुल्मत का सर कुचलने को।
हमें निकलना पड़ा आफ़ताब पहने हुऐ।।
कोई भी आये , करे इश्क़ पे बहस मुझ से।
दीवाना घूम रहा है , जवाब पहने हुऐ।।
किसी नजूमी ने इक रोज़ था कहा हम से।
कटेगी उम्र तुम्हारी भी ख्वाब पहने हुऐ।।
अजीब बात है काँटों की शान में अशफ़ाक़।
किसी ने खूब लिखा है गुलाब पहने हुवे।।
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अजीत शर्मा 'आकाश'
नये जहान के आँखों में ख़्वाब पहने हुए ।
चला अकेले ही वो इन्क़िलाब पहने हुए ।
सभी के वास्ते जलवा-ए-हुस्न बिखराया
मेरे ही सामने आया नक़ाब पहने हुए ।
अँधेरे क्यों न छुपायेंगे अपना मुँह आखि़र
निकलने ही को है दिन आफ़ताब पहने हुए ।
हरेक ओर हसीं नूर खिलखिलाता है
ज़मीं पे चाँदनी उतरी शबाब पहने हुए ।
ये सूदख़ोर हमें लूटने चला आया
उधार खाते का झूठा हिसाब पहने हुए ।
ये शब दीवाली की उतरी है आज धरती पर
[[सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए]]
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सतविन्द्र कुमार
निकल पड़े हैं सनम इक हिजाब पहने हुए
मगर लबों पे अदब का शबाब पहने हुए।
गुनाह करने की फितरत रही है जिसकी सदा
खड़ा है आज शराफत का नकाब पहने हुए।
हुए जो लफ्ज़ जरूरी जताने को चाहत
कहीं वे गुम हो गए हैं किताब पहने हुए।
अली को भाती है काँटें लिए वही डाली
हमेशा झूलती है जो गुलाब पहने हुए।
बड़ा सुहाता है हमको यूँ रात में दिलबर
*सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।*
तेरी ये तिश्न-ए-तालीम जब बढ़ी ‘राणा’
वो छुप के बैठ गये क्यों इताब पहने हुए?
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Gurpreet Singh
मुझे दो आँखें हैं दिखती हिजाब पहने हुए
है कोई ख्वाब में आता नकाब पहने हुए ॥
मुझे हरेक में तू ही दिखे जो हँसता हुआ
मेरी ही सोच है शायद सराब पहने हुए ॥
सनम के साथ कोई और फिरे मेरी जगह
बुना हुआ मेरी आँखों का ख्वाब पहने हुए ॥
कसम शराब की हाथों से जाम छूट गया
वो आये सामने रंगे शराब पहने हुए ॥
ये रात अपने तरीके से सज के आती है
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए ॥
चुभेंगे पलकों पे कम्बख्त रात भर यूँ ही
कि सोएं कैसे यूँ आँखों में आब पहने हुए ॥
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Manan Kumar singh
दिखा है' दूर खड़ा कुछ नकाब पहने हुए
समझ रहे हैं' वे' मल्लिका हिजाब पहने हुए।1
नजारे' रोज लपट के' हैं गगन है' ठगा
मगर समद तो' लगा चुप चिनाब पहने हुए।2
घिरा है' घर अँधे'रा भी बहुत ही' घिरता' अभी,
मियाँ जी' बैठिये' घर में जुराब पहने' हुए।3
वटों को' पूज के' निकले कहाँ को' हम, हैं' कहाँ,
अभी भी' रोते' यहाँ क्यूँ शबाब पहने हुए।4
सवालों' के मुखा'लिफ हो गये हैं' क्यूँ, न पता
सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए।5
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मोहन बेगोवाल
है और ही कोई लगता हिजाब पहने हुए
मिला नहीं कोई मुझको नकाब पहने हुए
अभी नहीं कोई जो हम दिखा गया है जहाँ
सवाल रात ये दिन में जवाब पहने हुए
मै मांगने को खडा हूँ बज़ार को ऐ जहाँ
मगर कहाँ कोई रखता ख्वाब पहने हुए
जरा कोई तो बताए ये रात क्या है अभी
'सितारे ओढे हुए माहताब पहने हुए'
कहा उसे जो हमें भी कहाँ है याद रहा
है जिंदगी तो तेरी इक किताब पहने हुए
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मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
Tags:
आ. राणा प्रताप सर, तरही मुशायरा अंक76 के संकलन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आदरणीय सर, कृपया यह स्पष्ट करने का कष्ट करें कि यह मिसरा "सबक ये सीखा है साक़ी से मैंने मयक़दे में" बेबह्र कैसे है और साथ ही इस मिसरे में "न जाने क्यूँ मुझे अब आइने से डर सा लगे" क्या ऐब है ताकि वांछित सुधार किया जा सकते. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर आभार.
आदरणीय महेंद्र जी पहले मिसरे में मयकदे की मात्रा को गिराकर बांधा गया है जो जायज़ नहीं है इसलिए मिसरा बेबहर हुआ जाता है और दुसरे मिसरे में ताक़बुले रदीफ़ का ऐब है|
आ. राणा प्रताप सर, "मयक़दे" में मैंने "दे" की मात्रा शब्द के अन्तिम अक्षर होने की वजह से गिरायी थी. यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो क्या इसी शब्द (मयक़दे) के साथ ऐसा है या अन्य शब्दों के साथ भी. कृपया उचित मार्गदर्शन करें जिससे भविष्य में इन त्रुटियों से बचा जा सके.
मैं संशोधित अशआर प्रस्तुत कर रहा हूँ. कृपया इन्हें प्रतिस्थापित कर दें.
न जाने क्यूँ मुझे अब आइने से लगता है डर
मिलूँ मैं ख़ुद से भी हरदम नक़ाब पहने हुए
गया मैं जब भी किसी मयक़दे में देखा यही
जो जितने होश में उतनी शराब पहने हुए
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
जनाब राणा साहिब , ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक -76 के संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
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