आदरणीय साथियो,
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आयोजन प्रारम्भ ....आप सभी का स्वागत है ।
लघुकथा - लोक तंत्र (मेरे देश में)
देश में बढ़ते हुए आतंकवाद, फिरका परस्ती, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, महंगाई और रहबरों की ताना शाही को देखते हुए नगर के वरिष्ट नागरिकों ने आम सभा का आयोजन किया, जिसमें हर धर्म और जाति के लोगों को आमंत्रित किया गयाl
रिटायर्ड जज चावला जी ने कार्यवाही शुरू करते हुए कहा जो चाहे अपने विचार रख सकता है l
सबसे पहले एक पत्रकार बोला, "प्रेस की आज़ादी छीन ली गई है, जो सच लिखता है उस पर इंकम टेक्स का छापा पड़ जाता है, पुलिस परेशान करती है, ऐसा देश में कभी नहीं हुआ l
पीछे से एक महिला ने अपना हाल सुनाकर कहा," गैस, डीज़ल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं, महंगाई बढ़ रही है, घर चलाना मुश्किल हो गया है l
एक नौ जवान आगे की तरफ से बोला," रोज़गार नहीं मिल रहा, फैक्ट्रियां बन्द हो रही हैं, पिता जी की नौकरी चली गई, परिवार को कैसे चलाएँ l
अचानक पीछे एक शोर हुआ, एक फटे हाल किसान बोलने लगा," बीज, खाद, बिजली महँगी हो गई, खेती करने में नुकसान हो रहा है, कोई सुनने वाला नहीं, अगर आवाज़ उठाते हैं तो गाड़ियों से रौंदा जाता है l
सबकी सुनने के बाद चावला जी ने कहा," पत्थरों के आगे आँसू बहाना बेकार है, लगता है आज़ादी और लोक तंत्र देश में गुलाम बना दिए गए हैं l
इतना सुनते ही सब एक आवाज़ में बोल पड़े," हम सब कर भी क्या सकते हैं l
चावला जी ने आह भरते हुए कहा, "लोक तंत्र को बचाने के लिए हम सबको जाति, धर्म के नाम पर नहीं बल्कि इस बार लोक तंत्र के नाम पर वोट देना होगा l
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बेहद प्रेरक लघुकथा हुई है,आ.तसदीक की;बधाइयां।
जनाब शेख शहजाद साहिब आदाब, आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
काफी अर्से बाद लघुकथा लिखी है
हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक़ अहमद खान साहब जी।बहुत सुन्दर सम सामयिक लघुकथा।
ढेर, बैर और ख़ैर (लघुकथा) :
अपने बढ़िया से मकान में वह अकेला ठीक-ठाक जीवनयापन कर रहा था। लेकिन कुछ बातों ने उसे विचलित कर रखा था कुछ दिनों से। कल ही की बात है कि संयोग से शहर के मशहूर कबाड़ी से उसकी भेंट हुई, जो उसका विद्यालयीन सहपाठी विष्णु निकला। कबाड़ से भरी किंतु व्यवस्थित दुकान उसके घर में ही थी। बातचीत हुई।
"आख़िर कबाड़ी ही रह गये तुम पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर?" उसके इस सवाल पर विष्णु ने कहा था, "मुझे तो तुम कबाड़ी नज़र आते हो। सारे परिवार का कबाड़ा कर दिया तुमने पढ़े-लिखे होकर भी। मैं तो लखपति कबाड़ी हूँ। मज़े में हूँ परिवार के साथ। ये देखो, यह कबाड़ का ढेर। बोरी में रद्दी और कबाड़ बटोरते-बटोरते आज व्यापारी बन गया हूँ कबाड़ का। लोग अच्छे भले सामानसे उकता कर कबाड़ में बेच देते हैं और हम उसे बेचकर दुगुने-तिगने पैसे कमा लेते हैं।"
वह उसे वैसे ही घूरता रहा जैसे कि कुछ दिन पहले रद्दी किताबें बेचने वाले करीम मियाँ को वह घूरता रह गया था। रद्दी पुस्तकों से एक पुस्तकालय क़ायम कर लिया था करीम मियाँ ने। ऑनलाइन बिक़ी और बुकिंग भी चल रही थी। बढ़िया कमाई हो रही थी। उसका परिवार भी ख़ुश था।
विष्णु और करीम दोनों के बच्चे बड़े शहरों में बड़ी पढ़ाई कर रहे थे।
"मैं कैसा कबाड़ी हूँ? मैंने अपना और अपने परिवार का कबाड़ा कैसे और क्यों कर दिया? संयुक्त परिवार में रिश्तों के ढेर से मैं सुकून भी न कमा पाया! संयुक्त से एकल परिवार और एकल से अकेला रह गया इस बढ़िया मकान में?" वह पहले से अधिक विचलित होता हुआ सोचने लगा।
"रिश्ते भी बिकाऊ होते हैं। रिश्ते भी कबाड़ के हिस्से होते हैं आजकल। उकता जाते हैं लोग रिश्तों से। ...लेकिन पैसों से रिश्तों का कबाड़ होता है या रिश्तों से पैसों का जुगाड़ होता है.... ये भी तो हक़ीक़त है न!" उसके वर्तमान और अतीत को याद दिलाते हुए उसके अंतरमन ने उसे फ़िर झकझोर दिया।
(मौलिक व अप्रकाशित)
जनाब शहजाद साहिब आ दाब, दिए विषय पर और
पारिवारिक परिस्तिथियों को दर्शाती सुन्दर लघुकथा
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
रचना पटल पर समय देकर अपनी राय साझा करने व हौसला अफ़ज़ाई हेतु शुक्रिया आदरणीय तसदीक़ अहमद ख़ान साहिब।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख़ शहज़ाद साहब जी।बेहतरीन लघुकथा।आजकल के हालात का लाजवाब वर्णन।
रचना पटल पर आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहक टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय तेजवीर सिंह जी। कृपया सम्प्रषणीयता और क्लिष्टता आदि की लघुकथागत पक्षों पर मार्गदर्शन भी प्रदान कीजिएगा इस रचना पर।
यानी रिश्ते कबाड़ में चले गए?या रिश्तों के कबाड़ से बाहर निकल आया एकल आदमी? संशय की स्थिति को दर्शाती हुई लघुकथा प्रतीत होती है;बधाइयां।
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