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आदरणीय शेख उस्मानी जी आप की कहानी का कथानक गजब का है. आप के मन में एक जानदारशानदार रचना चलचित्र की भांति घूम रही थी. मगर आप मन पर अपना वश नहीं रख पाए. आवश्यकता से अधिक विवरण कर के अपनी लघुकथा को कहानी का रूप दे दिया. जब कि होना यह था कि आप की कहानी की चरमबिंदु अंत में आना था. वह नहीं आ पाया. आप चाहते तो थे कि एक बेहतर लघुकथा लिखे, मगर भावों के रों में बह कर उसे व्यक्त करने से चुक गए लगता है. यह मेरे साथ भी होता है. मगर उसे बाद में सुधार लेता हूँ. हमें अपनी ही रचना के प्रति बेरहम बनना पड़ता है.शायद आप यहाँ चुक गए लगता है.
भाई शेख़ शहजाद उस्मानी जी, संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और संयम के सुमेल से ही लघुकथा बनती है. इन तीनो में से एक पक्ष भी कमज़ोर रह जाये तो रचना अपने रास्ते से भटक जाती है. आपने इस रचना में संयम खो दिया जिसकी वजह से सूक्ष्मता खो गई और लघुकथा संक्षेप में न कही जा सकी. ऐसा प्रतीत होता है कि आप बस बिना आगे-पीछे देखे आगे ही आगे बढ़ते चले गए, और कहीं के कहीं पहुँच गए. दरअसल यह किस्सा-गोई है जिस से हर हाल में बचा जाना चाहिए. क्योंकि विवरणात्मक शैली में यह एक ढीली प्रस्तुति है, जो पढ़ते पढ़ते बोझिल हो जाती है और यह बात कतई आपकी गरिमा के अनुरूप नहीं है. आशा है कि भविष्य में आपकी बेहतर रचनाएँ पढने को मिलेंगी. बहरहाल, आयोजन में प्रतिभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकारें.
सचेत करते इस मार्गदर्शन के लिए आभार सर
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