"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-84 में प्रस्तुत समस्त रचनाएँ
विषय - "सूर्य/सूरज"
आयोजन की अवधि- 13 अक्टूबर 2017, दिन शुक्रवार से 14 अक्टूबर 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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क्षणिकाएँ- मोहम्मद आरिफ़ |
गीत- ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र |
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(1) क्रोध में आकर एक दिन सूरज रोटी को निगल गया लेकिन- रोटी की भूख से ख़ुद सूरज का पेट जल गया।
(2) सूरज की हार उस समय हो गई जब धरती को नन्हीं बूँदें तर कर गई।
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(3) सुरंग का घटाटोप अंधेरा सूरज को मुँह चिढ़ा रहा है चाहकर भी सूरज सुरंग में नहीं जा पा रहा है।
(4) सूरज का अभिमान तब धराशायी हो गया जब काली घटाओं का पर्दा उसके मुँह पर पड़ गया।
(5) नन्हीं कोंपलों ने जब आँखें खोली तो सूरज की किरणों ने स्तनपान कराके मीठी बोली बोली।
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रौशनी का गान सूरज, प्राणियों का प्राण सूरज।
सुबह की पसरी ओस, किरण की एक डोर। ठहरती उन बूंदों पर , बिखरती चहुँ ओर। सुनहरी मोतियों का खड़ा करता मचान सूरज। रौशनी का गान सूरज। प्राणियों का प्राण सूरज।
पंछियों को, पादपों को, मनुजों को, तलैया को। किरणों की बूंदें बरसाता, नहाने को, गौरैया को। समष्टि का मान सूरज। प्राणियों का प्राण सूरज। रौशनी का गान सूरज।
सूर्य- रश्मियों में नहाई, प्रकृति कैसे विचर रही! झूम रहा कदम्ब-तरु भी, तान- मुरली पसर रही। डोलता बहती उर्मियों संग, यमुना को देता सम्मान सूरज। प्राणियों का प्राण सूरज। रौशनी का गान सूरज।
दोपहर की धूप, जलाती है बदन। सूखते ताल, नलकूप, चैन देता, डोलता पवन। सन्ध्या संग मिलन को, जाता वेगवान सूरज। रौशनी का गान सूरज। प्राणियों का प्राण सूरज।
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ताटंक छंद- सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' |
चौपाई छन्द- डॉ छोटेलाल सिंह |
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लाल रंग का सूट पहनकर, सूरज जब भी आता हैl नदियाँ झरने रोशन करता, घर आँगन चमकाता हैll
दूर क्षितिज पर खड़ा सवेरा, देख उसे मुस्काता हैl तन मन है अँगड़ाई लेता, नव जीवन को पाता हैll
उसकेे स्वागत में सब चिड़ियाँ, गीत सुहाने गाती हैंl फूल बिखेरें खुशबू अपनी, कलियाँ भी मुस्काती हैंll
जड़ चेतन सब उसके कारण, सबको ऊर्जा देता हैl परहित जीवन जिये सदा वह, कुछ भी कभी न लेता हैll
बिना रुके वह सदा एक सा, प्रेम सुधा बरसाता हैl जात पात औ रंग रूप से, रखे न कोई नाता हैll
नियत समय से आता है वह, नियत समय से जाता हैl सदा समय के साथ चलें हम, हमको यह बतलाता हैll
दोहा मुक्तक- सतीश मापतपुरी
खल का बल पल-पल बढ़े, चढ़े निशा का जोर
पूरब में लाली दिखी, कण-कण हुआ अँजोर
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सूरज सबका जीवन दाता, सूरज से सबका है नाता जीव जगत के रक्षक त्राता, जड़ चेतन के भाग्य विधाताll
सूरज सबको राह दिखाये, जीवन पथ को सदा बढ़ाये अखिल विश्व पर उसकी माया, धूप खिले औ होती छायाll
सूरज से जग रोशन होता, पशु पक्षी जन जगता सोता सूरज से ये हरियाली है, सकल धरा पर ख़ुशहाली हैll
रुकने का ये नाम न लेता, चलते चलते सबकुछ देता वाष्प बनाकर जल ले जाता, फिर धरती पर वह बरसाताll
कण कण में है चमक उसी का, उसके आगे बस न किसी का कुपित दृष्टि उनकी हो जाये, सारा विश्व खाक बन जायेll
कमल खिले पा सूरज ज्योती, सिंधु रेत चमके जस मोती प्रात किरण कोंपल पर आती, मधुरिम आभा को झलकातीll
सूर्य रश्मियां नर्तन करती, अनुपम छवि महि आँचल भरती रूप विलक्षण नदियाँ पाती, कल कल छल छल हैं लहरातीll
भूधर चमके पाकर ज्योती, दिग्वधुवे सब हर्षित होती स्वर्णिम उदधि गजब मन भाये, बड़वानल जस रूप दिखायेll
खेत वाग वन सब लहराये, पाकर धूप सभी सरसाये सौर शक्ति संसार चलाये,पत्ता पत्ता रवि गुन गायेll
इंद्रधनुष बनता सतरंगी, मनमोहक किरणें बहुरंगी दिनकर दिनेश हितकारी हैं, सारे जग पर बलिहारी हैंll
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ग़ज़ल- गुरप्रीत सिंह |
हाइकू- तस्दीक अहमद खान |
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खूब मेरा इम्तिहां फ़ुर्कत की रातों ने लिया । आ भी जा इक सुब्ह दे अब ऐ मेरे सूरज पिया ।
सब्ज़ खेतों में तेरी चाँदी ने सोना भर दिया, कौन से शब्दों से बोलूं तुझ को सूरज शुक्रिया ।
रोज़ तेरे इसलिये हम काटने चक्कर लगे ख़ुद तो धरती हो गए और तुझको सूरज कर लिया'
सर्दियों की धूप में तो लेट कर ऐसा लगे, जैसे माँ की गुनगुनी सी गोद में सर रख दिया ।
यूँ तो जल सागर के सर से भी गुज़र जाता मगर, मेहरबां सूरज ने उस को भाप फ़िर से कर दिया।
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(1 )राम चन्द को कहे यह दुनिया सूरज बंसी
(2 )आते ही गर्मी सितम सभी पर सूरज ढाए
(3 )सिर्फ़ ठंड में धरती से कुहरा सूर्य हटाए
(4 )जग वालों को सवेरा होने पर सूर्य जगाए
(5 )सूरज चंदा की मर्ज़ी से जग में हो दिन रात
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ग़ज़ल- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' |
ग़ज़ल- तस्दीक अहमद खान |
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सदा हर भोर में आकर जगाता है हमें सूरज सदा संध्या को थपकी दे सुलाता है हमें सूरज।
कहीं पर्वत को स्वर्णिम कर लुभाता है हमें सूरज कहीं नदिया को सतरंगी दिखाता है हमें सूरज।
कभी सर्दी की ठिठुरन से बचाता है हमें सूरज कभी अनचाही धूपों से जलाता है हमें सूरज ।
नहीं जब भान होता है कि सूरज द्वार आया है कि तब पंछी की भाषा में बुलाता है हमें सूरज।
तपन के बाद बरसातें हमेशा दे के हर्षाता बजा टिपटिप की मीठी धुन नचाता है हमें सूरज।
इसी मौसम में मन करता कि खेले बाल बन हमसे तो कर अठखेलियाँ घन से छकाता है हमें सूरज।
समझ पाओ तो शिक्षक है हमारा सर्वप्रथम जो भरे सुखदुख हैं जीवन में सिखाता है हमें सूरज।
समय से ढलता उगता है तपन हो शीत वर्षा हो हमेशा पाठ अनुशासन पढ़ाता है हमें सूरज।
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जब अंधेरे को उजाले से मिटाए सूरज | बे ख़बर लोगों को सोते से जगाए सूरज |
रात और दिन यूँ ही तब्दील नहीं होते हैं चाँद से मिल के ज़माने को चलाए सूरज|
इंतहा मेरी महब्बत के जुनूँ की देखो वो नज़र चाँद कभी और कभी आए सूरज |
उसकोबतला दे कोई काम यह ना मुमकिन है ख़ाक को डाल के जो शख्स छुपाये सूरज |
कोयला पानी हवा ख़त्म है तो फ़िक्र है क्या अब तो अपने लिए बिजली भी बनाए सूरज |
सूरते यार को मैं कैसे मिलाऊं उन से दाग़ है चाँद में और आग लगाए सूरज |
रात दिन फ़िक्र ये तस्दीक़ लगी रहती है मेरी उल्फ़त का कहीं डूब न जाए सूरज |
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रविचक्र- डॉ. टी.आर. शुक्ल |
ग़ज़ल- निलेश शेवगाँवकर |
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प्रभात ! मनोभावों की शुरुआत, आशाओं का संचार योजनाओं का प्रपात, मनोरंजक शीतलता भ्रमपूर्ण लाली से नतमस्तक हो करती नई मुलाकात।। घटनाक्रम ! बढ़़ चला भ्रम, प्रस्फुटित तेज का थक चला श्रम लंबवत प्रभाकर ने तरुणाई प्रेषित कर कोमल जलज पर कर दिया बज्राघात।। अन्तराल ! व्यवधानों का जंजाल, समस्याओं से सशंक वेदनाओं का ताल, संदेहयुक्त भविष्य के घोर अंधकार में दिग्भ्रान्त संध्या का सूख गया गात।। कल्पनायें ! शुरू हुई कल की चिंताये कंठरोध करती हर पल निराशायें, आलोकित बृहत्पिंड बन गया छुद्र उडगन क्या जाने कैसा हो अगला प्रभात।। |
चाँदनी पर फिसल गया सूरज रात शबनम में गल गया सूरज.
शाम होते ही उन की याद आई आँसुओं से पिघल गया सूरज.
गेरुए कपड़े पहने साधू सा, बस्तियों से निकल गया सूरज.
धूप मुट्ठी में भर के लाया था मेरे चेहरे पे मल गया सूरज.
रात शायद उसे लगी ठोकर सुब’ह लेकिन सँभल गया सूरज.
कीजिये इंतज़ाम पीने का 'नूर' साहब लो ढल गया सूरज
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करवा चौथ के बाद की सुबह- प्रतिभा पाण्डे |
सूर्य देव- बासुदेव अग्रवाल 'नमन' |
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बंद खिड़की के कांच से होता हुआ पहले वो कमरे में फैला और फिर औरत के चेहरे पर चढ़ कान में फुसफुसाया
चल उठ काम में लग बीती रात की सारी भारी भरकम खुशफहमियाँ समेट और रख दे अलमारी में अगले साल के लिए
देर तक मत फैलाये रख इनको मन के आस पास समेटने में तकलीफ होगी
जिसके इंतज़ार में औरत सुबह से भूखी प्यासी बैठी थी उस बीती रात के चाँद से जलता है वो शायद तभी तो उसकी चुगली करने झट से आ जाता है
वो क्या समझाएगा औरत को क्या वो नहीं समझती
पर आज तो थोड़ी देर और फैले रहने देता
रात का ताम झाम कुछ देर से आता देर से जगाता तो क्या जाता उसका
इतना निष्ठुर क्यों है सूरज |
प्रसारता आज दिनकर पूर्ण बल को तपा रहा है आज पूरे अवनि तल को। दर्शाते हुए उष्णता अपनी प्रखर झुलसा रही वसुधा को लू की लहर।।1।।
तप्त तपन तप्त ताप राशि से अपने साकार कर रहा है प्रलय सपने। भाष्कर की कोटि किरणें भी आज रोक रही भूतल के सब काम काज।।2।।
कर रहा अट्टहास भानु आज जग में बहा रहा पिघले लावे को रग रग में। समेटे अपनी हंसी में जग रुदन कर रहा तांडव नृत्य हो खुद में मगन।।3।।
व्यथा से व्याकुल हो रहा भू जन ठौर नहीं छुपाने को कहीं भी तन। त्याग आवश्यक कार्य कलाप वह सब व्यथा सागर में डूबा हुआ है यह भव।।4।।
झुलसती भू सन्तान रवि के प्रभाव से द्रुम लतादिक भी बचे न इसके दाव से। झुलसाते असहाय विटप समूह को बह रहा आतप ले लू समूह को।।5।।
हो विकल पक्षी भटक रहे पुनि पुनि त्याग कल क्रीड़ा अरु समधुर धुनि। अनेक पशु टिक अपने लघु आवास में टपका रहे विकलता हर श्वास में।।6।।
शुष्क हुए सर्व नदी नद कूप सर दर्शाता जलाभाव तपन ताप कर। अति व्यथित हो इस सलिल अभाव से बन रहे जन काल ग्रास इस दाव से।।7।।
खौला उदधि जल को भीषण ताप से झुलसा जग जन को इस संताप से। मुदित हो रहा सूर्य अपने भाव में न नाम लेता 'नमन' का अपने चाव में।।8।।
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हुनर- राजेश कुमारी |
गुरूर- राजेश कुमारी |
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किसी प्रतिफल ,किसी पारितोषिक की चाह के बिना खुद को जलाकर दूसरों के जीवन में उजाला भरना कहाँ से सीखा ये हुनर? दिन भर तपना दहकना
सांझ ढले झील के संश्रय में जाकर शीतल हो जाना नव दिन नव चुनौती के लिए सत्वशाली होना शायद तुमसे ही सीखा होगा ये हुनर इंसान ने .... किन्तु युगों युगों से डूबना उबरना डूबना फिर उबरना
मगर ताब में रत्ती भर भी कोई कमी नहीं ये हुनर तो तुमने भी माँ से ही सीखा होगा ?.. |
कौन कहता है तुम सिर्फ एक हो हम तो प्रतिदिन हजारो दहकते सूरज देखते हैं उन आँखों में जो बेध दी जाती हैं असमानता ,अन्याय और अत्याचार विश बुझे तीरों से .. तुम क्या सोचते हो सब तुम्हें चाहते हैं नहीं!! यहाँ कुछ बस्तियां ऐसी भी हैं जो केवल अंधेरे को चाहती हैं क्यूंकि तुम्हारा उजाला उन्हें रोटी दे नहीं सकता.. उस किसान से पूछो जिसकी माँ की छाती सुखा दी है तुमने जिस्म अगणित दरारों से विदीर्ण हो गया अधरों पर पपड़ियाँ जम गई हैं वो तुम्हें एक नजर देखना भी नहीं चाहता वहाँ टूटता है तुम्हारा गुरूर...
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अतुकांत- सुशील सरना |
ग़ज़ल- बलराम धाकड़ |
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सूरज, उदास हो गया ...
पेड़ सवयं सहते रहे धूप मगर अपनी छाया से धरा को जलने न दिया देख त्याग पेड़ों का सूरज उदास हो गया काट दिए इंसान ने शज़र अपने वास्ते झोंक दिया धरा को भानु की आग्नेय रश्मियों के तपते कुंड में स्वार्थ का तांडव देख सूरज उदास हो गया तप्ता पंथ, सूखा कंठ, जर्जर काया चिलचिलाती धूप मुखमंडल स्वेद से लथपथ देख अपने ताप का तेज सूरज उदास हो गया ढलते ढलते सांझ हो गयी सांसें ताप से मुक्त हो गयीं रूप धूप के ख़त्म हुए सब तिमिर ने धूप को चुपके से स्वयं में अपने छुपा लिया ताप को शीत का प्यार दिया क्या रोज़ सांझ की दहलीज़ पर मेरा ताप हार जाएगा ये तिमिर मेरे अहं के ताप को निगल जायेगा यही सोचते सोचते फिर थका हारा सूरज उदास हो गया
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ढल जाएगी रात ये सूरज निकलेगा बदलेंगे हालात ये सूरज निकलेगा
बह जाएगा आँसू का एक इक क़तरा थमनी है बरसात ये सूरज निकलेगा
पिघलेगी ज़ंजीर गु़लामी की इकदिन होगी नई शुरूआत ये सूरज निकलेगा
श्रम की देवी को हम स्वेद से नहलाकर करेंगे जब प्रणिपात ये सूरज निकलेगा
अभी वज़ीरों की है चाल, ज़रा दम लो देंगे शह और मात ये सूरज निकलेगा
कब तक ये इंसान कराहेगा इसपर कितने और आघात ये सूरज निकलेगा
अपने सपनों पर अपनी उम्मीदों पर रुकेगा ये हिमपात ये सूरज निकलेगा
किसने किसकी पीठ पे ख़ंजर मारे हैं होगी तहकीकात ये सूरज निकलेगा
राजव्यवस्था पर जो अब तक क़ाबिज़ है मिटेगा पक्षाघात ये सूरज निकलेगा
घाटी से केरल तक धूप निकलनी है त्रिपुरा से गुजरात ये सूरज निकलेगा
शबनम की बूंदें मोती सी चमकेंगीं महकेंगे ज़र्रात ये सूरज निकलेगा |
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इन्द्रवज्रा छंद- डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव |
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प्राची दिशा में उगता सदा से है वृत्त आरक्त, प्रभूत ऊर्जा आकाश में रश्मि-रथी पताका ऊंची हवा में फहरा रही है
है रंच आरम्भिक ताप धीमा देखो अभी तेज प्रकाम होगा है भानु ही जीवन का प्रदाता आभा-प्रभा सत्वर छा रही है
सदेश देता रवि है सभी को अंगार सा दाहक जो बनेगा पूजा उसी की हर बार होगी मार्तंड की ज्योति बता रही है
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संतप्त हो हाटक कांति पाता है कर्म स्वाभाविक ईष्ट दाता आदित्य के कर्म अकाम होते पृथ्वी तभी तो यश गा रही है
आओ उठो आतप सा बिखेरो सम्पूर्ण संसार में फ़ैल जाओ दिक्काल भी हों बस में तुम्हारे ये मेदिनी आज बुला रही है
शिल्प- 221-221-121-22 (प्रत्येक पंक्ति में 11 वर्ण) तगण तगण भगण, अंत में दो गुरु
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त्रिभंगी छंद- रमेश कुमार चौहान |
ग़ज़ल- मनन कुमार सिंह |
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32 मात्रा / 8 चौकल
जागृत परमात्मा, जग की आत्मा, ज्योति रूप में, रचे बसे । अंतरिक्ष शासक, निश्श विनाशक, दिनकर भास्कर, कहे जिसे।।
अविचल पथ गामी, आभा स्वामी, जीवन लक्षण, नित्य रचे। जग जीवन दाता, सृष्टि विधाता, गतिवत शाश्वत, सूर्य जचे।।
विज्ञानी कहते, सूरज रहते, सभी ग्रहों के, मध्य अड़े । सूर्य एक है तारा, हर ग्रह को प्यारा, जो सबको है, दीप्त करे।।
नाभी पर जिनके, हिलियम मिलके, ऊर्जा गढ़कर, शक्ति भरे। जिसके ही बल पर, ग्रह के तम पर, अपनी आभा, नित्य करे।।
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रोशनी की चाहतों का चल रहा है सिलसिला अंध गह्वर से उझकता देखिये सूरज खिला।
फूल खिलने भी लगे हैं उष्ण साँसों के तले दिन ढ़लेगा,रात होगी,मिट नहीं सकता ज़िला।
बादलों की छाँव में ढ़कता मसायल है कहाँ? बेवजह फरियादियों का हो भले जितना गिला।
आँच में भरसक उबलता स्वर्ण तपने दीजिये लाह पिघलेगा भले कुछ लोग जायें तिलमिला।
गाड़ते झंडा चलेंगे,रेतियाँ मिट्टी हुईं, अब नहीं कोई बवंडर है जो' हमको दे हिला।
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दोहा छन्द- सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' |
ग़ज़ल- अफरोज़ सहर |
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नभ में हैं तारे बहुत, सूरज उनमे एक | जो जलता परहित सदा, उसे कहें सब नेक ||
आना जाना रोज ही, जीवन का यह खेल | सुबह शाम औ दोपहर, धूप छाव का मेल ||
राह भले कंकण भरा, आगे बढ़ना काम | नजर गढ़ाये लक्ष्य पर, पल भर ना आराम ||
बहस नहीं करता कभी, रहता है ख़ामोश | गलत सही गुनता सदा, तनिक न खोता होश ||
वक़्त का रूख देख कर, ढल जाए हर शाम || ताकि जीव सब सो सकें, अपने अपने धाम ||
वह तो वैसे ही रहा, हम बदले परिवेश | काट शजर नंगा हुए, खूब बढ़ाये क्लेश ||
अपनी जड़ खुद काट कर, रोज करें जयघोष || महा प्रलय नजदीक है, पर उसका क्या दोष ||
ताप बढ़ा क्यों इस कदर, आओ करें विचार | यह उसकी चेतावनी, नहीं बिसारो यार ||
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तहों से जब भी ज़मीं की निकल गया सूरज बुलंदियों के नशे में उबल गया सूरज।
ऊसे ग़ुरूर था कितना बिसात पर अपनी कसूफ़ में जो घिरा तो दहल गया सूरज।
ग़ुरूर किसका रहा है जहान में बाकी़ दिये की लौ हुई रौशन पिघल गया सूरज।
वो ख़ुश था बनके ख़्याल ए ख़लील में यकता बस उसके बाद ही देखा के ढल गया सूरज।
वो जिसको चाहे उरूज ओ ज़वाल देता है सिमट रहीं थीं शुआएँ बदल गया सूरज।
सुरूर था हुवा छाया अँधेरी रातों का नशीली रात के पहलू निगल गया सूरज।
वो इक चराग़ था दहलीज़ पर मेंरी रौशन बस इतनी बात पे देखो मचल गया सूरज।
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ग़ज़ल- मुनीश 'तन्हा' |
माहिया- सतविन्द्र कुमार |
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रात गई फिर निकला सूरज जीवन जैसा चमका सूरज
धरती से आ लिपटा सूरज काम करो आ धमका सूरज
नदियाँ नाचें पंछी गाएं पूरब से जब निकला सूरज
सर्दी में जब ठंडी लगती अच्छा लगता तपता सूरज
रातें लम्बी दिन छोटे हैं खुद में कितना सिमटा सूरज
अगले दिन मैं फिर आऊँगा सांझ ढले कह पलटा सूरज
बिन इसके सब 'तन्हा' सूना धरती का है गहना सूरज
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पूरब से वो आए खुशियों को लेकर, सच्ची आश जगाए।
चीर चले अँधियारा रोशन उससे ही होता जग ये सारा।
पेड़ पवन सब उससे सारी धरती पर है जीवन सब उससे।
ताकत का वो मालिक रोशन करता जग सकल मिटाता कालिक
उसमें तेज भरा है धरती का आँगन जिससे हरा-भरा है
चाँद चाँदनी देता लेकिन सच में यह सूरज से ही लेता।
उसको गुस्सा आता तप्त जेठ तब ही तो महसूसा जाता।
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कविता- मनन कुमार सिंह |
प्रतिक्रिया हाइकू- सतविन्द्र कुमार |
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सूरज फिर से देख जगाये, स्वर्णिम किरणों से नहलाये। दूर देश से चलकर आया, कानों में फुस फुस कर जाये। लुप्त हुआ घनघोर अँधेरा, मंद पड़ी चंदा ललचाये। धरती हुलसी,पौधे हर्षित, कोंपल खिलती-सी मुसुकाये। मुक्त गगन में चंचल पंछी, आज मधुर कलरव बिखराये। उम्मीदों की डोर पकड़कर जन-मन सूरज-महिमा गाये। अपने-अपने काम निरत सब, भौरा कलियों को सहलाये।
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शब्द चित्र-सा कहन कथा सम बने हाइकू।
सतत खेल खुले मैदान पर अभ्यास सिद्धि।
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कुण्डलिया छंद- अशोक कुमार रक्ताले |
लाल सूरज- इन्द्रविद्या वाचस्पति तिवारी |
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छिप-छिपकर फिरता रहा, करी न सीधी बात | रवि आया पतलून जब , भिगो गई बरसात || भिगो गई बरसात, टपकते चद्दर से घर, सोये हैं कुछ रात, पडोसी का ले बिस्तर, बोले कवि मतिमंद, भूलकर उठता गिरता, निकला लेकर ओस, सूर्य छिप-छिपकर फिरता ||
सूरज आया क्वांर की, लेकर तीखी धूप | हुआ कुँवारों के लिए, मौसम बहुत अनूप || मौसम बहुत अनूप, एक बस कार्तिक आड़े, निपटेंगे फिर खूब , ब्याहकर हरदिन पाड़े, कहता कवि मतिमंद, समय दिन अच्छे लाया, हो जाओ तैयार , क्वांर का सूरज आया ||
भायेगा कुछ रोज रवि, जब तक है यह शीत | फिर झुलसोगे धूप से , धीरे-धीरे मीत || धीरे-धीरे मीत , हकीकत तुम जानोगे, बचना है फिर रोज, सूर्य से तुम ठानोगे, कहता कवि मतिमंद, सूर्य यह उलझायेगा, हरदिन संध्या भोर, मित्र यह मन भायेगा ||
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सूरज को हमने देखा सुबह के समय जब वह अपनी लाली बिखेरता चला आ रहा था आसमान में पानी के भीतर मां को देखकर मन में उठा था हूक कि वह भींग रही है लेकिन जब उसका मन प्रसन्न था हमें भी खुशी हुई थी सूरज के आने के बाद उसने प्रार्थना की- सूरज जी आज की पूजा ले लें आगे के साल में फिर आना आज के दिन तट के ऊपर हम सब खड़े हुए थे छूट रहे थे खूब पटाखे अंतर में थी खुशी खूब ही बच्चे खेल रहे थे हमने किया प्रणाम सूर्य को लाली को देखा आँख भरकर
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नवगीत- डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' |
हाइकू- कल्पना भट्ट |
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दिन पर दिन हो प्रचण्ड हे मार्तण्ड ! तुम धरा को न देना घाव गम्भीर न ऐसा कोई प्रभाव ही देना। सूरज तुम चलते रहना।
यह धरा सहिष्णु है कभी नहीं जतलाएगी कष्ट सहेगी हर, दृष्टि कभी न मिलाएगी न लेना अर्थ अन्यथा सृष्टि सौंदर्य भाव ही देना। सूरज तुम चलते रहना।
युग बीते इस धरा ने कभी अपना धैर्य न खोया हुए प्रलय इस धरा ने कभी बीज बैर न बोया प्रकृति पर कर दया धरा को सहज स्वभाव ही देना । सूरज तुम चलते रहना।
प्रतिरोध विरोध होंगे प्रकृति कुछ ऐसी है मानव की स्व अरु अहं लड़ाई में बन जाती है दानव सी घिरी समस्याओं से सम्हले ऐसा दाँव ही देना। सूरज तुम चलते रहना।
प्रकृति, उदधि के रौद्र रूप से विचलित है जन-जीवन फिर भी जीने को उत्सुक है हर सम्भव जन-जीवन अर्घ्य दे रहा हूँ 'आकुल' तुम नेह अलाव ही देना। सूरज तुम चलते रहना।
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१ सोना उगले मिटटी जब तब तपता सूर्य
२ सूर्य तपता कली खिल जाती फूल बनती
३ मेहनत से जो न डरता कभी सूर्य पुत्र है |
४ उजाला लाता परोपकारी वह सूर्य देवता |
५ तपे जितना सूरज की तरह पुरुष वही |
६ पकता धान सोने की चादर में सच्चा सोना |
७ हाथ फैलाये सूर्य के सामने जो कर्मयोगी है | |
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समाप्त |
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