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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
दर्द-ए-गम में कोना-कोना डूबा लगता है ...
बहुत ही लाजवाब शेर बाँधा है मिसरे के साथ ....
भीगा सा है अखबार आज फिर से हाकर का,
हुआ कोई सरहद (में) ( पे) फिर धमाका लगता है।
ख़ूबसूरत शे'र , उम्दा ग़ज़ल,, मतला भी मन के तार को छूता है ,
एक टिप्पणी, अन्यथा न लें " दर्द-ए-ग़म " की जगह दर्द-ओ-ग़म "हो
तो ये शे'र मेयारी शे'र बनता।
ji shukariyaa Sanjay ji ....
donon galtiyaan sudhaar li hain .....
भीगा सा है अखबार आज फिर ये हाकर का
हुआ कोई सरहद में फिर धमाका लगता है
bahut hi khubsurti se sajaya hai aapne is gazal ko....shaandar prastuti
हरकीरत जी , बेहद खुबसूरत ख्यालात के साथ आपने प्रस्तुति दी है , सभी शे'र उम्द्दा लगे , मतला भी सुन्दर कहा है साथ ही भीगा अकबार वाला शे'र और मकता बेहतरीन लगा |
बधाई इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर |
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