For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

                                             त्रासद समय में नारी का जीवन – संघर्ष
                                                             ‘ बंजारन ‘
                                                                                                              ∙ मधुकर अष्ठाना

      रचना छंदमुक्त हो अथवा छंदबद्ध दोनों में कविता हो सकती है. रचना के रूप से कविता का निर्धारण नहीं होता है. पूरी रचना की परिधि में कहीं भी कविता केंद्रबिंदु की भाँति हो सकती है. वास्तव में पूरी रचना कभी कविता नहीं होती है. जो पंक्तिपाठक को सम्वेदित कर सके वही कविता होती है और रचना की शेष पंक्तियाँ तो उस सम्वेदना के पीछे की पृष्ठभूमि होती हैं. इसमें बड़ा या छोटा रचनाकार होना कोई महत्व नहीं रखता तथा प्राय: छोटे रचनाकार जो कविता प्रस्तुत कर देते हैं वह बड़े रचनाकार नहीं कर पाते. यहाँ पर छोटे रचनाकार से मेरा यही तात्पर्य है कि जिसका प्रचार – प्रसार कम हुआ हो अथवा आयु में वरिष्ठ न कहा जा सके. सृजन के सम्बंध में मैं मानता हूँ कि छोटे –बड़े कहा जाना युक्तिसंगत नहीं है. इस क्रम में मैं सुश्री कुंती मुखर्जी जो मॉरीशस की निवासी हैं, उनकी कृति ‘बंजारन’ निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है जो वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व स्तर पर जीवन संघर्ष के दौर से गुज़र रही है. प्रश्न उसकी अस्मिता की संचेतना का है कि वह अब भी हर कहीं दोयम दर्जे की नागरिक ही मानी जाती है. एक ओर समाज शत्रुवत व्यवहार करता है तो दूसरी ओर नारी ही नारी की दुश्मन बनी हुई है. पुरुष वर्ग भी ईर्षा और द्वेष से पीड़ित है जो समाज में पित्रात्मक सत्ता बनाये रखना चाहता है और नारी को उसका वास्तविक गौरव और अधिकार नहीं देना चाहता. नारी के पददलन की स्थिति सदियों से ऐसी ही बनी हुई है और तभी 70-75 वर्ष पूर्व भी मैथिलीशरण गुप्त को लिखना पड़ा था – “नारी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी. आँचल में है दूध और आँखों में पानी”. सुश्री कुंती मुखर्जी की सद्द्य प्रकाशित काव्य कृति ‘बंजारन’ में भी यही नारी जीवन की असीम पीड़ा व्याप्त है जो पाठक को सम्वेदित ही नहीं, करुणा से विगलित भी कर देती है और वह चिंतन के लिये विवश हो जाता है.
            सच कहा जाये तो सुश्री कुंती मुखर्जी एक असाधारण महिला हैं जिनका जन्म मॉरीशस द्वीप के ‘फ़्लाक’ जनपद में स्थित “ ब्रिज़ी वेज़िएर “ नामक गाँव में हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा फ़्रेंच भाषा में हुई किंतु भारत के प्रति असीम श्रद्धा एवं प्रेम ने उन्हें हिंदी सीखने की प्रेरणा दी. उन्होंने वर्ष 1972 में ‘मॉरीशस हिंदी प्रचारिणी सभा’ द्वारा संचालित ‘प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की विशारद मध्यमा तथा 1973 में साहित्यरत्न उत्तमा परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं. 19वीं सदी में अंग्रेज़ों द्वारा विस्थापित एक सम्पन्न परिवार की पाँचवीं पीढ़ी में जन्म लेकर भारतीय संस्कारों को अपने जीवन में वरीयता दी. धार्मिक, देशभक्त, विद्वान पिता ही उनके गुरु हैं जिनसे साहित्यिक सृजन की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त हुआ. छ्ह वर्ष की छोटी आयु से ही उनकी लेखनी सक्रिय हो उठी. उनकी अंकुरित प्रतिभा को हिंदी भाषा से ही खाद-पानी मिला और आज वह वट वृक्ष का आकार ले चुकी है. सुश्री कुंती मुखर्जी ने कविता एवं कहानी को ही सम्प्रेषण का आधार बनाया जिसमें प्रकृति के अद्भुत चित्रांकन के साथ नारी के जीवन संघर्ष, जिजीविषा एवं सम्वेदनशीलता का जीवंत रूप परिलक्षित होता है. सुश्री कुंती मुखर्जी के अंतर्मन में अनुभूतियों का विशाल भण्डार है जिनकी अभिव्यक्ति से निरंतर सम्वेदना का निर्झर प्रवाहित होता रहता है. उनकी अनुभूतिजन्य यथार्थ चिंतन की अभिव्यक्ति व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख है जिसमें नारी का आर्तनाद ध्वनित होता है – और पूरे स्त्री समाज की पीड़ा अंतर्निहित होती है.
          नारी प्रेम की प्रतीक है, उसका स्वभाव प्रकृतिजन्य कोमल और सम्वेदनशील है. पुरुष उसे अपने कृत्रिम प्रेम में फँसाकर, छोड़कर चला जाता है जबकि नारी का प्रेम उत्सर्ग भावना से पूर्ण है. वह पुरुष के प्रेम में सर्वस्व निछावर कर देती है किंतु जब वह छोड़कर चला जाता है तो घायल मृगी की भाँति तड़पती रहती है. इस कथ्य के अंतराल में आत्मा एवं परमात्मा का रहस्य भी छिपा है. परमात्मा से लौ लगाकर आत्मा उसे वन-वन खोजती रहती है और उसकी दशा घायल हिरनी जैसी हो जाती है. हिरनी (आत्मा) की छटपटाहट और उसकी अंतर्वेदना को सुश्री कुंती मुखर्जी निम्नांकित शब्दों में प्रकट करती हैं :-
“ सुबह का तारा डूबा/तेरे मोह में कहाँ-कहाँ----/
जोगन न भटकी/तेरे धुन का नशा/अभी तक है छाया/
जादूगर/तेरे प्रीत में सारा घर-संसार छूटा/(अंतर्चेतना)/
हज़ार प्रश्न विरहिनी के मन में फूटे/”कहाँ जायें, क्या
करें, विकल वेदना लिये/किसके मोहपाश में बँधी
पुजारन/चलते-चलते थक गयी/शिथिल हुए पाँव/
धूप चढ़ा आकाश/कहीं न मिली छाँव/कहाँ छुपा
जोगी/छोड़ जोगन को बेहाल/घायल मृगी दौड़ती
वन-वन/ मायावी ! रोक अपना जाल/”
            भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में आत्मा प्रेमिका होती है और परमात्मा प्रेमी होता है जबकि सूफी संतों ने जो काव्य लिखे उसमें प्रेमी ही आत्मा होता है और प्रेमिका परमात्मा का स्वरूप होती है. जैसे जायसी रचित ‘पद्मावत’ महाकाव्य में रतनसेन आत्मा है जो प्रेमी है और पद्मावती परमात्मा का रूप है जिससे रतनसेन ही पद्मावती के विरह में व्यथित होता है और उसकी खोज में जंगल-जंगल भटकता है. उपर्युक्त पंक्तियों से सिद्ध हो जाता है कि रचनाकार के मन पर भारतीय संस्कृति एवं परम्परा का ही प्रबल प्रभाव है. परमात्मा निष्ठुर है और अपने प्रेम में विकल आत्माओं को युग-युग की विरह वेदना देकर भटकने के लिये छोड़ देता है. सुश्री मुखर्जी की रचना दृष्य जगत और पारलौकिक ; दोनों प्रकार के प्रेम में प्रेमिका की पीड़ा को व्यक्त करता है और प्रस्तुत कथ्य को स्पष्ट करने में प्रकृति भी सहयोग करती है. रचना की व्यंजना अनेकार्थी है जो लेखिका के स्तर का भी निर्धारण करती है. प्रथम रचना जो इस कृति में ‘बंजारन’ शीर्षक से लिखी गयी है, में भी प्रकृति चित्रण द्वारा मरुभूमि के उपयुक्त वातावरण का शब्दांकन करते हुए बंजारन की विरह वेदना को ही व्यक्त करती है जिसमें रहस्यवादी प्रवृत्ति स्पष्ट झलकती है. यथा :-
“तारों भरा आकाश/गहरी अंधेरी रात/एक स्त्री-बंजारन/
भटकती पृथ्वी के दूसरे छोर पर/दूर,कहीं दूर निकल
जाना चाहती है/खेतों में कटे फसल/बिखरी सोंधी
महक चहुँदिशि/नंगे पैर खेतों में मतवाली दौड़ना
चाहती है/ग्रीष्म की गर्म रात/अलसायी हवा ठहरी-
ठहरी/बर्फ़ की ठंडक पैरों तले महसूस करना चाहती
है/खुले केश लहराते/बंद आंखें, बिखरी खामोशी/
दूर कहीं जंगल में गाती है एक कबूतरी/दर्द से
भीगी, अनंत प्रेम का संदेश देती/व्यथित मन लिये/
स्त्री बंजारन/ दूर बहुत दूर खिंची चली जाती है/”
              यही नारी का कठोर जीवन संघर्ष, उसका त्याग और उसकी तपस्या, समर्पित भावना और उसकी असीम पीड़ा का यथार्थ है. ताज़ा कटे खेत में नंगे पाँव दौड़ना, कबूतरी का दर्द भीगा अनंत प्रेम का संदेश और मोह के कारण उसी आकर्षण में बँधे, दूर तक चले जाना आदि संकेत हैं – उसके उत्कट प्रेम और उसके मार्ग में आने वाली भौतिक बाधाओं की परवाह न करते हुए, प्रत्येक चुनौती स्वीकार करना आदि केवल भौतिक जगत के दैहिक प्रेम तक ही सीमित नहीं हैं. उक्त रचनाओं से उनकी रचनात्मक मनोवृत्ति की दिशा का भी ज्ञान होता है. सुश्री कुंती मुखर्जी मात्र लेखिका ही नहीं, साधिका भी हैं. इसीलिये प्रस्तुत कविता संग्रह ऐसी भावनाओं की अभिव्यक्ति से भरपूर है जो भौतिक जगत के पार जाती हैं. उदाहरण स्वरूप निम्नांकित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-
“उड़ चला मानस हंस/ले कबूतरी संग/सुबह
की वेला थी/था सारा जग प्रकाशमान/ज़मीन
पर रह गया एक पार्थिव शरीर/बंजारन थी
वह/होठों पर स्मित रेखा/मुख था देदीप्यमान/
जीवन-मृत्यु का सुंदर मेल/एक चित् दूसरा
चिरंतन/प्रेम राग का एक सत्य/यही आत्मा
परमात्मा का चिरमिलन/”
            आत्मा – परमात्मा का मिलन तब होता है जब मध्य से पार्थिव शरीर हट जाता है और जब दोनों निराकार होते हैं तो एकाकार होने में व्यवधान नहीं रहता. भौतिक सम्बंध अस्थायी हैं जो पार्थिव शरीर तक ही सीमित हैं किंतु आत्मा से परमात्मा का सम्बंध तो शाश्वत है. परमात्मा से बिछड़ी हुई आत्मा मिलन की आकांक्षा तो रखती है किंतु यह नश्वर शरीर बाधा उत्पन्न करता है. आत्मा उस शरीर के बंधन में विरह वेदना से तड़पती रहती है. इस काव्य कृति की प्राय: सभी रचनाएँ किसी न किसी प्रकार इसी तथ्य की पुष्टि करती हैं. वे लिखती हैं :-
“अनजानी छाया हूँ, मानवी नहीं/मन के कोने में नित्य
सजती/इंद्रधनुषी रंग मेरा परिधान/स्वप्न-लोक
में विचरती/मैं हवा हूँ, अमूर्त हूँ, अदृष्य हूँ/
तुम्हारे साथ हूँ, सदा से हूँ/तुम्हारे रोम-रोम में
बसी/तुम्हारे साँसों की सुगंध में हूँ/-------/
मैं कौन हूँ? इतना परिचय जानो/तुम्हारी सुप्त अंतरात्मा
में जागी/मैं त्रिगुण हूँ, तुम्हारे हृदय में स्थित/मुझे राग-
अनुराग से मत बाँधो/”
           भौतिक जगत के प्रिय को सम्बोधित रचना स्पष्ट करती है कि कवयित्री ने इस जीवन के सत्य को प्राप्त कर उसका अनुभव कर लिया है और अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय ज्ञात हो जाने के उपरांत वह नश्वर सम्बंधों से मुक्त होकर ईश्वरीय आनंद में निमग्न रहना चाहती है. सुश्री कुंती मुखर्जी जिस उच्च धरातल से सृजन करती हैं उससे हमें केवल भारतीय दर्शन का तो बोध होता है किंतु पूरी तरह समझना तो उनकी मानसिकता और साधना तक पहुँचने के उपरांत ही सम्भव है जो साधारण कार्य नहीं है.
           दार्शनिक अभिव्यक्ति के साथ ही इस जगत की पीड़ायें जो नारी जीवन भर भुगतने को विवश है, उसका अभाव इस कृति में नहीं है. शरीर है तो उसका मान-सम्मान, मर्यादायें, परिस्थितियाँ एवं विवशतायें भी अवश्य जुड़ी रहेंगी. महिलाओं की पुरुष सत्तात्मक परिवेश में जो दयनीय दशा है, वह भी उनकी लेखनी से स्रवित हुआ है जिसमें असीम पीड़ा है, शोषण-उत्पीड़न है और उसका कठिन जीवन-संघर्ष है जो यातनाओं से भरा हुआ है. नारी ने जहाँ जन्म लिया वहाँ तो उसे पराया धन ही समझा जाता है और अपरिचितों-परायों के घर जाकर उसे कितना परिश्रम, त्याग करने के पश्चात भी जो प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है, वह भारतीय समाज में प्रत्येक नारी की अनुभूतियों का युग-सत्य है. नारी का पूरा जीवन उपेक्षा एवं पीड़ा में व्यतीत हो जाता है. परिवार के उत्थान एवं प्रगति का सम्पूर्ण श्रेय पुरुष ले लेता है किंतु नारी तो बीज को अंकुरित, पुष्पित,पल्लवित और विशाल तरु बनाने में, माँ और पत्नी की भूमिका में खाद-पानी ही बन कर रह जाती है और उसकी त्याग-तपस्या मूल्यहीन हो जाती है. वे कहती हैं कि “दुनिया को दिखाने के लिये/मेरे पास सब कुछ था/पर मेरा कभी कुछ न था/एक शहर के बीच शोरगुल में/बाहर की जगमगाती रोशनी में/अंधेरे कमरे को किसने देखा/”. इसी क्रम में उनकी रचना “यह घर तुम्हारा है” की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं :-
“मेरे आसपास/आकाश में कुछ बादल के टुकड़े/और उड़ते
पंछी/बंदरों का झुण्ड/जो कोई नियम-क़ानून नहीं जानते/
पर ये गमलों के फूल/खिलना इनका धर्म नहीं, मजबूरी
है/शाम को/आता है घर का मालिक/हाथ में विविध
सामानों का बण्डल लिये/’लो सब कुछ तुम्हारा है’/पर मेरी
रुचि की कुछ भी नहीं होती/न खाने की न पहनने की/
रात में/अँधेरा कमरा/जब रोशनी से जगमगाता है/दिन
भर की कुरूपता उसमें छिप जाती है/------------------/
उस दिन के बाद/शुरु होती है अनवरत एक जंग/अँधेरे
कमरों से, डरावनी परछाइयों से/बंद खिड़कियों से, जो कभी
खुलती नहीं/अँधेरे बाथरूम से निकलते खौफ़नाक कीड़ों से/
जो मेरे पूरे वजूद पर छा जाते हैं/”
                  ऐसी रचनाओं में हमें कवयित्री का ऐसा रूप दिखाई पड़ता है जो एक दार्शनिक तथा साधक से पृथक सामाजिक बंधनों में जकड़ी बेबस नारी का है. वेदों, उपनिषदों और कथाओं में भले ही नारी का गुणगान किया गया हो, उसे शक्ति का रूप माना गया हो किंतु व्यवहार में स्थितियाँ एकदम विपरीत हैं जिसकी भुक्तभोगी होने की अनुभूति कवयित्री सुश्री कुंती मुखर्जी रचनाओं के माध्यम से सम्प्रेषित करती हैं जो सत्य कथा है. अतीत के मटमैले परदों को उठाकर जब वे झाँकती हैं तो – “बहुत साल पहले/इंद्रधनुषी रंग बिखेरते/तुमने एक वादा किया था/पर, बदलते समय के साथ/फ़ासले बढ़ते गये/तुम-तुम न रहे पर/मैं वक़्त की दीवार थामे/निहारती रही शून्य में/अपलक नयनों से/”. सुश्री कुंती मुखर्जी के अंतर में ऐसा पीड़ा का अथाह महासागर है जो निरंतर उत्ताल तरंगें भरता रहता है. उसकी विराट-वेगवती लहरें तट से टकराती रहती हैं. लहरों की बार-बार उठने-गिरने की छटपटाहट सुश्री मुखर्जी के सृजन में शब्दांकित होती रहती है जो शाश्वत है, अविरल है, हर बार दुगुने वेग से आती है और तट की ठोकर खाकर परास्त हो जाती है. उनकी वही अव्यक्त पीड़ा, मर्यादित होकर, रहस्यवादी हो जाती है जिसमें अजर, अनघ, अविकार उस दिव्य प्रेमी से मिलन की चाहत जिसके उपरांत विरह वेदना का चिन्ह भी न रह जाये, उनका लक्ष्य है. यही लक्ष्य लेकर तो ऋषि-महर्षि भी अनवरत तपस्या में लीन रहकर कामना करते रहते हैं. लेकिन तपस्वियों को भले ही ईश्वर न मिला हो, सुश्री मुखर्जी को अवश्य मिल गया, यथा :-
“देर ही सही, वसंत आया/वासंती रंग में रंगा/भावनाओं
के सागर में/लहराती – उतराती मैं चली/एक नये संसार
की खोज में/क्षितिज नया था मेरे लिये/फिर तुम आये/
समय के फासले को/इंद्रधनुष की टंकार से जोड़कर/
और मैं....../नये प्रभात की सुनहली आभा में/चाँद की
पहली किरण की तरह/समुद्र के उत्ताल तरंगों में झिकमिकाहट
की तरह/अपने अस्तित्व को पाकर/सौंदर्य की रंगीनियों
में खो गयी/”
                 कथ्य को अभिव्यक्त कर सम्प्रेषणीय बनाने में सुश्री मुखर्जी को महारत हासिल है और प्रस्तुतिकरण की कला से भी वह भलीभाँति परिचित हैं. भले ही यह उनकी प्रथम कृति प्रकाशित हुई हो, वे कई दशक से लगातार साहित्य साधना कर रही हैं. बंगाल की कलात्मकता, भारतीय संस्कृति से सुवासित मानसिकता और टैगोर की रचनात्मक परम्परा आदि साहित्य की उर्वर भूमि से सुदूर मॉरीशस में अंकुरित उनका चिंतन जिसमें प्रकृति भी उनका पूरा सहयोग करती है, उनके सृजन की पृष्ठभूमि है. सुश्री मुखर्जी ने अपनी विवशता, असमर्थता को अपनी शक्ति बनाया है और लेखन के माध्यम से प्रत्येक चुनौती के समक्ष पूरे विश्वास के साथ संघर्ष कर रही हैं. नारी जीवन की बारीक से बारीक बात को, उसकी हर समस्या को वह समझती हैं और इसीलिये नारी विमर्श के सम्बंध में उनका कथन अनुभूतियों पर आधारित एवं विश्वसनीय और ईमानदारी के साथ उसकी अभिव्यक्ति करती हैं जिसमें नारी की पीड़ा उभरती है. नारी घर में हो अथवा बाहर हर जगह शोषण का शिकार है.
              नारी कोमल स्वभाव की है और प्रकृति की ही प्रतिरूप है जो अपना सब कुछ अल्प सहानुभूति पर ही निछावर कर देती है. यही उसकी कमज़ोरी भी है और ताक़त भी है. कोमलता, उदारता, क्षमाशीलता का परिचय नारी अपने प्रत्येक रूप में देती रहती है. इसीलिये वह सहजता से बहकावे में आ जाती है जिसका प्रतिफल उसे आजीवन भुगतना पड़ता है. यथा :-
“एक दिन उमड़ता-घुमड़ता/छत पर आया/मटमैला,
दिलफेंक एक आवारा बादल.../प्यार का मधुर गीत
गुनगुनाता/मोहित किया/प्रेम की बरसात हुई/भीगा
उसका आँचल/न सोचा, न समझ/सर्वस्व लुटाया/
चल दी अनजान सफर पर, सब कुछ भुला/सूना छत,
सूनी दोपहर, सूनी गली/रवि, पवन सब देखते रहे/
क्या कहें भला?/------ /एक शाम/एक लड़की
सयानी/समुद्र किनारे सैलानियों का दिल बहलाती/
देख सूरज शर्म से सागर में डूब जाता/हवा तेज़ बहती/
लहरें भी रहतीं भागती/अँधेरी रात/एक लड़की थकी सी/
सूने घर में चंद साँसें गिन रही/चहुँ ओर था अँधेरा ही अँधेरा/
इंतज़ार, सूरज के दहलीज पर आने का/सूने घर में/एक लड़की
अनजानी/मिट गयी कोमल कनक सी काया/धरती से आकाश तक/
उठा हाहाकार/पर/निष्ठुर समाज चलता रहा अपने ढर्रे पर/”
              इस प्रकार सुश्री मुखर्जी की प्रस्तुत काव्य-कृति ‘बंजारन’ अपने स्पष्ट ईमानदार कथ्य, अनुभूतियों की गहराई, प्रतीकों की सरलता, बिम्बों की स्पष्टता, लाक्षणिकता और कहीं कहीं संकेतात्मकता के कारण अभिव्यक्ति में नूतनता एवं ताज़गी का एहसास कराती है. भाषा की सहजता, शब्दों की सघनता और सम्वेदना की तरलता के साथ ही प्राकृतिक सुषमा का सौंदर्य इसे महत्वपूर्ण बनाता है. मेरा मानना है कि ‘बंजारन’ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह सफल है. सुश्री कुंती मुखर्जी को इस कृति के लिये अनेकश: साधुवाद.

 

‘विद्यायन’, एस.एस.108-9                                                                            ह. मधुकर अष्ठाना
सेक्टर – ई, एल.डी.ए. कॉलोनी
कानपुर रोड,लखनऊ – 226012.
अचल भाष: 0522-2437901
सचल भाष: 09450447579

Views: 1671

Replies to This Discussion

आदरणीय शरदिन्दुजी, आपने आदरणीया कुंतीजी के काव्य-संग्रह बंजारन पर नवगीत-विधा के समर्थ हस्ताक्षर आदरणीय मधुकर अष्ठानाजी के सटीक उद्गार साझा कर न केवल बंजारन के प्रति पाठकों की जिज्ञासा बढ़ा दी है बल्कि पाठकों को इस संग्रह से सम्बन्धित सांगोपांग सूचनाओं का रसास्वादन भी करवाया है.


आदरणीय मधुकर अष्ठानाजी ने अतुकान्त शैली में हुई आदरणीया कुंतीजी की कविताओं पर जिस दायित्त्वबोध से अपने विन्दु रखे हैं वह उनके काव्य-मर्म को ही उजागर करता है.

आदरणीय मधुकरजी ने बंजारन को विधान सम्बन्धित लगभग समस्त पहलुओं, जैसे, साहित्य, विचार, परंपरा, आंचलिकता, आध्यात्म तथा संप्रेषणीयता की कसौटी पर रखा है और उनके सापेक्ष बंजारन के होने को सार्थक कहा है. यह किसी नव-हस्ताक्षर की प्रस्तुति के प्रति उनकी उदार स्वीकार्यता है. इसे वे अक्सर मंचों पर भी कहा करते हैं कि आज नवोदितों के उत्साहवर्द्धन के प्रति उदारभाव रखने की आवश्यकता है. इसी संदर्भ में बंजारन के लोकार्पण समारोह में ओबीओ जैसे मंच की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी कि इस मंच ने प्रतिष्ठित-स्थापितों और नवोदितों को एक समतल पर रख कर आपसी साहचर्य को बढ़ावा दिया है.

आदरणीया कुंतीजी को इस संग्रह के लिए अनेकानेक बधाइयाँ तथा अंजुमन प्रकाशन को इस कदम के लिए हार्दिक साधुवाद. यह प्रक्रिया अनन्तकाल तक यों ही चलती रहे.
सादर
 

आदरणीय सौरभ जी,

श्रद्धेय मधुकर जी द्वारा की गयी समीक्षा इतनी गहरी सोच और उच्चतर मानवीय बोध से ओतप्रोत है कि हमें अवाक होना पड़ता है!यदि यह समीक्षा किसी और पुस्तक के लिये होती तो भी मैं ऐसा ही कहता - 'बंजारन' तो मेरे बहुत क़रीब है. किसी भी नवहस्ताक्षर को उसकी पहली कृति (पुस्तकाकार में)के लिये मधुकर जी जैसे मूर्धन्य साहित्यकार से ऐसी प्रेरणा मिले,यह उस रचनाकार के लिये विशेष सौभाग्य की बात है. स्मरण रखना है कि युवा रचनाकार भाई राहुल देव ने अपनी दृष्टि से 'बंजारन' को देखते हुए पहले ही अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की है. इसका तात्पर्य है कि साहित्य क्षेत्र में दो ऐसे प्रजन्म के पाठकों ने इस कृति को सराहा है जिनके बीच समय की एक बहुत चौड़ी नदी बह चली है. यह 'बंजारन'की लेखिका के लिये और उसकी छाया के रूप में इस अकिंचन के लिये भी अत्यधिक संतोष की बात है.
आपने प्रतिक्रिया द्वारा अपनी प्रज्ञा और गहरे मूल्यबोध का परिचय दिया है, इसके लिये हम हृदय से आपके आभारी हैं. आशा है 'बंजारन' को और बहुत से नये पाठक-पाठिकाओं का साथ मिलेगा.
सादर

आदरणीय शरदिंदु सर मधुकर जी द्वारा की गयी पुस्तक 'बंजारन' की समीक्षा यहाँ प्रस्तुत की,इसके लिए आपका हार्दिक आभार।

अस्थाना जी की व्यापक समालोचनात्मक समीक्षा पढ़ कर पुस्तक स्वयं पढ़ने का बोध हुआ।

प्रस्तुत झलकियों ने पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा को और तीव्र कर दिया है।

आदरणीया कुंती जी की सम्वेदनशीलता और रचनाशीलता प्रणम्य है। नारी की वेदना को अभिव्यक्ति देने के लिए आपको बारम्बार आभार।

ढेरों बधाईयाँ।

शुभ शुभ

सादर

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीया प्राची दीदी जी, आपको नज़्म पसंद आई, जानकर खुशी हुई। इस प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक…"
1 hour ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर"
1 hour ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय सुरेश कल्याण जी, आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में हैं। "
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आभार "
2 hours ago

मुख्य प्रबंधक
Er. Ganesh Jee "Bagi" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय, यह द्वितीय प्रस्तुति भी बहुत अच्छी लगी, बधाई आपको ।"
2 hours ago

मुख्य प्रबंधक
Er. Ganesh Jee "Bagi" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"वाह आदरणीय वाह, पर्यावरण पर केंद्रित बहुत ही सुंदर रचना प्रस्तुत हुई है, बहुत बहुत बधाई ।"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई हरिओम जी, सादर आभार।"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई हरिओम जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर बेहतरीन कुंडलियाँ छंद हुए है। हार्दिक बधाई।"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई हरिओम जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर बेहतरीन छंद हुए है। हार्दिक बधाई।"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई तिलक राज जी, सादर अभिवादन। आपकी उपस्थिति और स्नेह से लेखन को पूर्णता मिली। हार्दिक आभार।"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई सुरेश जी, हार्दिक धन्यवाद।"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई गणेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।"
3 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service