सार्थक रचनाकर्म शाब्दिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं होता, बल्कि यह एक सुगढ़ काव्य-अनुशासित भाव-संप्रेषण है । रचनाकर्म भावुक किन्तु आग्रही अभिव्यक्तियों के बावज़ूद काव्य-अनुशासन से जितनी दूर जाता है, उतना ही दुरूह और क्षणभंगुर होता जाता है । पद्य-रचनाओं को यदि क़ायदे से समझा जाय तो छान्दसिकता, गीतात्मकता या शब्द-प्रवाह कविकर्म के अहम हिस्सा रहे हैं । इनकी होती लगातार कमी पद्य-प्रस्तुतियों को आमजन से दूर लेती चली गयी है । यही कारण है, कि मुक्तछन्द की भी बात वही कर सकता है, जिसे छन्दों की मूलभूत समझ हो । वस्तुतः छन्दों से रचनाओं की मुक्तता का अर्थ ही सही ढंग से समझा नहीं गया है । यही छन्द के विरुद्ध व्याप गये किसी भ्रम का मुख्य कारण है ।
एक प्रश्न सहज ही मन में उठ सकता है, कि शास्त्रीय छन्दों पर आधारित रचनाएँ आज कितनी प्रासंगिक हैं ? इनके संकलन या संग्रहों की पुस्तक की समाज को आज कितनी आवश्यकता है ? इन प्रश्नों के सार्थक, सकारात्मक तथा आश्वस्तिकारक उत्तर हैं । जिनमें एक पहलू यह भी होगा कि आज गीति-काव्य विभिन्न कलेवरों में, मसलन गीतों, नवगीतों, तुकान्त कविताओं, ग़ज़लों या मुक्तछन्द रचनाओं में अपनी मुखर गेयता के साथ पुनः मुख्यधारा में आ गया है । इसके सापेक्ष यह जानना आवश्यक होगा, कि रचना-पंक्तियों में गेयता शब्दों की मात्रा और विन्यास को समझने से ही सध सकती है, जिसके लिए छन्दों की मूलभूत जानकारी अत्यंत आवश्यक है । शब्दों के भावपूर्ण तथा सुगढ़ विन्यासजन्य प्रयोग ऐसे अभ्यासों से ही सधते हैं । छान्दसिक रचनाएँ कथ्य-विन्दुओं पर तो प्रकाश डालती ही हैं, छन्दों की मूलभूत विधाओं, उनके लालित्य एवं उनकी अवधारणाओं के प्रति काव्य-रसिकों के मन में उत्सुकता पैदा करती हैं ।
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के दौरान नीतिगत और भक्तिपरक उपदेश-रचनाओं की बाढ़ थी । सत्ता के आसपास जमे व्यक्तियों की ईर्ष्यालु मनोदशा, उनकी कुण्ठा, उनकी महत्त्वाकाक्षाएँ, उनका व्यक्तिगत अवसाद पूरे समाज का आईना बन गये थे । यही कारण है कि व्यावहारिक आचरणों में स्पष्ट दिखते ऐसे ह्रास ही नहीं पराभव के सापेक्ष पद्य-रचनाओं में ’समझाइश’ एक मुख्य शैली बन कर व्याप गई । इस्लामी शासन-सत्ता के इर्द-ग़िर्द व्यापक आधार पाता जा रहा आचरण पूरे साहित्य, विशेषकर पद्य साहित्य --मात्र यही प्रभावी साहित्य था भी-- को बुरी तरह से प्रभावित करने लगा था । ऐसे विद्रूपकारी वातावरण के विरुद्ध प्रतिकार की ध्वनि गूँजनी ही थी । भक्तिकाल के व्यापक हो जाने का मूल कारण यही था । नीतिपरक छान्दसिक रचनाएँ पूरे वेग से व्याप गयी थीं । दोहा या दोहरे की द्विपदी के साथ-साथ रोला छन्द का भी व्यापक प्रयोग हुआ । इनके संयोग और संश्लिष्टता की शिष्टता से एक विशेष छन्द का व्यापना सहज हुआ । वह छन्द था, कुण्डलिया छन्द ।
संक्षेप में बताते चलें कि कुण्डलिया एक विशिष्ट छन्द है, जो कि अर्द्धमात्रिक छन्दों की श्रेणी का है । यह वस्तुतः दो छंदों का युग्म है । जिसमें पहला छन्द दोहा और दूसरा छन्द रोला होता है । अर्थात, एक दोहा के दो पदों के बाद एक रोला के चार पद होते हैं । यानी, कुण्डलिया छः पक्तियों या पदों का छन्द है । इसके आगे, इनके संयुक्त प्रारूप को कुण्डलिया छन्द बनने के लिए थोड़ी और विशिष्टता अपनानी पड़ती है । दोहा का दूसरा सम चरण रोला वाले भाग का प्रथम विषम चरण निर्धारित होता है, तथा, जिस शब्द, शब्दांश या शब्द-समूह से छन्द का प्रारम्भ होता है, उसी शब्द, शब्दांश या शब्द-समूह से छन्द का समापन भी होता है ।
छ्न्द-साहित्य के इतिहास में वह समय भी आया है जब रचनाओं में कथ्य के तथ्य प्रभावी नहीं रह गये । रचनाओं से ’क्यों कहा गया’ गायब होने लगा और ’कैसे कहा गया’ का शाब्दिक व्यायाम महत्त्वपूर्ण होने लगा । अभिव्यक्तियाँ वाग्विलास और शब्द-कौतुक या अर्थ-चमत्कार की पोषक तथा आग्रही भर रह गयीं । पद्य-रचनाएँ सामान्य जन की भावनाओं, भाव-दशाओं या आवश्यकताओं से परे विशिष्ट वर्ग के मनस-विकारों को पोषित करने का माध्यम मात्र रह गयी थीं । चूँकि छन्द रचनाकर्म की अनिवार्यता हुआ करते थे, अतः आगे आधुनिक प्रगतिशील आन्दोलन के दौरान पद्य-साहित्य में ऐसे अन्यथाकर्मों का सारा ठीकरा फूटा छन्दों पर ! छन्दों को ही त्याज्य समझा जाने लगा । छन्द आधरित गेय रचनाओं या गीतों को ’मरणासन्न’ और, बादमें तो, ’मृत’ ही घोषित कर दिया गया । अर्थात, जिस भूमि के जन की सोच तक गीतात्मक हो, जहाँ के प्रत्येक अवसर और सामाजिक परिपाटियो के लिए कोई न कोई गीत या सरस छान्दसिक रचना उपलब्ध हों, उस जन-समाज से गीत-काव्य और रचनाएँ छीन लेने का निरंकुश अपराध हुआ ! मनुष्य के जीवन या इसके आस-पास का सारा व्यवहार एक नियत प्रवाह में, विशेष आवृतियों में हुआ करता है । धमनियों में होता रक्त-प्रवाह तक अनुशासित आवृतियों में है । बिना नियत आवृति के प्रकृति का कोई व्यवहार नहीं होता । चूँकि, छान्दसिक रचनाओं, जो कि मनुष्य़ की प्राकृतिक भावनाओं, वृत्तियों और भावदशा के शाब्दिक स्वरूप हैं, के कथ्य बिना अंतर्गेयता के संभव ही नहीं हो सकते । यही कारण है कि छान्दसिक रचनाएँ सामान्य जन-मानस को इतनी गहराई से छू पाती हैं । तभी, छन्दों के हाशिये पर ठेले जाते ही पद्य-साहित्य, जो जन-समाज की भावनाओं का न केवल प्रतिबिम्ब हुआ करता है, बल्कि जन-समाज की भावनाओं को संतुष्ट भी करता है, रसहीन हो कर रह गया । परन्तु, ऐसी अतुकान्त परिस्थितियों में भी भावार्द्र रचनाकर्मी दायित्वबोध से प्रेरित हो, तो कई बार अपनी नैसर्गिक प्रवृति के कारण, लगातार बिना किसी अपेक्षा के छान्दसिक रचनाकर्म करते रहे । एक पूरे वर्ग का छान्दसिक रचनाओं पर सतत अभ्यास बना रहा ।
उपर्युक्त कथ्य के आलोक में नैसर्गिक भाव के कुण्डलिया छ्न्द-कवि त्रिलोक सिंह ठकुरेला का कुण्डलिया छन्द के प्रति उत्कट आग्रह के साथ सतत क्रियाशील रहना कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है । त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने छन्दसिक रचनाएँ ही नहीं की हैं, बल्कि अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण कई अन्य रचनाकारों से भी सार्थक अभ्यास करवाया है । यह उनकी अभ्यासी प्रवृति ही है, कि उनकी रचनाओं के तथ्यों में जहाँ आमजन के दैनिक-व्यवहार को स्थान मिलता है, वहीं कुण्डलिया छन्द के विधान की छान्दसिक रचनाओं में भी वर्ण और मात्रिक गणना से कोई समझौता हुआ नहीं दिखता । इन मायनों में त्रिलोक सिंह ठकुरेला स्वयं के लिए भी ऊँचे मानक निर्धारित करते हैं तथा इसके प्रति अन्य छन्दकारों को अनुप्रेरित करते हैं । तभी तो इस अर्द्धमात्रिक छन्द के रचनाकारों द्वारा हुए प्रयासों में शब्दों का संयोजन तो बस देखते ही बनता है । इस कारण सामान्य से विषय़ भी छन्दोबद्ध हो कर अवश्य पठनीय हो जाते हैं । साथ ही, उनकी प्रस्तुत हुई रचनाओं की विशेषता है, तथ्य, शिल्प, भाव, रस के साथ-साथ रचनाओं में उपयुक्त शब्दों का सार्थक चयन का होना । इस कारण उनकी रचनाओं की संप्रेषणीयता समुचित रूप से बढ़ जाती है ।
इन्हीं त्रिलोक सिंह ठकुरेला के सम्पादन में एक वर्ष के अंतराल पर जोधपुर, राजस्थान के ’राजस्थानी ग्रन्थागार’ से दो कुण्डलिया-संग्रह प्रकाशित हुए हैं - ’कुण्डलिया कानन’ तथा ’कुण्डलिया संचयन’ । इन दोनों संग्रहों में त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने क्रमशः कुल इक्कीस तथा चौदह छन्दकारों की कुण्डलिया रचनाओं को सम्मिलित किया है । कुण्डलिया छन्द के आदि कवि का नाम बताना तो संभव नहीं है, लेकिन ’कुण्डलिया कानन’ के प्राक्कथन में सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला कहते हैं - ’गिरिधर से पूर्व स्वामी अग्रदासने कुण्डलिया नामक कृति की रचना की ।’ किन्तु, स्वामी अग्रदास की रचनाओं से सम्पादक परिचित करा नहीं पाये हैं । अलबत्ता, ’कुण्डलिया कानन’ में ’धरोहर’ के अंतर्गत गिरिधर कविराय, सन्त गंगादास तथा कपिल कुमार की कुण्डलिया-रचनाएँ सम्मिलित हुई हैं । आगे, इस संग्रह में आज के छ्न्दकारों में सर्वश्री कैलाश झा किंकर, गाफ़िल स्वामी, गोपाल कृष्ण भट्ट आकुल, डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, टीकम चन्दर ढोडरिया, तोताराम सरस, डॉ. नलिन, महावीर उत्तरांचली, रघुविन्द्र यादव, राजकुमार राज, राजेन्द्र बहादुर राजन, राजेश प्रभाकर, रामशंकर वर्मा, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर. शिव कुमार दीपक, शून्य आकांक्षी, साधना ठकुरेला, त्रिलोक सिंह ठकुरेला की रचनाओं को समादृत किया गया है ।
दूसरे संग्रह ’कुण्डलिया संचयन’ के कुल चौदह छन्दकारों में कई उन छन्दकारों की रचनाओं को पुनः स्थान दिया गया है, जो कुण्डलिया कानन में जगह पा चुके थे । इस संग्रह में जिन नये छन्दकारों की रचनाएँ सम्मिलित हुई हैं, वे हैं - अशोक कुमार रक्ताले, डॉ. ज्योत्सना शर्मा, परमजीत कौर रीत, डॉ. प्रदीप शुक्ल, महेन्द्र कुमार वर्मा, शिवानन्द सिंह सहयोगी, हातिम जावेद एवं हीरा प्रसाद हरेन्द्र । दोनों कुण्डलिया-संग्रहों की अलग-अलग चर्चा न कर हम सम्मिलित चर्चा करेंगे ।
सर्वप्रथम, इस तथ्य के लिए सम्पादक की प्रशंसा करनी ही होगी, कि, उन्होंने शैल्पिक दृष्टि से कुण्डलिया के प्रारूप को एक समान रखा और रखवाया है । वस्तुतः, प्राचीन काल से ही रोला छन्द के कई प्रारूप प्रचलित रहे हैं । चरणों की मात्रिकता के तौर पर सर्वमान्य 11-13 की यति पर रोला छन्द की पंक्तियाँ आबद्ध हुआ करती हैं । परन्तु, यति का क्रम तथा पंक्तियों में चरणान्त, शब्द-विन्यास आदि में भारी भेद दिखता है । हम उनकी चर्चा नहीं करने जा रहे । परन्तु, मूलभूत तथा अति प्रचलित विधान रोला की प्रति पंक्ति में दोनों चरणों में तुकान्तता को लेकर विशेष विन्दुवत होने की अपेक्षा करता है । विषम चरण का चरणान्त गुरु-लघु से होने के साथ-साथ, समचरण का प्रारम्भ त्रिकल शब्द से तथा इसी चरण का अन्त समकल शब्द से किये जाने का विधान है । शैल्पिक दृष्टि से अन्यान्य विधा-विन्दुओं को भी यथा सम्भव दूर रखा गया है । चाहे दोहा वाले भाग की बात हो या रोला वाले भाग की, शब्द-संयोजन और यति को सम्पादक ने एकसार रखने में बहुत हद तक सफलता पायी है । रोला छन्द के विभिन्न और प्रचलित प्रारूपों की शैल्पिकता को देखते हुए ऐसा सम्भव करवाना इतना सरल नहीं था ।
जहाँ तक कथ्य का सवाल है, जीवन के लगभग सभी पहलू शब्दों में सिमट आये हैं । देश की दशा, बाज़ार का आतंक, वैयक्तिक भावोद्गार, संयोग-वियोग शृंगार, थकता हुआ हौसला, सामुहिक ऊर्जस्विता, श्रम, क्षीण होती मनोदशा, पाप-पुण्य की सोच, नैतिक मनोभाव, जीवन-चेतना, शिक्षा, ग्रामीण परिवेश में फैलती हताशा, शहर की मशीनी ज़िन्दग़ी, ऋतु-संहार, प्रकृति-सुषमा, मौसम का अटपटापन, पर्व-त्यौहार की उत्फुल्लता और विसंगतियाँ, महँगाई, पारिवारिक विघटन आदि-आदि विषयों को प्रमुखता से शब्दबद्ध किया गया है । कहने का तात्पर्य है, कि इन विषयों पर कमोबेश सभी छन्दकारों की कलम खूब चली है । देश की ऋतुएँ, पर्यावरण, जल-समस्या, प्रकृति, जन-अनुशासन रचनाओं के विषय हों, तो कवियों की सोच की गहनता को सहज ही समझा जा सकता है ।
छन्दकारों की दृष्टि में दिख रहे बाज़ार के प्रति भावना की एक बानग़ी - मुद्राओं में मैं नहीं, बिकने को तैयार / फिर भी जाने क्यों मुझे, बुला रहा बाज़ार / बुला रहा बाज़ार, फेंकता नित्य प्रलोभन / बेच रहा है प्यार, दर्द, आसूँ, सम्बोधन / रचता नये प्रपंच, अजानी भाषाओं में / नहीं बिकूँगा मित्र, कभी मैं मुद्राओं में ! (डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर / कुण्डलिया कानन) । इसी क्रम में देश के प्रति गहन भाव शाब्दिक हुए हैं - उभरी देखो देश की, खौफ़नाक तस्वीर / भाव ज़मीनों के बढ़े, सस्ते हुए ज़मीर / सस्ते हुए ज़मीर, लोग हो गये बिकाऊ / आज पुरातन मूल्य, नहीं रह गये टिकाऊ / संस्कृति थी सिरमौर, गर्त में देखो उतरी / खौफ़नाक तस्वीर, देश को देखो उभरी ! (रघुविन्द्र यादव / कुण्डलिया कानन) ।
सामाजिक विद्रूपता का यह चित्रण वास्तव में द्रष्टव्य है - निर्धन के तो पास हैं, भूख पेट की एक , धनवानों की भूख के, देखो रूप अनेक / देखो रूप अनेक, नहीं है गिनती कोई / पाते कब संतोष, कामना है, कब है सोई / कहें नलिन कविराय, दास होते हैं धन के / कब आते हैं काम, कहो तो ये निर्धन के । (डॉ. नलिन /कुण्डलिया कानन) । नव दिवस को मिले शब्दों, कवि की सोच और उसके आयाम को कौन पाठक अनुमोदित नहीं करना चाहेगा ? -- पत्ते-पत्ते झूमते, लय भरता भिनसार / पंछी के संपन्न स्वर, तितली की मनुहार / तितली की मनुहार, गीत भँवरों के गाये / पल्लव के नवगीत, कंठ से कंठ मिलाये / ’सहयोगी’ की सोच, सजे खुशियों के छत्ते / कलरव के संगीत, गुँजे हैं पत्ते-पत्ते । (शिवानन्द सिंह ’सहयोगी’ / कुण्डलिया संचयन)
प्रकृति-सुषमा को कितने आग्रह से उभारा गया है ! - दिनकर है आकाश में, रक्तिम उसके नैन / रात-रात भर जाग कर, सुबह हुई बेचैन / सुबह हुई बेचैन, चले सब झिलमिल तारे / खिल-खिल हँसती रात, थक गये बेचारे / चन्दा का मुख म्लान, धरे वह पग-पग गिनकर / प्रभुता का अहसास, कराने आया दिनकर ! (डॉ. प्रदीप शुक्ल / कुण्डलिया संचयन)
इसी क्रम में ग्रामीण परिवेश की मधुर-मनोहर अनुभूतियों के सापेक्ष इन पंक्तियों को देखना सुखद होगा - गोरी के मन खेत में, खिलने लगा वसंत / रंग-बिरंगे पुष्प सम, खिलतेभाव अनंत / खिलते भाव अनंत, सिन्धु मन में लहराये / चली प्यार की नाव, ध्वजा फर-फर फहराये / चकी प्यार में पीत चुनर गोरी की कोरी / लहराये बल खाये, मगन मन में है गोरी ! (अशोक कुमार रक्ताले / कुण्डलिया संचयन)
ऐसा नहीं है, कि जन-समाज की समस्याओं या दारुण अवस्था पर छन्दकारों की दृष्टि नहीं गयी है । समाज की आर्थिक विषमता पर कवि की दृष्टि कितनी विन्दुवत है - खुदग़र्जी के नाव पर, होकर लोग सवार / देखो, करने चल पड़े, रिश्तों का व्यापार / रिश्तों का व्यापार, दग़ाबाज़ी का धन्धा / लालच में हर शख्स, बना बैठा है अन्धा / चेतो ऐ जावेद, यही है मेरी अर्जी / वरना जग में आग, लगा देगी खुदग़र्जी ..( हातिम जावेद / कुण्डलिया संचयन)
कन्या-दशा और भ्रूण-हत्या को लेकर हो रहे बड़े-बड़े दावों के बीच वस्तुस्थिति क्या है, यह छुपा हुआ सत्य नहीं है । ऐसे में इस विषय पर कुछ न कहना ही आश्चर्यचकित करता. कुण्डलिया छन्द के माध्यम से बड़ा सीधा प्रश्न किया गया है - हत्या करके भ्रूण की, कमा रहे हो पाप / बेटी को बेवज़् ही, समझ रहे अभिशाप / समझ रहे अभिशाप, बेटियाँ दुर्गा-काली / उन्हें धैर्य के साथ, सुशिक्षित कर दो आली / कह ’हरेन्द्र’ सिरताज़, बनेगी संग अक्षर के / व्यर्थ बटोरे पाप, भ्रूण की हत्या कर के । (हीरा प्रसाद हरेन्द्र / कुण्डलिया संचयन)
देश की समस्याओं का मुख्य कारण आजकी कुत्सित प्रशासन व्यवस्था तथा स्वार्थी राजनेता हैं । इस संदर्भ को शाब्दिक करती यह कुण्डलिया अत्यंत स्पष्ट है - लिये तिरंगा गर्व से, बोला मैं आज़ाद / तभी बिछौने आ गये, फुटपाथों के याद / फुटपाथों के याद, ठिठुरते बिस्तर सारे / नारी है लाचार, मनुज दानव के मारे / तरह-तरह की लूट, कहीं नज़हब का दंगा / युवा-फ़ौज़ बेकार, खूमत्री लिए तिरंगा ! (अशोक कुमार रक्ताले / कुण्डलिया संचयन)
या फिर, युग बदला तो प्रगति के, बदल गये प्रतिमान / कंकरीट के वन उगे, निगल खेत-खलिहान / निगल खेत-खलिहान, बैल, हल, माची, चरखा / वट की शीतल छाँव, अषाढ़ी रिमझिम बरखा / कह ’मिस्टर कविराय’, चंद सिक्कों में पगला / बेच रहा ईमान, सखे कैसा युग बदला ? (रामशंकर वर्मा / कुण्डलिया कानन)
देश की जो स्थिति है, इस पर कविगण की संवेदना मुखर न होती, यह हो ही नहीं सकता था - संसाधन की होड़ को, कैसे कहें विकास / मिलता नैतिक मूल्य को, हर दिन ही वनवास / हर दिन ही वनवास, सत्य के दुर्दिन आये / भ्रमित करें प्रतिबिम्ब, झूठ ने जाल बिछाये / ’ठकुरेला’ कविराय, बस्तियाँ उजड़ीं मन की / प्रियतम हुआ पदार्थ, पूछ बस संसाधन की । (त्रिलोक सिंह ठकुरेला / कुण्डलिया संचययन)
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि इन संग्रहों की रचनाओं की संप्रेषणीयता अत्यंत प्रभावी है । लेकिन इस तथ्य की ओर से भी आँखें मूँदी नहीं जा सकतीं कि इन रचनाओं का आधार-विन्दु या उद्येश्य क्या है । कुण्डलिया छन्द की रचनाओं को आज की भाषा तथा आज के बिम्बों के सापेक्ष संदर्भ की तरह प्रस्तुत करना एक बात है, और यह अवश्य ही श्लाघनीय प्रयास है, परन्तु, किसी उद्येश्य के अंतर्गत हुआ रचनाकर्म न केवल पाठकों को संतुष्ट करता है, बल्कि सचेत भी रखता है । भविष्य के संग्रहों को लेकर सम्पादक का ध्यान इस ओर अवश्य बना रहे । दूसरे, रचना-संग्रहों का सम्पादन मात्र रचना समुच्चय हेतु किया जाने वाला प्रयास प्रतीत होने लगे तो ऐसे प्रयासों की पहुँच बहुत व्यापक नहीं बन पाती । साहित्यिक इतिहास सदैव से साक्षी रहा है, कि सोद्येश्य काव्य-संग्रह ही आज तक उद्धृत किये जाते रहे हैं । एक तथ्य सर्वस्वीकार्य है कि रचनाओं की दशाएँ और उनकी शैल्पिक तथा वैधानिक स्थिति ही रचनाकारों को स्वीकार्य बनाती हैं । तात्पर्य यह है, कि रचनाकार ही नहीं, रचनाएँ भी रचनाकारों को गढ़ती हैं । यह अलग बात है, कि गहन सतत अभ्यास और समृद्धकारी अनुभव किसी रचनाकार की पूँजी होते हैं जिनके आधार पर रचनाकारों की रचनाओं की गहराई प्रभावी हुआ करती है । इस विन्दु पर रचनाकारों के सूची का संयत रहना अत्यंत अवश्यक हुआ करता है । किसी रचनाकार को किसी संग्रह में क्यों स्थान मिला इसकी जानकारी मिलना सम्पादक से अपेक्षित तो होता ही है, संग्रह की महत्ता को भी बढ़ा देता है । विश्वास है, आगामी संग्रहों में ऐसे तथ्यों तथा विन्दुओं की ओर सम्पादक का ध्यान आगामी संग्रहों में अवश्य रहेगा ।
यह बात तो तय है कि कुण्डलिया छन्द से तथ्य तार्किक तथा प्रभावी ढंग से संप्रेषित किये जा सकते है । आवश्यकता यही है कि आज की पीढ़ी इस छन्द को रचनाकर्म का माध्यम बनाये । सबसे बड़ी बात है, कि कूण्डलिया छन्द के माध्यम से किसी विषय को छः पंक्तियों में मुक्तक की तरह प्रस्तुत किया जाता है । आज की भाग-दौड़ की ज़िन्दग़ी में ऐसे रचना-माध्यमों की महत्ता स्वयमेव बढ़ जाती है । निस्संदेह त्रिलोक सिंह ठकुरेला का कुण्डलिया छन्द को लेकर बना आग्रह इस छन्द की व्यापकता को पुनर्स्थापित करेगा । दोनों संग्रहों की छपाई और कलेवर आकर्षक हैं । प्रुफ के प्रति बनी दृष्टि प्रभावित करती है । वैसे तनिक गुंजाइश तो सदा बनी रहती है । दोनों संग्रह हार्ड-बाइण्ड हैं । छान्दसिक रचनाओं के अभ्यासियों तथा पाठकों के पास इन दोनों संग्रहों का होना निस्संदेह उनकी ’दृष्टि’ को व्यापक करेगा । इन्हीं शुभकामनाओं के साथ राजस्थान ग्रन्थागार, जोधपुर से प्रकाशित दोनों कुण्डलिया-संग्रहों ’कुण्डलिया कानन’ तथा ’कुण्डलिया संचयन’ में सम्मिलित सभी रचनाकारों को उनकी प्रस्तुतियों और सारस्वत सहभागिता के लिए बधाई !
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काव्य-संग्रह : ’कुण्डलिया कानन’ तथा ’कुण्डलिया संचयन’
सम्पादन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कलेवर - हार्ड बाइण्ड
मूल्य - क्रमशः रु. 200/ तथा रु. 150/
संपर्क - 09460714267, 07891857409
ई-मेल - trilokthakurela@gmail.com
प्रकाशक - राजस्थान ग्रन्थागार, जोधपुर
ई-मेल - rgranthagar@satyam.net.in
वेब-साइट : www.rgbooks.net
संपर्क - 0291-2657531, 2623933
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समीक्षक - सौरभ पाण्डेय
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आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जब से आपके द्वारा की गई "कुण्डलिया कानन" और "कुण्डलिया संचयन" की समीक्षा पटल पर आयी है तभी से प्रतिक्रिया देना चाह रहा था. आज संयोग बन पाया है. आपने पुस्तक समीक्षा के साथ ही छंद रचनाओं के महत्त्व और आवश्यकता पर भी लिखा है. समीक्षा में कुण्डलिया छंद की उत्पत्ति और उसके विधान से समीक्षा और भी लाभकारी हुई है. आपके द्वारा यह कहे जाने से कि "त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने छन्दसिक रचनाएँ ही नहीं की हैं, बल्कि अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण कई अन्य रचनाकारों से भी सार्थक अभ्यास करवाया है । यह उनकी अभ्यासी प्रवृति ही है, कि उनकी रचनाओं के तथ्यों में जहाँ आमजन के दैनिक-व्यवहार को स्थान मिलता है, वहीं कुण्डलिया छन्द के विधान की छान्दसिक रचनाओं में भी वर्ण और मात्रिक गणना से कोई समझौता हुआ नहीं दिखता ।" सम्पादक के श्रम को पारितोषक मिलने जैसा है. जहाँ आपने छंदों की संप्रेषणीयता की व्यापकता को सराहा है वहीँ आपका "रचनाकार ही नहीं, रचनाएँ भी रचनाकारों को गढ़ती हैं" इशारा भी बहुत कुछ कह रहा है. कुछ आपके सुझाव भी उत्तम हैं. "कुण्डलिया संचयन" में मेरे द्वारा रचे गए भी कुछ छंद हैं. आपके द्वारा की गई दोनों ही कुण्डलिया संकलन की इस सुंदर और सटीक समीक्षा के लिए हार्दिक आभार. सादर.
आदरणीय अशोक भाईजी, यह समीक्षा त्रैमासिक पत्रिका ’विश्वगाथा’ के सद्यः प्रकाशित अंक में भी प्रकाशित हुई है. इस समीक्षा का भी प्रतिसाद बढिया मिला है. आपने मेरे कहे का सार्थक और तार्किक अनुमोदन कर मेरा उत्साहवर्द्धन ही नहीं किया है बल्कि मेरी समीक्षा शैली को भी यथाउचित सम्मान दिया है.
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.
काव्य-संग्रह : ’कुण्डलिया कानन’ तथा ’कुण्डलिया संचयन’ की सारगर्भित समीक्षा के लिए आपका आभार ।
- शून्य आकांक्षी
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