पुस्तक : जाति कोई अफ़वाह नहीं (रोहित वेमुला की आॅनलाइन डायरी)
लेखक : रोहित वेमुला
अनुवादक : राजेश कुमार झा
संपादक : निखिला हेनरी
प्रकाशक : जगरनाॅट बुक्स, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2017
मूल्य : 250.00 रु०
दर्शन की प्रमुख समस्या क्या है? यदि अल्बेयर कामू की मानें तो वह समस्या केवल एक ही है, आत्महत्या। प्रश्न उठता है कि लोग आत्महत्या क्यों करते हैं? साथ ही यह भी कि आत्महत्या करने वालों को कायर क्यों कहा जाता है? क्या यह बचकाना अथवा बेतुका है इसलिए? या कि फिर इसलिए कि आत्महत्या करने वाला मानसिक रूप से कमज़ोर होता है? अथवा बीमार? क्या हो यदि वे बीमार न हों? या मानसिक रूप से मजबूत हों? आत्महत्या और हत्या में क्या अन्तर है? कहीं आत्महत्या भी एक प्रकार की हत्या तो नहीं? आदिल मंसूरी ने अपने इस शेर में इस तरफ इशारा किया है, कोई ख़ुदकुशी की तरफ़ चल दिया, उदासी की मेहनत ठिकाने लगी।
हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध-छात्र रोहित वेमुला चक्रवर्ती (30.01.1989-17.01.2016) ने पिछले वर्ष ख़़ुदकुशी की थी जिसके बाद देशभर में उसके समर्थन में प्रदर्शन हुए थे। इस सम्बन्ध में जहाँ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि अशोक वाजपेयी ने हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त अपनी डी०लिट० की डिग्री वापस कर दी तो विश्व के लगभग 130 विद्वानों ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को खुला ख़त लिखा। यह किताब (जाति कोई अफ़वाह नहीं) उसी रोहित वेमुला की फेसबुक पोस्ट्स (आॅनलाइन डायरी) का पेपरबैक संस्करण है। पुस्तक के रूप में ढालने के लिए उसकी पोस्ट्स का चयन और संपादन का कार्य निखिला हेनरी ने किया है जो कि फेसबुक पर रोहित वेमुला की दोस्त और हैदराबाद में द हिंदू अख़बार की पत्रकार हैं। अनुवाद का कार्य राजेश कुमार झा ने किया है। पुस्तक का शीर्षक ‘जाति कोई अफ़वाह नहीं’’ रखने के पीछे की कहानी यह है कि रोहित वेमुला अपनी पोस्ट्स #CasteIsNotARumour (जाति कोई अफ़वाह नहीं) हैशटैग से लिखा करता था। पुस्तक के नाम के साथ-साथ संपादक ने अपनी भूमिका के शीर्षक (सितारों की धूल और नर्क की आग) में भी रोहित वेमुला की छाप बरकरार रखी है। 27 अक्टूबर 2014 की अपनी पोस्ट में रोहित कहता है कि ‘‘हम सितारों की धूल और ओस की बूँदों से बने हैं।’’ इसमें जोड़ती हुई निखिला कहती हैं कि ‘‘वेमुला केवल सितारों की धूल और ओस की बूंदों से नहीं बना था। वह तो एक चिन्गारी था। उसकी पैदा की हुई चिन्गारी ने एक ऐसी आग को जन्म दिया जिसने देश को अपने आगोश में लेकर इसके विवेक को झिंझोड़ कर रख दिया।’’
लेकिन, रोहित वेमुला की फेसबुक पोस्ट्स को एक पुस्तक के रूप में ढालने की आवश्यकता क्या थी? बकौल संपादक, ‘‘गाज़ा से लेकर गाज़ियाबाद तक शायद ही कोई मुद्दा हो जिसपर वेमुला ने अपनी आॅनलाइन टिप्पणी न दी हो। ...उसके जीवन दर्शन की उड़ान बहुत ऊँची थी। ...उसके लेखन के साथ चलना अपने आप में एक दुस्साहसपूर्ण यात्रा से कम नहीं है। इस यात्रा के दौरान उसके लेखन में किसी को नहीं बख़्शने वाला व्यंग्य दिखायी देता है।’’ संपादक की इस बात के प्रमाण के रूप में रोहित की इस टिप्पणी को उद्धृत किया जा सकता है - ‘‘धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा अंडा है जो आधा सड़ा है तो आधा अच्छा।’’
रोहित फेसबुक पर 2008 से सक्रिय था। संपादक ने रोहित की इन लगभग आठ वर्षों की पोस्ट्स को पुस्तक के रूप में ढालने के लिए उन्हें क्रमवार प्रस्तुत न करके विषयवार प्रस्तुत किया है जो कि मेरी समझ से एक अच्छा निर्णय है। इससे पाठकों को रोहिता वेमुला के व्यक्तित्त्व को समझने में मदद मिलेगी। पुस्तक में उसके व्यक्तित्त्व के अलग-अलग रंगों से सम्बन्धित कुल चैदह अध्याय हैं। आमतौर पर जीवनी से सम्बन्धित पुस्तकों में प्रारम्भिक जीवन का पहले और अन्तिम समय का ज़िक्र आखि़री में होता है किन्तु यहाँ पर पहला अध्याय, ‘अंतिम यात्रा’, रोहित के अन्तिम दिनों और अन्तिम अध्याय, ‘शुरुआती जीवन’, प्रारम्भिक दिनों से सम्बन्धित है। पुस्तक के अन्य अध्याय क्रमशः ज़िंदगी, रोमांस और अपने बारे में; दो कविताएं और एक अनुवाद; ‘राष्ट्र-द्रोही’ नास्तिक; जाति कोई अफ़वाह नहीं; क्रांति में जेंडर के सवाल; शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित होः आंबेडकर और आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन; हिंदू दक्षिणपंथ से सामना; उतना अच्छा प्रशासन नहीं; भारतीय वामपंथ या केंद्र से वाम; लाल रंग से दूर, नीले आसमान की ओर; राजनीति और मीडिया; और, लोग अलग किस्म के होते हैं हैं।
संपादक ने प्रत्येक अध्याय के पहले उसका परिचय भी दिया है जिससे उस अध्याय से सम्बन्धित पोस्ट्स की विषयवस्तु स्पष्ट हो सके। पुस्तक में हर एक पोस्ट के साथ उसकी दिनांक का भी उल्लेख है। पहले अध्याय में, जैसा कि हम जानते हैं कि यह रोहित के अन्तिम समय से सम्बन्धित है, हिंसा अथवा युद्ध सम्बन्धी अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए वह कहता है कि ‘‘मरना या मारना किसी भी तरह से गौरव की बात नहीं। 21वीं सदी में युद्ध या मौत का जश्न मनाने का कोई मतलब नहीं। अगर हमें सिर्फ मारने की कला आती है तो यह एक अभिशाप है।’’ युद्ध सम्बन्धी उसके विचार हमें चैथे अध्याय में भी मिलते हैं, ‘‘मैं किसी भी युद्ध का समर्थन नहीं करता। मैं धर्म या राष्ट्र के नाम पर युद्ध के विचार को खारिज करता हूं।’’
रोहित की पोस्ट्स में उसकी सोच के विभिन्न फ़लक स्पष्ट रूप से दिखायी देते हैं। दूसरा अध्याय उसकी जिन्दगी और रोमांस से सम्बन्धित है जहाँ अपने घर का उल्लेख करते हुए वह कहता है कि ‘‘हमारे घर में एक रेफ्रिजेरेटर है जिसके कारण हमारे घर को मुहल्ले में लोग बहुत प्यार करते हैं। मैं इसमें रखे पानी की बोतलें नहीं छूता क्योंकि उनमें से ज़्यादातर पड़ोसियों की हैं। टीवी का रिमोट तो प्रायः हमेशा पड़ोस के बच्चे के हाथ में ही रहता है।’’ रोहित औरतों पर होने वाले अत्याचार और घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ था। वह साफ़-साफ़ कहता है कि ‘‘...असली मर्दानगी तो तब है जब औरत आप के साथ रहना चाहे (न कि उसे साथ रहने को मजबूर करने में)’’ रोहित को बियर, सिगरेट और काॅफी पीना, तेज़ आवाज़ में संगीत सुनना और दोस्तों के साथ फोन पर बात करना बेहद पसन्द था। उसने इनके विषय में भी लिखा है। यह अंश देखने लायक है, ‘‘मुझे सिगरेट छोड़ने का उपदेश देने वाले लोगों को मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं- ‘श्रीमान इस दुनिया को बदलने और इसे बेहतर बनाने में आपकी रुचि से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। कैसा रहे कि हम यहीं बने रहें और सिगरेट पीने की इस गंदी हरकत से छुटकारा पा लेने के बाद हम लोग भारत में जाति व्यवस्था से लड़ने, बड़े व्यावसायिक काॅरपोरेशनों के सरकार पर नियंत्रण, सरकारी कामों को बाहर की संस्थाओं को सौंपने, महिलाओं के लिए क़ानूनी सुविधाओं के अभाव, धर्म और धार्मिक संप्रदाय, आज की दुनिया पर टेक्नोलाॅजी के प्रभाव, वर्तमान युग में समाजवाद और मानवतावाद की संभावनाओं जैसे गैर फैशनेबल मुद्दों के लिए लड़ने के कुछ रास्ते भी तलाशने की कोशिश करें!!!’’ मौजूदा समय पर टिप्पणी करते हुए वह कहता है कि ‘‘हम मानव इतिहास के सबसे बेहूदा वक्त में जी रहे हैं।’’ और फिर दार्शनिक अन्दाज़ में पूछता है, ‘‘अपने अंदर के शैतान से तुम आखिरी बार कब मिले थे?’’ इस अध्याय की एक पंक्ति उसके चिन्तक और कवि होने का साफ़ सबूत देती है, ‘‘किसी के साथ रहकर भी अकेले महसूस करने से बेहतर है अकेले रहना।’’
रोहित ने दो कविताएँ भी लिखी हैं, ‘एक दिन’ और ‘अनाम’। ये दोनों कविताएँ पुस्तक के तीसरे अध्याय में दी हुई हैं। मैं इन कविताओं पर पुनः लौटूँगा। फिलहाल चैथे अध्याय का ज़िक्र करते हैं जिसमें रोहित के राष्ट्रवाद, धर्म, ईश्वर और नास्तिकता सम्बन्धी विचारों का उल्लेख है। राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में वह कहता है कि ‘‘हम जिस हवा में सांस लेते हैं उसकी कोई राष्ट्रीयता नहीं होती। ...राष्ट्रवाद हमारी कल्पना का एक अनचाहा दुष्परिणाम है। यह दूसरों को कठघरे में खड़ा करने का एक बहाना या किसी दूसरे इंसान की हार का जश्न मनाने का कारण बन चुका है।’’ उसके अनुसार, ‘‘धर्म एक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक तकनीक है जिसका इस्तेमाल मानवता पर नियंत्रण करने और सत्ता को अपने पास बनाए रखने के लिए किया जाता है।’’ वह हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षता, दोनों को आड़े हाथों लेता है, ‘‘हिंदुत्व जहां एक जहरीली विचारधारा है वहीं धर्मनिरपेक्षता चूंचूं का मुरब्बा।’’ रोहित किसी एक धर्म को नहीं बल्कि सभी धर्मों को खारिज करता है। वह त्योहारों की सार्थकता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, ‘‘अगर कहीं ईश्वर होंगे तो उन्हें त्योहार के दिनों में पूजापाठ जैसे बेमतलब आयोजनों को देखकर सचमुच तकलीफ हो रही होगी।’’ इसी क्रम में वह कहता है कि ‘‘मैं स्वर्ग में जाने या वहां मिलने वाली मदिरा के लोभ से कोई काम नहीं करता। मैं तभी कोई काम करता हूं जब मुझे करने की इच्छा होती है... अपना निर्णय लेने के लिए मैं धर्मग्रंथों या मंत्रों का सहारा नहीं लेता... मेरे पास नामुराद एक दिमाग है जो निर्णय ले सकता है।’’
रोहित के जाति सम्बन्धी विचार हमें पाँचवे अध्याय, ‘जाति कोई अफ़वाह नहीं’, में मिलते हैं। जाति के सम्बन्ध में एक प्रमुख समस्या यह है कि यदि कोई जाति की बात करता है तो हम उसी के ऊपर जातिवाद फैलाने का आरोप लगा देते हैं। इस पर टिप्पणी करते हुए रोहित कहता है कि ‘‘जाति के बारे में नहीं बोलने से जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाएगी। हां, इतना ज़रूर होगा कि यह भेदभाव को बेनाम बना देगा।’’ सामाजिक कारणों से निचली जाति के बच्चे अक्सर अपनी जाति को छुपाते हैं। वह उन्हें अपनी चुप्पी तोड़ने को कहता है, ‘‘अन्याय के खि़लाफ़ सवाल खड़े करो... न्याय के पक्ष में खड़े हो... आज्ञाकारी मत बनो, आज्ञाकारी होना भेड़ों, पालतू जानवरों और गुलामों के लिए अच्छा होता है।’’ मगर हर कोई इतना मजबूत नहीं होता। इनमें से कई तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। इसके लिए रोहित सरकार को कटघरे में खड़ा करता है, ‘‘लोगों को जब लगे कि उनके लिए अपमानजनक जीवन जीने से बेहतर मौत है तो सरकारों को अपने शासन का फिर से मूल्यांकन करना चाहिए।’’ यह बेहद अफ़सोसजनक है कि अन्त में रोहित स्वयं वही रास्ता चुनता है जिस पर चलने के लिए वह औरों को मना करता था।
महिलाओं के सम्बन्ध में रोहित के विचार एकदम स्पष्ट थे। वह उनके ऊपर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा अथवा अत्याचार का कटु आलोचक था। अगले अध्याय में वह साफ कहता है, ‘‘आज हम लोगों में से कुछ लोग भाई, पिता या ब्वाॅयफ्रेंड बनकर लड़कियों के ऊपर नियंत्रण करने में आनंद का अनुभव करते हैं। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि यह अधिकार हमें स्त्रियों ने ही दिया है। किसी भी संबंध में ऐसे अधिकारों को किसी के हाथ में सौंपने का कारण या तो भय होता है या प्यार। यह बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए कि यह अधिकार हमें दिया गया है न कि हमने इसे हासिल किया है।’’ अगले दो अध्याय क्रमशः आंबेडकर और हिंदू दक्षिणपंथ से सम्बन्धित हैं। नौवें अध्याय में बुरे प्रशासन से सम्बन्धित विचार मिलते हैं। बुरी प्रशासन व्यवस्था पर चेतावनी देते हुए वह कहता है कि ‘‘सरकार या कोई व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा या ताकतवर क्यों न हो, जनता की मुट्ठी जब बंध जाती है तो फिर उन्हें झुकना ही पड़ता है।’’ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अच्छे प्रशासन अथवा राज्य की पहचान है। ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना तो देश को लोकतांत्रिक कहने का कोई मतलब नहीं भले ही क़ानून की किताब में कुछ भी लिखा हो।’’ 11 नवंबर 2015 की उसकी पोस्ट विशेष उल्लेखनीय है, ‘‘...अगले कुछ वर्षों में हम और आज जो समाचार देखते हैं उसे भी इंग्लैंड और अमरीका के धुएं भरे स्टूडियो में बनाया जाएगा। ...महामारियों को तबतक प्रतीक्षा करनी होगी जबतक मोटापे और धूल में झुलसी चमड़ी का इलाज नहीं खोज लिया जाएगा।’’
अगले दो अध्याय भारतीय वामपंथ से आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन तक की उसकी यात्रा को दर्शाते हैं। वहीं बारहवां अध्याय राजनीति और मीडिया पर है। इस अध्याय में छद्म विकास पर टिप्पणी करते हुए रोहित कहता है, ‘‘...इस दुनिया में एक तरह का फरेब चल रहा है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर, संयुक्त राष्ट्रसंघ के मंच से और टेलिविज़न कार्यक्रमों के द्वारा बयान दिए जा रहे हैं। इसके आधार पर विकास की छवि बनाई जा रही है जब कि गरीबों की जिं़दगी में कोई वास्तविक बेहतरी नहीं हो रही है।’’
तेरहवें अध्याय में उन लोगों के विषय में रोहित की टिप्पणियाँ दर्ज हैं जिनकी वह आलोचना करता है, जिनके साथ उसने राजनीतिक एकजुटता दिखायी और जिन्हें वह अपना प्रेरणास्रोत मानता था। जिनकी वह आलोचना करता है उनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पूर्व राष्ट्रपति डाॅ० अब्दुल कलाम, विवेकानन्द, डोनाल्ड ट्रम्प, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी और बाबा साहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर का नाम प्रमुख है। जिन लोगों के साथ उसने राजनीतिक एकजुटता दिखायी उनमें प्रमुख हैं, कृष्ण कुमारी पेरियार, सफदर हाशमी, तीस्ता सीतलवाड़, नेहा धुपिया, अभिजित राॅय, लालू प्रसाद यादव, आनंद तेलतुंबड़े, जेरेमी कोर्बिन, एम० एम० कलबुर्गी, इलोनाय हिकाॅक, एडवर्ड स्नोडन, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे। अपने प्रेरणास्रोत के रूप में वह आंबेडकर, ज्योतिराव फुले, पेरियार, सावित्रीबाई फुले, चे ग्वारा, कार्ल माक्र्स, भगत सिंह, तेलुगु दलित कवि गुर्रम जशुआ और स्टीफन हाॅकिंग आदि का नाम लेता है।
अन्तिम अध्याय में उसकी बच्चों सी तस्वीर उभर कर सामने आती है जहाँ कभी वह फेसबुक पर गाने लोड करता है तो कभी उस क्विज को कि उसके होने वाली गर्लफ्रेंड कौन है। इसी अध्याय में हमें पता चलता है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में आकर वह कितना ख़ुश था। 8 जनवरी 2016 की पोस्ट उसकी आखि़री पोस्ट है, ‘‘आईने में दिखने वाली चीज़ें जितनी दिखाई देती हैं उससे कहीं अधिक नज़दीक (कभी नहीं) होती हैं।’’
‘जाति कोई अफ़वाह नहीं’ में ऐसा बहुत कुछ है जिससे हम सहमत और असहमत हुआ जा सकता है। शायद रोहित को भी इसका इल्म था। इसीलिए वह कहता है, ‘‘मैं अंधकार और प्रकाश, सहानुभूति और ईष्र्या, अच्छाई और विद्रूपता, प्यार और उदासीनता दोनों से बना हूं। तुम्हें मुझसे क्या मिलेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम मेरे किस पहलू को छूते हो।’’ इस सन्दर्भ में पुस्तक के आखि़री अध्याय में रोहित पर टिप्पणी करते हुए निखिला कहती हैं, ‘‘जिस इंसान ने आगे चलकर राष्ट्र और राष्ट्रवाद की आलोचना की उसने 15 अगस्त 2011 में भारत के लिए शपथ का एक हिस्सा साझा किया, ‘भारत मेरा देश है...’। जिस लड़के ने बाद में सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक आयोजनों का विरोध किया था उसी ने 2012 में अपने दोस्तों के साथ मिलकर होली मनाई थी। लेकिन उसके अंदर कुछ ऐसा था जो कभी नहीं बदला- न्याय के लिए संघर्ष।’’
लगभग तीन सौ पृष्ठों की इस पुस्तक का कवर पृष्ठ आकर्षक और टंकण अधिकांशतः त्रुटिहीन है। तेरहवें अध्याय में दो-तीन जगह फाॅर्मेटिंग (इटैलिक्स और पैराग्राफ स्पेस) की कमी के अतिरिक्त कहीं कोई त्रुटि नज़र नहीं आती। यदि पुस्तक में रोहित की पोस्ट्स के चित्र भी दे दिये जाते तो सम्भवतः बेहतर होता। पुस्तक में जो सबसे बड़ी कमी नज़र आयी वो है रोहित के सुसाइड नोट का न होना। रोहित का यह पत्र बेहद मार्मिक है। इसका हिन्दी अनुवाद बीबीसी की वेबसाइट पर उपलब्ध है जहाँ वह कहता है, ‘‘मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था। विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह। लेकिन अंत में मैं सिर्फ ये पत्र लिख पा रहा हूं। ...यह बेहद कठिन हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी न हों।’’ उसकी कविताओं की तरह जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया था, यह पत्र भी इस बात की साफ़ गवाही देता है कि समाज ने एक असीम क्षमताओं से भरे कवि और लेखक को खो दिया है। इस पत्र को पुस्तक में अवश्य ही स्थान मिलना चाहिए था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि पुस्तकों में एक विशेष टाइम फ्रेम दर्ज होता है, ‘जाति कोई अफ़वाह नहीं’ विशेष रूप से पठनीय है। इसके लिए संपादक साधुवाद की पात्र हैं।
अन्त में मैं पाकिस्तान के प्रमुख लोकप्रिय शायर आनिस मुईन को उद्धृत करना चाहूँगा जिन्होंने कभी कहा था, ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और, दुख मुझ को है और नीर बहाएगा कोई और। अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले, ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और। ऐसा लगता है कि जैसे ये रोहित वेमुला के शब्द हों। यह इत्तेफ़ाक की बात है कि आनिस मुईन ने भी रोहित वेमुला की तरह ख़ुदकुशी की थी और उस वक़्त उनकी भी आयु लगभग उतनी ही थी जितनी रोहित वेमुला की। रोहित वेमुला ने अपनी एक पोस्ट में ज़िन्दगी की तुलना सिगरेट से की है। ‘‘जिंदगी उस सिगरेट की तरह है जो एक तरफ से जल रही है। चाहे आप इस (इसे) पिएं या न पिएं, यह खत्म हो जाने वाली है। ...वैसे, मैं अच्छा सिगरेट पीने वाला इंसान हूँ।’’ काश कि यह सिगरेट आधे में ही ख़त्म न हुई होती।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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आदरणीय महेंद्र जी,
यह समीक्षा यह साबित करने के लिए काफी है कि एक कवि और कथाकार होने के साथ-साथ आप एक समर्थ आलोचक भी हैं.
एक बहुत जरूरी किताब की एक बहुत प्रभावी समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई.
सादर
आभारी हूँ आ. अजय जी. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
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