बबुआ बम्बई में बंगला बनवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।
टिप टाप बनके रहे दुनों रे परानी,
नया युग आइल मरल अखियां के पानी,
बबुआ दुधवो में दागी अब लगवले बा ।
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।
सोरि आपन कटि गईल, भूलल मरियादा,
चार पोथी पढ़ क बूझे अकलमंद जियादा,
बबुआ गेट प नाव माई क लिखवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा |
भूल गईल गाँव, बिसर गईल बोली,
देवाली, दसहरा, छठ अउरी होली,
बबुआ दारु संगे बइठकी लगवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।
जोरु उनुकर पहिरे जाने कइसन कपड़ा,
ना जाने साड़ी कुरती चुनरी भा घघरा,
बबुआ माथे प मेहर बइठवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
बइलाना = भगाना, सोरि=जड़, मरियादा=मर्यादा, मेहर=पत्नी
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अह्हाहा.. !!
आजके बबुआ लोगन के निकहा फोटो बनावत आ सोझा देखावत एह रचना खातिर बहुत्ते बधाई, गनेस भाई.. कतना जाना के ई रचना छन् दे लागी.. :-)))
बहुत सुन्दर
नमन आ. बागी साहेब...अब का कहल जाए...इतना बन्हिया ...सुनर सरस रचना...पढ़ी के मन गदगद हो गईल .........
.......कटाक्ष के कटाक्ष....रचना के रचना..........
भूल गईल गाँव, बिसर गईल बोली,
देवाली, दसहरा, छठ अउरी होली,
बबुआ दारु संगे बइठकी लगवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।..............बहुत बन्हिया...नमन
भूल गईल गाँव, बिसर गईल बोली,
देवाली, दसहरा, छठ अउरी होली,
बबुआ दारु संगे बइठकी लगवले बा,
बाबू माई के अपना बइलवले बा ।......बहुते नीक लागल पढ़ि के | छठ महापर्व के बहुत बहुत बधाई रउआ के आ० बागी जी | सादर
बागी जी के सामयिक कविता के पढिके मन गदगद हो गइल उ एतना मन के छूवलस की का कहीं। ओकरा के पढि के आज के समय में नवजवानन के मन के पूरा खुलासा हो जाता अउर यदि एकरा से कवनो बदलाव आवे त धनि भाग।
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