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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 47 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 21 मार्च 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 47 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
 


इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था ताटंक छन्द.

 

कुल 12  रचनाकारों की 15 छान्दसिक रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

**********************************************************************

1. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी

देख अजब-सी दुनिया बेटे, मतलब की ये होती है
फूल नहीं हर पल राहों में, केवल काटें बोती है
नगरों का विस्तार किसी को, सुख ना देकर जायेगा .. ..
खुशियों का बस भान मिलेगा, असली कुछ ना पायेगा

बहुत निराली इस दुनिया में, सागर सी गहराई है
जितना सीखों उतना कम है, जीवन में कठिनाई है
रोटी क्या है कपड़ा क्या है, घर क्या है ये भी जानो
मेहनत से मिल जाता है सब, मेहनत को ईश्वर मानो

तुम समझों लोगों की फितरत, कितना कुछ समझा जाती
गीत मधुर जीवन के जानो, कब तक ये दुनिया गाती
काम करोगे, नाम करोगे, दाम मिलेगा वैसा ही
मैंने जाना इस दुनिया का, एक खुदा है पैसा भी

दूसरी प्रस्तुति

इस मौसम में इस आलम में, कहाँ रहेंगे बाबूजी
बीत रही जो हम दोनों पर, किसे कहेंगे बाबूजी
खाने पीने के लाले है, ये फाके सहना है क्यों
देश पराया लोग पराये, उस नगरी रहना है क्यों

अपना गाँव बहुत अच्छा है, रहने को घर पाया है
इस नगरी में खूब इमारत, फिर भी छत ना साया है
अपने गाँव नदी है माना, इस सागर से छोटी है
पीने को पर जल देती है, ना खारी ना खोटी है

बाबूजी बोले- “बेटा सुन, गाँव नगर से सादा है
खेती से उपजे वो कम है, खाने वाले ज्यादा है
उसी विवशता के कारण इस नगरी को अपनाना है
मेहनत से इस मुश्किल को अब हमको दूर भगाना है"
******************


2. आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी

सागर किनारे बैठ कर वो , करता अतीत की बातें ,
कैसे हमने दिन थे काटे , कैसी कटतीं थी रातें !
जब रहने की जगह नहीं थी ,तब थम जाती थी सांसें ,
कभी भोजन नसीब न होता ,मुरझा जाती थीं आँतें !!

माँ जब चली गयी हम निकले, सर पर बांधे अंगोछा ,
नयी दुनिया बसायेंगे कह , तुमने हर आंसू पोछा !
रोजी रोटी की तलाश में, गांव घर हमारा छूटा ,
महानगर की शान देखकर , लगा मैं कैद से छूटा !!

कितने माँजे बर्तन तुमने , कितना तुमने झेला है
पर मुझे पालने को तुमने , कितना रिक्शा ठेला है!
उधर गगन छूती इमारतें ,पीछे सागर खारा है
आओ अब घर लौट चलें ये शहर नहीं हमारा है !!
**********************

3. भाई शिज्जु "शकूर" जी

पिता पुत्र से बोल रहा है, तट पर बैठा सागर के
जीवन है तो खुल के जीना, क्यों जीना है मर मर के
छोटी छोटी खुशियों को ही, आओ जी लें जी भर के
कल क्या होगा कल ही देखें, डर को फेंको अंदर के

आओ जीवन को गति दें हम, जैसे लहरें सागर की
निर्धनता को भूलें अपनी, भूलें चिन्तायें सर की
हम भी पत्थर बन जायें जब, दुनिया ही है पत्थर की
बाहर लायें आओ हम भी, खुशियाँ अपने अंदर की

द्वितीय प्रस्तुति

गाँव भला या नगर भला ये, सवाल बहुत पुराना है
दुनिया में हम जहाँ रहेंगे, वहीं कमाना खाना है
जीवन की आपाधापी में, खुशियाँ ढूँढ निकालेंगे
गाँव रहें या रहें नगर हम, श्रम से खुद को पालेंगे

जीवन गहरा सागर जैसे, जीवन है बहती धारा
मोती खुद से ढूँढ निकालो, अपने अंदर है सारा
ये ना सोचो मेरे बेटे, जीवन ऐसा कैसा है
जैसा जीना चाहेंगे, जीवन बिल्कुल वैसा है
********************

4. आदरणीया राजेश कुमारी जी

बापू बेटा बातें करते ,दिन भर जेब कमाई की
चौपाटी पर रोज लगाते,ठेली ये ठण्डाई की
बापू को बालक की कुछ भी,चिंता नहीं पढ़ाई की
शाम ढले मैरिन ड्राइव पर,फिकर करें मँहगाई की

दुनियादारी से मतलब क्या, मतलब है मजदूरी का
दूर गाँव से आये हैं पर , प्रश्न नहीं है दूरी का
पेट परिश्रम का रिश्ता बस ,ना है हलवापूरी का
फाको से किस्मत का बंधन ,यही नाम मजबूरी का
****************************

5. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

एक प्रश्न उठ फिर आता है, शहर, गाँव से आया क्यों
अपने बूढ़े बरगद को मैं, गलत सलत समझाया क्यों
तन को कपड़े और रोटियाँ, सच में क्या मिल पायेंगी
कभी कली खुशियों की मन में, क्या सच में खिल पायेंगी

गगन चूमते इन भवनों में , गर डेरा इंसा का है
तब क्यों असर हवाओं में भी , तारी जो हैवां का है
इस चुप से दिखते समुद्र के , राज़ कई हैं सीने में
लगता है इसको भी मुश्किल . भरे शहर में जीने में

चल बेटा चल गाँव चलें हम , लगता हमें बुलाता है
दो रोटी कम खायें लेकिन , सब कुछ बहुत लुभाता है
यहाँ बसे, पथरीली सूरत , दिल रखते कंक्रीटों से
लंघन रहना अच्छा है इन, भीत उठाती ईंटों से
**************************

6. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी

मन उत्साह संग में झोला, अंग मलिन पट धारे है।
चौपाटी पर बैठ तात मुख, विस्मित बाल निहारे है।।
भाँप भ्रात मन की उत्कंठा, अनुभव तात सुनाते हैं।
अजब मुंबई का परिचय यूँ, भ्राता गजब कराते हैं।१।

जीवन जहाँ ठहर कुछ पल को, स्वप्न लोक में खोता है।
जहाँ बैठ निश्चिन्त मनस निज, भावी पल संजोता है।।
मेरे भ्राता पवन जहाँ की, गात नहीं झुलसाती है।
सागर की चंचल लहरें नित, हर मन को हर्षाती है।२।

चमक दमक मायानगरी की, मन को खूब लुभाती है।
कला, कर्म के साधक जन को, अपने पास बुलाती है।।
नयन रम्य सागर तट न्यारा, हर मन को बहलाता है।
भ्रात! यही अनुपम सागर तट, चौपाटी कहलाता है।३।
***************************

7. आदरणीया वन्दना जी

बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा

बड़ा समन्दर ऊँची बिल्डिंग भोजन का बढ़िया ढाबा

हाँ ये माना  इस नगरी में सुख सागर लहराता है

किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है

 

कभी सताऊं कभी मनाऊं  जा पीछे अँखियाँ मींचूँ

ना मुनिया है ना दिदिया ही  चोटी जिनकी मैं खींचूँ

पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ

भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां

 

वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था

बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था

बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा

धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा

(संशोधित)
*******************************

8. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

डगर-डगर चहुँ ओर नगर मैं, निडर घूमता बाबूजी।
कहाँ खो गया प्यारा बचपन, उसे ढूँढता बाबूजी।।
खेल कूद शिक्षा न सुरक्षा, माँ की याद रुलाती है।

भूख ठंड से फुटपाथों पर, नींद भला कब आती है।। ., (संशोधित)

हँसना भूल गया मैं बेटे, बिखर गये सपने सारे।
महानगर के लोग बेरहम, छोड़ गये अपने सारे।।
राजनीति गंदी भारत की, वर्ग भेद भी भारी है।
हम गरीब मिट जायें ऐसी, साजिश की तैयारी है।।

सागर की लहरों को देखो, मंज़िल कैसे पाती हैं।
कल-कल करती बड़ी दूर से, तट पर दौड़ी आती हैं।।

शोक करो मत बनो बहादुर, अच्छे दिन भी आयेंगे। .... (संशोधित)
महानगर से दूर कहीं हम, दुनिया नई बसायेंगे।।
*************************

9. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

बेटा हमको शहर मुम्बई में   किस्मत  ले आयी है

अभी यहाँ पर बैठ शान्ति से  राहत हमने पायी है..  (संशोधित)
शहर गाँव घर द्वार छोड़कर यहाँ चला तो हूँ आया
पर यह बेटा महानगर है अद्भुत है इसकी माया

सुना यहां पर पेट पालती हैं सबका मुम्बा देवी
हमको भी बनना होगा अब माँ की चरणों का सेवी
किन्तु पुत्र इस जीवन के हित उद्दम भी करना होगा
श्रम से अर्जित पुण्य राशि से हमे पेट भरना होगा

अकर्मण्य होकर जो चाहे करुणामय माँ की बाहें
कभी नहीं है उसको मिलती जीवन की सच्ची राहें
श्रम परिहार हुआ अब बेटा सपदि तुम्हे जगना होगा
जीवन श्रम है श्रम जीवन है इसमें अब लगना होगा

द्वितीय प्रस्तुति

है मरीन ड्राइव का मनहर दृश्य बड़ा प्यारा-प्यारा
शांत यहाँ पर दिखता श्यामल सागर का पानी खारा
हैं इमारतें तटवर्ती अति उच्च शिखर की माला सी
मदिर वायु भी नर्तन करती लगती है मधुशाला सी

प्लेटफार्म सागर के तट पर पिता-पुत्र करते बातें
दिन तो बीता किसी तरह से बीतेंगी कैसे रातें ?
समझाता है पिता पुत्र को तन्मय हो सुनता बेटा
सागर सुनता सारी बाते शांत पार्श्व में है लेटा

अपना मधु सन्देश पवन मिस सागर लेकर है आता
‘शहर पालता है यह सबको जो जैसे भी आ जाता
कल से अपना काम देखना अभी शहर में खो जाओ
मिले कही भी जगह सड़क पर दोनो निर्भय सो जाओ’
********************************

10. भाई कृष्ण मिश्रा ’जान’ गोरखपुरी

सागरतट पर मन-मंथन कर,अनुभव की झोली खोली
पिता ने पुत्र को आहिस्ता, तब बोली मीठी बोली।
दुनिया चाहे लाख झूठ को, सिंघासन पर बैठाये
सच के सूर्य के आगे तिमिर,झूठ कभी टिक ना पाये।

सागर से सीखो हर पल गुण, ग्रहण का ताना-बाना
मतलबी दुनिया फिर भी उसे, खारा कह मारे ताना।
पल-पल जब वही तन तपाये,घन-गगरी भर है पाये
जलधर जलचक्र को बनाये,प्यास भू की बुझा जाये।

पर घमंड कदापि ना करना,धारण करना मर्यादा
अथवा तो कोई पुरुषोत्तम,बांटेगा आधा-आधा।
जीवन हर-क्षण देता सीख,पढ़ना हर-कण की गीता
परे हुआ जो जीतहार से,समर में वही है जीता।
******************************

11. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

सागर तट पर आकर बैठे, संग में लड़का है प्यारा
बातें उसकी बड़ी सुहानी, चमके आँखों का तारा |
पिता-पुत्र से लगते दोनों, अँखियों से करते बाते
सच्चें अर्थों में होते है, प्यारें ये रिश्ते नाते |

सूरज सा मन आज खिला है, मौसम भी लगता प्यारा
सागर की लहरों को देखे, नीलगगन झुकता सारा |
घिर घिर आते है जब बादल,कभी अँधेरा हो जाता
कभी देर तक बैठा रहता, गुनगुन करता खो जाता |

ऊँची खड़ीं अट्टालिकाएं, हम न जानें दुनियादारी,
कहानी प्रगति की ये कहती, बतियाती बातें सारी |
सागर की हम पूजा करते, हम उसके भी आभारी
बादल पानी लेकर जाते, ये सागर की दातारी |
******************************

12. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळे जी

हर मुश्किल हल होगी अपनी, सही ठौर अब पाया है,
इस नगरी की रंगत अपनी, इसकी न्यारी माया है,
सबको दामन में भर लेती, सबको अपना लेती है,
बेटा हम जैसों को भी यह, रोजी रोटी देती है ||

इमारतों सा ऊँचा मस्तक, सागर सी गहराई है,
इस नगरी में बच्चन पनपे, हेमा भी मुस्काई है,
हम भी अपनी किस्मत लेकर, इस नगरी में आये हैं,
ईश्वर बेटा पूर्ण करेगा, जितने सपने लाये हैं. ||
***************************

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Replies to This Discussion

आ०  सौरभजी

लगता है आप रात सोये नहीं . इस प्रतिबद्धता को नमन . रचनाओ में आपके सुझाव के अनुसार् ही  संशोधन करने का सादर अनुरोध है .

आदरणीय गोपाल नारायनजी,
आपको मेरा जो प्रयास किसी सदस्य की कटिबद्धता का पैमाना लगता है, मैं उसी प्रयास पर कई बार झुंझला जाता हूँ, कि काश मुझे तनिक और समय मिला होता तो मैं पूर्ववत ओबीओ पर समय दे पाता.
व्यस्तता के अपने ढंग हैं और हमें कई बार न चाहते हुए उनका अनुसरण करना पड़ जाता है.

आपसे सादर अनुरोध है आदरणीय, आप इंगित सुझावों को इस पोस्ट पर भी सूचीबद्ध कर दें तो मेरे जैसे शीर्षासन मुद्रा में अवस्थित सदस्य को तनिक सहुलियत मिल जाय.
आपके सहयोग की अपेक्षा के साथ,
सादर आभार

परम आ. सौरभ जी सादर प्रणाम 

              छन्दोत्सव के सफल संचलन हेतु सादर बधाई एवं समस्त प्रविष्टियों के  त्वरित संकलन  हेतु आपका  आभार व्यक्त करता हूँ. आयोजन में टिप्पणियों के माध्यम से मंच द्वारा उपयुक्त लाभकारी  जानकारी साझा हुई  है  अतएव मंच तथा  समस्त गुनीजनो का भी आभार व्यक्त करता हूँ. 

              सादर धन्यवाद 

आपकी उपस्थिति न केवल प्रतीक्षित रहती है आदरणीय सत्यनारायणजी, बल्कि हम सभी आपकी प्रस्तुतियों से लाभान्वित भी होते हैं. आपका यही सहयोग हमारे लिए ऊर्जा स्वरूप है.
सादर आभार

आदरणीय सौरभ सर, सफल आयोजन और तीव्र संकलन के लिए हार्दिक बधाई निवेदित है, नमन |

प्रथम प्रस्तुति में निम्नानुसार संशोधन निवेदित है-

नगरों का विस्तार कभी भी, सुख ना देकर जायेगा.......... नगरों का विस्तार किसी को, सुख ना देकर जायेगा

मैंने जाना इस दुनिया का, एक खुदा है पैसा ही................. मैंने जाना इस दुनिया का, एक खुदा है पैसा भी 

आपके द्वारा जो मार्गदर्शन और बहुमूल्य सुझाव साझा हुए है उनके लिए सादर धन्यवाद 

यथा निवेदित तथा संशोधित

आपकी ओजस्वी उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मिथिलेशभाई.
शुभ-शुभ

संशोधन के लिए हार्दिक आभार... नमन  

आदरणीय सौरभ भाईजी 

छंदोत्सव के सफल आयोजन और त्वरित संकलन के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आभार ।

तीन संशोधन .....

1... भूख ठंड से फुटपाथों पर, नींद भला कब आती है।।

2... शोक करो मत बनो बहादुर, अच्छे दिन भी आयेंगे।

3... ढूँढता

आदरणीय , उपरोक्त संशोधन को संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें। 

एक जिज्ञासा

खेल कूद शिक्षा न सुरक्षा...... यहाँ ‘न’ व्यापक अर्थों में है जिसका असर कुछ इस प्रकार है ... खेल कूद शिक्षा सुरक्षा

शोक करो ना बनो बहादुर ...... यहाँ ‘ना’ को हम उसी प्रकार लें तो... अर्थ होगा... न शोक करो न बहादुर बनो। लेकिन यहाँ ‘ना’ का असर पूरी पंक्ति में नहीं है कुछ इस प्रकार है... शोक करो ना, बनो बहादुर। भाईजी बिना अल्प विराम के हम दो अलग अलग अर्थ निकालते हैं क्या यह सही है। याने पाठक रचनाकार से इतर अपनी मर्ज़ी से अर्थ भावार्थ निकालने के लिए स्वतंत्र है। 

नींद मुझे नहिं आती है।। ..  यह सच है कि इससे बेहतर आपके सुझाव और मेरी संशोधित पंक्ति है लेकिन इसमें भी छंद विधान के अनुसार मात्रा  , कलों का संयोजन [ 3 3 2 4 2 ] और गेयता सब कुछ सही  है । 

सादर 

आदरणीय अखिलेश भाईजी,
आपने जैसा संशोधन निवेदित किया तदनुरूप कर दिया गया है.

आगे, आपकी जिज्ञासा से इस संकलन की कीमत और बढ़ गयी है.
मैं आपके प्रश्नों पर अपनी समझ के अनुसार आता हूँ. साथ ही, मेरा सादर आग्रह अन्य सदस्यों से भी है कि वे अपनी जानकारी के अनुसार मेरे कहे को सार्थक स्वरूप दें. या, आवश्यक हो तो सुझाव दें.

आदरणीय, उक्त पंक्ति शोक करो ना बनो बहादुर,अच्छे दिन भी आयेंगे  थी ही नहीं बल्कि आपकी वह पंक्ति थी शोक ना करो बनो बहादुर, अच्छे दिन भी आयेंगे.
यहाँ पंक्ति के चरण में ना का स्थान शब्द-संयोजन के अनुसार उचित नहीं था. शोक ना करो बनो बहादुर  की जगह आप शोक करो ना बनो बधादुर को अधिक सरलता से पढ़ सकते हैं. मैंने इसी कारण आपके ना को हटा कर मत (क्रिया में नकार के लिए) कर दिया. ताकि भाषिक शुद्धता बनी रहे. यदि ना अपनी सही जगह पर होता तो शायद अटपटा नहीं लगता. लेकिन ऐसे वाक्यों में मत की संप्रेषणीयता अधिक सटीक होगी.

दूसरे, नींद मुझे नहिं आती है
आदरणीय, एक बात हम अच्छी तरह से दिमाग में बैठा लें कि कोई शब्द-कल, मात्रा-संयोजन, शिल्पगत विन्दु, या विधान किसी रचनाकर्म के माध्यम को सुचारू रखने के लिए हैं. अर्थात, वे साधन हैं. न कि साध्य. रचनाकर्म का साध्य सदा से कथ्य और फिर तथ्य हुआ करते हैं. रचनाकर्मियों को अपनी बात कहनी है, यही प्रमुख बात है. लेकिन वह कथ्य प्रभावी ढंग से संप्रेषित हो, इसके लिए समर्थ साधन की आवश्यकता होती है. इसी कारण शब्दकल, मात्रा, वर्णकर्म आदि महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं. मात्र किसी विधान को संतुष्ट करती पंक्तियाँ  रचना के कथ्यों तथा तथ्यों को क्या संप्रेषित करेंगी. और, आदरणीय, ये बातें साधन को जानने के बाद की बातें हैं.

पुनः, आदरणीय, आपकी रचना की भाषा खड़ी हिन्दी है. खड़ी हिन्दी में कुछ शब्द तो बेहतर प्रभाव के लिए आंचलिक लिये जा सकते हैं लेकिन वाक्यों के संयोजकों के साथ फेर-बदल अच्छा नहीं माना जाता. ऐसा यदि हुआ तो अक्षरी (हिज्जे, spelling) दोष माना जाता है. आप कभी बच्चन, दिनकर या आगे, धूमिल, त्रिलोचन या आधुनिक स्थापित हिन्दी कवियों को पढ़ कर देखिये. आपको स्वतः पता चल जायेगा कि भाषा के संयोजन या मूल में शब्दों की अक्षरी को लेकर घालमेल नहीं हुआ करता. आंचलिक भाषाओं को छोड़ दें तो क्या नहीं को आपने कभी नहिं लिखा देखा है ? अवश्य नहीं देखा होगा.
सादर

आदरणीय सौरभ जी

 आपके आदेशानुसार संशोधण प्रस्ताव  निम्न प्रकार है -
किस्मत बेटा शहर मुम्बई में हमको है ले आयी     --- के स्थान पर            बेटा हमको शहर मुम्बई में   किस्मत  ले आयी है
अभी यहाँ पर बैठ शान्ति से कुछ राहत हमने पायी-                               अभी यहाँ पर बैठ शान्ति से  राहत हमने पायी है

यथा निवेदित तथा संशोधित ..

आदरणीय सौरभ भाई, चित्र से काव्यतक छंदोत्सव के एक और सफल आयोजन के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ , और इस संकलन के लिये आपका हार्दिक आभार ।

आदरणीय , मेरी अनुपस्थित रहने की मज़बूरी को सकारण मंच से साझा करने के लिये आपका आभारी हूँ । 

मै सभी रचना कारों को उनकी सहभागिता और बेहतरीन रचनाओं  के लिये हार्दिक बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ , एवँ मेरी रचना पर सहृदय पाठकों का उनकी  उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रियाओं के लिये हार्दिक आभार मानता हूँ । 

 

आदरणीय सौरभ भाई , इस छंदोत्सव की बहुत ही ख़ास बात तुकांतता पर आपकी समझाइश लगी । वो बिरले ही होते हैं जो अपनी ही रचनाओं की गलतियाँ सामने रख कर कोई बात समझाने की कोशिश करते हैं ।

इस उदार प्रयास के लिये मेरा नमन स्वीकार करें ॥

मेरी रचना पर आपकी छंद प्रतिक्रिया देख कर बहुत खुशी हुई ।

प्रतिक्रियाओं के लिये आपका एवँ अन्य सभी मित्रों का हार्दिक आभार ॥

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