सु्धीजनो !
दिनांक 18 अप्रैल मार्च 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 48 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था – शक्ति छन्द.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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आदरणीय गिरिराज भंडारीजी
भरोसे किसी के न भूखे मरें
ज़मीं है हमारी हमीं कुछ करें
इसी खेत से जान पायी कभी
इसी भूमि को जान दें हम सभी
झुके चंद इंसा यही कर रहे
समय मांगता जो वही कर रहे
कृपा ईश पाई, कि पानी भरा
चलो रोप के धान हो लें हरा
सही भावना से ज़मीं को ज़ियें
कहो फिर कभी अश्क़ काहे पियें
धरा खुश रहे, एक को सौ करे
मगर आदमी है कि फिर भी डरे
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आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
शहर गाँव में है खुशी की लहर।
हुई तेज बरसात आठों पहर।।
नहाये सड़क अंगना घर गली।
लगे खूब वर्षा शहर की भली।।
कृषक हैं परेशान सरकार से।
दुखी हैं हड़पनीति की मार से।।
इमारत खड़ी मुँह चिढ़ाती हुई।
कृषक को अँगूठा दिखाती हुई।।
जुताई - सफाई - बुआई करें।
बढ़े पौध तब ये रुपाई करें।।
सुबह शाम मर-मर कमाई करें।
निशा में गमों की बिदाई करें।।
(संशोधित)
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आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी
प्रगति की हवा तेज गति से बहे
सभी मूल्य नैतिक हमारे ढहे
प्रभावित हुई ग्राम औ ग्राम्यता
हुई आज हावी शहर सभ्यता
उगे खेत में आधुनिक मॉल है
अनोखे भवन के मकड जाल है
हुई लुप्त अब खेत से दिव्यता
लुभाते निकेतन लिये भव्यता
बढ़ी लोक संख्या शहर भागती
धरा की कमी नित हमें सालती
सियासत तले माफिया भू पलें
उभय आज भोले कृषक को छलें
द्वितीय प्रस्तुति
निरंकुश प्रगति की झलक देख लें
मिली जो विरासत उसे लेख लें
शहर गाँव में अब घुसे से लगें
कृषक बन्धु हतप्रभ ठगे से लगें
इधर धान रोपें कृषक टोलियाँ
उधर लग रहीं हैं भवन बोलियाँ
कृषक आत्म हत्यार्थ मजबूर हैं
प्रशासक मगर क्यों बने सूर हैं ?
वही कर सके है जगत का भला
भलाई लिये जो परख कर चला
करें लक्ष्य का हम चयन तो सही
कहे जा रही है सिमटती मही
(संशोधित)
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आदरणीया राजेश कुमारीजी
यहाँ आज मौसम हरा ही हरा
बड़ा खेत जल से लबालब भरा
कई हैं इमारत यहीं पास में
लगें भीगती भाद्र के मास में
दिखे खेत ये तो शहर से सटा
किनारे किनारे विटप की छटा
यहाँ चार जन काम में व्यस्त हैं
लगाते हुए धान ये मस्त हैं
बनाते कतारें कई रोप की
सिरों पे लगा टोपियाँ धूप की
लगे काम में पैंट काली पहन
कड़ी धूप बारिश करें ये सहन
द्वितीय प्रस्तुति
अनोखा नजारा दिखे मित्र ये
जमीनी हकीक़त बुने चित्र ये
उधर उच्च अट्टालिकाएँ खड़ी
इधर घूमती जीविका की घड़ी
कृषक धान देखो उगाते हुए
कदम से कदम ये मिलाते हुए
मिटाते हुए वर्ग की खाइयाँ
दिखे नीर में चार परछाइयाँ
भवन गाँव से हैं लिपटते हुए
दिखें खेत खुद में सिमटते हुए
धरा,राज के बीच में है ठनी
यहाँ आज खेती मुसीबत बनी
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आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव
अजंता सदृश एक प्रतिमा बड़ी
शहर की इमारत समुन्नत खड़ी
मनुज वारि-श्रम से बनाया हुआ
हरित वृंत भी है सजाया हुआ
किसी फार्म हाउस सरीखा बना
विरल है, नहीं दृश्य कोई घना
किनारे-किनारे कई मेड़ है
सभी तो लिये धान की बेड़ है
अभी खेत में नीर भी है भरा
शहर के जवां मर्द देखो ज़रा
यहाँ धान की पौध सत्वर जगे
इसी हेतु सब रोपने में लगे
द्वितीय प्रस्तुति
नजारा सुहाना नजर आ रहा
यहाँ रोपते धान बाबू अहा
हंसी खेल यारों किसानी नहीं
किसानी नही, गर जवानी नही
कि साहिब वहां ऐश फरमा रहे
यहाँ मातहत सब मरे जा रहे
किसी के लिए है अटाले महल
किसी को हमेशा भुगतनी टहल
कही मंजिले-मन्जिले हैं खड़ी
कहीं फूस की एक चादर पड़ी
किसी को नहीं रास सुख आ रहा
कहीं व्यर्थ जीवन चला जा रहा
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आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी
कई लोग पढ़ लिख दिखावा करे ।
जमी काज ना कर छलावा करे ।।
मिले तृप्ति ना तो बिना अन्न के ।
रखे क्यो अटारी बना धन्न के ।।
भरे पेट बैठे महल में कभी ।
मिले अन्न खेती किये हैं तभी ।।
सभी छोड़ते जा रहे काम को ।
मिले हैं न मजदूर भी नाम को ।।
न सोचे करे कौन इस काज को ।
झुका कर कमर भेद दें राज को ।।
चलें आज हम रोपने धान को ।
बढ़ायें धरा धाम के शान को ।।
द्वितीय पस्तुति
शहर के किनारे इमारत खड़े ।
हरे पेड़ हैं ढेर सारे अड़े ।
सटे खेत हैं नीर से जो भरे ।
कृषक कुछ जहां काम तो हैं करे ।।
हमें दे रहे दृश्य संदेश है ।
गगन पर उड़े ना हमें क्लेश है ।
जमी मूल है जी तुम्हारा सहीं ।
तुम्हें देख जीना व मरना यहीं ।।
करें काज अपने चमन के सभी ।
न छोड़े वतन भूलकर के कभी ।।
बसे प्राण तो गांव के खेत में ।
मिले अन्न जिनके धुली रेत में ।।
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आदरणीय लक्ष्मण धामी
उगा गाँव के तट नगर आज है
भवन जो उठा सर रहे नाज है
मगर एक गरिमा रही खेत की
बुझाता सदा अग्नि वह पेट की
जुते रात दिन जो फसल के लिए
वही हाथ निर्धन बरस भर जिए
मरे भूख से आज हलधर जहाँ
फले खेत कैसे भला तब वहाँ
बिकेगा सहज खेत क्यों ना भला
सदा हाकिमों ने उसे है छला
कलम पीर तुम ही लिखो खेत की
इबारत मिटाओ उठो रेत की
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आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
मिले खेत में काम करते सभी
खिलें फूल से मन सभी के तभी
खड़ीं देख कर दूर अट्टालिका,
यहाँ पुष्प से ही सजी,वाटिका |
बिना प्रेम के क्या करे चाकरी
जुडें है यहाँ दे सभी हाजरी |
बजाते रहे खेत में नौकरी
बचा डूब से खेत क्यारी भरी |
सभी गाँव में कष्ट की ये घड़ी,
खता क्या हुई आपदा आ पड़ी | .. .. (संशोधित)
सभी एक हो खेत में जा पिलें
करें आस सोना यही से मिलें |
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सौरभ पाण्डेय
उधर जब विलासी रहन दिख रहा
इधर कौन जीवन रहन लिख रहा ?
दिखे खेत इतना न बेगार हों
नफ़ा क्या कृषक जब बचे चार हों
नहीं खेत-खलिहान मैदान हैं
दिखें मॉल-बिल्डिंग दूकान हैं
कहो सभ्यता तंत्र कैसा यहाँ ?
धरा को मिला शत्रु मानव जहाँ ?
मनुज जो भरोसा नयन में भरे
प्रकृति माँ सरीखी सुपोषित करे
धरा शस्यश्यामा सुशोभित गगन
यही गोद सबकी रहें जो मगन
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आदरणीय हरि प्रकाश दुबेजी
पिया खेत को बेच कर क्या मिला !
जरा सा टका था पता कब चला !!
पिता की विरासत ख़तम हो गयी !
कहानी हमारी चली –थम गयी !!
पिया लालचों ने हमें क्या दिया !
छतों का सहारा हमारा गया !!
जमीन हमसे छिन हमारी गयी !
जहाँ देखिये मंजिलें बन गयीं !!
अब तो इक तरफ बस भगवान है !
इस तरफ घर हमार शमशान है !!
उगा चल शमशान पर धान जई !
चल शुरू कर फिर जिंदगी इक नई !!
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डॉ प्राची सिंह
चढ़ाए हुए जींस घुटनों तलक
हराते हुए दोपहर की धधक
सदा कर्मरत अन्नदाता रहे
अकथ वेदना रात दिन वो सहे
धरा गाँव की या बसा हो नगर
चुनौती भरी है कृषक की डगर
जले दीप सा वो गले मोम सा
दहन सर्वहित वो सदा होम सा
लिए पीर सागर, हृदय में तपन
मरे अन्नदाता! करें कुछ मनन!
गठित हो कृषक राह अब नव चुने
बधिर तंत्र क्या वेदना को सुने ? ................... (संशोधित)
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आदरणीय अशोक रक्तालेजी
झुकी जो कमर धान को रोपते,
उन्ही पर दिखा जग वजन थोपते,
न गौरव मिला है इन्हें काज से
न अट्टालिकाएं झुकी लाज से
बदल की नहीं आस है दूर तक
भरा नीर है प्यास है दूर तक
खड़े वृक्ष मन में उदासी लिए
गगन ताकता है उबासी लिए.
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वाह, आयोजन समाप्त होते ही संकलन । आदरणीय सौरभ पाण्डेयजी अतिशीघ्र संकलन प्रस्तुत करने के लिये कोटि कोटि बधाई । एक निवेदन मेरी द्वितीय प्रस्तुति मेरे नाम के अतिरिक्त आदरणीय हरि प्रकाश दुबेजी के नाम से भी प्रकाशित हो गयी है जबकि उनकी स्वयं की रचना शायद संकलन से रह गई ।
सादर
आदरणीय रमेश चौहानजी,
आपकी चौकन्नी दृष्टि के कारण ही अनजाने में हुई भूल का निवारण हुआ. आपका हार्दिक धन्यवाद भाईजी.
आपकी द्वितीय प्रस्तुति में जो व्याकरणजन्य दोष हैं उन्हें इंगित कर दिया गया है. इस पर ध्यान दीजियेगा.
आपकी संलग्नत आश्वस्तिकारी है, आदरणीय.
शुभेच्छाएँ एवं पुनः सादर धन्यवाद
आ० सौरभ जी
इतनी शीघ्रता के साथ चिन्हित संकलन प्रस्तुत करने पर धन्यवाद..बधाई..
इस बार का चयनित छंद बहुत रोचक व सरल था, और परिदृश्य भी समसामयिक व जन जन के जीवन से जुड़ा हुआ.. फिर भी प्रबंधन से इतर मात्र 10 रचनाकारों नें ही इस पर कलम आजमाइश की. लेकिन ये अवश्य है कि अधिकांश प्रस्तुतियाँ बहुत उत्कृष्ट और संयत प्राप्त हुई.
अपनी प्रविष्टि में एक टंकण त्रुटी व एक शाब्दिक परिवर्तन किया है, कृपया मूल रचना को इससे प्रतिस्थापित करने का कष्ट करें ...
चढ़ाए हुए जींस घुटनों तलक
हराते हुए दोपहर की धधक
सदा कर्मरत अन्नदाता रहे
अकथ वेदना रात दिन वो सहे
धरा गाँव की या बसा हो नगर
चुनौती भरी है कृषक की डगर
जले दीप सा वो गले मोम सा
दहन सर्वहित वो सदा होम सा
लिए पीर सागर, हृदय में तपन
मरे अन्नदाता! करें कुछ मनन!
गठित हो कृषक राह अब नव चुने
बधिर तंत्र क्या वेदना को सुने ?
सादर.
आदरणीया प्राचीजी,
आपने सही कहा कि इस बार छन्द सरल था. लेकिन जिस तरह से हमारे सदस्य मानसिक संलग्नता के बावज़ूद आयोजन से भौतिक दूरी बनाये रखे, यह अवश्य चौंकाता है.
इस छन्द का विन्यास कुछ ऐसा है कि मुझे करीब सभी सक्रिय सदस्यों से सहभागिता की अपेक्षा थी, जो मात्रिक या वर्णिक रचनाओं के अभ्यासी हैं. लेकिन वर्णिक रचनाओं के कई अभ्यासी आयोजन के दौरान ही आयोजन से इतर ग़ज़लों में उलझे रहे.. :-))
आपकी रचना को प्रस्तुत हुए संशोधन से परिवर्तित कर दिया गया है.
सादर धन्यवाद
आदरणीय सौरभ भाई , त्वरित संकलन उपलब्ध कराने के लिये आपको हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय प्रथम शक्ति छंद रचना को सही देख खुशी हुई ! यद्यपि मै जानता और स्वीकार करता हूँ कि चित्र के भावों को ठीक नहीं जी पाया । आगे प्रयास करूंगा कि भावों के स्तर पर भी मंच को कुछ संतुष्टि दे पाऊँ । आपका बहुत आभार !
आदरणीय गिरिराज भण्डारीजी, आपकी सहभागिता और आपकी रचनाधर्मिता अनुकरणीय है.
सादर धन्यवाद
सभी रचनाओं को बारीकी से देखकर अशुद्धियों को लाल हरे रंग से शीघ्र ही चिन्हित करने के श्रम साध्य कार्य बिना लगन के और विद्वता के समभव नहीं हो सकता | नव छंदों से परिचय कराकर सीखने सिखाने के इस कार्य के लिए आपका जितना भी आभार व्यक्त किया जाए कम ही है | मेरी अंतिम बंद की प्रथम दो पंक्तियाँ संशोधित करने का प्रयास किया है जो अगर ठीक लगे तो संशोधित करने की कृपा करे -
मजा ले रहे आपदा आ पड़ी - खता क्या हुई आपदा आ पड़ी
सभी गाँव की जान रो पड़ी - तभी गाँव की जानकी रो पड़ी |
सादर
आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, आप जिस आवृति से रचनाकर्म करते हैं वह आपके प्रति गर्व के भाव का कारण बनाता है.
संकलन कार्य को अनुमोदित करने के लिए सादर धन्यवाद.
आपने जो संशोधन सुझाये हैं आदरणीय वे आपकी मूल पंक्तियों के दोषों का निवारण कर पाने में अक्षम हैं.
आपकी पंक्तियों में तुकान्तता का दोष है. आपकी दोनों पंक्तियों का पदान्त एक है, यानी, ’पड़ी’, जबकि समान्त शब्द भिन्न मात्रिक हैं, अर्थात क्रमशः ’आ’ और ’रो’. इस समान्तता को दुरुस्त करें हम.
सादर
तुकांतता दोष की त्रुटी सुधार के लिए क्या ये पंक्तिया यूँ संशोधित की जा सकती है -
सभी गाँव में कष्ट की ये घड़ी,
खता क्या हुई आपदा आ पड़ी |
सादर
अवश्य आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी. दोनों पंक्तियाँ सही तुकान्तता में हैं.
इन्हें आपकी रचना में जोड़ दिया गया.
सादर
सादर आभार आदरणीय
आयोजन के संकलन को देख कर अलग ही ख़ुशी की अनुभूति होती है इन्तजार भी उसी तरह होता है जैसे स्कूल में इम्तहान के परिणाम का रहता था | आपने सही कहा आदरणीय इस आयोजन में प्रतिभागियों की संख्या कम रही जब कि छंद को देखते हुए ज्यादा की अपेक्षा थी|
आपको संकलन हेतु बहुत- बहुत बधाई एवं आभार |
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