For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 58 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 20 फ़रवरी 2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 58 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.

 

इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे चौपाई और सार छन्द.

 

 

 

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

 

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

 

 

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ

******************************************************************************

१. आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी
गीत (चौपाई छंद आधारित)
=====================
आज सखी री दूल्हा गाओ
डोली आई, सेज सजाओ
 
दो दिन बाबुल के घर रहना
फिर क्या भैया, फिर क्या बहना
छोड़ दुआरा इक दिन जाना
डोली का ससुराल ठिकाना
फिर कैसा रिश्तों का बंधन
पांच आवरण तोड़े चन्दन
आँगन यूँ मत मोह जताओ
 
आया है सन्देश पिया का
तार जुड़ा है आज जिया का
दुनिया को भरमाना होगा
आज मिलन को जाना होगा
पी तो फिर ऐसे लूटेंगे
संगी साथी सब छूटेंगे
द्वार न छेको, हाथ हटाओ
 
डूब रहा है सूरज लेकिन
मन अंधियारा अब उजला दिन
सतरंगी संसार दिखाया
ये भी थी प्रियतम की माया
अब क्या हँसना, अब क्या रोना?
अब क्या मैली चादर धोना?
आज सखी बस दीप जलाओ

 

ये दुनिया का गोरखधंधा,
जितना बूझो उतना अंधा
अर्थ बताये जो इस पद का
वो भागी गुनिजन के कद का
कौन पिया हैं, किसकी डोली?
कौन भला साजन की हो ली?
बिन अंदेशा अर्थ लगाओ
**************************
२. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
सार छन्द
======
वैसे आखों से मुझको तो , लाल दिख रहा भानू
सुबह हुई या शाम ढली अब , बोलो कैसे जानू

मन कहता है धीरे धीरे , घेर रहा अँधियारा
कल फिर से सूरज आयेगा, साथ लिये उजियारा

कोई लकड़ी सजा रहा है, किसने मुँह है मोड़ा
या लकड़ी का व्यापारी है, मुझको शक है थोड़ा

मेरा दिल बोला, जैसे ही, दिन का सूरज डूबा
उसी समय ये जीने वाला, जीवन से था ऊबा

पर मन में संशय ले लाता, तनहा इसका आना
या बंदा बस्ती की खातिर, था कोई बेगाना

क्या कोई चूल्हे की खातिर, लकड़ी छाँट रहा है
ठंडा चूल्हे वालों को ये, लकड़ी बाँट रहा है

मौन सूर्य है, मौन चित्र है, मौन दिशायें सारी
मौन दृश्य का अर्थ लगाते, मेरी हिम्मत हारी
************************************
३. आदरणीया (डॉ.) प्राची सिंह जी
चौपाई छंद पर आधारित गीत

==================

नित्य समय का घूमे पहिया, संग-संग चलती ये दुनिया ।
बाँचे कौन समय की चिठिया, पल-पल छले समय का छलिया।।

ओढ़ किरण ऊषा से चलता
साँझ ढले फिर सूरज ढलता,
जीवन की भी यही कहानी
साँसे तो बस आनी जानी,
टूटी जब साँसों की डिबिया, ले जाएगा प्रियतम रसिया।
बाँचे कौन समय की चिठिया, पल-पल छले समय का छलिया।।

संचय में क्या पुण्य कमाए
या जो थे वो सभी गँवाए,
जाने कब आ जाए बारी
जाने की रखना तैयारी,
उड़ जाएगी इक दिन चिड़िया, छोड़ देह की भंगुर कुटिया।
बाँचे कौन समय की चिठिया, पल-पल छले समय का छलिया।।

फल की इच्छा पूरी तज कर
शुध्द भाव रख मन के भीतर
कर्म स्वयं हर करना होगा
खुद ही पार उतरना होगा,
बहुत हिलोरें खाए दरिया, देखूँ कैसे सँकरी पुलिया।
बाँचे कौन समय की चिठिया, पल-पल छले समय का छलिया।।
**********************
४.आदरणीय सतविंदर कुमार जी
गीत चौपाई छंद
===============

देख चला दुनिया का मेला
पकड़े अपनी राह अकेला ||

दुनिया पीछे रहती जाए
याद उसे अब कुछ ना आए
छोड़ चला यादों का मेला
पकड़े अपनी राह अकेला||

उसने अपना काम किया सब
अपना जीवन खूब जिया सब
देश-प्रेम थी जीवन बेला
पकड़े अपनी राह अकेला||

चलते-चलते बोझ लिए है
मक्कारों का बोध लिए है
अकल नहीं है जिनको धेला
पकड़े अपनी राह अकेला||

सजती है अब उसकी शैया
चलना है अब उसको भैया
छोड़ चला दुनिया का मेला
पकड़े अपनी राह अकेला ||

माना अब सूरज ढलता है
सांझ हुई वह घर चलता है
होगा दिन फिर से अलबेला
पकड़े अपनी राह अकेला||

(संशोधित) 

  

दूसरी प्रस्तुति
गीत(सार छंद)
=========

समय हुआ मिलने का उनसे प्रियवर दिल में छाए
भूली मैं सब ताना-बाना अब वे मन को भाए

चलते-चलते साँझ हुई तो थका बदन ये सारा
उस प्रियतम को ऐसे चाहूँ कोई लगे न प्यारा
उससे मिलने की ही लौ में काठ-काठ चुनवाए
भूली मैं सब ताना............

मैंने देखे खेल जगत के होली और दिवाली
रंग दीप औ जाने क्या-क्या मिलते भर-भर थाली
प्रियतम तेरा रंग न कोई फिर भी बड़ा सुहाए
भूली मैं सब...............

रोज़ सुबह ही सूरज चढ़ता साँझ हुए ढल जाता
दिन-भर चुगना कर पंछी भी लौट नीड़ को आता
सफ़र रुका थक जाने पर अब केवल चैन सुहाए
भूली मैं सब ताना..........

समय हुआ मिलने का उनसे प्रियवर दिल में छाए
भूली मैं सब ताना-बाना अब वे मन को भाए।।

*********************************

५. आदरणीय समर कबीर साहब
छन्नपकैया सारछन्द

================

छन्नपकैया छन्नपकैया,लगे चिता हो जैसे
इसके आगे समझ न पाया,समझाऊँ मैं कैसे

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,समझ न आये भैया
जाने किसके लिये बनी है लकड़ी की ये शैया

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,क़िस्मत का है फेरा
चिता बनाता हूँ लोगों की,यही काम है मेरा

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,इस से बच्चे पलते
काम मुझे करना है पूरा,दिन के ढलते ढलते

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,विपदा समझो इसकी
जाने बैचारे के घर में,मौत हुई है किसकी
***************
६. सौरभ पाण्डेय
छन्द - सार छन्द
=============
ईंट-ईंट रख भवन बनाया, गारा-मिट्टी-सानी ।
एक-एक फिर साझी लकड़ी, कह-कह दुनिया फ़ानी ॥

भोर जन्म का गीत सुना कर, अर्थ भरे जीवन में ।
ज्यों ही जीवन-रात हुई तो, खर्चा अर्जित छन में ॥

’क्या मेरा तू, क्या तेरा मैं’, प्रश्न सभी के मन का ।
माया से क्या मोह, रे पगले ! मोल देख ले तन का ??

सत्य यही जब इस जगती का, मृत्यु-जन्म को बाँधो ।
उड़ा तोड़ के हंसा बन्धन, मिट्टी है तन राँधो ॥

इस जगती का लेखा-जोखा, कारक-कर्म-कमाई,
किया-कराया, खोया-पाया, चले घाट तक भाई !!

निर्मोही निर्लोभी निर्गुन नीरस दिखता नेही ।
निरहं निष्ठुर निष्कामी नत निस्पृह निर्मम देही ॥

पहुँच घाट पर बूझे दुनिया - ’निस्सारी है जीवन’ !
शमशानी वैराग्य मगर है, क्षण भर का संचेतन !!

दूसरी प्रस्तुति

छन्द - चौपाई छन्द 

===============
जगती के आँगन में थक कर । छोड़ चला संसार का चक्कर ॥
जो आया है वो जायेगा । वर्ना जग क्या चल पायेगा ?

 

समय पूर्ण कर मानव अपना । हुआ अचानक केवल सपना ॥
धरम देह का भी होता है । फिर तू मानव क्यों रोता है ?

 

नहीं भाव से आभासित मुख । दैहिक दैविक भौतिक हर दुख ॥
पूण्य-पाप सुख-दुख से राहत । देह रहे तब तक ही आफत ॥

 

प्राण रहित यह तन साया भर । तब ही घाट लगी काया भर ॥
इस जगती की ये सच्चाई । अहंकार में समझ न आई ॥

 

लचक-लचक कर पहुँचे वाहन । लकड़ी जोड़ी बना सिंहासन ॥
नियम, क्रियाएँ, कारण कितने । हर मज़हब के कारक जितने ॥

 

भोर-साँझ के चक्कर पाके । टुकुर-टुकुर सूरज भी ताके ॥
सूक्ष्म तरंगें व्याप गयी हैं । परिणतियाँ पर कहाँ नयी हैं ?

 

मिट्टी में मिट्टी का दलना । और भला क्या तन का जलना ?
मूल अर्थ को यदि जानोगे । माया नश्वर है मानोगे ॥

***************************
७. भाई पंकज कुमार मिश्रा ’वात्स्यायन’ जी
चौपाई
========
जल धारा अविरल बहने दो, दोनों घाट अलग रहने दो।
मिलन किनारों का है असम्भव, सृजन नहीं फिर होगा सम्भव।।

 

शांत धड़कनें जम गयी साँस, होता नहीं है कुछ अहसास।
कुछ तो करो व्यवस्था तगड़ी, चिता सजाओ लाओ लकड़ी।।

 

वस्त्र बदलना है मज़बूरी, प्रियम से मिलना है ज़रूरी।।
अँधेरा अब दूर भगाओ, करो उजाला आग जलाओ।।

 

जीवन की है यही कहानी, मृत्यु एक दिन सबको आनी।
कौन है राजा कौन प्रजा है, ज़रा बताओ कौन बचा है।।

 

छवि में ढ़लता सूरज कहता, जो भी जन्मा इक दिन मरता।
किसकी ख़ातिर रोना धोना, मित्र सजाओ अग्नि बिछौना।।

 

दूसरी प्रस्तुति

चौपाई 
=====
माटी से अब नाता तोड़ा, इस जग से अब मुख है मोड़ा।
साँस की लड़ियों को तोड़कर, कौन चला है धरा छोड़कर।।

 

सूरज की लाली मद्धिम है, खोने लगा रंग रक्तिम है।।
मृदा मृदा को आज मिला दें, लकड़ी और तन साथ जला दें।।

 

नदिया चली सगर में घुलनें, प्राण चला प्रियतम से मिलनें।।
गाओ गीत विदाई वाला, पल है आज रिहाई वाला।।

 

आना जाना निश्चित गति है, जीवन की ये ही पद्धति है।।
निर्मोही से मोह करो मत, दुःख का कोई बोझ धरो मत।।

 

नील गगन में विचर रहा हूँ, लगता है मैं निखर रहा हूँ।।
अद्भुत सा ये लोक सुहाना, आहा! मन तो हुआ दिवाना।।

 

शीतल मन्द वायु है गाती, मधुर मधुर सा गीत सुनाती।
बादल का तल धवल सलोना, किस अंशु से हुआ है सोना।।

 

अरे! तेज उजियारा कैसा, प्रिय का रूप भला है कैसा।
मात्र रश्मियाँ पुञ्ज निराला, तो; ऐसा है ऊपर वाला।।

 

थका हूँ मैं, आराम मुझे दो, अंक में लो विश्राम मुझे दो।
अब की कहीं नहीं जाऊँगा, तुमको छोड़ नहीं पाऊँगा।।

 

"मैं" का हर इक भाव हटा दो, प्रियतम मेरी प्यास मिटा दो।
इस "मैं" को अब रिक्त करो तो,जन्म-मृत्यु से मुक्त करो तो।।
*****************
८. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
गीत [सार छंद ]

============

शाम हुई रवि घर को जाता ,तन तज मानव जाता
जाते मानव को रवि देखो ,बातें कुछ समझाता 

तम से दिन भर लड़ता हूँ मै ,जीवन तुझे थकाये
हुई शाम चल अब हम दोनों ,अपने घर हो आयें
थकन मिटेगी वसन नया वो ,देंगे तुझे विधाता
जाते मानव ......................................

 

कल दोनों वापस आयेंगे ,अभी पड़ेगा जाना
मै भी नयी किरण ओढूंगा ,वसन बदल तू आना
अपना काम आज का पूरा ,कल फिर दूजा खाता
जाते मानव .....

 

ये अपने आने जाने का ,उसने खेल रचाया
शाम समेटूँ किरणें सारी ,तू तजता है काया
अब सहेज कर्मों का थैला ,वो ही साथ निभाता
जाते मानव ......

 

अपने यहाँ अस्त होने से ,नहीं रुकेगा मेला
हर पल हर दम सतत चलेगा ,जीवन का ये खेला
लौट रहे जो साथ चले थे ,बस इतना था नाता
जाते मानव को रवि देखो , बातें कुछ समझाता
**********************
९. आदरणीय तस्दीक अहमद खान भाई
सार छंद

========

छन्न पकैया छन्न पकैया जग से तोड़े नाता /
पाप पुण्य का खुल जाता है जिसका ऊपर खाता /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया क्यों इतना इतराये /
हर कोई ख़ाली आया है ख़ाली जग से जाये /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया पहले कर तैयारी /
किसे खबर है कब आजाये प्यारे तेरी बारी /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया चिता यही समझाये /

मिट्टी का यह इन्सां इक दिन मिट्टी में मिल जाये /  ... संशोधित

 

छन्न पकैया छन्न पकैया सूरज देखे मन्ज़र
चिता बनाये देखो कोई इक इक लकड़ी चुन कर...   संशोधित

 

छन्न पकैया छन्न पकैया सब को इक दिन जाना /....... संशोधित

सिर्फ मुसाफ़िर है हर कोई जहाँ मुसाफिरखाना /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया रहलत से सब डरते /
चिता जले जिसदम सम्बन्धी याद राम को करते /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया यह है सब की मंज़िल / ..... संशोधित 

हासिल इसको आज हुई कल होगी उसको हासिल /

 

छन्न पकैया छन्न पकैया देश हुआ बेगाना /
उड़जा पंछी उड़जा पंछी तेरा छुटा ठिकाना /
***********************************
१०. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळे जी
सार छंद.
======
एक-एक कर सूरज ढलते, फ़ैल रहा अँधियारा |
कोई अपने पथ पर चलता , कोई जीवन हारा ||

लाल हुई हैं नभ की आँखें, देख शहादत कोई |
खोकर अपना लाल लग रहा, धरती भी है रोई ||

चढ़ा रहा यह काठ-काठ पर, सेवक कोई सच्चा |
वही जानता जाने वाला, बूढा था या बच्चा ||

दूर वहां इक छोटा घर है, जैसे नाव खडी है |
एक मनुज पर चिता सजाता, कैसी करुण घडी है ||

सूरज भी है थमा-थमा सा, जैसे दी हो हामी |
दाहकर्म तक खडा रहूंगा, दक्षिण अंचल गामी ||
******************
११. आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
गीत (चौपाई छंद )

============

एकाकी कर मुझको छोड़ा I सुत तुमने भी नाता तोड़ा II


मैं रोऊँ सिर धुन पछिताऊं
या फिर तेरी चिता सजाऊँ
कैसे मैं मन को समझाऊँ
थका भानु कहता है –‘जाऊं’
नव संबंध स्वर्ग से जोड़ा I करते मोह पिता से थोडा II

एकाकी कर --------------

 

डूब रही पश्चिम में लाली
घनी सांझ मावस की काली
डसती है मुझको बन व्याली
यह अंतिम लकड़ी भी डाली
सुत ने जब-जब यूँ मुख मोड़ा I दग्ध पिता ने जल-घट फोड़ा II
एकाकी कर ----------------

 

रंग हुआ सब बासी फीका

पालन है बस परिपाटी का
दिनकर दिव्य विदा का टीका
यही नियति है इस माटी का
काल-पाश या यम का कोड़ा I नहीं बनूंगा पथ का रोड़ा II
एकाकी कर -----------------
**********************
१२. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
अंतिम यात्रा // छन्द - चौपाई

जीव मौत से क्या जूझेगा, जीवन का सूरज डूबेगा॥
काम दवा न दुवा आएगी। मुक्ति योनि से मिल जाएगी॥

कांधे पर लेकर जायेंगे। मुक्ति धाम तक पहुँचायेंगे॥
मरने पर तारीफ करेंगे। राम नाम को सत्य कहेंगे॥

इक लकड़ी पर एक सजाकर। पार्थिव तन को बीच सुलाकर॥
उसे जलाकर राख करेंगे। मित्र करीबी आह भरेंगे॥

मार्ग मगर आगे अनजाना। परम पिया से मिलने जाना॥
घोड़ा नहीं न हाथी कोई। संबंधी ना साथी कोई॥

स्वर्ग पुण्य से मिल जाएगा। पाप नरक में पहुँचाएगा॥
किंतु भक्ति से पिया मिलेंगे। कब तक आखिर वो रूठेंगे॥ .........

नैहर छोड़ पिया घर जाना। प्रभु से रिश्ता बहुत पुराना॥
बिदा सभी को जग से होना। कुछ दिन होगा रोना धोना॥

मुक्ति न हो तो जीव बेचारा। जग में लेगा जनम दुबारा॥
तन पशु या मनु का पाएगा। वही चक्र फिर दुहराएगा॥
***************************
१३. आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी
[सार छंद]

========

जन-गण-मन घबराये भैया, लोकतंत्र संदेशा,
नचते देखो नेता दैया, संकट का अंदेशा।

 

जन-गण-मन घबराये भैया, मिटता अब लोकतंत्र,
डूबती लगे अपनी नैया, दुश्मन का मोह-मंत्र।

 

जन-गण-मन घबराये भैया, लकड़ी कौन जमाता,
अंतिम संस्कार करे किसका, कौन धमकियाँ देता।

जन-गण-मन घबराये भैया, क्या यह चित्र दिखाता?
संविधान-धारा रख-रखकर, दाग सभी को देता!

  

जन-गण-मन घबराये भैया, कौन यह गिरोह-भक्त?
सुबह-शाम तबाही मचाकर, सता रहा द्रोह-भक्त।

 

जन-गण-मन घबराये भैया, कौन यहाँ देशभक्त,
सुबह-शाम बुराई जलाकर, कर्म करे युक्तियुक्त।

  

[दूसरी प्रस्तुति]

चौपाई-छंद :-
========
चित्रकार करे चित्रकारी, मानव ,सूरज, लकड़ी भारी।।
लाल, स्याह, काले रंगों से, जीवन-दर्शन सहज परोसे।।

 

नाव डूब रही वहां दिखती, सीख हमें उससे भी मिलती।।
अपनी नैया का खेवैैया, मानव खुद होता है भैया।।

 

काला रंग शोक बतलाता, सूरज दिनचर्या सिखलाता।।
लकड़ी अभी जमा हो तत्पर, है अंतिम रस्म नदी तट पर।।

 

उगता सूरज सबको भाये, डूब रहा सिर्फ़ 'एक' पाये।।
चिता सजाकर दाग लगाये, अपनापन भरपूर जताये।।

  

अपसंस्कृति का ढेर लगाकर, चिता आज यहाँ पर सजाकर।।
ख़ुद ही उसमें आग लगाकर, भारत का तू अभी भला कर।।
********************
१४. आदरणीय सचिन देव जी
चौपाई छंद
==========
बाँध रखा है सर पर कपड़ा II हाथों से लकड़ी को पकड़ा
ये लकड़ी के ढेर लगाता II लगे किसी की चिता सजाता

है कोई लकड़ी के नीचे II शान्त पड़ा आँखों को मीचे
जरा देर बस जल जायेगा II सूरज फिर इक ढल जायेगा

थमी हुई है जीवन-धारा II मिला देह को नदी किनारा
ढेर राख का रह जायेगा II गंगा जी में बह जायेगा

बड़ा कठिन ये नियम बनाया II बाप जिसे धरती पे लाया
अंत समय देखो जब आया II उस बेटे ने दाग लगाया

चित्र हमें ये ही बतलाता II हर सूरज इक दिन ढल जाता
जैसे तय सूरज ढल जाना II वैसे तय मानव का जाना
***************************
१५. आदरणीया कान्ता राय जी
छन्न पकैया / सारछंद

=================

छन्न पकैया छन्न पकैया, भयी साँझ की बेला
अपनी अपनी गठरी बाँधो ,खतम हुआ सब खेला 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,क्युँ ये चिता सजाई
डूब रहा दुनिया का सूरज ,कैसी आग लगाई

 

छन्न पकैया छन्न पकैया , वो स्वर्णिम सवेरा
आकुल मन की डोरी टूटी , क्षण भर रहा बसेरा

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,अपने आज पराये
बाट - घाट के साथी छूटे , पंछी घर को आये

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,शीतल कंचन काया
चंचल चितवन झिलमिल आँखें , भाव हीन हो आया

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, जल - थल पानी - पानी
सागर ने अब चुप्पी ओढी , बेकल नदी दिवानी

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,चंदन की ये काठी
आज जलाकर खाक करेगी ,यह बाबा की लाठी

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,वो था उडता बादल
संग उसके ऐसे उड़ गई , मै भी कितनी पागल

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, विधवा क्या करेगी
एक मुश्त में छाई (राख) बनेगी ,या किस्त में जलेगी

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,सूनी दिल की बस्ती
दुःख देकर क्युँ जनम जनम का, डूब गया वह कस्ती
**********************
१६. आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय जी
एक प्रयास [ गीत चौपाई छन्द आधारित ]

======================

प्रभु इक दिन दो छुट्टी वाला
मै हूँ मसान का रखवाला

सूरज चाहे घर को जाये
जाड़ा कितना हाड़ दुखाये
दिन रात गुजारूँ इस दर पर
सब भूले हैं मुझको घर पर
सन्नाटों से मेरी यारी
नहीं रुदन लगे कोई भारी
नहीं डरा सके चिता ज्वाला
मै हूँ मसान का रखवाला

 

पर आज लगे क्यों मन बोझिल
क्यों उसे देख भर आया दिल
सजा रहा वो चिता अकेला
खुद लाया लकड़ी का ठेला
ऐसा क्या कुछ काम पड़ा है
क्यों ना कोई साथ खड़ा है
छलक उठा है मन का प्याला
मै हूँ मसान का रखवाला
***********************

Views: 4157

Replies to This Discussion

आदरणीय सौरभ सर, "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 58 की सफलता हेतु हार्दिक बधाई एवं त्वरित संकलन हेतु हार्दिक आभार आपका. 

हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय मिथिलेश भाई. आपकी संलग्नता और आपकी प्रस्तुति, दोनों ने आयोजन को ऊर्जावान रखा. बहुत इनों बाद इस मंच पर छन्दोत्सव का कोई आयोजन रचनाकारों और पाठकों कों एक साथ संतुष्ट करता दिखा. आपके प्रयासों के लिए हार्दिक धन्यवाद.

शुभ-शुभ

श्रद्धेय सौरभ सर सफल आयोजन एवम् त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत हार्दिक आभार एवम् बधाई।

हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सतविन्दर जी, इस आयोजन में आपकी सहभागिता और उन्नत प्रस्तुतियाँ याद रहेंगीं. 

शुभ-शुभ

आपके स्नेहाशीष के लिए कोटि कोटि आभार।प्रयास को प्रोत्साहन मिला मैं अभिभूत हूँ।
सादर वन्दन!
जय जय
श्रद्धेय सर
सादर वन्दे!
संशोधन निवेदन प्रेषित हैं
१.
क्रम 4 पर चौपाई गीत प्रस्तुति में
प्रथम हरी पंक्ति को
छोड़ चला दुनिया का मेला

एवम् द्वितीय हरी पंक्ति को

देश-प्रेम थी जीवन बेला
एक अन्य पंक्ति में भी //छौड़// शब्द को छोड़

से प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें।



सार छंद आधारित गीत को पूरा इस प्रकार से संशोधित है कृपया प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें।

समय हुआ मिलने का उनसे प्रियवर दिल में छाए
भूली मैं सब ताना-बाना अब वे मन को भाए

चलते-चलते साँझ हुई तो थका बदन ये सारा
उस प्रियतम को ऐसे चाहूँ कोई लगे न प्यारा
उससे मिलने की ही लौ में काठ-काठ चुनवाए
भूली मैं सब ताना............

मैंने देखे खेल जगत के होली और दिवाली
रंग दीप औ जाने क्या-क्या मिलते भर-भर थाली
प्रियतम तेरा रंग न कोई फिर भी बड़ा सुहाए
भूली मैं सब...............

रोज़ सुबह ही सूरज चढ़ता साँझ हुए ढल जाता
दिन-भर चुगना कर पंछी भी लौट नीड़ को आता
सफ़र रुका थक जाने पर अब केवल चैन सुहाए
भूली मैं सब ताना..........

समय हुआ मिलने का उनसे प्रियवर दिल में छाए
भूली मैं सब ताना-बाना अब वे मन को भाए।।

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित .. 

शुभेच्छाएँ 

हृदयतल से आभार श्रद्धेय सौरभ सर सादर नमन।
क्या मेरा तू, क्या तेरा मैं’, प्रश्न सभी के मन का ।
माया से क्या मोह, रे पगले ! मोल देख ले तन का ??
.....बहुत सुंदर वाह्ह

सत्य यही जब इस जगती का, मृत्यु-जन्म को बाँधो ।
उड़ा तोड़ के हंसा बन्धन, मिट्टी है तन राँधो ॥
......रूपक से अलंकृत जीवन की सच्चाई


इस जगती का लेखा-जोखा, कारक-कर्म-कमाई,
किया-कराया, खोया-पाया, चले घाट तक भाई !!

.....भावों को अनुप्रास से अलंकृत कर बेहतरीन रचनाकर्म

निर्मोही निर्लोभी निर्गुन नीरस दिखता नेही ।
निरहं निष्ठुर निष्कामी नत निस्पृह निर्मम देही ॥
.......यहाँ तो रोमांच की पराकाष्ठा पर पहुँच गया पढ़ते-पढ़ते
कई-कई बार पढ़ने पर भी पढ़ने की तृष्णा शांत नहीं हो रही।
निस्संदेह यह संकलन मेरे द्वारा इन उत्कृष्ट रचनाओं के कारण बार-बार पढ़ा जाएगा।

सादर नमन श्रद्धेय सौरभ सर।

सभी आदरणीय प्रतिभागी रचनाकारों को भी हार्दिक बधाई एवम् सादर नमन!

मोहतरम जनाब सौरभ साहिब ,   ओ बी ओ चित्र से काव्य तक अंक 58 की कामयाबी के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं / टाइप मिस्टेक की वजह से इक का एक होने से कई मिसरे हरे हो गए /  महरबानी करके निम्न संशोधन करने की कृपा करें / शेर नंबर 4 (सानी ). , नंबर 5 (सानी ),नंबर 6 (ऊला ), नंबर 8 (ऊला )....

मिट्टी का यह इन्सां इक दिन मिट्टी में मिल जाये /

चिता बनाये देखो कोई इक इक लकड़ी चुन कर

/

छन्न पकैया छन्न पकैया सब को इक दिन जाना /

छन्न पकैया छन्न पकैया यह है सब की मंज़िल /

बहुत बहुत शुक्रिया। ...........

आदरणीय तस्दीक अहमद सहब, आपकी सहभागिता के लिए दिली शुक्रिया. 

आपके निवेदन के अनुसार पंक्तियों को सश्शोधित कर दिया गया है. 

शुभ-शुभ

आ ० सौरभ जी ---------

विमुग्धकारी गतिशीलता यही 
हुयी शुभांगी कमनीयता अभी 
अहो सुधा सौरभ राशि निर्झरी 
प्रमत्त होते दिखते यहाँ सभी ----------सादर .

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service