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गतांक से आगे......भाग.2......मनुष्य को यदि चैतीस अक्षरों का ज्ञान है तो उसे यह समझना चाहिए कि उसे सारे वेदों और शास्त्रों आदि का ज्ञान हो चुका है। यहां एक तथ्य स्पष्ट है कि वेद, पुराणों, शास्त्रों आदि में जैसा लिखा है वैसा ही प्रमाणित नही हो पाता है, इसलिए भी मनुष्य का विवेक ही सर्वश्रेष्ठ है। यहां चैतीस अक्षरों में वर्ण, भाषा, लिपि एवं शास्त्रों आदि की उपेक्षा का भाव नही है क्योंकि सद्ग्रंथों में भी अंध प्रमाणों अथवा परख के बिना व्यवहार करने के लिए निषेध किया गया है। क्योंकि यह मानना है कि सत्ता केवल एक तत्व की है, सत्य नहीं है। जड़ - चेतन अलग अलग हैं। जड़ में अनेक तत्व होते है तथा एक एक तत्व में असंख्य कण हैं और इसी प्रकार चेतन भी असंख्य कण हैं। इन दोनों से अलग यह मानना कि इस जड़-चेतन के उपर भी कोई दूसरी सत्ता अथवा कर्ता ही ईश्वर है। जिसके द्वारा उत्पत्ति, प्रलय, और रात-दिन आदि होते हैं, तो यह भी सच नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि जड़-चेतन अपने अन्र्तनिहित गुण धर्मों से स्वतः सम्पन्न हैं क्योकि चार युगों से चारों वेद पढ़-पढ़ कर कर्मकाण्डों का प्रचार किया फिर भी उनकी मुक्ति नहीं हो पाई और वे आज भी पंडिताई ’ज्ञानी’ का दंभ, मोह और अहंकार में फंसे अज्ञानी की रस्सी में बंधे हुए है। ऐसा कबीर दास जी ने स्वयं बीजक में उल्लेख किया है-‘‘जड़-चेतन का कर्मफल गर्व प्रहरी है, वह किसी के भी कर्मो का फल तत्काल उसे वापस कर देता है।‘‘

                   एक ही तत्व की सत्ता मानना सच्चा ज्ञान नहीं है। अतएव इस प्रतीतमान जगत के उपर कोई दूसरा कर्ता-धर्ता को मानना एक अनुमान मात्र ही है ना कि पूर्ण वास्तविक जानकारी। तीसरे प्रकार के ज्ञानी जगत को त्रिगुणात्मक गुण, आदि-दैविक- भौतिक अथवा सत, रज या तमगुण को ही सत्य मान लेने से अपने ज्ञान पर अज्ञानता का पर्दा डाल लेते हैं। चौथे प्रकार के ज्ञानी चतुष्टय अन्तःकरण को मानते हैं- अथ 1-मन, 2-बुध्दि, 3-चित्त और 4-अहंकार है। इस प्रकार जो अहंकार में प्रवृत्त होकर उसे श्रेष्ठ मान लेता है, उसका भी पतन ही होता है। पांचवे प्रकार का ज्ञानी पांच विषयों व पांच कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रियां आदि है। जो इनमें आसक्त होता है, वह माया-मोह सम्बंधो आदि के बंधनों में पड़ जाता है। छठे प्रकार के ज्ञानी तो मन को अधिकृत करते हैं। और उसी में नाना प्रकार की कल्पनाएं इच्छाएं आदि रचते-रचते स्वयं खो जाते है। सातवें प्रकार का ज्ञानी जीव के स्वरूप को, व्यवस्था को और सत्ता को ही समझना चाहता है तथा उसे लोक और वेद दोनों प्रभावों से देखा व समझा जा सकता है-‘‘बीजक वित बतावै, जो बित गुप्ता होय। ऐसे ’शब्द’ बतावै जीव की, बूझै बिरला कोय।।‘‘


                  इन सभी से अलग बीजक में कबीर दास जी एक ऐसा ’शब्द’ बताते हैं कि पूर्णरूपेण गुप्त रूप में पूरे शरीर में विद्यमान रहकर श्वांस-श्वांस अनहद करता है। इसे कोई-कोई अथवा बिड़ला ज्ञानी ही समझ पाता है। इसी ’शब्द’ को कबीर दास जी ने स्पष्ट रूप में ’राम’ उच्चरित किया है-एक प्रकार से श्वांस की धुन। इसके बिना हम सभी मृतप्राय अथवा अभागी हैं।


                 विभिन्न मतों के गुरूओं ने भी प्रायः यही बताया है कि मनुष्य का प्राप्तव्य परमात्मा, मोक्ष एवं आलौकिक आनन्द अनन्त सुखादि उससे अलग कही बाहर छिपा हुआ है, जिसे पाना है। यही मत पुराकाल से ही गुरू-शिष्य के द्वारा क्रमशः चला आ रहा है। वास्तव में जीव स्वरूप-संतोष, आत्म-संतोष में ही सुखानुभूति है, परमात्मा मोक्ष, परमानन्द, चिन्मयानन्द आदि आत्मतृप्ति में ही है। यदि जीव ऐसा दृढ़ निश्चय कर ले तो वह स्वतः मुक्ति और परमानन्द की प्राप्ति कर लेता है-‘‘गुरू द्रोही मन्मुखी, नारी पुरूष विचार। ते नर चौरासी भरमिहैं, ज्यों तौ चन्द्र दिवाकर।।‘‘


                कबीर दास जी ने यहां जगतगुरू को गुरू नहीं बताया है बल्कि गुरू का आशय सद्गुरू से है। जो जीव के अन्तर्मन में ही गुप्त रूप से रहकर स्वयं का निरीक्षण करता रहता है और सदैव ही हितकर बातों की ओर उत्साहित करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा की बात को नहीं मानता है, उसे वह धिक्कारता है। तो वह निश्चय ही शरीर रूपी नरक में निरन्तर भटकता रहता है। अर्थात मर्यादा-विहीन, अनुशासनहीन एवं उन्मादी आदमी जब तक अपना सुधार नही करेगा, तब तक वह भटकता ही रहेगा।


               ‘‘जाकर नाम अकहुवा रे भाई‘‘ यह ऐसा नाम सार है, रस है, भाव है कि उसका नाम अकथ है, अवर्णनीय है व अभज है। जो मन-वाणी से परे है, तो उसका गुणगान किस प्रकार कर सकते हैं। ज्ञानी, विवेकीजन उसका आषय इस तरह से समझाते है कि जैसे मनुश्य जहाज पर बैठ कर गहन और अथाह सागर पार कर लेता है। उसी प्रकार ज्ञानी-विवेकीजन इस शरीर रूपी जहाज में बैठकर संसार सागर में अथाह और गहन भव से पार हो जाता है। जिस प्रकार मनुष्य केवल जहाज पर मात्र बैठा ही रहता है, फिर भी वह निरन्तर अपने गंतव्य लक्ष्य की ओर अग्रसर होता चला जाता है और अन्ततः अपने लक्ष्य, मंजिल को प्राप्त कर लेता है। ठीक इसी प्रकार जीव स्वरूप स्थिति की बात भी बिलकुल ऐसी ही है। जीव शरीर बाहर से देखने पर तो क्रिया हीन लगता है लेकिन वह मानो बहुत तीव्र गतिशील भी है। बाल-कुमार-युवा-वृध्द गतिरोध के बिना ही पल-पल, क्षण-क्षण निरन्तर अपने मंजिल लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जा रहा है। ऐसी स्थिति में किसी भी साधक को ज्यादा दिखावा, आडम्बर, अहंकार की जरूरत नही है। बल्कि साधक अपना मन स्थिर रखे और अपने प्राप्तव्य का ध्यान करें। जहाज तो स्वयं ही बढ़ता जा रहा है और ‘‘बहु बोलन निरूवार।‘‘ अर्थात अधिक कुछ नहीं कहना चाहिए क्योंकि शब्द तो निरर्थक है। कहने का तात्पर्य है कि जहां शरीर आसक्त होता है, मन आसक्ति के कारण ही वहीं चला जाता है तथा जहां मन की आसक्ति होती है वहीं शरीर चला जाता है। इसे समझकर जब साधक ंशरीर और मन को अपने वश में कर लेता है, तब वह ’हंस’ कहलाता है। अर्थात जो साधक स्वयं को जड़ वर्ग शरीर से अलग गति को समझकर स्थित हो जाता है- वही हंस की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।


                  जिस परमतत्व को पाने के लिए लोकधारणानुसार शिवजी ने अपने अंगों पर राख मल रखी है, वे आज भी परम वियोगी ही है। जिस शेषनाग ने अपने हजार मुखों से उस नाम का गुणगान करते हैं परन्तु उसका पार नही पाते हैं। इसी कुल मालिक को आज के गुरू डंके की चोट पर सही-सही समझाने और दिखलाने का वादा करते है, कहां तक सच है-अपने विवेक से परखना चाहिए। ‘‘कहहि कवीर पुकारि के, सबका उहै विकार। कहा हमार माने नहीं, कैसे छूटे भ्रम जार।।‘‘ जैसाकि प्रस्तुत दोहे से स्पष्ट है कि जब वही विवेक अर्थात सदगुरू सभी के अन्दर सन्निहित है, विचारवान है-बस यही विवेक ही भगवान के दर्शन करा देता है। अर्थात मन-बुध्दि से जितने भी दर्शन होते हैं, जड़भास अध्यास ही है। माया के छल रूप हैं। अतएव साधक को चाहिए िकवह अपनी सारी वासनाएं त्यागकर निजस्वरूप में स्थित हो जाए। इस जीव का ध्येय कुछ पाना अथवा देखना नहीं है बल्कि स्वयं को आत्मबोध बनाना है। जैसे मनुष्य स्वप्न में द्वन्द ग्रसित होकर कौआते अध्र्द चेतना में भी बोलना, दृश्य देखना आदि उंटपटांग बकता व देखता, सुनता, गुनता है और चेतना में आते ही सब अदृश्य हो जाता है, झूठा हो जाता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य इस संसार में आकर स्वप्निल माया में भटकता हुआ व्यर्थ में जीवन गवां देतें हैं। कहने का तात्पर्य है कि मन की अवधारणाओं से परे हट कर स्वयं के विवेक को जानें, समझें और तद्नुसार सद्व्यवहार करें। यह इसलिए भी कि दृश्यमान सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड इस शरीर रूपी पिण्ड में ही समाया हुआ है-यह अनमोल है, इसे यूं ही मत खोने दें, जीवन का सार समझे। सादर,


!!! समाप्त !!!
के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित

    

 

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