Posted on January 1, 2020 at 9:00pm — 7 Comments
कहने को मजदूर पर, नहीं आज मजबूर।
अपनी ताकत से सदा, करे दुखों को दूर।।
काम करे डटकर सदा, नहीं कभी आराम।
इसके श्रम से ही बने, महल अटारी धाम
जंगल या तालाब हो, रुके न फिर भी पाँव।
करता श्रम दिन-रात वो, देखे धूप न छाँव।।
कंकड़ पत्थर जोड़कर, देता उसको रूप।
निज तन चिंता छोड़कर, खाता दिन भर धूप।।
राह बनाता वो यहाँ, दुष्कर गिरि को काट।
अपने भुजबल से करे, सुंदर सरल ये बाट।।
मन निर्मल है तन कड़ा, लौह बना है…
ContinuePosted on November 3, 2019 at 4:11pm — 7 Comments
यारो! किस ये राह पर, चला आज इंसान
वृक्ष हीन धरती किया, कहा इसे विज्ञान
कहा इसे विज्ञान, नहीं कुछ ज्ञान लगाया
सूखा बाढ़ अकाल, मूढ़ क्यूँ समझ न पाया
कह विवेक कविराय, नहीं खुद को यूँ मारो
निशदिन बढ़ता ताप, इसे अब समझो यारो।।1
अभिलाषा प्रारम्भ है, मृगतृष्णा का यार
अंधी दौड़ विकास की, हुई जगत पे भार
हुई जगत पे भार, मस्त फिर भी है मानव
हर कोई है त्रस्त, विकास लगे अब दानव
कह विवेक कविराय, प्रकृति की समझो भाषा
पर्वत नदियाँ झील, नष्ट करती…
Posted on June 15, 2019 at 9:46am
आल्हा छंद (16, 15 अंत में गुरु लघु)
लोकतंत्र के महापर्व में, हुए सभी नेता तैयार
शब्द बाण से वार करें वे, छोड़ छाड़ के शिष्टाचार।।
युध्द भूमि सा लगता भारत, जहाँ मचा है हाहाकार
येन केन पाने को सत्ता, अपशब्दों की हो बौछार।।
खून करें वे लोकतंत्र का, जुमले हैं इनके हथियार
हित जनता का भूल गए वे, ऐसा इनका है आचार
हे जन मन तुम जाग उठो अब, व्यर्थ न जाये यह त्योहार
ऐसा कुछ इस बार करो तुम, राजनीति बदले आकार ।।
रंग बराबर बदलें ऐसे,…
ContinuePosted on April 13, 2019 at 8:27am — 6 Comments
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